प्रश्नकर्ता: सर, जो अकर्ताभाव आपने बताया था उस दिन, वो क्या है क्योंकि एक तरफ तो लोग बहुत मेहनत कर रहे हैं, पढ़ रहे हैं, आगे बढ़ रहे हैं और दूसरी तरफ यह बात है जो कृष्ण जी ने कही थी कि, "तुम बाण नहीं चला रहे, मैं ही चला रहा हूँ अर्थात सब मैं ही कर रहा हूँ।"
आचार्य प्रशांत: अकर्ताभाव दो तलों पर होता है।
अकर्ताभाव का अर्थ यह नहीं होता कि, "मैं कर नहीं रहा हूँ और करने वाला कोई और है", वास्तव में अकर्ताभाव का अर्थ होता है कि, "मैं हूँ ही नहीं।"
मैं हूँ ही नहीं — इसको दो तलों पर समझिएगा। अगर मैं अपनी आदतों और संस्कारों के वशीभूत कुछ कर रहा हूँ तो करने वाला कौन है?
प्र: आदतें और संस्कार ही कर रहे हैं।
आचार्य: तो मैं हूँ ही नहीं। जैसे रात में कोई आदमी चल रहा हो और उसको नींद में चलने की बीमारी हो तो क्या उसे हक़ है ये कहने का कि, "मैं चल रहा हूँ"? कौन चल रहा है? उसकी आदतें चल रही हैं। तो मैं हूँ हीं नहीं अगर मैं आदतों पर चल रहा हूँ। कर्ता कौन हुआ? आदत।
दूसरी ओर अगर अकारण बोध के द्वारा काम हो रहे हैं, जो पता नहीं कहाँ से आता है, जो मेरी परिस्तिथियों से जनित नहीं है, जो मेरे ज्ञान से भी नहीं आया है और जिसका मेरे अनुभव से भी कोई लेना-देना नहीं है, बस वो यूँ ही अचानक कहीं से आ गया है। उस बोध से कुछ काम हो रहे हैं तो भी उन कामों को करने वाला कौन है?
प्र: बोध।
आचार्य: बोध। मैं तो किसी भी स्तिथि में कर्ता नहीं हुआ न।
कृष्ण इस स्तिथि को ऐसे कहेंगे कि, जब बोध के द्वारा काम हो रहा है तो करने वाले कृष्ण होंगे क्योंकि कृष्ण बोधस्वरूप हैं, और जब आदतों, संस्कारों और परिस्तिथियों के द्वारा काम हो रहा है तो करने वाली माया हुई; और माया भी कृष्ण की। तो दोनों ही स्तिथियों में कर्ता कौन हुआ?
प्र: कृष्ण।
आचार्य: कभी सीधे और कभी माया के माध्यम से, पर ‘तुम’ तो कभी नहीं हुए करने वाले। तुम्हें भूख उठे और तुम खाने की तरफ चल दो तो कर्ता कौन हुआ?
प्र: भूख।
आचार्य: भूख को तुमने तो नहीं आमंत्रित किया था।
संस्कारों का एक पिंड है शरीर, वो चल दिया; संस्कार चल दिए खाने की तरफ। तुम तो कर्ता नहीं हुए, और तभी तुम्हें अचानक स्पष्ट हो जाए कि, "नहीं, खाना उचित नहीं, कुछ और है जो कई अधिक महत्वपूर्ण है।" और तुममें ऐसा कुछ भी नहीं है जो पहले से संस्कारित हो ऐसा सोचने के लिए, तुम्हें कभी इसकी शिक्षा भी नहीं मिली है। अचानक अदभुत, अनूठा तुमने ये निर्णय कर लिया कि अभी खाना नहीं खाना है, तो निश्चित रूप से ये निर्णय तुम्हारा तो नहीं है क्योंकि ये तुम्हारे शरीर से नहीं आ रहा और ये तुम्हारे मन की धारणाओं से भी नहीं आ रहा। तुम्हारे मन में कोई ऐसा पूर्वनियोजित विचार नहीं था जिससे तुम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते कि अभी तुम्हें खाना नहीं खाना है।
ये तो कहीं और से ही आया है। ये तुम्हारी अपनी धारणा नहीं हो सकती। ये तो कहीं और से आई प्रेरणा है। तो इसको भी तुम अपना निर्णय नहीं कह सकते।
जब तुम चल दिए खाने की ओर उसको तुम अपना निर्णय नहीं कह सकते। और जब तुम्हारे कदम थम गए कि, "अभी नहीं खाऊँगा", उसको भी तुम अपना निर्णय नहीं कह सकते। तो कर्ताभाव मूलतः एक झूठ है। तुम दोनों ही स्तिथियों में जो कर रहे हो वो तुम्हारे द्वारा हो ही नहीं रहा और कोई ध्यान से देखेगा तो ये कहेगा कि कर्ताभाव ही नहीं कर्ता ही झूठ है क्योंकि करने वाला कोई है ही नहीं।
जो अपने-आप को समझ रहा है कि, "मैं हूँ करने वाला!" वो असल में है ही नहीं। करने वाला या तो सत्य है या संस्कार, या तो कृष्ण या तो माया। तुम हो कहाँ? अब फिर उसमें बात ये आती है कि उचित क्या है फिर?
किसके लिए उचित? जब तक आप ये सोचते रहेंगे कि आपके लिए उचित क्या है तब तक प्रश्न ही नाजायज़ है क्योंकि आप ये मान कर चल रहे हैं कि आपको करना है। उचित सिर्फ एक बात है कि इस बोध में जिया जाए कि, "मैं कर्ता हूँ ही नहीं।"
उचित कर्म क्या है?
ये सवाल ही अवैध है। एक ही सवाल वैध है कि, "उचित कर्ता कौन है?" उचित कर्म क्या है इसका निर्धारण तो कर्ता कर देगा। एक बार ये तय हो गया कि कर्ता कौन है तो फिर उचित कर्म का निर्धारण अपने आप हो जाएगा। पर हम कभी ये सवाल नहीं पूछते हैं कि, "कर्ता कौन?" हम सवाल लेकर भी आते हैं तो ये लेकर आतें है कि, "बताइए करूँ क्या? बताइए उचित कर्म क्या है मेरे लिए?" ये सवाल ही किसी काम का नहीं है।
तुम ये तो जानते नहीं कि करने वाला कौन है तो ये पूछ कर क्या होगा कि, "क्या करूँ"? ये पूछो न कि "मैं हूँ कौन?" एक बार ये स्पष्ट हो जाता है कि कर्ता कौन, उसके बाद ये प्रश्न जायज़ नहीं रहता कि क्या किया जाए। आदमी पूछता नहीं कि क्या किया जाए पर बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि क्या किया जाए। बिना पूछे स्पष्ट हो जाता है क्या किया जाए। ऐन मौके पर यदि आपको दिख ही जाए कि आप जो कुछ कर रहे हैं वो बस एक परंपरा के कारण कर रहे हैं, न होती वो परंपरा, न होती वैसी आदत तो आप करते नहीं, तो अपने-आप कर्म बदल जाना है।
एक बार आपको दिख गया कि कर्ता संस्कार है तो कर्म अपने-आप बदल जाएगा यदि बदलना होगा।
हम ‘मैं’ को बड़ी गंभीरता से ले लेते हैं। उस पर सवाल नहीं उठाना चाहते। उसको तो बिलकुल बचा कर के रख देते हैं, कहते हैं – ये ‘मैं’ है, ये सलामत रहे और इसको अक्षुण रखते हुए अब बताइए कि इस ‘मैं’ के लिए उचित कर्म इत्यादि क्या हैं। यहीं चूक हो जाती है।