आचार्य प्रशांत: श्रीमद्भगवद्गीता, कर्मयोग, तीसरा अध्याय, छब्बीसवाँ श्लोक।
अर्जुन को सिखा रहे थे कि कर्म से पीछे हटना संभव नहीं, बस ख़्याल ये रहे कि कर्म निष्काम रहे। ठीक? यहाँ तक स्पष्ट है? घोर कर्म, निस्वार्थ होकर। और अगर निस्वार्थ नहीं हो तो घोर कर्म वैसे भी नहीं होता, बीच में ऊर्जा ख़त्म हो जाती है।
अब आगे क्या कह रहे हैं?
कह रहे हैं, ‘अर्जुन, अगर तुमने कर्म त्याग दिया, तो उसका एक और व्यावहारिक, ज़मीनी परिणाम क्या होगा थोड़ा ध्यान दो।‘ कह रहे हैं, ‘उसका ये परिणाम होगा कि जो अकर्मण्य और आलसी, प्रमादी लोग हैं, जो दूसरों के पीछे-पीछे चलते हैं, वो कहेंगे कि जब बड़े-बड़े लोग ही, ज्ञानी लोग ही काम नहीं कर रहे हैं, तो हम क्यों करें?’
‘अब हो सकता है कि तुमने कुछ विचार करके कहा हो कि मैं कर्म से अपने हाथ वापस खींच रहा हूँ, लेकिन वो लोग तो विचार भी नहीं करेंगे। उनके लिए तो यही खुशखबरी है कि जो ऊपर बैठा है, जो शीर्षस्थ है वो कर्म त्याग कर रहा है तो चलो हम भी त्याग कर देते हैं।‘
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् । जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन् ।।३.२६।।
ज्ञानी व्यक्ति कर्म में आसक्त अज्ञानियों में बुद्धिभ्रम उत्पन्न न करें। बल्कि ज्ञानी व्यक्ति लगन से निष्काम अनुष्ठान करके अज्ञानियों को कर्म में नियुक्त रखें।
~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय-३, श्लोक २६
तो श्लोक कहता है, ‘ज्ञानी व्यक्ति कर्म में आसक्त अज्ञानियों में बुद्धिभ्रम उत्पन्न न करें।' माने ज्ञानियों को निष्क्रिय देखने से अज्ञानियों में ये धारणा न बनने दें कि अब हमें भी काम नहीं करना कुछ। ‘बल्कि ज्ञानी व्यक्ति लगन से निष्काम अनुष्ठान करके अज्ञानियों को कर्म में नियुक्त रखें।'
ये क्या बात बोल दी?
वो कह रहे हैं कि देखो, अधिकांश लोग तो ऐसे ही हैं जो बिना समझे काम करते हैं। कुछ ही लोग हैं जो आत्मज्ञानी होंगे और उनके आत्मज्ञान के फलस्वरूप वो निष्काम कर्म करेंगे; उनको करते रहना चाहिए। उनकी निस्वार्थता में ये भी निहित है कि वो ध्यान दें कि उनके कर्म का दूसरों पर क्या प्रभाव पड़ता है। अपने कर्म का स्वयं पर क्या प्रभाव पड़ता है ये तो सभी सोच लेते हैं; आप जो कर रहे हो या नहीं कर रहे हो, इसका व्यापक समाज पर, समुदाय पर क्या असर पड़ेगा, ये भी आपको सोचना है।
तो अज्ञानी लोग ही हमेशा बाहुल्य में रहेंगे। ये आज की बात नहीं है, ग़ौर करिए ये बात कृष्ण तब कह रहे हैं, उस समय भी। कह रहे हैं, ‘अर्जुन, ज़्यादातर लोग समझते नहीं हैं, वो अज्ञानी होते हैं इसलिए बस अनुसरण करते हैं, ख़्याल रखो इस बात का। उन्हें मौका मिला नहीं कि वो उल्टी दिशा तुरन्त चल देंगे।' उल्टी दिशा माने पाशविक दिशा। ‘वो सभ्यता को जंगल बना डालेंगे। इसीलिए उनके सामने सही उदाहरण रखना बहुत आवश्यक है।'
हम ये भूल जाते हैं अक्सर, हम सोचने लग जाते हैं इंसान-इंसान बराबर हैं। अच्छे से समझिएगा, जानवर और जानवर बराबर होता है, इंसान और इंसान बराबर नहीं होते।
वेदान्त कहता है भेद करना सीखो। वेदान्त सारे भेदों से इंकार करता है, सबको ठुकरा देता है – वर्ण भेद, लिंग भेद, आयु भेद। जितने तरीके के हम विभाजन कर सकते हैं, वेदान्त सबको अस्वीकार करता है; लेकिन एक भेद है वेदान्त जिसका पूरा आग्रह रखता है। और वो भेद क्या है? चेतना के तल पर भेद।
कहता है, ‘देखो जो बात है सच्ची वो तो हमें माननी पड़ेगी। एक बैल और दूसरे बैल में बहुत अंतर नहीं होता लेकिन एक मनुष्य और दूसरे मनुष्य में ज़मीन-आसमान का अंतर हो सकता है।‘ पशु और पशु बराबर होते हैं, इंसान और इंसान में करोड़ गुने का अंतर हो सकता है। वही बात यहाँ पर सामने आ रही है कि ‘अर्जुन, ज़्यादातर लोग अज्ञानी ही होते हैं।‘
कृष्ण नहीं कह रहे हैं कि सब बराबर हैं, इक्वल , न। ये जो समानता का आदर्श है, ये बड़ा खतरनाक है। सब जीवों को, सब मनुष्यों को समान कहकर हमने सबको पशु बना दिया है, क्योंकि पशुओं में सब समान होते हैं। क्योंकि पशुओं में सब समान होते हैं, इसीलिए हम पशुओं को नाम भी नहीं देते।
इसीलिए अंग्रेज़ी भाषा पशु को ‘इट’ (यह) बोलती है, ‘ही’ या ‘शी’ (लिंगवाचक सर्वनाम) नहीं बोलती; क्योंकि ही या शी चेतना का द्योतक होता है। पशु को भाषा भी मानती है कि जड़ है, इसमें चेतना तो है नहीं। तो जैसे आप लकड़ी को इट बोलते हो वैसे ही आप पशु को भी इट बोल देते हो। यहाँ तक कि आप कई बार छोटे बच्चे को भी इट बोल देते हो, क्योंकि चेतना नहीं है।
समझ में आ रही है बात?
तो अधिकांश लोग ऐसे ही होते हैं जो चेतना के सबसे निचले तल पर हैं। संपूर्ण अध्यात्म इसीलिए है कि सब ऊपर उठ सकें। लेकिन आप कितनी भी इच्छा कर लें, सब एक साथ ऊपर नहीं उठेंगे, क्योंकि सब एक साथ ऊपर उठने की अपने-आपको अनुमति ही नहीं देंगे।
मनुष्य पशु नहीं है कि उसे आप ज़बरदस्ती किधर को भी धकेल दो। मनुष्य में परिवर्तन तभी आता है जब वो उसकी अनुमति दे। आप अगर बदलने को राज़ी ही नहीं हैं तो आपके सामने कृष्ण भी खड़े हों, आप नहीं बदलेंगे तो नहीं बदलेंगे।
ठीक तब जब कृष्ण गीता का उपदेश कर रहे हैं, कृष्ण सामने खड़े हैं न शकुनि के भी और दुर्योधन के भी, और न जाने कितने अन्य राजाओं के भी? कोई उत्सुकता भी दिखा रहा है सुनने की कि क्या बात चल रही है? और सात-सौ श्लोक हैं, तो बात ज़रा लंबी ही चली होगी। हम ये भी मान लें कि वेदव्यास ने बाद में बात को और विस्तार देकर के प्रस्तुत करा है, तो भी कुछ बात तो हुई ही है रणक्षेत्र में। जिसको आधार बनाकर के फिर पूरा विस्तार दिया गया, काव्यात्मक। वो भी जो बात हो रही है, वो सुनने की आतुरता कौन दिखा रहा है?
ये तो छोड़ दो कि कौरव पक्ष से कोई आए, क्या पांडव भी आ रहे हैं?
और बगल में बातचीत चल रही है, वहीं सामने ले गए हैं कि 'चलिए! थोड़ा रथ को आगे ले चलिए।' वहीं पर हैं। कोई नहीं सुनने आ रहा। और जब कृष्ण उपदेश दे रहे होंगे तो माहौल ऐसा हो जाता है कि यदि आप देखेंगे ध्यान से तो जान जाएँगे कि कोई बहुत महत्वपूर्ण घटना हो रही है, लेकिन फिर भी कोई नहीं आ रहा। औरों को छोड़िए, कौरवों को भी छोड़िए, पाण्डवों को भी छोड़िए, स्वयं धर्मराज युधिष्ठिर भी उत्सुकता नहीं दिखा रहे। जो धर्मराज हैं, उनको भी धर्म के मूर्धन्य ग्रंथ में उत्सुकता कुछ प्रतीत हो नहीं रही।
ज़्यादातर लोग ऐसे ही होते हैं, उन्हें चाहिए ही नहीं। इसीलिए मैं बार-बार ज़ोर देकर कहा करता हूँ कि सबसे बड़ी चीज़ है चाहत, कामना; जो कि शुद्धतम रूप में प्रेम कहलाती है और ज्ञान की भाषा में मुमुक्षा कहलाती है।
बात समझ रहे हैं?
तो कृष्ण जंगल में नहीं बैठे हैं, न उनके सामने कोई समर्पित-आज्ञाकारी शिष्य है जिसको बस ज्ञान इकट्ठा करना है। गीता वेदान्त में भी सर्वोपरि ग्रंथ इसीलिए है क्योंकि उपनिषदों और गीता की पृष्ठभूमि में बड़ा अंतर है। जो मंच ही सजा है, वो बिलकुल अलग है। उपनिषदों में ऋषि बैठे हैं, किसी वृक्ष की छाँव होगी, चबूतरा होगा, बैठ गए हैं अपना आराम से। कहीं कोई आसन में विपत्ति नहीं, सर पर तलवार नहीं लटक रही। सामने जो शिष्य बैठा है, वो भी अपना शांत बैठा हुआ है, तत्व विषयक जिज्ञासा कर रहा है। और वहाँ से फिर उपनिषद् फूट रहे हैं।
गीता बिलकुल अलग है, यहाँ रणभूमि की धूल है। यहाँ कोई शान्ति नहीं है, यहाँ कोई छायादार वृक्ष नहीं है। ये सब जब बोला जा रहा होगा तब भी सोचो घोड़े हिनहिना रहे होंगे। घोड़े थोड़े ही चुप हो जाते हैं। हाथी भी होंगे। और जब इतने वहाँ पर सैनिक खड़े हैं, तो उनसे भी ध्वनियाँ उठ रही होंगी तरह-तरह की, आगे-पीछे हो रहे होंगे, पैरों की आवाज़ है। और धातु के सब अस्त्र-शस्त्र होते हैं, वो भी आवाज़ तो कर ही रहे होंगे, खनखना रहे होंगे। इतने लोग हैं, आवाज़ें तो उठ ही रही होंगी।
तो गीता की भूमि और उपनिषदों की भूमि में बड़ा अंतर है। गीता बड़ा व्यावहारिक ग्रंथ है। ये बात जो यहाँ पर कृष्ण कह रहे हैं, ये उपनिषदों में प्रकट रूप से कहीं कही भी नहीं गई है। कही गई है, पर अप्रकट है, आपको निष्कर्ष निकालना पड़ेगा उपनिषद् को पढ़कर। यहाँ कृष्ण दो टूक कह देते हैं, ‘देखो अर्जुन, सब लोग एक बराबर नहीं होते। बहुत सारे होते हैं जो अज्ञानी होते हैं, बुद्धिहीन होते हैं, कुछ उनका भी ख़्याल कर लो। तुम जो कर रहे हो, सोचो उसका उन पर क्या असर पड़ेगा।‘
ऋषि वेदान्त में, उपनिषदों में कहीं नहीं कहते हैं कि अधिकांश जनमानस बुद्धिहीन हैं, वो ऐसा कहते नहीं। वो बहुत बड़े हृदय के हैं, उनमें करुणा बहुत है। वो कह रहे हैं, ‘जो जैसा भी है उसको उठाकर के चेतना के उच्चतम शिखर तक पहुँचाया जा सकता है।‘
कृष्ण कह रहे हैं, ‘शायद करा जा सकता है, पर अभी वक़्त कहाँ है! अभी हमें आदर्शों में नहीं, व्यवहार में बात करनी है। अभी तीर चलने वाले हैं, अभी गर्दनें कटने वाली हैं, सिर अभी लुढ़केंगे यहाँ पर; आदर्श की क्या बात करें?’
बात समझ रहे हो?
तो अज्ञानियों से ऐसे ज्ञान की बात करना जो वो समझ ही नहीं पाएँगे, कृष्ण इसके पक्ष में नहीं हैं। कृष्ण कह रहे हैं, ‘तुमने उनमें भ्रम पैदा कर दिया।‘ जिस शब्द का प्रयोग करते हैं वो है ‘बुद्धिभेद’। कहते हैं, ‘बुद्धिभेद मत पैदा करो उनमें। या तो तुममें इतनी क्षमता हो कि उनको बोध तक ले जा सको, फिर तो ठीक है। पर ऐसा मत कर देना कि तुम उनको बहाना दे दो वो भी न करने का जो वो अभी किसी तरह कर रहे हैं; ऐसा मत कर देना अर्जुन!’
और मेरा भी जो थोड़ा-बहुत अनुभव रहा है उससे मैं जान चुका हूँ कि ऐसा होता है, बहुत होता है। पूरी बात समझने के अंत तक तो बहुत कम लोग जाना चाहते हैं। अध्यात्म को अक्सर वो ज़रिया बना लेते हैं वो भी न करने का जो थोड़ा-बहुत वो कर रहे थे।
उदाहरण के लिए, कोई छात्र आएगा, वो पढ़ाई छोड़ देगा। वो कहेगा, ‘आचार्य जी ने बोला था कि जो काम तुम पूरे मन के साथ नहीं कर पा रहे हो, वो कर ही क्यों रहे हो? तो मैं पढ़ाई पूरे मन के साथ नहीं कर रहा, मैंने पढ़ाई छोड़ दी।‘ और पढ़ाई छोड़कर अब वो बिलकुल खाली बैठा रहेगा, इधर-उधर जाएगा, आवारगी करेगा; छोड़ देगा।
अब पूरी बात ये है कि ये तो छोड़ दो तुम्हारा पढ़ाई में मन नहीं है, तुम्हारा किसी भी ऊँची चीज़ में मन था क्या? तुमने अध्यात्म का दुरुपयोग ये और कर लिया कि तुमने पढ़ाई छोड़ने का बहाना बना लिया। और उस छोड़ने से तुम्हारे जीवन में और कोई नयी ऊँचाई नहीं आ गई। जो थोड़ा-बहुत तुम पहले करते थे, तुम उससे भी नीचे गिर गए।
‘आचार्य जी की बात सुनकर हमें पता चला कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली में क्या-क्या खामियाँ हैं, तो अब हम बच्चे को स्कूल नहीं भेजेंगे, उसे होम स्कूलिंग (घर से शिक्षा) कराएँगे।‘ अच्छा ठीक है, स्कूलों में खामियाँ हैं, पर तुम्हारे घर का ऐसा माहौल है कि होम स्कूलिंग से कुछ फ़ायदा हो जाए? ये विचार ही नहीं किया। और एक साल बाद फिर कहा, ‘अरे! ये तो घर में रहकर और बिगड़ गई; एक साल बर्बाद चला गया इसका।‘
ऐसों के लिए कृष्ण कह रहे हैं कि साधारण जनता में बुद्धिभेद नहीं पैदा करना चाहिए। ज़्यादातर लोग पशुता के इतने निकट जीते हैं कि उनको जीने के लिए अनुदेश चाहिए, अनुशासन चाहिए, आज्ञाएँ चाहिए। तुम उनको छोड़ दोगे कि तुम अपनी स्वेच्छा पर चलो जो कि अध्यात्म का तरीका है, अध्यात्म आपको स्वेच्छा का खुला आकाश देता है। अध्यात्म कहता है, ‘किसी बंधन में नहीं जीना है, अपनी मुक्ति की उड़ान भरो।‘
पर ज़्यादातर लोग ऐसे हैं कि अगर आपने उनको स्वच्छंद छोड़ दिया तो वो न जाने किस गड्ढे में जाकर गिर जाएँगे। तो उनको जीने के लिए फिर आकाश नहीं चाहिए होता है, उनको जीने के लिए अनुशासन चाहिए होता है। वैसे ही लोगों की कृष्ण यहाँ बात कर रहे हैं।
कृष्ण ये भी तो कर सकते थे कि किसी मंच पर खड़े हो जाते और वहाँ से कहते, ‘अब मैं गीता का पाठ करने जा रहा हूँ, सुनो, सब सुनो! जनता जनार्दन के लिए है ये बात पूरी।‘ सोचिए न, कृष्ण ने ऐसा क्यों नहीं करा? भई, हम यहाँ बैठे हुए हैं, उस दिन के बाद से अरबों लोग गीता पढ़ चुके हैं, पर जब स्वयं कृष्ण ने बोली तो एक ही व्यक्ति से क्यों बोली? वहाँ अगर हज़ारों इकट्ठा थे, तो सबसे क्यों नहीं बोली?
यही बात है, सब इस लायक नहीं हैं। और जो लायक नहीं होता, जब उसके कान में शास्त्र का शब्द पड़ जाता है तो वो उस शब्द का घोर दुरुपयोग करता है। अर्जुन जैसी विह्वलता होनी चाहिए तब पात्रता सिद्ध होती है। यूँ ही बैठे-बिठाए गीता मिल जाए तो अनर्थ हो सकता है।
अंत में कहते भी हैं अर्जुन से, ‘अर्जुन, किसी ऐसे को कभी गीता मत बोलना’ – पूरी गीता सुना दी, फिर अठारहवें अध्याय में कहते हैं – ‘किसी ऐसे को कभी गीता मत बोलना जो मुझमें पूर्ण श्रद्धा न रखता हो। जिसके पास आस्था के अभी और कई केंद्र हों, ऐसों तक गीता पहुँचने मत देना; गड़बड़ हो जाएगी।‘
अब ये सुनने में अच्छी नहीं लग रही है न बात? हम सब चाहते हैं कि हम ये विश्वास कर पाएँ, हम किसी तरह से ऐसी मान्यता रख पाएँ कि हम सब एक ही ईश्वर की संतान हैं, हम सब एक बराबर हैं और सबका अंततः एक ही हश्र होना है, और सब भाई-भाई हैं, और सब एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर रिंगा रिंगा रोज़ेस (बच्चों की क्रीडा) करेंगे – ऐसा है नहीं।
दोहरा कर कह रहा हूँ – मनुष्य और मनुष्य में बहुत अंतर है। हम दिखने में बस एक जैसे हैं, हममें जो कुछ पाशविक है, वो एक समान है। उदाहरण के लिए, नाक सबकी एक ही होती है। क्योंकि नाक कहाँ से आ रही है? जंगल से आ रही है। जंगल में जो गोरिल्ला बैठा है, उसकी भी एक ही नाक है। हममें जो समानता ऊपरी है, वो पशु के तल पर है। चेतना के तल पर हममें बहुत अंतर होते हैं। फिर एक आख़िरी समानता हो सकती है, और वो होती है आत्मा के तल पर।
सबको समान दो ही तरीके से बनाया जा सकता है। या तो सबको पशु बना दो, फिर सब एक समान हो जाते हैं। है न? पशु बना दो, मेरा खून आपका खून एक बराबर है। स्त्री का लीवर (यकृत) पुरुष में लगाया जा सकता है। किसी की भी आँख, किसी दूसरे की आँख में लगाई जा सकती है। फिर सब बराबर हो जाते हैं न? तो पशु बना दो, शरीर के तल पर फिर सब बराबर हो जाते हैं।
या फिर तुम वाकई शुभचिंतक हो मानवता के और सबको समान बनाना है तो सबको आध्यात्मिक बनाना होगा; आत्मा के तल पर पूर्ण समानता होती है।
लेकिन हमें समानता चाहिए और अध्यात्म नहीं चाहिए तो हम क्या करेंगे? हमने कहा, समानता दो ही जगह पर होती है, या तो शरीर के तल पर होती है या आत्मा के। अब आपको समानता चाहिए, आपने नारे लगवा दिए इक्वालिटी-इक्वालिटी-इक्वालिटी (समानता-समानता-समानता)। समानता आपको चाहिए और अध्यात्म से आपको बड़ी समस्या है, एलर्जी है बिलकुल। तो फिर आप अनिवार्य रूप से क्या करने को मजबूर हो जाएँगे? सबको पशु बना दो। क्योंकि समान बनाना है तो फिर एक ही तरीका रहा, सबको पशु बना दो, सारे इंसानों को जानवर बना दो। शरीर तो सबका एक जैसा ही है, अब सब बराबर हो गए। तो ये काम हमारी वर्तमान व्यवस्था कर रही है।
गीता के समय ऐसा नहीं था, गीता के समय साफ़-साफ़ जो सच्चाई है, उसको स्वीकारा गया है। और सच्चाई यही है कि सब समान हैं नहीं। हम जैसे हैं, हमारे मन में, हमारे भाव में, हमारी चेतना के स्तर में बड़ा अंतर है। आप एक व्यक्ति नहीं हैं, आप दस व्यक्ति हैं। और किसी समय आपके साथ क्या व्यवहार होना चाहिए वो इसपर निर्भर करता है कि उस क्षण पर आप कौनसे व्यक्ति हैं।
क्योंकि शरीर एक ही होता है, आपका आज जो शरीर है कल सुबह भी वही होगा लगभग। पर ये बिलकुल संभव है कि आज आपकी चेतना यहाँ पर है और कल सुबह चार सोपान चढ़कर इतनी ऊपर पहुँच जाए। तो फिर अभी आपके साथ जो व्यवहार हो रहा है वो कल सुबह नहीं होना चाहिए।
चेतना का तल मनुष्य और मुनष्य में ही अलग नहीं होता; एक ही मनुष्य भी अलग-अलग समय पर चेतना के अलग-अलग तलों पर होता है। और जो जिस समय जिस तल पर है, उससे उस समय उसी प्रकार का व्यवहार होना चाहिए, उसी दृष्टि से उसे देखा जाना चाहिए।
समझ रहे हो?
इसलिए भी समझाया गया है कि देहभाव घातक है, क्योंकि देहभाव आपको ये भ्रम दे देता है कि सब देहें एक बराबर हैं। देहभाव आपको ये भ्रम दे देता है कि जिस व्यक्ति से आपका कल सम्बन्ध था, आपका आज भी उसी व्यक्ति से सम्बन्ध है, क्योंकि देह तो वैसी ही है उसकी।
आपने किसी से सम्बन्ध बनाया, दो साल पहले उसकी जैसी देह थी लगभग वैसी ही दो साल बाद भी होगी। लेकिन वो व्यक्ति हो सकता है भीतर से पूरी तरह बदल गया हो। अगर आप देहभाव में जीते हैं तो आपको ये बात पता ही नहीं चलेगी। आप कहेंगे, ‘देह तो वही है न, वही तो व्यक्ति है।‘ वो व्यक्ति वो है ही नहीं जिस व्यक्ति से आपने सम्बन्ध करा था, वो कब का चला गया। ये दूसरा व्यक्ति है बिलकुल। आप किसी अनजाने के साथ सम्बन्ध बनाए हुए हो। आप किस अपरिचित को अपना मान रहे हो? वो तो बिलकुल व्यक्ति दूसरा है।
बात कुछ समझ में आ रही है?
इसलिए तीसरी आँख का फिर इतना महत्व है। दो आँखें सिर्फ़ क्या देख पाती हैं? देह। तीसरी आँख वो जो मन देख पाए। तीसरी आँख इसलिए बड़ा विशिष्ट प्रतीक है। सिर्फ़ दो आँखों से देखोगे तो जानवर हो जाओगे। जानवर की भी दो आँखें होती हैं, दो आँखों से सिर्फ़ शरीर दिखता है, भौतिकता दिखती है। मनुष्य वही है जिसके पास तीसरी आँख है जिससे वो चेतना देख पाए; वो चेतना की ही तीसरी आँख होती है। चूँकि वो चेतना की तीसरी आँख होती है इसीलिए वो चेतना को देख पाती है।
स्पष्ट हो रही है बात?
इंसान का चेहरा नहीं, चेतना देखनी है। चेहरे भ्रामक होते हैं। ये ऐसा सूत्र है जिसको आप रट लें तो आपको बड़ा अच्छा रहेगा। एकदम रट लीजिए। समझाए मैं देता हूँ, शब्द आप रट लीजिए।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। दो प्रश्न मन में उठे अभी की वार्ता से। पहला आपने कहा कि मनुष्य अपने-आपमें अलग-अलग समय पर चेतना के अलग-अलग स्तर पर हो सकता है। तो उससे प्रश्न उठा कि जब हमारी चेतना अलग हो, पहले तो उसे हम पहचानें कैसे? और दूसरा, उस वक़्त हम क्या करें जो इस ऊँची चेतना को बनाए रखे और उसको और आगे बढ़ने में मदद करे?
आचार्य: जब आप ऊँची चेतना पर होते हैं तो अपनी ही निचाई के प्रति वैराग्य आ जाता है, एक तिरस्कार आ जाता है। उसके प्रति अनासक्ति और त्याग आ जाता है; स्वयं के प्रति। जब आप ऊँचे होते हैं न, तो जैसे आप ख़ुद को ही छोड़ चुके होते हैं।
ये बात सुनने में थोड़ी ज़्यादा क्लिष्ट या काव्यात्मक लग रही है?
ऊँचाई का प्रमाण ही यही होता है कि आप अपने-आपको बहुत गंभीरता से नहीं लेते। जो मसले आपको जकड़े होते हैं, आप उनको पीछे छोड़ने लगते हैं, उनकी व्यर्थता देखने लगते हैं। आपके लिए आसान हो जाता है, सहज हो जाता है कहना, ‘मैं कितना बेवकूफ़ था’ या ‘मैं कितना बेवकूफ़ हूँ।‘ जब आपके लिए ये कहना आसान हो जाए, उस क्षण में समझ लीजिए कि आपकी चेतना अभी परिष्कृत, शुद्ध है, साफ़ है, ऊँची है। ठीक है?
कल किसने-किसने 'परिमार्जित' का अर्थ देखा? किसी ने नहीं देखा? यही अर्थ होता है उसका – शुद्ध करना।
जो चीज़ें आमतौर पर आपको जकड़े रहती हैं, जिस क्षण में आपको वो व्यर्थ लगने लगें, उस क्षण में पहचान लीजिएगा कि अभी मेरी चेतना थोड़ी परिमार्जित है, साफ़ है, हल्की हो गई। गन्दगी उसको भारी करे रहती है न; जैसे इस पर (शर्ट पर) बहुत कुछ गन्दगी लग जाए तो इसे भारी कर देगी। जिस क्षण में आप अपने-आपको ही हल्के में ले लें, जो चीज़ें महत्वपूर्ण लगती हैं, जिनको लेकर बड़े गंभीर रहते हैं वो मसले सब छोटे लगें, पीछे छोड़ दो – ऐसा यहाँ लगता है कभी-कभी? बहुत सारी बातें जो सर पर चढ़ी रहती होंगी, यहाँ आकर भूलने लगते हो न – वो चेतना के ऊर्ध्वगमन का प्रमाण होती हैं। कि आप अपना जो पुराना सेल्फ है, आप जो पुराना 'मैं' है, उसको पीछे छोड़ने को तैयार हो रहे हो। इससे पता चलता है कि चेतना ऊपर उठ रही है। ये प्रश्न का पहला भाग।
दूसरा भाग, कि तब करें क्या? उसको मैं कहता हूँ तब अलार्म लगाओ, और तब अपने-आपको शुभ बंधनों में बाँधो। अब पता है कि पहाड़ पर चढ़ तो गए हो, पर वहाँ बहुत समय रुकोगे नहीं, कोई-न-कोई नीचे खींच लेगा, 'मोह-मोह के धागे'। तो अपने-आपको ख़ुद ही वहाँ किसी खंभे से बाँध दो। या अपने-आपको किसी जंजीर में बाँध दो, ताला लगा दो और चाबी नीचे फेंक दो। कह दो, ‘अब हम चाहें तो भी नहीं खोल सकते।‘
चेतना की ऊँचाई का जो क्षण होता है वो बड़ा विरल होता है और उसका बड़ा सावधानी पूर्वक उपयोग कर लेना चाहिए, क्योंकि वो कभी-कभी मिलता है। जब मिले तो उसे बीत मत जाने दो।
बीत जाने देने की वृत्ति भी बहुत ज़ोर की होती है, क्योंकि चेतना की ऊँचाई बड़े आनंद की होती है। और जब वो आनन्द मिल रहा होता है तो लगता है उसे बस पीते जाएँ, पीते जाएँ।
नहीं, पीते मत जाओ, वो पल बीत जाएगा अभी पागल! वो पल तुमको अभी बस संयोग से मिल गया है। वो पल अभी आपकी आत्मा से नहीं उठा है, वो पल आपको अनुग्रह की तरह मिल गया है, वो उपहार की तरह दिया गया है। अभी आपके भीतर से वो पैदा नहीं हुआ है, बाहर से मिली हुई एक भेंट है। वो पल क्या होगा? बीत जाएगा।
ये तीन दिन क्या होंगे? बीत जाएँगे। जब बीत जाएँगे तो जिस चोटी पर चढ़े हो, वहाँ से नीचे आ जाओगे। तो इन तीन दिनों के भीतर ही उस चोटी से अपने-आपको बाँध दो अगर नीचे नहीं आना चाहते तो; नहीं तो तुम जानो।
मैं इतना सारा पानी पी-पी कर भी इस कुर्सी से अपने-आपको कैसे बाँधे हुए हूँ? मैं पूछ रहा हूँ आपसे कि मैं यहाँ कैसे बँधा बैठा रहूँ? वो तो मेरा दिल जानता है। तो वैसे ही कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं जिसका प्रबंध ख़ुद को ही करना होता है। दूसरा उसमें क्या सहायता करेगा!
बात आ रही है समझ में?
दूसरी चीज़ मैंने कही – अलार्म। जगे हुए हो पर पता चल रहा है कि नींद तो आएगी, तो जब जगे हुए हो तभी अलार्म लगा लो। समझ में आयी बात? या सो जाओगे तब लगाओगे? जब जगे हो तभी जान लो कि हम कितने पानी में हैं। अभी जगे हैं, लेकिन निश्चित है कि थोड़ी देर में ऊँघने लगेंगे। तो जब जगे हो तभी अलार्म लगा लो। अभी जगे हुए हो अगर ये तीन दिन तो अलार्म लगा लो, ताकि जब सोओ तो उठाने वाला कोई मौजूद रहे।
इसीलिए जानने वालों ने कहा था, ‘शुभ काम में देर नहीं करनी चाहिए।‘ ‘शुभ कार्य तत्काल और बुरा दे टाल।‘
टालना, प्रोक्रेस्टीनेट (टाल-मटोल) करना बहुत अच्छी चीज़ होती है, अगर ये पता हो कि किस चीज़ को टालना है। जो शुभ हो उसको तत्काल कर डालो; जो बुरा है उसे बस थोड़ा-सा टाल दो। मैंने कहा था न, ओ स्त्री कल आना। बस टाल दो, थोड़ा-सा टाल दो। थोड़ा-थोड़ा टालते चलो, काम बनते चलता है।
तो तत्काल कुछ कर लीजिए, नहीं तो आपको ये जो अभी शिखर मिला है, ये बीत जाएगा; फिर कोई फ़ायदा नहीं। अभी तो फ्री हिट का मौका है। जब ऐसा मौका मिले, तो क्या करते हैं? पूरा घुमा दीजिए बल्ला, ये मत सोचिए कि ‘हाँ ठीक है, अच्छा लग रहा है। आचार्य जी बोल रहे हैं, हम सुन रहे हैं, बढ़िया है।‘ पूर्णिमा बीत जानी है, भले ही गुरु पूर्णिमा क्यों न हो। चाँद नहीं ठहरेगा, बैठे-बैठे बस अमावस आ जानी है। तो पूर्णिमा की रात अगर मिली है तो रसपान कर लीजिए। और रस से मेरा क्या मतलब है? ये नहीं कि अभी पूर्णिमा की रात है, चलो नाचो। मैं कह रहा हूँ आगे का प्रबंध कर लो।
"कबीर सो धन संचिए, जो आगे को होए।"
पता है कि आगे क्या होगा तो उसके मुकाबले की तैयारी आज कर लो क्योंकि आज आपमें वो सामर्थ्य है, कल नहीं रहेगी। कोई चीज़ चाहिए हो, कोई कदम उठाना हो जो जानते हो कि ठीक है पर हिम्मत पूरी नहीं पड़ती, वो कदम आज उठा लो। आज हिम्मत बाँध सकते हो, कल नहीं बाँध पाओगे।
कुछ उल्टा-पुल्टा मत कर लेना, बड़ा डर लगता है। मैं क्या बोलूँ, उसका क्या हो जाए! ‘उन्होंने ही कहा था आज हिम्मत बाँध कर कर डालो।‘
ठीक है?