प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। जैसे अभी पिछले श्लोक में चर्चा हुई थी आसक्ति में अज्ञानी जिस तीव्रता से कर्म करता है, उसी तीव्रता से ज्ञानी व्यक्ति को अनासक्त होकर करना चाहिए। अब काम करने वाला तो दोनों ही स्तिथि में अहंकार ही है, तब भी अहंकार ही करता है और अब भी। और दोनों को ही कृष्ण चाहिए, सभी को कृष्ण चाहिए। तो वर्तमान में तो श्रम लगता है, मेहनत दोनों में है, चाहे वो आसक्ति वाला काम हो या अनासक्ति वाला काम हो।
लेकिन जब भी अपनी ज़िंदगी में देखते हैं तो जो आसक्ति वाला काम है उसमें अहंकार श्रम-परिश्रम पूरा कर लेता है, पूरा टूटने को तैयार रहता है, उसमें भी अहंकार को यही रहता है कि मैं ऊपर उठूँ। अनासक्ति में भी यही इच्छा रहती है कि अहंकार को ऊपर उठना है। लेकिन जब श्रम की बात आती है तो दोनों में बहुत अंतर आ जाता है। तो ये क्यों है?
आचार्य: हम जिन दो तलों की तुलना कर रहे हैं, वो दूसरे और तीसरे तल के हैं। जो सबसे कम श्रम करता है वो वो है जिसे वास्तव में कृष्ण चाहिए ही नहीं हैं। वो नाम का ज्ञानी है। जो दूसरे तल का व्यक्ति है, मध्यम तल का, उसे कृष्ण चाहिए है, पर अपने लिए चाहिए है। वो कहता है, ‘मैं कायम रहूँ, मैं साबुत रहूँ और साथ ही मुझे कृष्ण मिल जाएँ।‘
जो सबसे निचले तल का है, जो बताता है अपने-आपको ज्ञानी, उसे कृष्ण चाहिए ही नहीं। वो कोई मेहनत नहीं करेगा, वो पड़ा रहेगा बस। बोलता रहेगा, ‘मैं ज्ञानी हूँ, ज्ञानी हूँ, मेरी सेवा करो, सम्मान करो।‘ उसे कुछ नहीं चाहिए, वो ऐसे ही है झूठा।
जो दूसरे तल का व्यक्ति है जो महत्वाकांक्षी है या राजसिक है, जो आसक्तिवश काम करता है, कृष्ण उसे चाहिए, बिलकुल सही कहा, लेकिन उसे कृष्ण चाहिए अपने लिए। वो ये नहीं कहता, ‘मुझे कृष्ण चाहिए’, वो कहता है, ‘मुझे अपने लिए कृष्ण चाहिए। माने कृष्ण भी मिल जाएँ और मैं भी बचा रहूँ। तभी तो मैं कृष्ण का सुख भोगूँगा न।‘
तो जब तुम दूसरे-तीसरे तल की तुलना करोगे तो तुम्हें यही लगेगा कि जो आसक्त व्यक्ति है वही ज़्यादा मेहनत कर लेता है, ज़्यादा अनुशासन भी है उसमें, क्योंकि तुम उसकी तुलना ही कर रहे हो तीसरे तल से।
अब आने दो उसको जो पहले और ऊँचे तल का व्यक्ति है। तब तुम्हें पता चलेगा कि असली मेहनत बोलते किसको हैं। उसकी मेहनत के आगे ये दूसरे तल के व्यक्ति की मेहनत एकदम फीकी पड़ जानी है। और कृष्ण को कौन मानता है? प्यार किसको है? ये उसके मेहनत से ही पता चलेगा। जब तक कृष्ण नहीं हैं तब तक ये जो राजसिक, महत्वाकांक्षी आदमी है, यही पहलवान बनकर घूमेगा। लगेगा कि अरे बाप रे बाप! कितना कर्मठ, कितना पुरुषार्थी, क्या-क्या नहीं करके दिखा दिया, दुनिया जीत ली। लेकिन जब कृष्ण का प्रेमी प्रवेश करता है, तब तुम्हें पता चलता है कि वास्तविक मेहनत किसे कहते हैं।
पहले और दूसरे तल की मेहनत में अंतर बता देता हूँ; दूसरे तल की मेहनत को एक जगह पर जाकर रुक जाना पड़ेगा। किस जगह पर जाकर रुक जाना पड़ेगा? जहाँ मेहनत करने वाला असुरक्षित हो जाएगा, वहाँ वो रुक जाएगा। ‘इससे ज़्यादा मेहनत करूँगा तो मैं टूट जाऊँगा।‘ और जिसे कृष्ण चाहिए, जो ये नहीं कह रहा है कि स्वयं को बचाकर कृष्ण चाहिए, वो कह रहा है कि बस कृष्ण चाहिए, वो कहीं नहीं रुकेगा। वो कहेगा कि मेहनत कायम रहेगी, मैं टूट गया तो टूट गया।
तो वो जो पहला तल है, उसकी कोई तुलना नहीं हो सकती दूसरे से। लेकिन दूसरे तल वाले हमको बड़े विशेष लगते हैं। करें क्या? दुनिया भरी हुई है तीसरे तल वालों से, तो उनकी तुलना में तो ये दूसरे तल वाले ही लगते हैं बड़े खास। ये खास लगेंगे तुम्हें तब तक, जब तक असली व्यक्ति से तुम्हारा वास्ता नहीं पड़ता। जब वो सामने आएगा तो ये सब राजसिक-वाजसिक गायब हो जाते हैं।
एक आदमी है जो अपनेआप को अच्छा बोलता है, ये तीसरे तल का है। ये कुछ भी बोल सकता है, ‘मैं बढ़िया आदमी हूँ, मैं धार्मिक आदमी हूँ, मुझे कृष्ण से प्रेम है।‘ लेकिन इसकी ज़िंदगी को देखो तो इसके सामने अन्याय हो रहा हो, अधर्म हो रहा हो, ये कुछ नहीं करता। ये किसी सही काम का हिस्सा नहीं बन सकता। ये न तो मुँह खोल सकता है, न हथियार उठा सकता है। इसके पास बस अपने छोटे-छोटे सरोकार हैं, ये उन्हीं में उलझा रहता है और ‘हरि बोल हरि बोल’ कर लिया दो-चार बार, तो सोचता है कि मैं धार्मिक हूँ, कृष्णभक्त हूँ।
ये सबसे लीचड़ व्यक्ति है। इसके जीवन में कोई संघर्ष नहीं है, कोई सच्चाई नहीं है। पड़ा हुआ है बस। 'मैं अच्छा आदमी हूँ', इसके पास बस एक बात है, क्या? कि मैं अच्छा आदमी हूँ। और ये जो अच्छा आदमी है सबसे निचले तल का, ये हमेशा हारता है उस व्यक्ति से जिसके पास भौतिक आकांक्षाएँ हैं।
ऐसे लोग देखे हैं न जो कहते हैं, ‘हमें ज़्यादा कुछ चाहिए नहीं’, अपना पड़े रहते हैं। उदाहरण के लिए सरकारी नौकरी में थे, अब रिटायर हो गए हैं, पेंशन लेते हैं। पड़े हुए हैं बीस साल से, खटिया तोड़ रहे हैं। बोलो, ‘कुछ करते काहे नहीं?’ कहेंगे 'क्या? हमें कुछ चाहिए ही नहीं। हम तो अनासक्त हैं।'
बोलो, ‘पूरा मोहल्ला गंदा पड़ा है, सफ़ाई ही कर लो।‘
'क्या करेंगे? कुऊऊऊछ नहीं रखा है, मोह माया है; लाओ इधर ज़रा खाने को दो।'
ये देखे हैं? ये तीसरे तल के लोग हैं। ये ऊपर-ऊपर से धार्मिक लगते हैं, इनके जीवन में धर्म नहीं होता। ये मंगल शनि चले जाएँगे, प्रसाद चढ़ा देंगे, इधर-उधर की बातें कर लेंगे। इनकी ज़िंदगी में लेकिन कोई गर्मी, कोई हरकत नहीं होती है। और ऐसे लोग हमेशा, मैं कह रहा हूँ, किनसे हारते हैं? जो महत्वाकांक्षी लोग हैं, जिन्हें दुनिया जीतनी है, जिन्हें पैसा चाहिए, ताक़त चाहिए; ये उनसे हारते हैं। इनको हारते देखकर ये मत सोच लेना कि धर्म हार रहा है। ये जो तीसरे तल वाले हैं, ये धर्म के प्रतिनिधि हैं ही नहीं। इनकी हार को धर्म की हार मत समझ लेना। ये ऐसे ही हैं फालतू, अजगर, पड़े हैं, लोट रहे हैं। ये कहाँ से धर्म के प्रतिनिधि हो गए?
वास्तविक धार्मिक आदमी हज़ारों लाखों में एक होता है और जब वो आता है, तो ये सौ मिलकर भी उसका मुकाबला नहीं कर सकते। क्योंकि वो हारने के लिए आया ही नहीं है।
प्र: तो पहले तल के लोगों की अगर बात की जाए तो उसपर भी अहंकार काम करना शुरू करेगा, एक ज्ञान के साथ कि मुझे अपनी वास्तविक अपलिफ्टमेंट (उत्थान) चाहिए। लेकिन सिर्फ़ ज्ञान भर से काम नहीं चलता, ज्ञान भर से उतना श्रम नहीं दे पाते हैं। तो फिर अनुशासन और उसके बाद प्रेम…?
आचार्य: कुछ नहीं। ज्ञान के बाद अनुशासन और प्रेम नहीं आता है। पहले प्रेम आता है, प्रेम सारे अनुशासन सिखा देता है। प्रेम आलसी-से-आलसी आदमी को मेहनती बना देगा। प्रेम असली चीज़ है।
प्र: कई बार ये डिस्टिंग्विश (भेद) करना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि हमेशा डिज़ायर (कामना) तो रहती है।
आचार्य: वही प्रेम है, उसी को प्रेम कहते हैं। कामना को ही शुद्धतम अर्थ में प्रेम कहा जाता है। और ज्ञान हो-न-हो, कामना तो सबमें होती है न? उसी कामना में प्रवेश करना ज्ञान है। तो ज्ञान से भी पहले लेकिन क्या होगी? कामना। कामना नहीं होगी तो ज्ञान किसका लोगे? कामना ही तो ज्ञान का विषय है। तो इसलिए ज्ञान से भी पहले प्रेम आता है।
प्र२: नमस्कार, आचार्य जी। श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय तीन, श्लोक सात में श्रीकृष्ण ने कहा है कि "अर्जुन, जो मनुष्य मन से इंद्रिय पर नियंत्रण करके, आसक्ति रहित होकर कर्मयोग का आचरण करता है वही श्रेष्ठ है।"
फिर श्लोक इक्कीस और बाइस में ये कहते हैं कि ‘श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य उसके अनुसार आचरण करते हैं।‘ और फिर अपनेआप का उदाहरण देकर कहते हैं कि ‘तीनों लोकों में मुझे तो कुछ कर्तव्य नहीं है और न ही प्राप्त करने योग्य कोई वस्तु है, फिर भी मैं कर्तव्य कर्म में लगा रहता हूँ।‘
तो मेरा प्रश्न ये है कि जगत में तो सबसे श्रेष्ठ श्रीकृष्ण ही हुए, लेकिन यहाँ श्रीकृष्ण की भाँति कर्तव्य कर्म का अनुसरण तो कोई करता ही नहीं है। मूलतः सारे मनुष्य अपने अहम् को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हुए बस स्वार्थ केंद्रित कर्म में ही लिप्त रहते हैं। और इतिहास में भी हमने देखा है कि जब कोई व्यक्ति अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर समझ से कोई काम करने जा रहा है, तो उसे समाज से ही विरोध का सामना करना पड़ रहा है। तो ऐसा क्यों हो रहा है? यहाँ पर श्रेष्ठ का अनुसरण कोई कर क्यों नहीं रहा है?
आचार्य: कर रहे हैं न; जिसको श्रेष्ठ समझते हैं, उसका अनुसरण कर रहे हैं। तुम फिर भूल गए, क्या? कृष्ण कह रहे हैं, ‘श्रेष्ठ व्यक्ति का अनुसरण पूरा समाज करता है, इसलिए अर्जुन तुम अपने कर्तव्य से पीछे मत हटो। तुम पीछे हटोगे तो जो-जो तुम्हारा अनुसरण करते हैं, वो भी पीछे हटने लगेंगे।’ तो श्रेष्ठ का ही अनुसरण करा जाता है न। तुम जिसको श्रेष्ठ समझते हो उसी के पीछे चल रहे हो। हैं तो तुम्हारे सेलिब्रिटीज़, तुम्हें उन्हीं में कृष्ण नज़र आते हैं; ये अज्ञान का काम है।
प्र२: पर श्रेष्ठ तो व्यक्ति के लिए भिन्न-भिन्न नहीं हो सकते?
आचार्य: तुम्हारे लिए नहीं हैं क्या? व्यक्ति को छोड़ो, तुम्हारे लिए नहीं हैं क्या? कल कौन श्रेष्ठ लगता था, आज कौन लगता है? भिन्नता आ गई कि नहीं आ गई?
प्र२: हाँ।
आचार्य: हाँ, तो सत्य के अभाव में भिन्न-भिन्न झूठ खड़े हो जाते हैं।
प्र२: तो इसका मतलब श्रेष्ठ का अनुसरण करने के लिए हृदय में हमेशा सत्य को स्थापित करना पड़ेगा?
आचार्य: देखो, हृदय हमें पता नहीं कहाँ होता है और स्थापित क्या करते हो; जी करके दिखाओ ज़िंदगी। हृदय में तो कोई भी रहता है, सब बोलते रहते हो, ‘मेरे दिल में तू है’, और रहते कहाँ हो वो अलग होता है। तो दिल-विल ये सब छुपी बातें हैं और इनमें बड़ी गड़बड़ हो जाती है। जीवन दिखाओ, जीवन।
अंग्रेज़ी में एक कहावत है पुट योर मनी व्हेयर योर माउथ इज़। जी कैसे रहे हो, ये दिखाओ। बाकि बातें तो कोई भी कर सकता है। दिल किसने देखा है किसी का, आपने देखा? अपना भी नहीं देखा, दूसरे का क्या देखेंगे।
वेदान्त आपको लगातार ये समझाने के लिए है कि वास्तविकता वस्तुगत नहीं, व्यक्तिगत है। कृष्ण कौन हैं? आप जानिए! जो भी आपके लिए उच्चतम है, वही आपके लिए कृष्ण हो गया। तो क्या करें? और ऊँचा उठना चाहते हो तो कृष्ण को और ऊँचा करो न।
कृष्ण स्वयं कहते हैं कि तुम जिन भी व्यक्तियों की, मूर्तियों की, इकाईयों की उपासना करते हो, उनकी तरफ़ तुम्हें मैं ही तो भेजता हूँ और उनके माध्यम से तुम मुझे ही पूज रहे हो। व्यक्तियों, मूर्तियों, इकाईयों की पूजा में ये भी आ जाता है कि तुम अपने घर के ही किसी व्यक्ति की उपासना कर रहे हो। हो सकता है कि आप रुपये-पैसे की उपासना कर रहे हों। तो आप जिसकी भी उपासना कर रहे हैं, आप वास्तव में अपनी तरफ़ से कृष्ण की ही उपासना कर रहे हैं। क्योंकि आपको लग रहा है कि यही तो उच्चतम है, तभी तो उपासना कर रहे हैं आप।
पूछना आवश्यक है फिर अपनेआपसे – बस इतना ही? यही चाहिए? इतने में हो जाएगा? इतना ही हो सकता था? इसी के लिए पैदा हुए थे? यही, ये (चाय का कप दिखाते हुए), बस? बूँद-बूँद? अभ्यस्त मत हो जाइए, आदत मत डाल लीजिए। पूछा करिए, 'सागर कहाँ है? या बस ये बूँदों वाली चुस्कियाँ चलेंगी? यही पी-पीकर मर जाना है?'
इसलिए मौत याद रखनी ज़रूरी है। जब पता चलता है कि समय सीमित है, तो उसकी माँग उठती है फिर जो असीमित है। समय को असीमित मानोगे तो जीवन में सीमित से समझौता कर लोगे। समय सीमित है, याद रखो तो फिर असीमित की चाह उठेगी। कहोगे, ‘इतना-सा ही समय है, इसमें जल्दी से पा लें।‘
इतनी बार पूछता हूँ न, किसको अपना भगवान बना लिया? प्रश्न समझे थे क्या था? कि कृष्ण कह रहे हैं कि पूरा समाज उसके पीछे चलता है जो श्रेष्ठतम होता है। और श्रेष्ठतम तो कृष्ण हैं, तो पूरा समाज कृष्ण के पीछे क्यों नहीं चल रहा है? ये प्रश्न है।
समाज श्रेष्ठतम के ही पीछे चल रहा है और उसे कृष्ण ही मान रहा है। तुम देखते नहीं हो, तुम अपने नेताओं को अवतार घोषित करने में लगे हुए हो आजकल? कृष्ण ही तो बना रहे हो उनको, और क्या कर रहे हो? किसी अभिनेता का मंदिर बना देते हो, उसे कृष्ण नहीं बना दिया तुमने?
हम ये नहीं कहते कि मुझे कृष्ण तक जाना है, हमें जो पसंद आ गया उसे कृष्ण का नाम दे देना है – ’माई कृष्णा।‘ कृष्ण क्या हैं, इससे हमें मतलब नहीं। जिससे मेरा मोह हो गया, मेरी आसक्ति हो गई, वो 'माई कृष्णा' हो गया। फिर आप उसके पीछे-पीछे चलते हो। बहुत दूर तक नहीं चल पाते, मौत आ जाती है; पर जीवन खराब कर लेते हो।