कर्मफल मिलता नहीं, ग्रहण किया जाता है || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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कर्मफल मिलता नहीं, ग्रहण किया जाता है || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्न: ‘सब कुछ असत्य परोक्ष रूप से असली है और वास्तविक सीधे वास्तविक है।चोरी इत्यादी कार्य कष्ट देते हैं जब तक हम इस कष्ट का एहसास नहीं करते|’

एहसास किसका? क्या ऐसा है कि यह भी परोक्ष रूप से असली हैं या कष्ट का एहसास हैं?

श्रोता: इसी से सम्बंधित महर्षि रमण से एक भक्त ने प्रश्न पूछा था, ‘’क्या कर्म का फ़ल मिलना आवश्यक है?’’ तो उन्होंने जवाब दिया, ‘नहीं’| फिर उसने पूछा क्यूँ? तो उन्होंने कहा, एक स्थिति ऐसी आती है जब आदमी का अहंकार ही समर्पित हो जाता है| तो वर्चुअली जो आत्म के ऊपर आवरण पड़ा हुआ है वो समाप्त हो जाता है और वो आत्म ही हो जाता है| आत्मा होने के बाद अच्छे या बुरे किसी भी संस्कार के फल न मिलने को मुक्ति कहते हैं| उसी तरह से यह जो फ़ल की बात कही जा रही है, तो उस स्थिति में, जिसका रमण वर्णन करते हैं, वो कहते हैं कि ऐसी स्थिति भी आ जाती है जब किसी भी कर्म का, अच्छे या बुरे किसी का फ़ल नहीं मिलता|

वक्ता : फ़ल मिलने के लिए कोई होना चाहिए, जिसे फ़ल मिले| फ़ल मिला, किसको? जब शंकर कहते हैं कि बोध से तीनों प्रकार के कर्मों का विघलन हो जाता है| तो क्या कहते हैं? यही कहते हैं न कि जिसको सज़ा मिल सकती थी, वही नहीं रहा| जिसको फ़ल मिलता, वही नहीं रहा| आपने पूछा था न अभी कि लोग अपने कर्म फ़ल भुगत रहे हैं| कौन भुगत रहा है कर्म फ़ल? हमने क्या कहा था? वो जो उन कर्मों को अपना कर्म समझता है, उन कर्मों का फिर फ़ल भी भुगतेगा| जो उस कर्म के साथ बद्ध है ही नहीं, वो फिर उस फ़ल के साथ भी कहाँ से बद्ध हो जाएगा|

श्रोता: मेरा कर्ता कहाँ से आएगा?

वक्ता: ठीक है, कल कुछ हुआ था| जो कल समय में था, मुझे उससे कुछ आसक्ति है नहीं| तो उसके किए हुए से मुझे कहाँ से आसक्ति हो जाएगी? एक बात कह रहा हूँ, उसको थोड़ा सा समझेंगे–

”कर्म फ़ल मिलता नहीं है, ग्रहण किया जाता है”|

ग्रहता समाप्त हो गई, कर्म फ़ल समाप्त हो जाएगा| कर्म फ़ल कभी मिलता नहीं है| बात को थोड़ा आगे बढ़ाएँ तो यूँ भी कह सकते हैं कि कर्म फ़ल माँगा जाता है|

श्रोता: कर्म फ़ल खुद ही उत्पादित किया जाता है |

वक्ता: कर्म फ़ल ग्रहण किया जाता है| मैं हूँ इस फ़ल का वारिस, मुझे दो|

श्रोता: ग्रहण करने में आपको लगता है कि दूसरा कोई दे रहा है|

वक्ता: हाँ, दूसरा ही कोई दे रहा है|

श्रोता: दूसरा कौन ?

वक्ता: स्थितियाँ हैं| आप माँग रहे हो उनसे| मेरे पिता की संपत्ति है, मुझे दो| आप ग्रहण ना करो तो वो फ़ल आपको नहीं मिलेगा| ग्रहण करने वाला मन मौजूद है इसीलिए कर्म का फ़ल मिलता है| आप मत करो ग्रहण, कोई फल नहीं मिलेगा| हम तैयार बैठे हैं| हमें कर्म से आसक्ति है और कर्म हमारे लिए है क्या? सिर्फ फ़ल पैदा करने का तरीका| मैं पूछ रहा हूँ, हमारे लिए कर्म क्या है? हम किसी भी कर्म में क्यूँ उतरते हैं?

श्रोता: फ़ल के लिए उतरते हैं|

वक्ता: ताकि फ़ल मिले! ताकि फ़ल मिले उसका और फ़ल निश्चित रूप से वही, जो हमें प्रिय हो| तो हमें जैसे कर्म से आसक्ति है, वैसे ही हमें कर्म फ़ल से आसक्ति है क्यूँकी हमारे लिए कर्म है ही कर्म फ़ल की खातिर| आप कर्म फ़ल के ग्राहक बनना छोड़ो, वो आपको मिलेगा नहीं, बिलकुल नहीं मिलेगा|

श्रोता: इसके साथ परेशानी यह है न कि वो वाला अनुभव आती है कि कोई हिसाब लिख रहा है और आपका हिसाब किया जा रहा है फिर आपको बाद में दिया जाएगा| उस तरह की एक छवि बन रही है|

वक्ता: छवि बिलकुल ठीक है| प्रकृति में फ़ल लगातार है और जो तुमने शब्द इस्तेमाल किया कि हिसाब लिखा जा रहा है, हिसाब भी लिखा जा रहा है| इसमें कोई शक़ नहीं है| एक-एक जो मैं खा रहा हूँ, दशमलव के पाँचवे अंक तक इसकी कैलोरी गिनी जा रही है| अभी मैं बिस्कुट खा रहा हूँ और दशमलव के पचासवें अंक तक शरीर इसकी कैलोरी गिन रहा है| फ़ल मिल के रहेगा, तो हिसाब बिलकुल लिखा जा रहा है| प्रकृति तो है ही कार्य-कारण का लेखा-जोखा, हिसाब-किताब| वहाँ पर तो तुम्हारे एक-एक क्षण का हिसाब लिखा जाता है| चित्रगुप्त कौन है? प्रकृति स्वयं चित्रगुप्त है| तुम ज़रा सा ईंधन जलाते हो, फॉसिल फ्यूल , उतने से भी वातावरण में कार्बन-डाई-ऑक्साइड की एक निश्चित मात्रा बढ़ रही है| इतने से भी! इतना सा भी छोड़ा नहीं जा रहा| जैसे कहते हैं न, “चित्रगुप्त इतना सा भी नहीं छोड़ता”| छोटे से छोटे, छुपे से छुपे कर्म को भी वो पकड़ कर लिख लेता है, ठीक वो हो ही रहा है| अस्तित्व क्या है? अस्तित्व चित्रगुप्त है| कार्य-कारण की श्रृंखला है लम्बी| किया तो फल आएगा| तुम जब तक प्रकृति के ही हिस्से हो, उसी से तादात्मय है तुम्हारा, तब तक जो हुआ है वो भुगतोगे क्यूँकी भुगतने वाला मौजूद है|

प्रकृति ही करती है और प्रकृति ही भोगती है| जब तुम वहाँ हो जाओगे, जहाँ न करना है और न भोगना है, तब तुम ग्रहण करने से मुक्त हो गए|

तब कर्म लगातार चल रहे हैं और कर्मों को जो ग्रहण करते हैं वो कर रहे हैं| तुमने वो आसक्ति छोड़ दी| हम नहीं करते ग्रहण, हम नहीं करते| बहुत दूर की कौड़ी है लेकिन, उसके लिए तुम्हें कहना पड़ेगा, बिस्कुट खा रहा है शरीर, ग्रहण कर रहा है शरीर| फूलेगा कौन? शरीर| हम नहीं फूलते पर तुम्हें वहाँ पर स्थित होना पड़ेगा, जहाँ पर शरीर फूलता है तुम नहीं फूलते| वो फिर अमरता है, वो मौत के पार जाने वाली बात है क्यूँकी यदि शरीर फूलता है और तुम नहीं फूलते तो जब शरीर जलेगा भी, तब तुम जलते नहीं| वो अमरता है|

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

सत्र देखें: आचार्य प्रशांत: कर्मफल मिलता नहीं, ग्रहण किया जाता है(You get, what you ask for)

इस विषय पर और लेख पढ़ें:

लेख २: कर्ताभाव भ्रम है

सम्पादकीय टिप्पणी:

आचार्य प्रशांत द्वारा दिए गये बहुमूल्य व्याख्यान इन पुस्तकों में मौजूद हैं:

अमेज़न : http://tinyurl.com/Acharya-Prasha nt फ्लिप्कार्ट : https://goo.gl/fS0zHf

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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