कर्मफल और पुनर्जन्म: क्या कहता है वेदांत || आचार्य प्रशांत, बातचीत (2020)

Acharya Prashant

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कर्मफल और पुनर्जन्म: क्या कहता है वेदांत || आचार्य प्रशांत, बातचीत (2020)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आज आपसे मैं पुनर्जन्म के बारे में बातचीत करना चाहता हूँ। मेरे मन में इसको लेकर कुछ सवाल हैं और जिनसे मैं बातचीत करता हूँ, उनके मन में तो काफ़ी हैं। तो कुछ प्रश्न हैं मेरे, वो मैं आपके सामने रखूँगा।

जब मैं बात करता हूँ पुनर्जन्म की तो वह ऐसा है कि अभी यह एक जन्म है, इससे पहले कुछ था और उससे यह पूरा जन्म प्रभावित हो रहा है। ऐसा मानता हूँ कि कुछ था पहले, शरीर से पहले, और उससे फिर यह पूरा जन्म प्रभावित हो रहा है। यूट्यूब पर भी मैंने काफ़ी वीडियोस देखे इसके ऊपर लेकिन पूरी स्पष्टता आ नहीं पाई। मैं जानना चाहता हूँ कि पुनर्जन्म होता क्या है। शरीर तो हमें पता है कि मरता है, फिर अगला शरीर आता है, और फिर अगला शरीर आता है, लेकिन क्या कुछ और होता है जो निरंतर चलता रहता है?

आचार्य प्रशांत: जो न जन्म लेता है, न मरता है, जिसकी कॉन्टिनुइटी (निरंतरता) है, जो समय से पहले भी था, समय की धारा के मध्य में भी है और समय, माने परिवर्तन, के आगे का भी है। वह चूँकि न जन्म लेता है, न मरता है, तो उसका शरीर से भी कोई सम्बन्ध नहीं है। तो शरीर से तो सम्बंधित जितनी चीज़ें हैं, वो भौतिक ही हैं।

पुनर्जन्म से अगर तुम्हारा मतलब है कि कोई चीज़ है जो देह में आती है और देह से निकल जाती है, तो ऐसा कुछ नहीं है जो देह में आएगा और देह से निकल जाएगा। देह तो पूरे तरीके से भौतिक है न, मैटेरियल ? मैटेरियल में तो मैटेरियल ही प्रवेश करेगा। तो अगर कुछ है भी जो देह में आ रहा है, तो फिर वह भौतिक हो गया। अगर कुछ है भी जो देह से निकल रहा है, तो वह भौतिक हो गया। भौतिक होने का मतलब है कि वह भी फिर यही मिट्टी, पानी, हवा का बना हुआ है और यहीं सब मिट्टी, पानी की दुनिया में ही कहीं बैठा रहता है। और जो कुछ मिट्टी, पानी से बना हुआ है, उसकी फिर क्या अहमियत है?

प्र: तो, आचार्य जी, आपने बोला कि जो भी शरीर से निकलेगा या जो भी शरीर में आएगा वह तो भौतिक ही है, उसका कोई मूल्य नहीं है। लेकिन क्या ऐसा होता है कि कुछ शरीर से निकलता है और कुछ शरीर में आता है, चाहे वह भौतिक ही हो?

आचार्य: शरीर से क्या निकलता है और शरीर में क्या आता है, यह तो तुमको पता ही है। भौतिक चीज़ों की ही जब बात कर रहे हो तो जो भौतिक चीज़ें आ रही हैं, जा रही हैं, उसका कुछ वज़न होता है, उसकी कुछ मैटेरियल प्रॉपर्टी (गुणधर्म) होती हैं।

हवा जाती है शरीर के अंदर, पानी जाता है, खाना जाता है। शरीर से गैस भी निकलती है, शरीर से तरल पदार्थ भी निकलते हैं। इन सब चीज़ों के बारे में तुम जानते ही हो। तो इन सबका अध्यात्म की दृष्टि से कोई महत्व नहीं है, न उनमें से कोई चीज़ ऐसी है जो तुम्हारी मौत के बाद बची रह जानी है। और जो चीज़ बची रह जानी है तुम्हारी मौत के बाद, उसका तुम्हारे विशिष्ट व्यक्तित्व से कोई लेना-देना नहीं है।

उदाहरण के लिए, तुमने पसीने की कुछ बूँदें ज़मीन पर गिरा दीं, और उसके बाद तुम्हारी मौत हो गई। तो तुम तो अब नहीं रहे, मृत्यु हो गई, लेकिन वो पसीने की बूँदें अभी भी ज़मीन पर पड़ी हुई हैं। वो पड़ी ज़रूर हुई हैं, तुम्हारे जाने के बाद वो चीज़ बच गई, लेकिन उसमें तुम्हारे व्यक्तित्व का कुछ नहीं है, उसमें राघव (प्रश्नकर्ता) जैसा कुछ नहीं है। तुम राघव हो, वो पसीने की बूँदें राघव की हैं, पर उनमें राघव जैसा कुछ नहीं है।

तो आप यह नहीं कह सकते कि राघव की जो पर्सनालिटी (व्यक्तित्व) थी, वह उन बूँदों में बच गई है, या कि उन बूँदों के पास कुछ भी ऐसा है जिसमें राघव के जीवन के सारे अनुभव समाए हुए हों। तो राघव का जो 'मैं' है, अहम्, वह गया राघव के साथ; अब कोई नहीं बचा जो बोल सके कि “मैं राघव हूँ”। वो पानी की बूँदें हैं, वो अब नहीं बोल सकती कि वो राघव हैं। वो बस मैटेरियल हैं, भौतिक हैं।

अध्यात्म का यह मतलब नहीं होता है कि तुम रूह वगैरह में यकीन करना शुरू कर दो। अध्यात्म बताता है कि आत्मा परम सत्य है जो न कहीं आ सकती है, न कहीं जा सकती है, न कहीं प्रवेश कर सकती है, न कहीं से बाहर निकल सकती है—यह मूल बात है। जो इस मूल बात को न समझे, उसने अभी अध्यात्म की शुरुआत ही नहीं करी।

आत्मा न कहीं आ सकती है, न जा सकती है, न रूप है, न रंग है, न आकर है, न वह किसी जगह पर पाई जाती है, न उसका कोई घर है। वह किसी वस्तु के भीतर नहीं हो सकती, वह किसी वस्तु से बाहर नहीं हो सकती। वह अनंत है, इसलिए किसी चीज़ में समा नहीं सकती। वह अद्वैत है, इसीलिए उसके अलावा दूसरा कुछ होता नहीं—यह आत्मा है। अगर आप धर्म की बात कर रहे हैं, सनातन धर्म की बात कर रहे हैं, उपनिषदों की बात कर रहे हैं, तो यह आत्मा है।

तो यह मूल सिद्धांत जिसको समझ में आ गया, वह फिर इस तरह की बात कभी करेगा ही नहीं कि मेरी आत्मा इधर से निकल कर उधर चली गई, मेरे पिछले जन्म में ऐसा हुआ था वगैरह। जो लोग ये बातें कर रहे हैं, वो वही हैं जिन्होंने अभी तक अध्यात्म को, धर्म को समझा ही नहीं है।

देश का जो आम नागरिक है, और दुनियाभर के बाकी देशों में भी, अंधविश्वास बहुत है। अंधविश्वास इसलिए है क्योंकि लोगों ने न विज्ञान पढ़ा है ठीक से, न अध्यात्म पढ़ा है; न आइंस्टीन, न उपनिषद्। तुम आम आदमी के पास चले जाओ, हज़ार लोगों के पास जाओ, उनमें से नौ सौ निन्यानवे ऐसे होंगे जिन्होंने न आइंस्टीन को पढ़ा है, न जिन्हें उपनिषद् समझ में आते हैं।

तो जब न तुम्हारे पास विज्ञान होगा, न अध्यात्म होगा, तो तुम्हारे पास होगा अंधविश्वास। और जब तुम्हारे पास अंधविश्वास होगा तो बहुत अपने आप पैदा हो जाएँगे गुरु वगैरह बन करके जो तुम्हारे अंधविश्वास को और बढ़ाएँगे। वो तुम्हारे अंधविश्वास को बढ़ाएँगे क्योंकि तुम पहले से ही अंधविश्वासी हो। जब तुमसे कोई और अंधविश्वास की बात की जाती है तो तुम तुरंत उनके चेले बन जाते हो और उनकी दुकान चलने लगती है। चूँकि तुम मूर्ख बने रहना चाहते हो इसीलिए वो तुम्हे और मूर्ख बनाते हैं।

प्र: तो ऐसा क्यों है कि देश का आम आदमी अंधविश्वास में इतना सुकून पाता है, वह अंधविश्वासी रहना चाहता है?

आचार्य: अंधविश्वास का विपरीत या अंधविश्वास से आगे होती है ‘समझ’। लेकिन समझने के साथ खतरे जुड़े होते हैं और समझने के साथ कीमत अदा करनी पड़ती है।

खतरे क्या जुड़े होते हैं? खतरे ये जुड़े होते हैं कि तुमने जो भी अपना पूरा विश्वासों का घर बनाया होता है, अपनी पूरी दुनिया रची होती है अपनी मान्यताओं के इर्द-गिर्द, वह दुनिया गिरेगी। यह खतरा होता है कि तुम्हारी दुनिया गिरेगी अगर तुमने किसी भी चीज़ की सच्चाई समझ ली। तो समझ के साथ यह खतरा जुड़ा है।

इसी तरह समझने की कीमत चुकानी पड़ती है। क्या कीमत चुकानी पड़ती है? समझने के लिए श्रम करना पड़ेगा, ध्यान देना पड़ेगा, हो सकता है ग्रंथों का अध्ययन करना पड़े, हो सकता है प्रयोग करने पड़ें, हो सकता है इधर-उधर जा करके बहुत चीज़ों को समझना पड़े, बहुत लोगों से बात करनी पड़े। अब इतना श्रम कौन करे?

लोग न खतरा उठाना चाहते हैं, न कीमत देना चाहते हैं। वही आलस, तमसा। तो फिर समझ का सस्ता विकल्प हो जाता है अंधविश्वास, कि यह मान लो कि एक चीज़ होती है आत्मा और वो आदमी में एक जन्म से दूसरे जन्म तक आती-जाती रहती है। अब यह जो भ्रान्ति फैली हुई है, यह कहीं से भी उनके द्वारा नहीं आ रही है जिन्होंने तुम्हें मौलिक रूप से बताया था कि आत्मा क्या है।

आत्मा का जो पूरा विवरण है, उसका जो पूरा ज्ञान है, वह तो तुम्हारे पास मौलिक रूप से उपनिषदों से ही आ रहा है न? और उपनिषद् ही तुम्हें बता रहे हैं कि आत्मा अचल है और अनंत है। जो अचल और अनंत है, उसको तुमने मान कैसे लिया कि वह एक शरीर से दूसरे शरीर में चला जाएगा? लेकिन कौन अब मेहनत करे उपनिषदों को पढ़ने की, तो यूँ ही कोई सस्ती धारणा उठा लो और उसमें यकीन करना शुरू कर दो।

साथ-ही-साथ बहुत सारी आपकी जो अहंकार युक्त भावनाएँ और धारणाएँ होती हैं, उनको बचाए रखने में इस तरह की पुनर्जन्म की जो सारी परिकल्पना है वह बहुत काम आती है। जैसे कि आप कोई दुःख भोग रहे हैं और आप ज़िम्मेदारी नहीं उठाना चाहते, तो आप कह देंगे, "भाई, यह तो मेरे पिछले जन्म का फल है।"

आप सीधे यह नहीं कहेंगे कि, “पीड़ा तो संसार और संयोग से आ सकती थी, लेकिन दुःख किसी को तब ही मिलता है जब उसकी सहभागिता होती है।” पीड़ा और दुःख में अंतर होता है। दुःख अपनी ज़िम्मेदारी होती है। आपने कहीं-न-कहीं अपनी ज़िम्मेदारी नहीं उठाई है, कहीं-न-कहीं आपने गलत चुनाव किए हैं इसलिए आपको दुःख मिल रहा है, अन्यथा आपको अधिक-से-अधिक पीड़ा मिल सकती थी, दुःख नहीं। दुःख मानसिक होता है। तो वह ज़िम्मेदारी उठाने का कष्ट न मिले, इसलिए आप कह देते हैं कि यह तो पिछले जन्म की बात है।

इसी तरीके से सामाजिक स्तर पर कुछ वर्ग हैं अगर जो पिछड़े हैं, जिनका शोषण हुआ है, कोई सवाल करे कि ये कष्ट में क्यों जी रहे हैं, तो आप अपनी इस धारणा का तुरंत एक सस्ता सहारा लेकर बोल दोगे कि यह तो अपने-अपने कर्म की और पुनर्जन्म की बात है। इन्होने पिछले जन्म में कुछ गलत किया था, तो ये इस जन्म में दुःख भोग रहे हैं इत्यादि, इत्यादि।

फिर जैसा अभी थोड़ी देर पहले भी कहा था कि जब गुरु लोग ही ऐसे पैदा हो जाएँ जो अपनी सत्ता चलाने के लिए बताएँ कि, "मैं पिछले जन्म में ऐसा था, मैं पिछले जन्म में वैसा था”, तो आम जनता फिर और वहम में पड़ती है। अब गुरु महाराज को यह तो जताना ही है न कि वो किसी तरीके से ख़ास हैं, तो उन्होंने सीधे-सीधे यह गुब्बारा उड़ा दिया कि मुझे पिछले पाँच-सात-दस जन्म याद हैं। मक्कारी है, झूठ है, धोखा है!

जो व्यक्ति ऐसा कह रहा है, यह तो छोड़ दीजिए वो गुरु होने योग्य है या नहीं, वह सीधे-सीधे अपराधी है। उसे गुरु की गद्दी पर नहीं, उसे जेल में होना चाहिए। वह जानबूझ करके लोगों को धोखा दे रहा है, अंधविश्वास फैला रहा है समाज में, अपराध कर रहा है।

प्र: तो हम जब अपने सामने ऐसे लोगों को देखते हैं जो काफ़ी हिंसा कर रहे हैं, मतलब काफ़ी मार-काट मचाई हुई है किसी ने, तो हमें लगता है यह भुगतेगा अगले जन्म में या कुछ तो बुरा होगा इसके साथ। तो क्या वह सब गलत है? जो इस जन्म उसने किया, वह सब इसी जन्म में ख़त्म हो गया?

आचार्य: आगे क्या भुगतेगा, वह अभी भुगत रहा है!

प्र: हिटलर ने इतने लोगों को मारा, गैस चैम्बरों में मारा, और आखिर में सुसाइड (आत्महत्या) करके मर गया, ख़त्म वहाँ पर कहानी। तो वह गलत काम करते वक्त कहाँ भुगत रहा था?

आचार्य: हिटलर के भीतर क्या चल रहा था तुमको पता है क्या? कर्म का परिणाम भविष्य में या अगले जन्म में क्यों मिले जब वह तुमको तत्काल मिल रहा है?

देखो, भौतिक जगत की भाषा में हम कहते हैं कि कॉज़ (कारण) पहले आता है, इफ़ेक्ट (कार्य) बाद में आता है, है न? आतंरिक जगत में कारण और कार्य, कॉज़ और इफ़ेक्ट , साथ-साथ होते हैं। एक ही समय पर, समसामयिक, तुरंत एक साथ घटते हैं। माने कि तुम अगर कुछ बुरा कर रहे हो, तो बुरा होकर ही तो बुरा कर रहे हो न? और बुरा होना अपना दण्ड स्वयं होता है, तो तुम्हें मिल गई सज़ा। आतंरिक तौर पर तुम्हें तत्काल मिलती है सज़ा, तुम्हें इंतज़ार नहीं करना पड़ता कि आगे कभी सज़ा मिलेगी।

तो जो पूरे कर्म का और कर्मफल का सिद्धांत है वह हमने ठीक से समझा नहीं है। हम स्थूल लोग हैं, तो हम स्थूल घटनाओं की ही परवाह करते रहते हैं। हमें लगता है कि अभी अगर मैं कुछ बुरा कर रहा हूँ, तो आगे मुझे उसका दुष्परिणाम मिलेगा। नहीं, स्थूल रूप से हो सकता है आपको दुष्परिणाम मिले, सूक्ष्म रूप से आपको परिणाम मिल चुका है। हाँ, आपको दिखाई नहीं दे रहा क्योंकि आपकी आँखें अभ्यस्त नहीं हैं सूक्ष्म को देखने की।

अब ऐसे उदाहरण ले लो। बहुत अच्छा उदाहरण नहीं है लेकिन कुछ बात तुमको समझ आ जाएगी इससे। तुम मान लो बहुत व्यभिचारी वृत्ति के हो, ठीक है? तुम वैश्या गमन करते हो और तुमको एचआईवी (एड्स) का संक्रमण हो गया। अब आज रात तुमको लग गया इन्फेक्शन। कर्म गलत किया, तुम्हें इन्फेक्शन तत्काल लग गया। तुम्हें मिल गया परिणाम। लेकिन वह परिणाम खुले रूप में तुम्हारे सामने आएगा कुछ महीनों बाद या हो सकता है कुछ सालों बाद। तो तुमको ऐसा लगेगा जैसे मैंने तीन साल पहले गलत हरकत करी थी और तीन साल बाद मुझे उसका परिणाम मिला। नहीं, तीन साल बाद परिणाम सामने आया, परिणाम मिल तो उसी समय गया था जिस समय तुमने वह हरकत करी थी।

तो कर्मफल ऐसे ही काम करता है। जब तुम कुछ गलत कर रहे होते हो तभी तुमको उसका परिणाम मिल जाता है। मैं तो उससे और आगे जाकर बोलूँगा—जब तुम कुछ गलत कर रहे होते हो, उसका परिणाम तुम्हें उसके पहले ही मिल चुका होता है। यह बात बहुत लोगों के समझ में आने की नहीं है। कर्म से पहले ही तुम्हें कर्म का परिणाम मिल चुका होता है; क्योंकि बुरा काम करने के लिए पहले तुम्हें बुरा होना पड़ता है, और बुरा होना अपनी सज़ा आप है।

भाई, तुम कोई गलत काम कर रहे हो। गलत काम तुम कैसे कर लोगे? उसके लिए पहले तुम्हारे मन को गलत होना पड़ेगा न? मन को गलत कर लिया तुमने, तो तुमने दे ली न अपने-आप को सज़ा? और अब तुम्हें क्या सज़ा चाहिए, तुम अब अंदर-ही-अंदर तड़पोगे। तड़प तो हमेशा आतंरिक ही होती है न?

तुम्हारे हाथ पर भी मैं मार दूँ, तो भी वास्तव में पीड़ा मन को होती है, अंदर होती है। मन अगर सोया हुआ है तुम्हारा, मान लो तुम बेहोश हो, तुम्हारे हाथ पर हम कितनी भी चोट कर लें, तुम्हें दर्द होगा? तो दर्द किसको होता है, हाथ को होता है, कि मन को होता है?

प्र: मन को।

आचार्य: मन को होता है न। और मन बेहोश हो तो दर्द होता नहीं। तो हमेशा जो कष्ट मिलता है, वह मिलता मन को ही है। और मन का सबसे बड़ा कष्ट यही है कि मन बुरा हो गया, मन अशांत हो गया। कोई भी बुरा काम अशांत होकर ही तो करोगे? कोई भी बुरा काम करने के लिए पहले तुम्हारी सब धारणाएँ उलटी-पुलटी होंगी तभी तो करोगे? लो मिल गयी न मन को सज़ा!

तो बुरा काम करने से पहले ही तुम्हें उसके कुपरिणाम, दुष्परिणाम मिल जाते हैं। तो कर्मफल का सिद्धांत तो बड़ा ज़बरदस्त है, लेकिन हम उसे समझते नहीं हैं। चूँकि हम समझते नहीं हैं इसीलिए फिर हमने पुनर्जन्म जैसी रूढ़ियाँ पकड़ ली हैं, और इन रूढ़ियों के साथ बड़ी गड़बड़ है।

उदाहरण के लिए तुम कहोगे कि "मैं आज बुरा काम कर रहा हूँ तो मुझे कल उसकी सज़ा मिलेगी।" भीतर से तुम्हारा कुतर्की मन क्या बोलेगा? बोलेगा, "अगर सज़ा मान लो मिलनी है एक साल बाद, तो एक साल तक तो मौज कर लें। हो सकता है एक साल से पहले ही मौत हो जाए। फिर काहे को हमें सज़ा मिलेगी?" या फिर "आज चलो बुरा काम कर लेते हैं। इसकी सज़ा अगर एक साल बाद मिलनी है तो बीच में तीन सौ चौंसठ दिन तक पुण्य कर लेंगे, तो बात बराबर हो जाएगी।"

जब भी कभी तुम कर्मफल के परिणाम को भविष्य में धकेल दोगे, तुम अपने-आप को छूट दे दोगे बुरा काम करने की।

"भाई, सज़ा तो मुझे मिलनी है, परिणाम तो घोषित होगा तीन सौ पैंसठवें दिन, तो आज मैं जी भर के बुरा काम कर लूँ। तीन सौ चौंसठ दिन अच्छे काम कर लूँगा, बात बराबर हो जाएगी।" और लोग ऐसे तर्क अपने आप को देते भी हैं इसीलिए दुनिया में बुराई कायम है।

कर्मफल की बात तुम्हें शास्त्र ने इसलिए बताई है ताकि तुम अभी चेतो। तुम्हें पता हो कि अभी ही, तत्काल ही तुम्हें तुम्हारी करनी का फल मिल गया। आगे नहीं मिलेगा, मिल गया! अब सहमोगे, अब नहीं तुम कुछ बुरा कर सकते।

और जब तुम कहते हो, "मैं जो कुछ कर रहा हूँ इसका फल मुझे अगले जन्म में मिलेगा”, तब तो तुमने बात को न जाने कितना आगे टाल दिया। "अगले जन्म की देखी जाएगी अगले जन्म में।" अरे! तुम्हें यह भी बता दिया जाए कि इसका फल तुम्हें तीन दिन बाद मिलेगा, तुम तब तो रुकते नहीं बुराई करने से, या रुक जाते हो? तुमसे यह भी कह दें कि तीन दिन बाद परिणाम आएगा, तुम तब तो रुकते नहीं। तुम कहते हो, "तीन दिन हैं न बीच में।" तुमसे बोला जाए कि तुम आज जो कर रहे हो उसका परिणाम तुम्हें तीन जन्म बाद मिलेगा, तो तुम कैसे रुक जाओगे?

तो आदमी ने यह 'अगले जन्म में परिणाम मिलेगा', यह तरकीब निकाली ही इसलिए है ताकि बुराई करने से रुकना न पड़े।

हम सोचते हैं कि किसी को बोल रहे हैं कि, "देखो, तुम गलत काम कर रहे हो, अब अगले जन्म में तुम चींटी बनोगे या बन्दर बनोगे", तो इस बात से वह सहम जाएगा। नहीं। कोई बुरा काम कर रहा है, तुम उसको बोलोगे कि अगले जन्म में चींटी बनोगे, बन्दर बनोगे, तो वह सहम नहीं जाता, वह राहत की साँस लेता है। वह कहता है, "अगले जन्म में बनेंगे न। अगला जन्म किसने देखा है? होता है, नहीं होता है। होता भी है तो देखेंगे अगले जन्म में। और फिर चींटी बनने में बुराई क्या है, चींटी की भी अपनी मौज होती है। बन्दर बनने में क्या बुराई है?” बहुत कुतर्की लोग हैं। “बन्दर देखो डाल-डाल फिरता है आज़ादी से, सेहतमंद खाना खाता है,” खूब तर्क आप दे सकते हो।

लेकिन जब आपको पता चले कि जो कर रहे हो उसका भुगतान अभी है, तब कोई तर्क काम नहीं आएगा। तर्क देने से पहले ही परिणाम मिल जाएगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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