प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जिस दिन से शिविर में आया हूँ, खाँस रहा हूँ। हो सकता है पहले भी खाँसता होऊँगा, पर वो इतना महसूस नहीं होता था जितना अब शिविर में हो रहा है। इससे बड़ी शर्मिंदगी महसूस हो रही है, और ऐसा लग रहा है कि इससे सभी लोगों की शांति भंग हो रही है। कल इस बारे में एक स्वयंसेवक से बातचीत हुई, तो उन्होंने बताया कि आचार्य जी जब बात कर रहे होते हैं, उस माहौल में अगर थोड़ी-सी भी आवाज़ आती है, तो वो विचलन पैदा करती है, और उनको चुभती है।
थोड़ा हीनता का भाव महसूस हुआ और सोचा कि आज सत्र में ना जाऊँ, पर फिर लगा कि कुछ छूट जाएगा। तो ये जो हीनता का भाव महसूस हो रहा है, ये क्या है? क्या मैं ये ठीक महसूस कर रहा हूँ, या इसमें मेरी कोई ग़लती है?
आचार्य प्रशांत: कोई कर्म क्यों हो रहा है, ये जानना हो तो एक नुस्खा दे देता हूँ। ये देख लो कि उस कर्म का परिणाम क्या होगा। उस कर्म का जो परिणाम होने वाला है, ये कर्म हो ही उसी के लिए रहा था।
किसी कर्म के पीछे क्या है, ये जानना हो तो ये देख लो कि उस कर्म के आगे क्या है। आगे क्या है? परिणाम। पीछे क्या है? कारण।
कारण क्या है किसी कर्म का, ये जानना हो तो उस कर्म का परिणाम देख लो।
कह रहे हैं कि खाँस रहे हैं तो बड़ी शर्मिंदगी हो रही है और एक बार को ख़याल आया कि आज सत्र में भी ना आएँ। ये शर्मिंदगी अगर ऐसी ही रही और बढ़ती गई, तो अगले सत्र में ये आएँगे भी नहीं। तो खाँसने का परिणाम क्या हुआ? सत्र में नहीं आए।
तो खाँसी इसीलिए आ रही थी क्योंकि आपके शरीर में कोई बैठा है जो नहीं चाहता कि आप सत्र में आएँ। खाँसी का परिणाम यही होगा न कि आप सत्र में नहीं आएँगे? तो खाँसी आई भी इसीलिए थी, ताकि आप उठकर निकल जाएँ। कोई है आपके भीतर जिसको बिलकुल ठीक नहीं लग रहा कि आप यहाँ बैठे हैं। उसको पहचानिए।
तुम जो कुछ कर रहे हो, उसको देख लो कि उसका अंजाम क्या होने वाला है। और जो अंजाम होने वाला है न, वो घटना हो ही इसीलिए रही है।
तुम्हारी, तुम्हारे पति से नहीं बनती। तुम देखोगे कि तुम बहुत सारे और काम ऐसे करने लग गए हो जो पति को पसंद नहीं हैं। और ये काम तुम ये सोचकर नहीं कर रहे कि पति को बुरा लगे। वो काम बस होने लग गए हैं। तुम ये देख लो कि तुम ये जो कर रहे हो, इसका अंजाम क्या होगा। इसका अंजाम ये होगा कि लड़ाई होगी, और लड़ाई के बाद सम्बन्ध-विच्छेद हो जाएगा। तुम जो कुछ भी कर रहे हो, तुम उसका अंजाम देखो। अंजाम ये है कि तुम ये करोगे तो सम्बन्ध-विच्छेद हो जाएगा। रिश्ता टूटेगा।
तो साफ़ समझ लो कि तुम्हारा मन तुमसे वो हरकत करा ही इसीलिए रहा है क्योंकि कहीं-न-कहीं तुम उस रिश्ते को तोड़ना चाहते हो। तोड़ना चाहते हो, सीधे-सीधे तोड़ नहीं सकते, तो इधर-उधर के काम कर रहे हो ताकि उन कामों के बहाने रिश्ता टूट जाए।
तुम्हारी जो चाहत है कि सम्बन्ध टूट जाए, वो अप्रकट चाहत है, वो गुप्त चाहत है, वो अचेतन चाहत है। तुम्हें उस चाहत का कुछ साफ़-साफ़ पता भी नहीं। पर वो चाहत तुमसे विचित्र काम कराएगी कई। उन कामों का परिणाम देख लो।
जिस रास्ते जा रहे हो, उसका अंजाम देख लो। अंजाम यही होगा न कि रिश्ता टूट जाएगा। तो तुम जो कर रहे हो, वो कर ही इसीलिए रहे हो क्योंकि तुम्हें वो रिश्ता तोड़ना है। अब अगर रिश्ता तोड़ना चाहते हो, तो जो कर रहे हो, वो करते जाओ। नहीं तोड़ना चाहते, तो थम जाओ।
प्र: पर आचार्य जी खाँसी तो शारीरिक बात है।
आचार्य: अरे जो शारीरिक है, वो शारीरिक ही होता, तो क्या बात थी। कैसी बातें कर रहे हैं? ये जो साँस है, ये तो शारीरिक ही होती है। ऑक्सीजन अंदर जाता है, इस्तेमाल होता है, कार्बन-डाई-ऑक्साइड बाहर आ जाती है। तो शारीरिक ही है सबकुछ। एटम्स , मॉलीक्यूल्स का खेल है। तो फिर कोई सुन्दर स्त्री दिख जाती है, तो ये साँस क्यों ऊपर-नीचे होने लगती है? मामला तो केमिस्ट्री का होना चाहिए था, इसका किसी की सूरत से कैसे सम्बन्ध बन गया? बनता है या नहीं?
शारीरिक सिर्फ़ शारीरिक होता है क्या? ये दिल की धड़कन बढ़ने कैसे लग जाती है जहाँ रुपये-पैसे की बात आई? दिल तो धड़कता है सिर्फ़ इधर-उधर खून पहुँचाने के लिए। ये रुपया-पैसा देखकर दिल ज़्यादा क्यों धड़कने लग गया? दिल का ताल्लुक़ रुपये से कैसा?
शारीरिक अंग, सिर्फ़ शारीरिक नहीं होता। माया उसपर भी बैठी हुई है। साँसों पर भी माया बैठी है, दिल की धड़कन पर भी माया बैठी है। खाँसी पर भी माया बैठी है।
प्र: तो क्या करना चाहिए फिर?
आचार्य: जी भरकर खाँसों फिर। बस भाग मत जाना।
(श्रोतागण हँसते हैं)
पहचान लो कि कोई है, जो तुम्हें यहाँ से भगाने को आतुर है। पहचान लो। और बोलो, “तू जितना चाहेगी कि मैं यहाँ से जाऊँ, मैं उतना ही डेरा डालकर बैठूँगा।” वज़ह का आपको कुछ पता नहीं। हमने पहले ही दिन बात की थी न कार्य-कारण की? हमने कहा था, “हमें क्या पता पीछे क्या है?”
पीछे क्या है, वो जानने का एक ही तरीका है असली – आगे क्या है। जो कर रहे हो, उसका अंजाम देख लो। जो अंजाम है उसी के लिए पीछे जो हुआ सो हुआ।
ये बात अजीब लगेगी। तुम कहोगे, “ऐसा होता है क्या? ऐसा तो कोई सम्बन्ध बनता दिख नहीं रहा।” पर बात वही असली है।
जनवरी, फरवरी, मार्च, खाँसता ही रहा मैं। तो, चला जाऊँ? हम कह रहे थे न, “बाहर कुत्ते भौंक रहे हों, उनका हक़ है कि वो भौंकें, और हमारा हक़ है कि हम अपना काम करें।” और हमने ये भी कहा था – “कुत्ते बाहर ही नहीं होते, कुत्ते असली भीतर बैठे हैं।”
पाशविकता भीतर बैठी है। भीतर का कुत्ता भौंकता है, हम कहते हैं, “खाँसी आ रही है।” वो खाँसी नहीं है, वो भौंकना है। जब खाँसो तो समझ लो कि कोई भीतर से भौंक रहा है। अपना काम करने के लिए स्वतंत्र है, उसे करने दो उसका काम। बल्कि उसको रोकोगे तो और कुलबुलाएगा।
खाँसी तो संक्रामक होती है, सिर्फ़ इसलिए नहीं कि बैक्टीरिया फैलते हैं; याद आ जाती है। एक आदमी खाँसे, दो-चार आदमी और खाँसने लगते हैं। इस सबका सम्बन्ध मन से है। तुम बैठे हो, बैठे हो, बात कर रहे हो, गला खराब चल रहा है, तभी तुम्हें याद आ जाए कि गला खराब चल रहा है, विचार आ जाए कि गला खराब चल रहा है, तुरंत खाँसने लगोगे। विचार नहीं आया, तो चल रहा है काम।