करने से पहले सोचने की ज़रूरत || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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करने से पहले सोचने की ज़रूरत || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

प्रश्नकर्ता: सर, कहा जाता है कि कोई भी काम करने से पहले उसमें सोचना-विचारना ज़रूरी है। लेकिन मेरी ऐसी आदत है कि जो भी मैं सोचता हूँ, उसे कर देता हूँ। ये हमारे लिए अच्छा होगा या बुरा?

आचार्य प्रशांत: दोनों हो सकते हैं, निर्भर करता है कैसे। अगर मुद्दा उलझा हुआ है, तो सोच एक अच्छा उपकरण है। तुम्हारे मन के पास सोचने की जो क्षमता है, वो एक अच्छी ताकत है, यदि मुद्दा उलझा हुआ है। लेकिन ध्यान देना कि सोच की अपनेआप में कोई अहमियत नहीं है। सोच की अहमियत बस ये है कि सोच ख़त्म हो करके समझ बन जाती है।

वो सोच जो चलती ही रहे, वो माथे का बोझ है। ऐसी सोच जो चले ही जा रही है, वो सिर्फ सर का बोझ है। सोच भी वही अच्छी है जो जल्दी ही शांत हो जाए क्योंकि मुद्दा सुलझ गया। उलझन सुलझ गई, अब सोचना क्या?

तो सोच सिर्फ एक अस्थाई स्थिति हो सकती है। अगर वो निरंतरता में आ गई, कि ये चिंतक हैं, ये दिन-रात चिंता करते हैं। तुमने देखे होंगे कई ऐसे जो दिन-रात सोचते ही रहते हैं। तो फिर अब वो आदमी पागल हो जाएगा। अगर तुम दिन-रात सोचने में ही लग गए, तो पागल ही हो जाओगे।

सोचना भी वही भला, जो कुछ देर चले और फिर शांत हो जाए। जैसे एक उपकरण का प्रयोग किया जाता है। प्रयोग किया, काम हो गया। अब क्या सोचना? अब हम नहीं सोचते। खत्म सोचना-विचारना। अब हम निर्विचार, चुप, शांत हैं। तो अगर तुम कह रहे हो कि बिना सोचे कर डालते हो, तो बहुत अच्छी स्थिति है यदि स्पष्टता है। जब स्पष्टता पहले से ही है तो और सोचकर क्या करना है? पर यदि स्पष्टता नहीं है और तब भी नहीं सोच रहे, तो गड़बड़ है। ‘सोच’ एक उपकरण है, जिसका सही प्रयोग होना चाहिए। कब होना चाहिए इसका प्रयोग? जब मामला…?

प्र: उलझा हुआ हो।

आचार्य: लेकिन अगर तुमने ये हरकत कर दी कि सब कुछ स्पष्ट है, बात सीधी है पर फिर भी तुम उलझे हो, व्यर्थ ही उलझे-उलझे हो, तो तुम समय नष्ट कर रहे हो, दिमाग ख़राब कर रहे हो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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