प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मैं जब भी संतों की वाणी सुनता हूँ तो मेरे मन में आता है कि मैं इन जैसा क्यों नहीं हूँ, मुझमें और इनमें इतना अंतर है।
आचार्य प्रशांत: कई बार ये कहना कि मैं वैसा नहीं हूँ जैसा मुझे होना चाहिए, बुल्लेशाह और मेरे तल में बहुत अंतर है; या मैं अभी तैयार नहीं हूँ या मैं अभी हाँ नहीं बोल सकता। हम सभी कहते हैं न कि अभी हम इस लायक नहीं हैं, इस क़ाबिल नहीं हैं। ये बोलना बदलने के ख़िलाफ़ हमारी आंतरिक साज़िश होती है।
अभी तो मैं वैसा हूँ ही नहीं। जब मैं वैसा हूँ ही नहीं तो मेरे ऊपर कोई ज़िम्मेदारी नहीं है वैसा जीवन जीने की। वैसा जीवन तो वो जिये न जो वैसा हो। और मैं तो भाई पहले ही कह देता हूँ कि मैं वैसा अभी हूँ ही नहीं। और मैं ये भी नहीं कह रहा हूँ कि आगे वैसा हो जाऊँगा। मैं तो ये जानता हूँ कि मैं वैसा हूँ नहीं।
आप देखिए कि ये कहकर के आप अपनेआप को छूट दे देते हैं, अनुज्ञा, वैसा ही बने रहने की जैसा अभी आप अपनेआप को सोचते हैं। आप समझ रहे हैं न बात!
और ये तर्क आपने ख़ूब सुना होगा कि भाई, वो बड़े-बड़े लोग थे, हम तो छोटे लोग हैं, हम उनके जैसे थोड़ी हो जाएँगे। भई, कुछ बातें होती हैं जो बुल्लेशाह के बस की होती हैं, हमारे बस की थोड़ी हैं। हम तो साधारण जीव हैं।
ये सुना है?
इसको आप ह्यूमिलिटी (विनम्रता) मत समझ लीजिएगा। इसको आप ये मत समझिएगा कि ये कहने वाले की विनम्रता है। विनम्रता नहीं है, ये खुल्ली चालाकी है। ‘मैं वो हूँ ही नहीं।’ अच्छा!
पहले मानिए और फिर देखिए उस मानने से क्या नहीं होता है। कन्फर्म (निश्चित) करिए। कन्फर्मेशन प्रोसीड्स ट्रान्स्फर्मेशन (पुष्टिकरण परिवर्तन को आगे बढ़ाता है।) आप कन्फर्म करेंगे कि हैं, मानेंगे, तब न आप पर दायित्व आएगा वैसा होने का।
आप आख़िर तक यही कहते रहो कि नहीं अभी तो हम बच्चे हैं, अभी हम बड़े हुए ही नहीं। कोई लगातार यही कहता ही रहे कि मैं बच्चा हूँ तो वास्तव में उसमें कभी वयस्कता आएगी नहीं। पहले मानना पड़ता है। हमें सिखाया ही गया है कि न, पहले हो जाओ, तब कहो। ये बात नैतिकता के आधार पर ठीक है, सामाजिकता के आधार पर ठीक है, पर सत्य में ये नहीं चलती।
सत्य में चूँकि कुछ होना तो होता ही नहीं है, कुछ बदलना तो होता ही नहीं है, तो इसीलिए यहाँ पर इस बात का कोई मूल्य ही नहीं है कि पहले हो जाओ और फिर उद्घोषणा करना। हो जाने का सवाल क्या है, क्या होना है! जो होना है वो तो तुम हो ही। कमी किस बात की है? कमी है मानने की। तो होना नहीं है, क्या करना है? मानना है।
ये बात समझ में आ रही है? ये बहुत महत्वपूर्ण बात है।
अध्यात्म में कुछ होना नहीं पड़ता है। कुछ होना नहीं पड़ता है। संसार में होना पड़ता है। संसार में बिकमिंग (हो जाना) है। अध्यात्म में कोई बिकमिंग नहीं होती। वहाँ कहीं पहुँचना नहीं, कुछ होना नहीं। तो ये जो तुम अपने ऊपर ज़िम्मेदारी लेते हो न कि मेरे भीतर से पहले ईर्ष्या हटे, ये हटे, वो हटे, उसके बाद मैं इस लायक हो जाऊँगा कि मैं किसी को इस बारे में उपदेश दूँगा, ये बात गड़बड़ है।
असल में कुछ पुरानी कहानियाँ भी हैं इस तरीक़े की कि कोई संत थे। तो उनके पास कोई आया और बोला कि हम शक्कर ज़्यादा खाते हैं। उन्होंने कहा, ‘कल-परसों आना।’ फिर जब वो आया तो उन्होंने कहा कि शक्कर कम खाया करो। तो उसने पूछा कि इतनी सी बात थी तो दो दिन पहले क्यों नहीं बोल दी? तो बोले, ‘दो दिन पहले हम भी शक्कर ज़्यादा खाते थे। अब हमने शक्कर खानी छोड़ दी है तो लायक़ हुए कि तुम्हें बता सकें।’
वो जो कहानी है वो दूसरे दृष्टिकोण से कही गयी थी। पर उसका जो नैतिक अर्थ निकलता है वो ये निकलता है कि पहले कुछ बन जाओ, फिर दूसरों को नसीहत देना। संसार में वो बात ठीक है कि पहले कुछ बन जाओ, फिर नसीहत देना। जिसे हिमालय चढ़ना हो, वो उसी से नसीहत ले जो पहले हिमालय चढ़ चुका हो। जो अभी चढ़ा नहीं, वो दूसरों को क्या उपदेश दे रहा है।
संसार में ठीक है; अध्यात्म में ठीक नहीं है। यहाँ पर ‘हो जाने’ जैसा कुछ होता नहीं। ये मूलभूत बात है, इसे अच्छे से समझ लीजिए।
अध्यात्म में बदलाव जैसा कुछ होता नहीं। यहाँ ट्रान्स्फ़र्मेशन (परिवर्तन) का अर्थ सिर्फ़ रियलाइज़ेशन (बोध) होता है। जानना, बदलना नहीं है। आप जान गये, यही बदलाव है। और कोई बदलाव नहीं चाहिए। जान गये, जाग गये, जो भी कहिए। अन्यथा और कोई वस्तुगत बदलाव नहीं आ जाना है। आप जाग जाते हो, यही बदलाव है।
आप ‘हाँ’ कह देते हो, ‘हाँ’ कह देने से आप कुछ नया ले नहीं आये, जो था उसी को ‘हाँ’ कह दी, यही बदलाव है। इसके जो अर्थ हैं वो बड़े दूरगामी हैं। इसके अर्थ ये हैं कि आपके पास कोई बहाना हो नहीं सकता और बहाना है तो वो चल नहीं सकता।
हम सबके पास बहाने हैं। बहाने क्या हैं? अभी कुछ शेष है होने में, जब वो हो जाएगा तब हम स्वीकारेंगे या तब हम उसके अनुरूप आचरण करेंगे। यही है न कि भाई अभी तो भीतर द्वेष मौजूद हैं, तो अभी हम सत्य अनुरूप आचरण कैसे करें। तो अभी हमें छूट मिली हुई है। हम अपनेआप को ख़ूब छूट दे लेते हैं ये बोलकर।
जब आप समझ जाते हैं कि कहीं पहुँचना नहीं है, कहीं जाना नहीं है, कुछ बदल नहीं देना है, सिर्फ़ आपकी स्वीकारोक्ति काफ़ी है, तो आपसे बहाना छिन जाता है आपका। तो क्या बोलकर के वैसे ही जिओगे जैसे जीते आ रहे हो? कमज़ोरों की तरह जीने का एक ही तो हमारे पास बहाना है न, क्या — कि मैं कमज़ोर हूँ। एक कमज़ोर जीवन के पीछे तर्क क्या है? ‘मैं कमज़ोर हूँ।’ यही भर तो तर्क है न। जिस क्षण स्वीकार कर लिया, ‘कमज़ोर नहीं हूँ।’ तो हमारा कमज़ोर जीवन अब चलेगा कैसे! सब बदल जाएगा।
‘हाँ’ बोलनी होती है, वो हम नहीं बोलना चाहते। ‘न’ बोलने में बड़ा आसान लगता है और ‘न’ बोलने में ऐसा लगता है बड़ी ह्यूमिलिटी है। ‘देखिए साहब, मैं तो अदना सा हूँ। आप हमसे क्या ज़्यादा उम्मीद करते हैं! हम कुछ न कर पाएँगे। अभी तो साधक हैं, छोटे से, नन्हें, बेबी स्टेप्स ले रहे हैं।’
प्र: है तो अहंकार ही।
आचार्य: और जो बोले कि जो बुल्लेशाह, वही हम, उसको बोल दीजिए, ‘ये तो देखिए, क्या बड़बोला! अहंकारी! ये अपनेआप को बुल्लेशाह के समतुल्य समझता है।’
जो आप हो वही बुल्लेशाह हैं। अब ये स्वीकार करने में ऐसी लगती है कि… (सब ज़ोर से हँसते हैं)। जो भी होता हो उसे होने दो लेकिन मानो कि वही हूँ; आइ एम दैट। कोई बहाना मत दो अपनेआप को।
आपने ऐसे लोग देखे हैं जो उत्सवों में इसलिए नहीं जाते क्योंकि अभी वो सजे-बजे नहीं हैं? देखे होंगे। हम सब वैसे हैं। पार्टी अभी नहीं हो सकती क्योंकि हम पार्टी के लिए?
प्र: तैयार नहीं हैं।
आचार्य: और ये पार्टी को मार देने का सबसे प्रचलित तरीक़ा है। ‘हम पहले तैयार होंगे, फिर होगा जश्न।’ पागल हो क्या! जश्न जब शुरू हो गया तो शुरू हो गया। अब तैयारी क्या! जहाँ हो वहीं है। पर ये ख़ूब होता है कि नहीं होता है? कि अभी मूड नहीं है, अभी तैयारी नहीं है, अभी कपड़े नहीं हैं भाई! जब सब इंतज़ामात हो जाए, उसके बाद वो होगा।
और उसकी परिभाषा ही यही है कि उसका कोई कारण नहीं, उसका कोई इतिहास नहीं। उसके पीछे कोई इंतज़ाम या प्रबंध नहीं। वो तो ऐसे है, त्वरित; खड़े-खड़े नाचो।
समझ में आ रही बात?
'आइ एम नॉट येट रेडी।' (मैं अब तक तैयार नहीं हूँ।) इससे ज़्यादा झूठा वक्तव्य कुछ हो नहीं सकता कि मैं अभी तैयार नहीं हूँ। आप जहाँ हैं आप वहीं तैयार हैं। छोड़िए ये सब झूठे बहाने! जो जहाँ खड़ा है वो वहीं पर तैयार है। न तो आप ज़िम्मेदारियों की दुहाई दें, न आप ज्ञान की दुहाई दें, न आप स्थितियों की दुहाई दें। इसी को कहा गया है — कम एज़ यू आर (आप जिस स्थिति में हैं वैसे ही आ जाएँ)।
बहुत तरीक़े के दृष्टांत हैं। वो सुना ही होगा कि जीसस जाते हैं, एक बैठा मछली मार रहा था, उसको कहते हैं, ‘मछली मारते रहोगे उम्रभर या साथ चलोगे?’ उसे कुछ बात समझ में आती है, वो चल देता है। तभी उसको ख़बर आती है कि गाँव में एक दुर्घटना घट गयी है जहाँ उसका होना आवश्यक है। तो वो कहता है, ‘कुछ ज़िम्मेदारियाँ हैं, पूरी कर आऊँ, फिर आपके साथ चलता हूँ।’ जीसस कहते हैं, ‘रहने दो, चलो, कम एज़ यू आर। लेट द डेड बरी द डेड। तुम चलो साथ में!’
वैसे ही, कहते हैं जब कृष्ण की बाँसुरी बजती थी तो गोपियाँ तैयार नहीं होती थीं। जैसी होती थीं वैसे दौड़ी चली आती थीं। किसी के मुँह पर उबटन लगा हुआ है, किसी के हाथ में बेसन लगा हुआ है, कोई अधनंगी दौड़ी चली आ रही है। जो जैसा है वैसा ही आ रहा है; कोई थमता नहीं था कि पहले तैयारी करेंगे, फिर जाएँगे। जब बुलावा आया है तो… और बुलावा लगातार है। कोई ऐसा भी नहीं कि बाँसुरी कभी-कभी बजती हो।
हमारी हमेशा यही रहती है कि अभी तो नहाये नहीं, कैसे जाएँ? किस-किस तरीक़े के क्या-क्या उपाय हो सकते हैं बचने के, उसके लिए यहाँ कई विशेषज्ञ हैं। (सब हँसते हैं)
‘अभी हमारा वक़्त नहीं आया है।’ सुना है ये सब? ‘अभी हमारा वक़्त नहीं आया है। टू यंग! ’ (अभी तो हम बहुत छोटे हैं!)
प्र: जिद्दू कृष्णमूर्ति के भी कई वक्तव्यों में सुना है कि ट्रांसफॉर्मेशन इज़ इमीडियेट। इट डज़ नॉट वेट फॉर टाइम। (परिवर्तन तत्काल है। वह समय की प्रतीक्षा नहीं करता।)
आचार्य जी: येस, एज़ इमीडियेट एज़ अ येस। जस्ट से येस एंड इट्स डन। (हाँ, ‘हाँ’ बोलने जितना तत्काल। सिर्फ़ हाँ बोलो और हो गया।) हम किसी बड़ी घटना के घटने का इंतज़ार करते रहते हैं जिससे पहले एक अधूरी तैयारी है। और चूँकि हम ख़ुद को उस तैयारी के लिए अक्षम पाते हैं इसलिए वह अंतिम क्षण भी सदा के लिए लंबित रह जाता है।
हम सोचते हैं कि ‘हाँ’ कोई बहुत बड़ी चीज़ होगी। कहते हैं, ‘वो बहुत बड़ी चीज़ होगी। चूँकि बहुत बड़ी चीज़ होगी तो इसीलिए उसके पीछे की जो पूरी तैयारी है, साधना है, वो भी उतनी ही बड़ी होगी।’
प्र: आपकी वीडियोज़ देखीं, किताबें भी पढ़ीं, तो जो समझना है, वो ग्रेजुअल (क्रमिक) है, स्लो (धीरे) है।
प्र: जो ग्रेजुअल है, जो स्लो है, वो मन का मानना है। ग्रेजुएल और स्लो, दोनों में जो तत्व निहित है, वो है समय। समय में धीरे-धीरे हो रहा है। मन चाहे तो कितना भी धीरे-धीरे माने। तो मान लो कि धीरे-धीरे हो रहा है सबकुछ। हाँ, हो रही है धीरे-धीरे प्रगति। कहते रहो! ‘हाँ’ धीरे-धीरे नहीं हो रही, वो तो होती है। प्रगति को तुम कितनी भी गति दे सकते हो; कि है, बहुत धीरे-धीरे हो रही है।
प्र ‘हाँ’ का कार्यान्वित होना इसी क्षण क्यों नहीं है, एक क्षण में?
आचार्य: कार्यान्वित तुम्हारे माध्यम से होता है न। तुम नहीं ‘हाँ’ बोलोगे, नहीं अनुमति दोगे, तो जीवनभर नहीं कार्यान्वित होगी।
प्र आचार्य जी, आप अक्सर कहते हैं कि आदमी हाँ तभी बोलता है, जब वो सफ़र (दुख भोगता) करता है। तो और कोई दूसरा कारण नहीं है उसके पास?
आचार्य: असल में ‘हाँ’ भी अकारण होती है। मैं कितना भी ज़ोर दे लूँ ‘हाँ’ बोलने पर, पर तुम मेरे ज़ोर देने से ‘हाँ’ बोल नहीं दोगे। बोलेगा वही जो बोलेगा। इसलिए फिर उसको ग्रेस (कृपा) कहा गया है। जिसको हाँ बोल रहे हो, जैसे वो अकारण है वैसे ही तुम्हारी हाँ भी अकारण होगी क्योंकि जिसको ‘हाँ’ बोल रहे हो उसी से आती है ‘हाँ’।
न बोलने के हज़ार कारण होते हैं, हाँ का कोई कारण नहीं होता।
जो यहाँ सब न-नुकुर वाले बैठे हैं उनके पास इतनी लंबी सूची होगी, न क्यों — बता देंगे। जिन्होंने हाँ बोली, उनसे पूछो, तो वो कहेंगे, ‘ये-वो, कुछ पता नहीं ज़्यादा; धोखे से बोल दिया, अब तो हो गया।’
तो बेझिझक, बिना इस संकोच के कि यार, अभी ऐसा लगता तो नहीं है कि हम वो हैं तो हाँ कैसे बोल दें। कहीं हिपॉक्रेट (पाखंडी) तो नहीं कहलाएँगे! इन सब संकोचों से पल्ला झाड़ के सीधे हाँ बोलिए। कोई पूछे, ‘वही हो?’ बोलिए, ‘हाँ।’
कोई पूछे, ‘बिलकुल परफ़ेक्ट हो, पूर्ण? बोलिए, ‘हाँ।’ फिर बोलिए, ‘अरे! बड़ी जलन होती है। और गुस्सा बहुत आता है। राग-द्वेष बहुत है, कामवासना भी बहुत है।’ तो वो बोले, ‘पक्का है फिर कि पूर्ण ही हो? ब्रह्म हो,कतई?’ बोलो, ‘वो तो है। उसमें कोई संदेह नहीं है।’ (सब ज़ोर से हँसते हैं)
बोले, ‘तब भी है? आकर्षण है, लोभ है, तब भी है?’ बोलो, ‘हाँ, वो तो है। भाई! वो ब्रह्म होने का हिस्सा है। कोई उससे बाहर की बात थोड़े ही है। कोई उससे बाहर की बात थोड़े ही है, वो उसके अन्दर की बात है। वो होते हुए भी हमें जलन है। वो होते हुए भी ईर्ष्या है, तो? वो होते हुए भी दुख है। तो? *आइ एम दैट, येट आइ एम फैट। इट्स ओके।*’ (हम वो हैं फिर भी हम मोटे हैं, कोई बात नहीं!) (सब ज़ोर-ज़ोर से हँसते हैं और ताली बजाते हैं)
तो वहाँ पर कोई एन्ट्रन्स एग़्जाम (प्रवेश परीक्षा) नहीं है। कोई क्वालिफ़ाइंग क्राइटिरिया (चुनाव सम्बन्धी प्रावधान) नहीं है कि जब ये सब बाधाएँ पार करोगे, जब अपनेआप को किसी क़ाबिल सिद्ध करोगे, तब तुमको हक़ मिलेगा “अहं ब्रह्मास्मि” बोलने का। तुम जैसे हो, जैसे हो, जहाँ भी गिरे हुए हो, कीचड़ से सने हुए हो, बदबूदार हो, मलिन हो, रोगयुक्त हो, जैसे हो, जिस हालत में हो, वहीं से उठाकर हाथ बोलो।
बिलकुल लजाएँ-संकुचाएँ नहीं, खुल्लेआम। हम जैसे हैं, जहाँ हैं, वही हैं; और कौन है! अच्छे हैं बुरे हैं, तुम्हारे हैं। छोटे हैं बड़े हैं, तुम ही हैं।
प्र: आचार्य जी, इसका मतलब आपका एक ही सेशन (सत्र) काफ़ी है?
आचार्य: वो एक सेशन कभी आता ही नहीं। उसकी तैयारी चलती रहती है कि वो एक सेशन आ जाए, वो आता कहाँ है?
प्र: आचार्य जी, अगर आ जाए?
आचार्य: अगर-मगर नहीं होता। आया तो आया। सत्र तो हर अपनेआप में पूर्ण ही होता है। कोई सत्र ऐसा नहीं होता जिसके बाद कोई बात छुपी रह गयी हो। सिद्धांतत: तुम जो कह रहे हो बिलकुल ठीक है। कि कोई भी एक सत्र काफ़ी है, पर कोई भी एक सत्र उसके लिए काफ़ी है जो उस एक सत्र में पूरा हो।
हम पूरे नहीं होते, हम पूरे होने की तैयारी में, कोशिश में होते हैं। हम यही कह रहे होते हैं — मेरा तो पहला है, मेरा तो अभी आठवाँ है, मेरा तो पंद्रहवाँ है। और जब तक संख्या गिनोगे तो आगे की संख्या मौजूद रहेगी, पंद्रहवाँ है तो बीसवाँ भी आएगा अभी। कहोगे, ‘अभी तो पूरे तरीक़े से जाना नहीं।’ जब तक सत्र में इसलिए आते हो कि कोशिश कर रहे हो, तैयारी कर रहे हो कुछ पा लेने की, तब तक सत्र से कुछ पाओगे भी नहीं।
आप लोगों ने आवेदन भेजे तो उसमें कई लोगों ने लिखा था — कुछ पाने जा रहे हैं, कुछ मिल जाए, कुछ ऐसा हो जाएगा। उनकी भावना की मैं क़द्र करता हूँ। लेकिन उनसे ज़्यादा मौज उनकी रहेगी जो पाने नहीं आये हैं।
बात समझ रहे हैं?
ज़्यादा मौज उनकी रहेगी जो पाने नहीं आये हैं। पाकर पाने का जो मज़ा है, वो खोकर पाने का नहीं है। पाये-पाये पाओ। फिर आने का जो पूरा माहौल है वो बदल जाता है।
जब वो एक सत्र आ जाता है न तो ऐसा नहीं होता कि उसके बाद सत्र में आना बंद हो जाता है। उसके बाद तुम और आते हो पर फिर पाने के लिए नहीं आते, लोभ से नहीं आते, ज़िम्मेदारी से नहीं आते। फिर मौज में आते हो।
और जब तक वो एक सत्र नहीं आता तब तक खोजते-खोजते आते हो, हाथ फैलाये आते हो, पाने के लिए आते हो, कोशिशें कर रहे होते हो। काफ़ी तो है एक सत्र पर उसको आने दो, उस एक सत्र को आने दो। उस एक सत्र के आने के बाद बाक़ी सारे सत्र बदल जाएँगे। फिर ऐसे नहीं बैठोगे कि सुन लें, पा लें, कोई राज़ है ज़रा खुल जाए। परदा तो हटे, बोल क्या रहे हैं।
फिर कहोगे, ‘बोल क्या रहे हैं! अरे! शब्द नहीं भी समझ में आ रहे तो भी हमें पता है क्या बोल रहे हैं। अपने ही तो हैं, क्या बोल देंगे!’ बात नहीं समझ में आ रही, बात के पीछे जो है वो समझ में आ चुका है। और अब इसीलिए नहीं बैठे हैं कि समझना है। अब बैठे हैं क्योंकि बैठे हैं, मज़ा आता है बैठने में, इसलिए बैठे हैं।
पहले खोजते-खोजते आते थे, खोज के आगे मौज है। और खोज क्या है — बोझ है।
प्र: ये जो अन्दर की हाँ होती है इसका कोई बाहरी प्रमाण तो होता नहीं है तो इसे तो आसानी से फ़ेक (नाटक) किया जा सकता है। हिपॉक्रेसी (पाखंड) एक इम्पॉर्टेन्ट एलीमेन्ट (महत्वपूर्ण तत्व) है इसमें।
आचार्य: नहीं, बिलकुल है पर ये बात हम दूसरों की नहीं कर रहे हैं न, अपनी कर रहे हैं। तुम उत्सुक हो क्या हिपॉक्रेसी में, पाखंड में? तुम उत्सुक हो तो बताओ। दूसरे करते हैं पाखंड, झूठ, आडम्बर, उन्हें करने दो। तुम्हें करना है?
प्र: नहीं, करना नहीं है।
आचार्य: तो छोड़ो।
प्र: पर उठ सकती है।
आचार्य: अरे! उठ सकती है, तुम उत्सुक हो कि उठे? तुम जब हाँ बोल दोगे तो कैसे उठेगी? कैसे? हिपॉक्रेसी ये होती है कि ज़बान से बोल दिया ‘हाँ’ और अंदर ही अंदर अभी भी संकुचित हैं, न ही बोल रखी है। अंदर ही अंदर अभी भी यही अनुभव होता है कि अधूरे हैं, छोटे हैं, अपूर्ण हैं। मुँह से तो बोल दिया कि वृहद हैं, ब्रह्म हैं और भीतर ही भीतर क्या मानते हैं अपनेआप को — छोटा, हीन, लघु।
तो नतीजा क्या है? कि ज़िंदगी तो लघुता में ही जी रहे हैं और दावा है व्यापकता का। तो तुम्हारी ज़िंदगी गवाही दे देगी तुम्हारे झूठ की।
जब असली हाँ होती है तो जैसी हाँ होती है जीवन उसके अनुरूप हो जाता है। फिर जो जीवन की लघुताएँ भी होती हैं न, वो प्रभावित नहीं करती। तुम्हें लघुता में भी दिखायी ब्रह्म ही देता है। तुम लघुता को फिर ये हक़ नहीं देते कि वो तुम्हें परिभाषित कर दे। कि आस-पास कुछ लघु है, मेरे कुछ लक्षण हीनता के हैं तो मैं भी हीन हो गया।
फिर तुम बोलोगे, ‘जो दिखायी पड़ रहा है, जो प्रकट है, जो दृश्यमान है, जो मेरी आदतें है वो सब हीनता की हो सकती हैं। मैं लेकिन फिर भी ब्रह्म ही हूँ; इसमें कोई शक़ नहीं। हाँ, मैं अभी झूठ बोल के आया हूँ। हाँ, मैं अभी धोखा देकर आया हूँ।’ और फिर तुम शेर की तरह स्वीकार कर पाओगे — मैं ये सब करके आया हूँ लेकिन मैं फिर भी वही हूँ।
ये बात बड़ी अजीब लग रही होगी न सुनने में कि कोई अभी धोखा देकर आया है और वो कह रहा है कि तब भी ब्रह्म हूँ। रैशनल (तर्कयुक्त) नहीं है, मोरल (नैतिक) भी नहीं है। पर इसकी ताक़त को देखना।
देखिए ये बात कारण की या वजह की नहीं है। आप जब कहते हो कि मैं वही हूँ तो उसके पीछे न कोई कारण होता है न कोई विवेचना होती है। कारण तो सारे दूसरी ओर को इशारा करेंगे। हर कारण आपको यही बताएगा कि आप वो नहीं हो। तो कारणों की बात मत करिए।
मैं जो बात बोल रहा हूँ वो बहुत सीधी है उसका कोई रीज़न (कारण) या रैशनलाइज़ेशन नहीं हो सकता। मैं कह रहा हूँ आपकी ज़िंदगी कैसी भी है, आपके कर्म कैसे भी हैं, आप कहीं भी खड़े हों, आप फिर भी वही हो।
बात आ रही है समझ में?
आपका ब्रह्मत्व, आपका पूर्णत्व इस पर बिलकुल नहीं निर्भर करता कि आप अपनेआप को माने क्या बैठे हो हो। आप मानते रहो अपनेआप को जो मानो बैठे हो। आप वही हो। हाँ, आपके कर्म ऐसे हो रहे होंगे जो आपके मानने का फल है। तो मान तो तुम कुछ भी सकते हो, माने रहो।
तुम अपनेआप को मानते हो कि हत्यारे हो, तो हत्या कर ही रहे होगे। लेकिन कर रहे होगे हत्या, हो तो अभी भी वही। और हत्या कर ही इसीलिए रहे हो क्योंकि मानते क्या हो अपनेआप को?
प्र: हत्यारा।
आचार्य: जिस क्षण कह दिया कि मैं वो हूँ, अब बलपूर्वक कह पाओगे कि मैं हत्यारा हूँ? जल्दी बोलो।
प्र: नहीं, नहीं।
आचार्य: तो बस अब हत्या का क्या होगा — घुल जाएगी धीरे-धीरे। उस घुलने में वक़्त लग सकता है, वहाँ समय लग सकता है। लेकिन तुम्हारे स्वीकार में कोई वक़्त नहीं लगना चाहिए।