कामवासना और प्रेम में क्या अंतर है? || आचार्य प्रशांत (2017)

Acharya Prashant

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कामवासना और प्रेम में क्या अंतर है? || आचार्य प्रशांत (2017)

प्रश्नकर्ता : प्रेम और कामुकता, या कामवासना, इन दोनों का अलग अस्तित्व है ही क्यों? इन दोनों में अंतर क्यों किया जाता है?

अगर हम इन शब्दों का मूल देखें तो प्रेम और वासना दोनों ही संस्कृत के मूल “लुभ्य” से आ रहे हैं, जिसका मूलभूत अर्थ इच्छा है। तो मेरा पहला प्रश्न ये है कि दोनों, प्रेम और कामवासना, में भेद क्यों किया जाता रहा है?

और जो अभिव्यक्ति है दोनों की, वो शारीरिक धरातल पर, और मन के धरातल पर, एक जैसी ही दिखाई देती है। आप जैसे कहते भी हैं अपने सत्रों में, कि प्रेम एक मन की स्थिति है| तो वासना भी वही होती है। तो जब अभिव्यक्तियाँ दोनों की एक सी हैं, तो शब्द अलग क्यों हैं, और एक को ऊँचा दर्जा क्यों?

और दूसरी चीज़, जब हम प्रेम की बात करते हैं, तब हम ये कहते हैं, कि ये मेरा ईश्वरीय प्रेम है, ये मेरा ब्रह्म से प्रेम है। तो शरीर और शरीर के तल पर जो घटित होता है, हम उसे प्रेम क्यों नहीं कहते?

आचार्य प्रशांत : दो अलग-अलग धरातल हैं। वासना है, मन की, शरीर की एक क्रिया। और प्रेम है, मन की दिशा। मन किधर को जा रहा है।

तुमने “लव” शब्द की वितोत्पत्ति में जा के कहा कि “लोभ” से जुड़ा हुआ है। “इच्छा” से, “कामना” से जुड़ा हुआ है। ‘किसकी’ इच्छा? क्या चाह रहे हो? दो लोग हैं, दो सड़कों पर जा रहे हैं। एक जा रहा है, क्योंकि उसकी मंज़िल पर जो है उसे उसका क़त्ल करना है, हिंसा से भरा वो जा रहा है। इसके पास भी लोभ है ना, कामना है ना? क्या लोभ है? कि मंज़िल मिलेगी तो मारूंगा।

दूसरा है, वो भी कामना से ही भरा हुआ है, उसकी मंज़िल पर जो बैठा है, उसे उस पर सब कुछ न्योछावर कर देना है, उसके साथ एक हो जाना है। उम्मीद करता हूँ, ये मात्र शब्द नहीं हैं, आपके लिए। आप अर्थ जानते हो इसका। इसका तो अर्थ जानते ही हो – किसी को मारना? उम्मीद करता हूँ, इसका भी अर्थ जानते हो, किसी पर अपने आप को न्योछावर कर देना क्या होता है?

श्रोता : इसको ज़रा विस्तार से समझाएँगे। वो जो है, वो इतना ऊँचा और इतना सुन्दर है, कि उसके सामने मेरा होना गौण है। वो जो है, उसके साथ जब होता हूँ, तो कुछ और हो जाता हूँ। अपने जैसा हो जाता हूँ। फिर बंधन, और विचार, और अपना सारा छुटपन, तुच्छतायें, ये सब पीछे छूट जाती हैं, खो जाती हैं। कोई है जो ऐसा है, कि कुछ मांगे तो दे देंगे। कोई है जो ऐसा है, कि कुछ भी करे, तो उसकी माफ़ी है। ये होता है अपने आप को न्योछावर कर देना।

तो दो लोग हैं, और दो अलग-अलग राहों पर जा रहे हैं। एक भरा हुआ है हिंसा से, उसके पास भी एक लक्ष्य तो है? एक भरा हुआ है प्रेम से, उसके पास भी एक लक्ष्य तो है? कह सकते हो, दोनों लोभी हैं। पर लोभ-लोभ में अंतर है।

अंतर अब दिखाई देगा, समझना, कैसे।

राह दोनों की लम्बी है, इसका बदला कभी पूरा नहीं होता, उसका प्यार कभी पूरा नहीं होता। जिन्हें बदला उतारने की धुन होती है, वो अच्छे से जानते हैं कि कुछ भी कर लें, जो आग लगी होती है वो ठंडी होती नहीं। जो चोट लगी होती है, उस पर महलम कितने भी लगा लो, उसके दाग साफ़ होते नहीं। राह दोनों की लम्बी है, जितना चलते जाते हैं, मंज़िल उतनी ही दूर दिखाई देती है।

तो दोनों को बड़ा लंबा रास्ता तय करना है, और आम तौर पर लम्बे रास्तों पर मुलाक़ातें हो जाती हैं। राहगुज़र, मुसाफिर, हमसफ़र, जाने पहचाने लोग मिलते हैं। इसको भी कोई मिलता है, उसको भी कोई मिलता है; ये भागा जा रहा है हिंसा में, वो भागा जा रहा है प्रेम में। ये, ज्वर में है, आँखें लाल हैं, तड़प रहा है, जल रहा है। दूसरे वाले को देखोगे तो उन्माद की सी स्थिति उसकी भी लगेगी, एक उन्मत्तता उस पर भी छायी हुई है। आँखें उसकी भी लाल हो सकती हैं, ज्वर में वो भी लग सकता है। और दोनों को, रास्तों में लोग मिलते हैं। अब बताओ मुझे, इसका सम्बन्ध कैसा होगा राह में मिलने वाले लोगों से? और उसका सम्बन्ध कैसा होगा, राह में मिलने वाले लोगों से?

इन दोनों राहों पर आप ही हैं, आप इन दोनों को जानते हैं। इन दोनों राहों पर आप चले हुए हैं। तो आप ही मुझे बताएं कि जब इस राह पर चल रहे होते हैं, और मिल जाता है कोई रास्ते में, तो उससे आपका सम्बन्ध कैसा बनता है, मन कैसा बनता है, व्यवहार कैसा बैठता है? और इस राह पर जब कोई मिल जाता है, तो मन कैसा बैठता है, व्यवहार कैसा बैठता है? मान लो और सुलभ करने के लिए, कि एक ही व्यक्ति, कभी इस पर मिला, कभी उस पर मिला। इस रास्ते पर जब वो मिलता है, तब उससे कैसा व्यवहार होगा, और उस रास्ते पर जब वो मिलता है तब उससे कैसा व्यवहार होगा? कहो? जवाब दो।

श्रोता : प्रेम से भरे होंगे तो प्रेमपूर्ण व्यवहार रहेगा, घृणा से भरे होंगे तो घृणा से भरा व्यवहार होगा|

वक्ता : हाँ, ठीक है ना? अब मान लो, दोनों ही रास्तों पर तुम्हें जो व्यक्ति मिलता है, उससे तुम शरीर का सम्बन्ध बनाते हो। शरीर का सम्बन्ध दोनों से ही बना। इस रास्ते पर जो सम्बन्ध बनेगा, वो कैसा होगा, और उस रास्ते पर जो बनेगा वो कैसा होगा? दिखने में दोनों ही स्थितियों में ऐसा लगेगा कि शरीर से शरीर मिला। इस रास्ते पर भी शरीर से शरीर मिल रहा है, बाहर बाहर से देखोगे तो कहोगे, “वासना।” उस रास्ते पर भी शरीर से शरीर मिल रहा है, बाहर बाहर से देखोगे तो कहोगे, “वासना।” पर यहाँ जो मिलन की गुणवत्ता होगी, और वहाँ जो गुणवत्ता होगी, दोनों क्या एक होंगे?

श्रोता : नहीं|

वक्ता : मन की दशा निर्धारित करती है कि शरीर से शरीर कैसे मिलेगा। मन की दशा निर्धारित करती है कि तुम्हारे काम की, तुम्हारी वासना की, तुम्हारे सम्भोग की गुणवत्ता क्या होगी। तुम प्रेम से भरे हुए हो तो तुम्हारे शारीरिक मिलन में भी एक सूक्ष्म तत्व आ जायेगा, जो इतनी आसानी से पकड़ा नहीं जा सकता, पर होगा। वो इसलिए नहीं है कि तुम्हें जो मिला है वो तुम्हें आज कुछ ख़ास प्यारा हो गया है। तुम्हें आज जो इस राह पर मिला है, मैंने कहा है कि वो कभी-कभी उस राह पर भी मिलता है। तो व्यक्ति वही है, पर जब प्रेम की राह पर तुमसे मिलता है, तब उससे अलग सम्बन्ध बनाते हो, और हिंसा की राह पर जब मिलता है तो उससे अलग संबंध बनाते हो। बात समझ में आ रही है?

मन की दिशा है, प्रेम। शरीर से शरीर का मिलन, तो हो ही जाता है। एक हिंसक व्यक्ति भी शारीरिक संसर्ग कर सकता है, और एक संत भी कर सकता है, दोनों कर सकते हैं । लेकिन दोनों के संसर्ग में, ज़रा बात अलग होती है। और वो जो बात है, वो बड़ी महीन है। उसको आँखें नहीं देख सकती, लव्ज़ बयान नहीं कर सकते। ऊपर-ऊपर से देखोगे तो यही कहोगे कि वासना ही तो है। भाई, जब तक शरीर हो, और शरीर से मिल रहे हो, तो है तो वो वासना ही। इसमें कोई शक़ नहीं है, बिलकुल वासना है। पर उस वासना के केंद्र पर कौन बैठा हुआ है?

उस वासना के केंद्र में प्रेम भी हो सकता है, और उस वासना के केंद्र में भूख भी हो सकती है, हिंसा भी हो सकती है। भोगेगा तो दूसरे के शरीर को, तुम्हारा शरीर ही। लेकिन भोगने के पीछे जो बैठा होगा, उसकी हालत में, ज़मीन आसमान का अंतर हो सकता है। अगर तुम्हें सिर्फ शरीर का भोगना नज़र आएगा, तो तुम कहोगे, हो क्या रहा है? यही तो हो रहा है, शरीर से शरीर का मिलन, और क्या हो रहा है। एक शरीर दूसरे शरीर से तृप्ति ले रहा है। यही तो हो रहा है। ऊपर ऊपर यही लगेगा। प्रेम में एक हो जाना, और व्यभिचार – शारीरिक तल पर तो एक लग ही सकते हैं। लेकिन उनके पीछे, मन की दिशा का अंतर होता है ।

मैं जा रहा था सत्य की ओर, उस रास्ते मुझे कोई मिला। अब इससे जो मेरा नाता बनेगा, वो सत्य का नाता होगा। और मैं जा रहा था विक्षिप्तता की ओर, मैं जा रहा था तमाम मूर्खताओं की ओर, और उस रास्ते मुझे कोई मिला, उस रास्ते मुझे कोई मिला है, तो उससे मेरा नाता भी विक्षिप्तता का ही होना है। कोई तीसरा होगा, वो ऊपर से देख रहा होगा, वो देखेगा, देखो इस राह पर भी कोई सम्भोग कर रहा है जोड़ा, और उस राह पर भी। वो कहेगा, दोनों ही राहों पर एक ही बात तो हो रही है; लेकिन एक बात नहीं हो रही है। मिलन मिलन में फर्क है। इनके मिलने, और उसके मिलने में फ़र्क है। ये पुरुष-प्रकृति का नाच है, और वहाँ पर मात्र प्रकृति का आर्तनाद है ।

यहाँ पर, मिल तुम जिससे भी रहे हो, प्रमुख उस मिलन में भी तुम्हारे लिए, सच्चाई ही है। क्योंकि तुम्हें पता है, कि इससे मिलन बस इसलिए हुआ है, क्योंकि?

श्रोतागण: सत्य की राह पर था|

वक्ता: क्योंकि इस राह पर था। ना होता इस राह पर, तो मिलती क्या ये मुझे? ना होता इस राह पर, तो मिलती क्या ये मुझे?

तो अगर मुझे वरियता देनी है तो किसको दूँ, राह को दूँ? या इसको दूँ? ये तो कल को छूट भी सकती है। ये जो मुझे मिली है, जो शरीर मुझे उपलब्ध हुआ है, तो कल को छूट भी सकता है। उसका भी छूटेगा, मेरा भी छूटेगा, शरीर तो शरीर है।

पहले राह आयी और फिर उस राह पर, राहगीर आया। पहले राह आयी, फिर हमराह आया। तो हमराह को ज़्यादा दूँ क़ीमत, या राह को दूँ। और राह का तो अर्थ ही ये है, कि जो मुझे ले जा रही है मंज़िल तक, मंज़िल मेरी एक ही है – उसके सामने सर झुकाया हुआ है मैंने।

अब यहाँ पर, लग तो ये रहा होगा कि जैसे मिल रहे हो किसी शरीर से, आदमी से, औरत से। पर जब मिल भी रहे हो, तब तुम्हारे भीतर, नमन सदा उसको ही है, किसी और को।

वो जो दूसरी राह है, विक्षिप्तता की, हिंसा की, वहाँ पर किसी और जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं। वहाँ तो जो मंज़िल भी है, वो तुम्हारे ही अपने मन का प्रक्षेपण है, तुमसे बाहर की नहीं है।

इन दोनों राहों में मूलभूत अंतर समझते हो ना? इस राह पर तुम भाग रहे हो उसकी ओर, जो तुम नहीं हो। इस राह पर, सत्य की राह पर, भाग रहे हो उसकी ओर, जो तुमसे आगे का है। एक बियॉन्डनेस है।

और वो जो विक्षिप्तता और हिंसा की राह है, उस पर भाग रहे हो तुम उसकी ओर जो तुम ही हो। अहंकार अपने आप को ही बढ़ाने के लिए अपने ही द्वारा निर्धारित दिशा में, अपने ही द्वारा प्रक्षेपित मंज़िल की ओर भागा जा रहा है। उस मंज़िल पर वो पहुँच भी जाएगा तो बदलेगा नहीं। उस मंज़िल पर बल्कि अगर वो पहुँच गया, तो और फूल जाएगा। और जो सत्य की राह होती है, उस पर अगर तुम भाग रहे हो, तो मंज़िल अगर मिली, तुम नहीं होओगे। तुम अपने से आगे की किसी और चीज़ ओर जा रहे हो। अपने आप को पीछे छोड़ना होगा वहाँ पहुँचने के लिए।

अब इन हालात में, वो जो विक्षिप्तता की राह है, उस पर अगर तुम्हारा किसी से मिलन होता भी है तो तुम्हारा नमन किसको रहेगा? तुम यहाँ भी यही कहोगे, कि मैं इस राह जा रहा था, इसलिए मुझे मिली ये। तुम कहोगे यही, कि मैं इस राह जा रहा था, तो मुझे ये शरीर मिला, ये स्त्री उपलब्ध हुई। पर वो राह किसकी है? वो तुम्हारी ही है, तुम्हीं ने निर्धारित करी है। वो लक्ष्य किसका है? वो भी तुम्हारा ही है। तुम्हारे अहंकार का है, तुम्हीं ने निर्धारित करा है। तो अब जब तुम इस स्त्री के साथ शरीर से एक होओगे, तो तुम्हें बस एक शरीर रह जाना है। और शरीर अगर लिप्सा कर रहा है फिर कि इसका उपयोग कर लूँ, इसको खा जाऊँ, इसका भोग कर लूँ, तो तुम्हें ये बात बिलकुल ठीक ही लगेगी। तुमसे आगे का तो उस राह पर कुछ है ही नहीं ना। बात समझ रहे हैं?

ह्रदय में प्रेम होना, और शरीर का किसी से, सम्प्रत हो जाना, ये दोनों अलग लग तल की घटनाएँ हैं। शरीर तो प्रकृति है, शरीर तो, जितने शरीरधारी हैं, करीब करीब सभी का किसी ना किसी से, कभी न कभी, संपर्क में आता ही है। पर जब शरीर से शरीर मिल रहा है, तब मन में क्या चल रहा है, मूल सवाल ये उठता है। संत वो नहीं है, जिसका शरीर कभी किसी से मिल ना जाए। संत वो होता है, जिसका शरीर जब किसी से मिले तब भी उसका ह्रदय सत्य को ही समर्पित रहे।

संत की और संसारी की, ज्ञानी की, और लोभी की – पहचान इस आधार पर मत करने लग जाना कि एक सम्भोग करता है, और एक नहीं करता है। ये बहुत मूर्खतापूर्ण पैमाना हो गया। दोनों करते हैं। करने की गुणवत्ता में अंतर होता है, करने के केंद्र में अंतर होता है। जब उनके खाने में अंतर होता है, जब उनके पीने में अंतर होता है, उनके उठने और बैठने में अंतर होता है, उनकी बातचीत में अंतर होता है, उनकी साँस-साँस में अंतर होता है, तो उनके सम्भोग में अंतर होगा या नहीं होगा?

तो वासना तो तुम्हें दोनों में ही दिखाई देगी, लोभ तो तुम्हें दोनों में ही दिखाई देगा, पर लोभ किसका? क्या चाह रहे हैं दोनों? ये अपने आप को बढ़ाना चाह रहा है, वो अपने आप को मिटाना चाह रहा है। चाह दोनों रहे हैं, लोभ दोनों को है, पर लोभ लोभ में अंतर देखो। शरीर, दोनों का ही जाकर के किसी से मिल रहा है, पर मिलन मिलन में अंतर देखो। और मैं ये भी नहीं कह रहा कि संत जा कर के परमात्मा से मिलता है, और संसारी जाकर के किसी औरत से मिलता है। न। संत का शरीर भी — मैं पुरुष संत की बात कर रहा हूँ — जाएगा तो किसी स्त्री के शरीर से ही मिलेगा। ये कल्पना मत बैठा लेना, कि न न न, संत का मिलन तो मात्र परमात्मा से ही होना है। भाई, शरीर नहीं मिल जाएगा परमात्मा से, शरीर तो शरीर से ही मिलेगा। बात आ रही है समझ में? संत का शरीर भी जाएगा तो किसी अन्य शरीर से ही मिलेगा।

तुम दो धाराएँ बहती देखो, बह तो दोनों ही रही हैं। बहाव दोनों में है, पानी भी दोनों में है, और बह दोनों ही रही हैं, किसी निचले तल की ओर। तो क्या दोनों को एक कह दोगे? एक गंगा हो सकती है, एक गंदा नाला। तुम्हारे लिए दोनों एक हो गए? क्योंकि तुम दोनों में ही बहाव देख रहे हो। तुम्हें दोनों के उद्गम में अंतर नहीं नज़र आता? गंगा उठ रही है, हिमालय के शिखर से, उच्चतम चोटियों से। और गंदे नाले उठ रहे हैं, हमारी ही मलिनता से। पर तुम कहोगे, देखिये साहब, दोनों ही बहता पानी ही तो हैं। पानी तो हमें दोनों में ही बहता दिखाई देता है। हाँ, पानी दोनों में ही बह रहा है, पर राह अलग-अलग हैं, स्रोत अलग अलग है ।

श्रोता : ये जो आप गुणवत्ता की बात कर रहे हैं, कि मन की गुणवत्ता अगर अलग है, तो अभिव्यक्ति की भी अलग रहेगी। मैं ज़रा इस बात को और निचले तल पर लाना चाहूंगा, कि जिस प्रेम को हम देखते हैं, वो तो हिंसा से ही भरा रहता है ।

तो जो आप कह रहे हैं, कि एक राह है, जो सत्य की राह है। पर आमतौर पर जो मैं करता हूँ, जो हम करते हैं, उसमें तो कोई ऐसा है नहीं कि जो सत्य की राह पर चल रहा हो, और उसे अचानक कोई ऐसा मिल गया जिससे वो सम्बंधित हो गया हो !

वक्ता : अभी क्या कर रहे हो?

अगर तुम सत्य की राह नहीं चलते हो, तो फिर यहाँ क्या हो रहा है, इन कुर्सियों पर?

श्रोता : पर वो अभिव्यक्ति सामाजिक फिर कैसे हो सकती है?

वक्ता : क्योंकि शरीर तो किसी दूसरे शरीर से ही मिलेगा, और जहाँ दो हुए, वहाँ समाज हुआ। अगर अभिव्यक्ति, शरीर के तल पर होनी है, तो शरीर मिलेगा तो किसको मिलेगा? हो सकता है इंसान से ना मिले, इससे मिले (गमले की ओर इशारा करते हुए)। तुम्हें जो मिलेगा, तुम उसी का समाज बनाओगे।

समाज माने क्या? अलग अलग लोग। अलग अलग लोग, जिनमें कोई नाता है।

जा तो में उधर रहा हूँ (ऊपर की तरफ इशारा करते हुए), और उधर जो बैठा है वो हो सकता है इंसान न हो। मंज़िल पर जो बैठा है, वो इंसान नहीं है। वो क्या है ये हम बताने की दुष्चेष्टा भी नहीं करना चाहते। पर रास्ते में जो लोग मिल रहे हैं, वो क्या हैं ?

मैं उधर जा रहा हूँ, मुझे रास्ते में जो मिल रहे हैं लोग, क्या वो भी अशरीरी हैं? क्या वो भी पराभौतिक हैं? जो रास्ते में मिल रहे हैं, वो कौन हैं?

श्रोता : भौतिक

वक्ता : वो तो भौतिक हैं ना? तो उनसे तो मेरा नाता बनेगा ना? पर भूलना नहीं कि उनसे मेरा नाता, इस राह पर बन रहा है। नाता है, क्योंकि राह है। और इस राह पर जो भी नाते बनेंगे उनमें खूबसूरती रहती है। उस राह पर जो भी नाते बनेंगे, उनमें क्रूरता, विक्षिप्तता, कुरूपता, हिंसा बहती है। तुम्हारी राह क्या है?

श्रोता : तो आप जो ये दो राहों में विभाजन कर रहे हैं,

पर पूरा जो इसका मूलभूत आधार है, मुझे ये विभाजन समझ में नहीं आ रहा है। क्योंकि जो भी हम कर रहे हैं जो भी साधन इस्तेमाल कर रहे हैं, जिन तरीकों से उस तरफ बढ़ रहे हैं, वो हैं तो सारे सामाजिक ही| और आप जो मन की गुणवत्ता की बात कर रहे हैं, क्योंकि हम संतों को भी एक समाज मानते हैं, तो हमने उनकी भी गुणवत्ता के जो पैमाने माने हुए हैं वो ऐसे हैं कि जो सामाजिक न हों| पर उनका भी एक समाज तो है ही|

वक्ता : हाँ। जो भी राह पर चल रहा है, शरीर ले कर के, उसे रास्ते में लोग मिल रहे हैं। लोग मिल रहे हैं तो समाज तो बन रहा है उसका भी। जो भी जी रहा है, वो लोगों के बीच ही तो जी रहा है? कोई न कोई तो उसे मिल ही रहा है। वो एक राह चल रहा है। सवाल ये है कि किस राह पर लोग मिल रहे हैं? जिस राह पे लोग मिल रहे हैं, निर्धारित करेगी कि तुम्हारे उनसे संबंध क्या हैं?

अब रही बात इसकी कि विभाजन समझ में नहीं आ रहा है। अच्छा, तुमने कहा, “समझ में नहीं आ रहा है”। जब तुमने ये कहा “समझ में नहीं आ रहा है”, तो तुम्हारी अपेक्षा थी ना कि समझ में आ सकता है?

तो विभाजन हो गया की नहीं?

ये सवाल पूछा तुमने कि मुझे समझ में नहीं आ रहा है, इसी उम्मीद से न, कि सवाल पूछूंगा तो समझ में?

श्रोतागण : आये

वक्ता : तो विभाजन हो गया कि नहीं?

किन दो चीज़ों में विभाजन हो गया?

श्रोता : समझ आने और ना आने में

वक्ता : समझ ना आने में, और समझ आ जाने में। तो देख रहे हो ना, कि एक राह हो सकती है जिस पर समझ में ना आ रहा हो, और एक हो सकती है, जिसपे समझ में आ रहा हो। तो दो तो हैं ही। समझ में न आना, और समझ में आना। नासमझी की राह, और समझदारी की राह, दो तो हैं ही? और ये सारी चर्चा इसीलिए हो रही है, क्योंकि तुम्हारी नीयत ही नहीं तय हो गयी है कि तुम नासमझी की राह चलते रहो।

उस राह से, इस राह पर आया जा सकता है, बीच में लिंक रोड हैं। एक इधर को जा रही है, एक उधर को जा रही है, लेकिन बीच बीच में? उन्हें जोड़ने वाली लिंक रोड है।

अभी जो तुम कर रहे हो, वो वही है। तुमने कहा ना मुझे समझ में नहीं आ रहा है, तो तुमने क्या कहा? कि मैं नासमझी की राह पर हूँ, पर सवाल पूछते ही तुमने अपना उद्देश्य प्रकट कर दिया, कि मैं?

श्रोतागण : समझना चाहता हूँ|

वक्ता : उधर पहुँचना चाहता हूँ। समझ में नहीं आ रहा है, अर्थात समझना चाहता हूँ। तो विभाजन तो है ही।

श्रोता : ओशो एक बात बोलते हैं, कि जो हमारे संबंध होते हैं, वो प्रेम की एक अभिव्यक्ति हो सकते हैं, या और भी किसी चीज़ की अभिव्यक्ति हो सकते हैं। तो उन्होंने कहा है, कि संबंध बनाने से ही, जो प्रेम की एक पॉसिबिलिटी है, वो खत्म हो जाती है।

तो सम्बन्धित तो मैं रहूँगा ही, मैं चाहे किसी भी राह पर जाऊँ, मेरा संबंध तो रहेगा ही। पर फिर ये क्यों बोला जा रहा है, कि संबंध बनाने से, प्रेम की जो, एक संभावना है, वो ही खत्म हो जाती है?

वक्ता : इस राह पर जो जा रहा है, उसका संबंध किससे है? मंज़िल से। जो लोग बीच में मिल रहे हैं, वो आकस्मिक हैं, संयोग हैं। वो उसकी प्रथम वरीयता नहीं हैं। उसका प्रथम संबंध किससे है? वो संबंध बनाएगा तो किससे बना रहा है? उससे (ऊपर की तरफ इशारा करते हुए) बनाएगा। उससे नाता है, तो तुमसे नाता है। उसके होने से तुम हो। एक, अगर मेरा तय और दृढ़ और अपरिवर्तनीय नाता है, तो वो किससे है?

बाकी सबसे परिवर्तनीय है। एक वो है, जिससे मेरा नाता अचल है। और संबंध तो इसे ही कहते हैं ना, जिसमें अचलता हो, जिसमें सुरक्षा हो, जो टूटे न, जो बदले न। तो इस राह पर जो व्यक्ति है, फिर उसके कितने संबंध हैं? सत्य की राह पर जो है, उसके कितने संबंध हैं?

श्रोतागण : एक|

वक्ता : एक ही है, क्योंकि बाकी सबसे तो वो तोड़ने को तैयार बैठा है। तोड़ने को उत्सुक नहीं है, तोड़ने को मचल नहीं रहा है, लेकिन तोड़ने को तैयार है। क्योंकि एक नाता है, जो उसके लिए है, बस – पक्का, और जो पक्का है, उसे ही नाता बोलेंगे, बाकियों को नाता क्या बोलना? और कौन सा है वो पक्का नाता?

श्रोतागण : सत्य से|

वक्ता : जो दूसरी राह पर बैठा है, उसके लिए मंज़िल तो कुछ है नहीं। उसके लिए मंज़िल क्या है? अपना ही प्रक्षेपण। उसी से उसे नाता बनाना है। उससे नाता क्या बनाना, वो तो मैं खुद ही हूँ। वो तो मैं खुद ही हूँ। अपने से बाहर का तो मुझे कुछ दिखता ही नहीं। जो मंज़िल पर बैठा है, वो मुझे अपने से बाहर का दिखता ही नहीं। जो अपनी ही अहंता को अपनी मंज़िल बनाता है, उसको फिर बहुत बेगानापन झेलना पड़ता है। उसे दूसरे बहुत सारे नज़र आते हैं, ये भी है, ये भी है, ये भी है, ये भी है। इस (सत्य) राह पर जो था, उसे कितने नज़र आ रहे थे?

श्रोता : एक|

वक्ता : एक, बाकी सब सांयोगिक थे। इस राह पर जो है, इसे बहुत सारे दूसरे नज़र आते हैं। तो ये इनसे पक्के सम्बन्ध बनाना चाहता है। क्योंकि, जो वास्तव में पक्का संबंध हो सकता था, उस (सत्य) से, वो तो उसका बना नहीं। तो वो पक्के संबंध किससे बनाना चाहता है? ये सब जो उसे मुसाफिर मिल रहे हैं। वो कहता है, अब ये औरत मिल गयी है, अब इससे पक्का संबंध बना लो, ये इंसान मिल गया है, इससे पक्का संबंध बना लो। वो इन सब में सुरक्षा चाहता है। ये अंतर है दोनों में। संबंधों में सुरक्षा वही चाहता है जिसके पास, प्रथम संबंध न हो। जब पहला तुम्हारे पास नहीं होता, तो फिर तुम दूसरे, तीसरे, चौथे, पाँचवे, आठवे, पन्द्रहवें, इन सब को बाँधना चाहते हो। इन सबको सुरक्षित कर लेना चाहते हो। खेद की बात ये है की अगर पहला नहीं है तुम्हारे पास, पहले से नाता नहीं है तुम्हारे पास, तो तुम दूसरे तीसरे, चौथे, पाँचवे, जिनको भी बाँधना चाहते हो, न तो उन्हें बाँध पाओगे, बाँध लिया भी तो बाँधने से जो चाहते थे, वो तुम्हें नहीं मिल पाएगा।

भेद स्पष्ट हो रहा है? यहाँ जो है, उसे किसी को बाँधने से कोई मतलब नहीं, क्योंकि वो बेचारा तो खुद बंधा हुआ है। किससे बंधा हुआ है?

जिधर को जा रहा है, उधर से बंधा हुआ है। तो और किसी को क्या बांधेगा? वो तो खुद ग़ुलाम है। यहाँ जो बैठा है वो अपने को क्या समझता है? मैं मालिक हूँ। मैं मालिक हूँ, और ये बहुत सारे लोग घूम रहे हैं यहाँ पर। मैं इन सबको बाँध सकता हूँ। मैं एक ऐसा मालिक हूँ, जिसे बहुत काम कराने हैं। बड़ा असुरक्षित क़िस्म का मालिक है। इन सबको बांधू, इन से काम कराऊँ, ज़िन्दगी भर इनसे अपना स्वार्थ सिद्ध करूँ।

श्रोता : जो आपने प्रक्षेपण की बात कही, कि दो राहों में जो दूसरी राह है, उसमें जो मंज़िल है वो उसका प्रक्षेपण ही होता है, इसलिए जो वो संबंध बनाना चाहता है वो पक्के बनाना चाहता है।

तो पहली वाली राह में, अभी आपने कहा कि हम मंज़िल को समझाने की चेष्टा नहीं कर सकते कि वो है क्या| ये ख़तरा तो हो ही सकता है ना, कि मंज़िल मेरा प्रक्षेपण ही है?

वक्ता : वो ख़तरा बिलकुल हो सकता है। पर वो ख़तरा उठाने की कोई ज़रुरत नहीं है। क्योंकि, चूंकि उस मंज़िल का कोई विवरण नहीं दिया जा सकता, इसलिए वो मंज़िल तुम्हारी पकड़ से बिलकुल बाहर की है। तुम्हें उसका विवरण देने की ज़रुरत ही नहीं है, तुम उसकी ओर जा ही रहे हो।

अब इसी पल को देख लो। तुमने अभी क्या किया? अभी-अभी क्या किया?

प्रश्नकर्ता: सवाल|

सवाल किया ना? सवाल करने का मतलब क्या है? झूठ जानना चाहते हो? जब कोई सवाल पूछता है, तो उसकी मंज़िल क्या होती है?

श्रोतागण : सच|

वक्ता : सत्य तो बस उसी मंज़िल पर हो। वो मंज़िल तो है ही तुम्हारे साथ, उसका विवरण जान के क्या करोगे? जब तुम सवाल पूछ रहे हो, तो वो मंज़िल दिल में बैठी है तभी तो सवाल पूछा तुमने। अब तुम उसके बारे में बहुत विस्तार जान कर करोगे क्या? तुम्हारा दिल यहाँ धड़क रहा है, धड़क रहा है, कि नहीं? तुम्हें वाक़ई ज़रुरत है जानने की, कि वो कितने किलोग्राम का है? तुम्हें वाक़ई ज़रुरत है जानने की कि उसका अाकार प्रकार क्या है? मैं मान रहा हूँ कि स्वस्थ हो तुम, बीमार नहीं हो कि डॉक्टर के पास जा रहे हो और वो नापा-झोका कर रहा है। तुम स्वस्थ हो, और दिल यहाँ बैठा है धड़क रहा है। तुम्हें वाक़ई आवश्यकता है इस ज्ञान की, कि कितनी घमनियाँ हैं, और कितनी टहनियाँ हैं, और किस प्रकार से खून आ रहा है, और किस गति से वो धड़क रहा है। वाक़ई आवश्यकता है? विवरण जान कर क्या करोगे जब भीतर बैठा हुआ है। जो तुम्हारे दिल में बैठा है, और तुम्हारे कदम कदम को निर्धारित कर रहा है, उसके बारे में निबंध लिख कर करोगे क्या?

श्रोता : तो आप ये कह रहे हैं, कि मूलभूत दो मंज़िल हैं, सत्य के अलावा और भी कोई मंज़िल हो सकती है।

वक्ता : बिलकुल हो सकती है। बस जो दूसरी मंज़िल हैं, वो अनस्तित्व में विलीन हो जाती है।

वहाँ जा जा के लौटना है। जैसे कोई नदी हो जो सागर की ओर चली हो, और रास्ता भटक गयी हो, तो कहीं रेगिस्तान में जा करके सूख गयी हो। जानते हैं ऐसी नदियों को? होती हैं। हर नदी समुन्द्र तक नहीं पहुँच जाती। वो भटक गयी अपनी मंज़िल से, वो चली और जा कर के कच्छ में, रेत में समा गयी, ख़त्म हो गयी। होती हैं नदियाँ ऐसी। तुम्हें क्या लगता है फिर उसका क्या होता है?

उसका ये होता है कि उसका जो पानी है, वो सूखता है। वो नीचे, ज़मीन के नीचे पहुँचता है। फिर वहाँ से किसी और धारा में सम्मिलित हो जाता है। या फिर वहाँ से किसी पौधे द्वारा उठा लिया जाता है। कुछ न कुछ तरीका निकलता है जिससे फिर उसका वाष्पीकरण होता है। क्योंकि वो अपनी मंज़िल तक इस बार नहीं पहुँच पाया, इसलिए वो पुनः बादल बनता है। वो पुनः बादल बनता है और पुनः बरसता है। वो पुनः किसी नदी तक पहुँचता है, फिर वो सागर तक पहुँचता है।

ये जो दूसरी मंज़िल है, ये झूठी है। तुम अगर उस राह चल रहे हो, तो तुम्हें सिर्फ निराशा मिलेगी। इसी को भारत में कहा गया है, कि एक के बाद एक जन्म लेने पड़ते हैं, जब तक कि मोक्ष न मिल जाए।

जब तक तुम सही धारा में प्रविष्ट न हो जाओ, तब तक तुम्हें पूरी मौत नहीं मिलेगी। तब तक ऐसा ही होगा, जैसे तुम्हारी धारा जा करके किसी रेगिस्तान में सूख गयी थी। तुम्हारे पानी को, तुम्हारी बूंदों को, सागर तक पहुंचना था, पहुंच नहीं पायी। पर इसका ये मतलब नहीं है, कि वो बूँदें अब कभी सागर तक पहुंचेंगी ही नहीं। दुनिया की ऐसी कोई बूँद नहीं है, जो कभी सागर तक न पहुँचती हो। पृथ्वी के किसी हिस्से पर कोई बूँद हो, वो ऐसी है नहीं, जो सागर से उठी ना हो, और ऐसी है नहीं जो सागर तक पहुँचनी नहीं है। हाँ बीच में वो जितने खेल खेलना चाहे खेल सकती है। इस राह चलती है, कभी उस राह चलती है, कभी पेड़ के ऊपर बैठ जाती है, ओस बन के। कभी फलों में लग जाती है रस बन के। कभी तुम्हारे शरीर में दौड़ती है, लहू बन के। कभी रेगिस्तान में पहुँच जाती है। कभी बारिश बन जाती है। कभी बर्फ बन जाती है। पर ऐसा नहीं हो सकता कि सागर तक वो पहुँचती ही नहीं। और ऐसा भी नहीं हो सकता कि वो सागर से उठती नहीं। वो बूँद है, तो उठेगी सागर से ही।

तो वो जो दूसरी मंज़िल है, वो हो कर भी नहीं है। क्योंकि मंज़िल तो वो हुई ना, जहाँ पर यात्रा का अंत हो जाए? तुम्हारी यात्रा का अंत होगा ही नहीं, अगर तुम दूसरी मंज़िल की ओर जा रहे हो। तुम्हें बार बार जन्म लेना पड़ेगा ।

तुम्हारी यात्रा का अंत तो सिर्फ पहली मंज़िल में होगा। दूसरी ऐसी है, जिसकी ओर जाओ, मंज़िल तक पहुँच भी जाओगे तो यात्रा पुनः शुरू हो जाएगी। तुमने ये पा लिया, यात्रा पूरी नहीं हुई, क्योंकि तुम्हें लगता है, कि अब कुछ और पाना है। तुमने फिर कुछ और अर्जित कर लिया, यात्रा पूरी नहीं हुई, तुम्हें लगता है अभी कुछ और पाना है। यात्रा पूरी होगी ही नहीं, इसलिए, उसे मंज़िल कहना भी गलत हुआ। मंज़िल की परिभाषा यही है ना- जहाँ जा कर के यात्रा ख़त्म हो जाये। झूठी मंज़िलों पे यात्राएँ खत्म नहीं होती। झूठी मंज़िलों पर जाने की सजा यही मिलती है कि तुम्हारी यात्रा को अनवरत रहना पड़ता है। तुम्हारा पुनःचक्र हो जाता है, रीसायकल।

श्रोता : पहली राह की बात करना चाहता हूँ मैं क्योंकि दूसरी राह के बारे में कुछ ठोस तरीके से कह नहीं सकता, और ठोस तरीके से कुछ समझ भी नहीं सकता। पहली राह जानी पहचानी है, तो उसी के बारे में बात करना चाहूँगा।

जैसे, हिंसा आपने कहा कि एक प्रेम से मिल रहा है, और एक हिंसा से। पर चूंकि आपने कहा कि पहली राह पर मंज़िल हो कर भी नहीं है, मंज़िल तो पहली राह वाले की भी दूसरी है। तो दूसरी राह पर जो एक रहस्यवादी तरीके से आ रहा है, उससे मुझे ऐसा लग रहा है, कि एक ग्राउंड छूट रहा है। जब हम आलिंगनबद्ध हैं किसी से, सम्भोग के क्षण में, तो हमें कोई ऐसी चिंता नहीं रहती कि हम सत्य की राह पर हैं, या हिंसा की राह पर। मैं उनके बारे में बात करना चाहता हूँ।

वक्ता : उनके बारे में बात करना व्यर्थ है। उनके बारे में बात करना वैसा ही है, जैसे जब हृदयाघात के क्षण में हो, और पूछे कि अब क्या करे? तो उनसे तुम क्या कहोगे? कोई अगर क्रोध क्षण में है, और बोले क्रोध तो बहुत चढ़ आया है, अब क्या करें? बिलकुल बेकार की बात ।

जीवन का कोई भी क्षण, दूसरे क्षण से बिलकुल जुदा नहीं होता ना। ये सब श्रृंखलाएँ हैं, कड़ियाँ हैं। ये क्रमबद्ध हैं। तुम किसी से आलिंगनबद्ध हो, ये अपने आप में कोई अलग या पृथक घटना नहीं है। तुमने दिन कैसा गुज़ारा है, ये निर्धारित करेगा, कि रात में जब आलिंगनबद्ध होते हो तो उस आलिंगन की गुणवत्ता क्या है।

अगर तुम्हें मेरी बात ज़्यादा रहस्यवादित लग रही है, तो उसको और सीधे सीधे तरीके से बता देता हूँ।

कोई भी आदमी, जिस चीज़ की तालाश में है, वो है परमात्मा। उस चीज़ को नाम तुम कुछ भी दे सकते हो, तुम क्या नाम देते हो, वो तुम्हारी समझ पर, और तुम्हारी नासमझी पर निर्भर करता है।

तुम ये नाम भी दे सकते हो कि तुम्हें एक कोठी बनवानी है। तुम कोठी में परमात्मा खोज रहे हो। तुम ये भी कह सकते हो, कि तुम्हें बहुत सारा पैसा चाहिए। तुम पैसे में आत्यन्तिक शान्ति खोज रहे हो। पर जो कीमती बात है, वो है ‘आत्यन्तिक’। कि मुझे उसमें आखिरी शान्ति मिल जाएगी। हो सकता है, तुम ये भी कह रहे हो कि नहीं, जीवन भर मुझे तो भटकना है, मुझे तो भटकने में मौज है, मैं तो यात्री हूँ। अगर तुम यात्री होने की बात करते हो, तो तुम्हारे लिए यात्रा परमात्मा हो गयी। हर आदमी, जिसको अंततः खोज रहा है, उसका नाम – परमात्मा। ठीक है?

तुम किसी औरत के पास जाते हो, कोई औरत किसी आदमी के पास जाती है। दोनों, वास्तव में, न आदमी से सरोकार रख रहे हैं, न औरत से सरोकार रख रहे हैं, हर आदमी को परमात्मा चाहिए। तुम इसमें भी परमात्मा खोज रहे हो, इन सवालों में भी, उस पानी में भी, खाना खाने जाओगे, उसमें भी, कोई नौकरी करोगे, उसमें भी, किसी से मिलोगे उसमें भी, और सम्भोग के क्षण में, औरत में भी। हर आदमी, औरत के माध्यम से परमात्मा को पाना चाहता है; हर औरत, आदमी के माध्यम से परमात्मा को पाना चाहती है। यही कारण है, कि आदमी और औरत का रिश्ता, कभी बहुत पक्का हो नहीं पाता।

और इसी बात ने हमें ये भी बता दिया है, कि वो रिश्ता पक्का कैसे हो सकता है। कैसे हो सकता है? आदमी को परमात्मा होना पड़ेगा। तुम किसी से रिश्ते में हो, और वो तुम पर ध्यान नहीं देती, एक ही तरीका है, परमात्मा हो जाओ। क्योंकि वो परमात्मा खोज रही है, तुम परमात्मा होने से इंकार करते हो। तुम्हारा हठ है, तुम परमात्मा होओगे नहीं, फिर तुम कहते हो, तुम्हें चाहती नहीं, प्यार नहीं करती। तुम वो हो ही नहीं जो वो खोज रही है। वो परमात्मा खोज रही है। जितने भी लोगों को रिश्ते में तकलीफें हों, उनको एक सलाह दिए देता हूँ, ‘परमात्मा हो जाओ’। रिश्ते ठीक हो जाएँगे। क्योंकि जिससे तुम रिश्ते में हो, वो तुम्हें नहीं खोज रहा, तुम हो कौन? वो परमात्मा खोज रहा है|

हर आदमी सिर्फ और सिर्फ परमात्मा खोज रहा है। हर औरत, सिर्फ और सिर्फ परमात्मा खोज रही है। तुम्हारी पत्नी, तुम्हारी शक्ल में अगर परमात्मा पाएगी, तुम्हारी दासी हो जाएगी। नहीं पाएगी, तो तुम लाख कोशिश कर लो, तुम्हारे पास नहीं आने की। दो चार दिन, हो सकता है आ जाए, उसकी भी शारीरिक भूख है, अपनी शारीरिक भूखों को पूरा करने के लिए या कभी तुम्हारा हृदय रखने के लिए, कभी किसी और कारणवश – हो सकता है आ जाये। लेकिन रिश्ता अतृप्ति से भरा हुआ रहेगा।

रिश्ते में तृप्ति तो तभी आएगी, जब तुम्हें उसमें वो दिखे जो तुम्हें अंततः चाहिए, और उसे तुममें वो दिखे जो उसे अंततः चाहिए। अगर कठिनाईयाँ मिल रही हैं, अगर रिश्तों में उलझाव हैं, तो ये मत पूछो कि मैं उसके साथ क्या करूँ, पूछो, अपने साथ क्या करूँ। तुम्हारा तुमसे रिश्ता ठीक नहीं है। तुम गलत राह पर चल रहे हो, इस गलत राह पर तुम्हें जो भी मिल रहा है, वो गलत ही होगा। जो गलत राह पर चल रहा है, उसे जो भी मिलेगा, उससे गलत रिश्ता। पक्षी, उससे गलत रिश्ता, ढाबा, उससे गलत रिश्ता, पेट्रोल पंप, उससे गलत रिश्ता। गलत राह पर, जो रिश्ता है, गलत है। सही राह पर जो रिश्ता है, सही है। जो परमात्मा की ओर जा रहा है, उसका एक पक्षी से जो रिश्ता बनेगा, वो कैसा होगा? सही होगा। जो परमात्मा की ओर जा रहा है, उसका इस कुर्सी से जो रिश्ता बनेगा वो? सही होगा। जो परमात्मा की ओर जा रहा है, उसका अपने भाई से जो रिश्ता बनेगा वो?

श्रोतागण : सही होगा|

वक्ता : और जो परमात्मा की ओर नहीं जा रहा है, उसका जिससे भी जो भी रिश्ता बनेगा, वो गलत होगा। बात समझ में आ रही है?

कई बार ये होता है कि हम सोचते हैं कि जो हमारा साथी है, जो जोड़ीदार है हमारा, प्रेमी हो, प्रेमिका हो, पति हो , पत्नी हो – उसको संतुष्ट करने के लिए हम उसकी मांगों को पूरा कर दें। करते हैं कि नहीं? पत्नियां पति के लिए कुछ कर देंगी, पति पत्नियों के लिए कोई तोहफा ला देंगे। हम सोचते हैं, ये सब कर के हम इनको रिझा लेंगे। इनकी यही तो मांग थी, हमने पूरी कर दी।

तुम पगले हो। तुम जान भी नहीं पा रहे हो, कि उसकी मांग क्या है वास्तव में। वो भगवान मांग रही है, जब तक भगवान नहीं हो जाओगे, तड़पते ही रहोगे। तुम उसके लिए साड़ी ले आये हो, गहने ले आये हो, तुम उसे घुमाने ले जा रहे हो, तुम्हें लगता है वो रीझ जाएगी? तुम पागल हो।

तुममें से, जो भी लोग, किसी का प्रेम पाना चाहते हों, अच्छे से जान लें, कि प्रेम का पात्र, मात्र परमात्मा होता है।

बात समझ में आ रही है? जिसे औरत का भी प्यार चाहिए हो, उसे पहले परमात्मा होना पड़ेगा। संसार भी पाने के लिए, तुम्हें पहले सत्य की ही शरण में जाना पड़ेगा। जो सत्य की शरण में नहीं गया है, वो संसार में भी ठोकरें ही खायेगा।

तुम हो जाओ कृष्ण जैसे, फिर दिखाओ मुझे, कौन सी स्त्री इंकार करेगी तुमसे। तुम क्यों नहीं हो कृष्ण? पर तुम कभी ये नहीं कहोगे कि वो मेरे पास नहीं आती क्योंकि मैं कृष्ण नहीं हूँ। और कृष्ण ना होना मेरी ज़िद है, कृष्ण न होना मेरा अड़ियलपन है, कृष्ण न होना मेरी विक्षिप्तता है, क्योंकि ‘कृष्णत्व’, तो मेरे भीतर गर्भ रूप में मौजूद है ही। मैं अड़ा हुआ हूँ, कि उस बीज को अंकुरित नहीं होने दूंगा। तुम इंकार करते हो कि तुम कृष्ण नहीं बनोगे, फिर तुम कहते हो कि मेरी गोपी, मेरी राधा मेरे पास क्यों नहीं आती। राधा सिर्फ कृष्ण के पास जाती है, तुम कृष्ण क्यों नहीं हो?

हम में से हर कोई राधा है, हम सब कृष्ण की ही प्रतीक्षा कर रहे हैं।

और सब की सेज सूनी है। स्त्रियां कह रही हैं, पुरुष नहीं मिला, और जो मिला, वो मन मुताबिक नहीं मिला। पुरुष कह रहे हैं, औरतों का बड़ा अकाल है। और जो मिलती हैं, ये क्या? ये औरतें हैं? तुम गलत जगह, गलत चीज़ ढूंढ रहे हो। जो शरीर तलाशते हैं, वो शरीर भी नहीं पाते। जिनकी मंज़िल शरीर हो गयी, वो शरीर भी नहीं पाएंगे। और जिनकी मंज़िल परमात्मा हो गयी, उनके रास्ते में शरीर बिछ जाएँगे ।

ये मैं ललचा नहीं रहा हूँ तुम्हें। कि परमात्मा की ओर जाओगे तो बहुत सारी लड़कियां, औरतें मिल जाएंगी, ये नहीं कह रहा हूँ। मैं तुम्हारे सामने एक तथ्य रख रहा हूँ। ऐसा है।

कृष्ण गए नहीं थे अनगिनत गोपियों को लालायित करने या लुभाने। वो कृष्ण हैं, इसलिए गोपियाँ न्योछावर हैं उन पर। तुम कृष्ण हो जाओ, फिर देखो। और कृष्ण नहीं हो अगर, तो ढोंग मत करना, ढोंग करने से नहीं आ जायेगा। हर गोपी, कृष्ण को पहचानती है। हम में से हर कोई परमात्मा को जानता है। गोपी के लिए जो कृष्ण है, वही हमारे लिए शान्ति है। तुम्हारा शान्ति से जो नाता है, वही गोपी का कृष्ण से है। तुम जानते हो ना शान्ति को? शान्ति नहीं मिली, तो क्या ईमानदारी से कह पाओगे कि शांत हो? तो ठीक वैसे ही, गोपी को अगर कृष्ण नहीं मिला है, तुम कितना भी ढोंग करते रहो, वो ये कह नहीं पाएगी कि उसे कृष्ण मिल गया। कभी न कभी वो कह ही देगी, कि भाई तुम वो हो नहीं। तो तुम्हें बुरा लग जाएगा, चोट लग जाएगी। तुम कहोगे इसने मुझे मना क्यों कर दिया? वो कब तक दिल पर पत्थर रखे रहे? उसे शान्ति चाहिए, तुम अशांति हो। उसे सत्य चाहिए, तुम भ्रम हो। तुम्हें अगर सत्य चाहिए, और कोई तुम्हें भ्रम देगा, कितने दिनों तक झेल लोगे? कभी न कभी तो कह दोगे ना, कि भाई तेरे साथ नहीं।

श्रोता : तुमसे ना हो पाएगा।

वक्ता : तुमसे ना हो पाएगा। या ये कि, तुम अगर सामने हो, तो हमसे न हो पाएगा।

(श्रोतागण हँसते हैं)

श्रोता : आशय क्या है इसका – परमात्मा हो जाना?

वक्ता : परमात्मा हो जाना माने परमात्मा हो जाना।

(मुस्कुराते हैं)

आशय नहीं समझते तुम? पक्का नहीं समझते?

श्रोता : नहीं|

वक्ता : नहीं समझते?

श्रोता : कितनी बार आप पूछेंगे?

वक्ता : मैं तब तक पूछूँगा जब तक हाँ नहीं बोलोगे ।

कोई यहाँ नहीं बैठा जो नहीं समझता।

श्रोता : जब आप कहते हैं, कि दूसरा भी परमात्मा खोज रहा है, और आप कहते हैं कि मैं भी परमात्मा ही खोज रहा हूँ, और हम सब से कह रहे हैं, परमात्मा हो जाओ – तो ये अजीब विडम्बना नहीं है कि जिसे हम खोज रहे हैं, वो हम हो कैसे जाएँ?

वक्ता : जो पकड़े हुए हो, उस को छोड़ कर के। तुम आँख पर काली पट्टी बाँध कर सूरज खोज रहे हो। सूरज खोजना नहीं होता, क्या करना होता है?

श्रोतागण : पट्टी उतारनी होती है|

वक्ता : काली पट्टी उतारनी होती है। परमात्मा हो जाने से यही आशय है, कि जो तुमने पकड़ रखा है, उसको छोड़ दो।

श्रोता : और ये पकड़ परमात्मा की खोज में नहीं रखा?

वक्ता : पकड़ तुमने जिन भी कारणों से रख हो, रखा हुआ है। हो सकता है किसी ने बाँध दिया हो, और तुम्हें भरोसा ही न हो कि छोड़ा भी जा सकता है। बहुत कारण हो सकते हैं। कारण सारे पुराने हैं, गुज़रे हुए हैं, अतीत, छोड़ो ना। काहे को पकड़ के बैठे हो?

परमात्मा अगर तुम नहीं हो पा रहे, और फिर तुम्हें जीवन में प्रेम नहीं मिल रहा, तो नतीजा जानते हो क्या होता है?

तुम और ज़्यादा, अपने अपारमात्मा होने की कोशिश में लग जाते हो। तुम गए स्त्री के पास, उससे तुम्हें प्रेम नहीं मिला, उससे तुम्हें किसी तरह का ध्यान ही नहीं मिला। वो दरकिनार कर रही है तुम्हें। अब तुम और ज़्यादा अपरमात्मा हो जाओगे। तुम्हारे भीतर हिंसा उठेगी, जलन उठेगी। तुम और उसको दिखा दोगे, कि मैं वो बिलकुल नहीं हूँ, जो तू खोज रही थी।

अगर तुझे ये शक़ हो भी, कि मुझमें अंश मात्र भी परमात्मा है, तो मैं तेरा शक़ दूर किये देता हूँ। अब देख मेरा तू हिंसक रूप। तुम गाली दोगे उसको, तुम ताने मारोगे। ये तुम उसे क्या सिद्ध कर रहे हो? तुम उसे यही बता रहे हो ना कि तेरा निर्णय बिलकुल ठीक है। तूने अच्छा किया कि मेरे पास नहीं आयी। देख, मैं ऐसा हूँ ही नहीं कि तू मेरे पास आये। वो क्यों आये तुम्हारे पास?

जब तुम ऐसे हो, कि तुम्हें प्रेमी ना मिले, या प्रेमी अपना शरीर तुम्हें ना सौंपे, तुम उसे गाली देते हो- तो क्या तुम इस काबिल हो कि तुम्हें किसी का शरीर मिले? मैं फिर कह रहा हूँ, गोपी तो अपने आप को कृष्ण को ही सौंपती है। अब कल्पना करो कि कृष्ण गालियाँ देते हुए दौड़ रहे हैं, गोपी के पीछे और मुरली फ़ेंक के मार रहे हैं।

(श्रोतागण हँसते हैं)

और तुम ये तरीके आजमाना चाहते हो। तुम सोचते हो, हिंसा कर के, दबाव डाल के, उलाहना कर के, शिकायतें कर के, तुम किसी का प्रेम पा जाओगे। ऐसे मिलता है? ऐसे नहीं मिलता।

वो बेहता है, जैसे गंगा सागर की ओर बहती है, तुम सागर हो जाओ, गंगा तुम्हारी ओर बहने लग जाएगी। तुम कृष्ण हो जाओ, गोपियाँ तुम्हारी ओर बहने लग जाएंगी। यहाँ बहुत से युवा लोग भी बैठे हैं, खैर उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। अपनी अपनी नज़र में तो सभी युवा हैं। जिनको भी प्रेम की तालाश है, उनसे एक बात कहे देता हूँ, प्रेम पाने का एक ही तरीका है। क्या?

श्रोतागण : कृष्ण हो जाओ|

वक्ता : कृष्ण हो जाओ, खूब प्रेम मिलेगा। और जब तक कृष्ण हुए नहीं हो, तब तक जितनी शिकायतें करनी हैं, कर लो, जितने तरीके लगाने हो लगा लो, सब व्यर्थ जाने हैं। सब व्यर्थ जाने हैं ।

प्रेम पर तो कृष्ण का ही एकाधिकार है। और कोई है ही नहीं, प्रेम के काबिल। बाकियों को तो भिखारी ही रहना होगा, मांगते रहो प्रेम। जीवन भर मांगो, नहीं पाओगे। और अगर तुम्हें लगता है कि मिल गया, तो समझना और बड़ा धोखा हो गया।

बहुत होते हैं, जोड़े घूम रहे हैं, हाथ में हाथ ले कर। दूर से देखोगे तो ऐसा लगेगा कि दोनों को मिल गयी हैं मंज़िलें। कुछ नहीं है, अच्छे से जानते हो क्या चल रहा है। अभी कल ही तो बीता है प्रेम दिवस।

कृष्ण हुए बिना, अगर तुम्हें लगता है कि कोई औरत तुम्हें प्यार कर रही है तो जान लेना कितुम्हें धोखा दे रही है। वो तुम्हें एक ऐसी चीज़ दे रही है जिसके तुम काबिल ही नहीं हो, तो धोखा ही दे रही होगी। और अगर कृष्ण हो गए हो और कोई तुम्हारी ओर नहीं आ रही, तो ये भी जान लेना कि बेचारी अपना ही नुकसान कर रही है और तुम्हारी करुणा की पात्र है। उस पर गुस्सा कैसे कर सकते हो? रहीं होंगी वृन्दावन में भी कुछ विक्षिप्त गोपियाँ, जो कृष्ण की उपेक्षा कर देती होंगी, हो सकता है तिरस्कार भी कर देती हों। क्या पता, एक आध दो विक्षिप्त गोपियाँ हो सकती हैं, पगली? कृष्ण उनसे लड़ेंगे, उलझेंगे, नाराज़ होंगे?

कृष्ण कहेंगे, ये तो मेरी करुणा का पात्र हैं। उसको तो जा कर के ज़रा मलहम देंगे, ज़रा उपचार करेंगे। फिर ये थोड़े ही कहेंगे कि तुझसे मुझे वो मिल नहीं रहा जो मुझे चाहिए ।

जिसका प्यार परमात्मा है, उसे दुनिया का प्यार मिल जाता है। और जिसका प्यार परमात्मा नहीं है, उसे कोई प्यार नहीं मिलता। तुम उससे (परमात्मा) प्यार करो, वो तुमसे प्यार करेगी। वो तुमसे प्यार नहीं कर रही है, तो वजह ज़ाहिर हैं? तुम उससे (परमात्मा) से प्यार नहीं कर रहे। तुम उससे प्यार करो, दुनिया तुम्हारी है।

श्रोता : वासना फिर क्या है?

वक्ता : कुछ नहीं है, बस दूसरी राह पर जो कुछ होता है, उसे वासना बोलते हैं। दिक्क्त बस ये है, कि वो, सिर्फ वासना है। वो ऐसी वासना है, जो वासना से ही निकली है, और और ज़्यादा वासना में तब्दील हो जानी है। वो सिर्फ लोभ है। वो ऐसा लोभ है, जो लोभ को और बढ़ाएगा।

परमात्मा का लोभ वो लोभ है, जहाँ, लोभी को ही ख़तम हो जाना है। मैंने एक ऐसी चीज़ मांग ली जो? मुझे ही ख़त्म कर देगी। नमक की डली हो, और उसे लोभ हो जाए? पानी का। नमक को पानी का लोभ हो गया, अब क्या होगा? खत्म कर देगा। वासना तो ये भी है, ये भी जाके मिल ही गया, शारीरिक रूप ख़त्म हो गया। उधर जो वासना होती है, वो वासना सिर्फ वासना है, कभी खत्म नहीं होती। उसमें तुम सामने वाले को महत्वपूर्ण बना देते हो। तू बहुत महत्वपूर्ण है, तू बहुत कीमती है। फिर जब वो नहीं मिलता, तो फिर उतनी ही ज़ोर से, भीतर से प्रतिरोध की अग्नि भी उठती है।

दुनिया में इससे ज़्यादा, जलाने वाली आग नहीं होती। क्रोध उठता ही तब है, जब काम की पूर्ती नहीं होती। जिनके काम की पूर्ती न हो रही हो, उनके क्रोध का कोई ठिकाना नहीं रहता। और वजह बेचारों के पास है ना, गुस्सा होने की। क्या वजह है?

परमात्मा को तो छोड़ आये, कि ऐसा तो कुछ होता ही नहीं, एक पैसे की श्रद्धा नहीं थी। परमात्मा को छोड़ कर के, जहाँ दिल लगाया, वो भी नहीं मिल रहा। हर तरफ से मारे गए। सत्य को तो छोड़ आये, किसके खातिर?और संसार के खातिर। और संसार में जो उम्मीदें थी वो पूरी नहीं हो रही। तो अब भीतर से लपट उठेगी के नहीं उठेगी? दोनों तरफ से मारे गए ना। राम छोड़ आये, किसके लिए? माया के लिए। और माया चीज़ ऐसी है, जो कभी हाथ आनी नहीं है। तो ‘माया मिली ना राम’। अब लठ लिए घूम रहे हैं, कि किसको मारें?

श्रोता : संबंधों में ये जितना भी पशुवत व्यवहार होता है, ये उठता तो हमारी वृत्तियों से ही है। एक बार आपने पहले भी कहा था, कि जो पैदा होता है, वो वृत्तियों का पिंड है। तो सहज रूप से, हमारे मन की दिशा परमात्मा की ओर कैसे हो सकती है, जब हम आ ही पशु वृत्तियों से रहे हैं।

वक्ता : कोई पशु ये सब जिज्ञासा नहीं करता। पशु तो जैसा है, है, अपना ठीक है। अपनी बात करो ।

श्रोता : तो अगर मैं ये कहूँ, कि मेरे संबंधों में मैं जितना भी पशुवत व्यवहार देखता हूँ, ये क्या इसका द्योतक नहीं है, कि मुझे और ज़्यादा अभीप्सा है उसकी?

वक्ता : अभीप्सा होगी, पहली मंज़िल पर जो परमात्मा बैठा है, उसकी। पर तुमने उस तक भी जाने का जो ज़रिया चुना हुआ है, वो तो इधर वाली राह है ना? तुमने ये मान लिया है, कि कोई प्रतिनिधि परमात्मा भी होता है। कोई दूसरा भी होता है। जो पहले से हट कर है। और पहले को नहीं पाएँ तो दूसरा चलेगा। दूसरे के तरफ जाने में थोड़ी सुविधा ज़्यादा है, क्या? पहले को पाएँगे तो खुद मिट जायेंगे। दूसरे को, खुद को बचा कर के भी पाया जा सकता है। जो तुमने बात कही वो बहुत क़ीमत की है, कि आप कोई भी मंज़िल पाना चाहते हो, तो वास्तव में आप पाना तो परमात्मा को ही चाहते हो। बिलकुल ठीक है। पर बहुत तिरछी है ना। परमात्मा सामने बैठा है, मंज़िल दूर की है। तुम कर क्या रहे हो? तुम कह रहे हो, सामने जाने के लिए मैं दूर से होके आऊँगा। तो ये बेवकूफी है, और इस बेवकूफ़ी की फिर सज़ा मिलती है। इस बेवकूफ़ी की क्या सजा होगी?

सामने जाना हो और इतनी दूर आओ गाड़ी चला के। तो क्या सज़ा मिलती है? ईंधन बर्बाद होता है। और जो जीवन में ये करे, उसको क्या सज़ा मिलेगी? जीवन बर्बाद होगा। जो कार में बैठ कर ये करे कि सामने जाने के लिए ऐसे घूम कर आये, उसका क्या बर्बाद होगा? ईंधन। और जो ज़िन्दगी में यही करे, उसका क्या बर्बाद होगा? जीवन ।

श्रोता : तो क्या सीख हो सकती है, उनके लिए, मेरे लिए, जो पहली राह पर चलते हैं, और सरोगेट परमात्मा से काम चलाने की कोशिश करते हैं?

वक्ता : जो सीधा है, उसे सीधा करो। तो जो बात सामने की है उसे सामने रखो। और जो सामने की है, उसे टेढ़े-तिरछे तरीके चलाना, उसका अपमान है।

श्रोता : ये काव्यात्मक रूप से नहीं समझ आ रहा

वक्ता: देखो अगर तुम इसको ऐसे पूछ रहे हो, कि मैं तुम्हें कुछ करने, के पैमाने दे दूँ, निर्देश दे दूँ…

श्रोता : नहीं, अभी आपने कहा था कि सूरज सामने है, तो पट्टी खोलो, तो पट्टी खोलना भी तो कार्य ही है।

वक्ता : पट्टी खुलती नहीं, गिरती है, और तब गिरती है जब समझ में आता है कि पट्टी है। और समझ में आने का एक ही तरीका है, अपनी अंधी चाल को देखो। जो अपनी अंधी चाल को देख लेगा, वो जान जाएगा कि कुछ गड़बड़ है, आँखों के साथ। अंधी चाल को देखने का मतलब होता है, जो दिन भर कर रहे हो, उसको देखो। अपनी छोटी छोटी हरकतों को देखो। अनायास जो मुँह से निकल जाता है, उसको देख लो कि क्यों निकला, कहाँ से आ रहा है।

कोई वृत्ति छुप कर बैठी थी, ऐसी छुपी बैठी थी, कि मुझे लगता था, कि मैं तो अंदर से बहुत पवित्र हूँ, साफ़ हूँ ; और वो भीतर ही भीतर चछुप के बैठी थी। अब इस मौके पर सामने आ गयी है, देखो ये मुँह से क्या निकल गया। देखो ये क्या लिख दिया? अच्छा हुआ लिख दिया, अच्छा हुआ कह दिया, अच्छा हुआ कर दिया, वृत्ति ज़ाहिर हो गयी। जो ज़ाहिर हो गया , उसका उपचार हो गया , वो ठीक हो गया। ज़ाहिर होने के लिए, सबकुछ उपलब्ध है, क्योंकि सब कुछ तुम्हारे कर्मों में, प्रतिबिंबित होता ही रहता है। तुम्हारे भीतर जो भी बैठा है, वो तुम्हारे कर्मों के माध्यम से प्रकट होता ही रहता है। अपने कर्मों पर नज़र रखो। कुछ ऐसा नहीं है, जो तुम्हारे कर्म परिलक्षित न कर देते हों। खो मत जाओ, बेहोश मत रहो। चीज़ सामने आएगी, दिखेगी, खुल जाएगी।

श्रोता : विश्वास सा नहीं होता, ये जो आप बात कर रहे हैं, उस पर। सुनने में अच्छी लग रही है।

वक्ता : सुनने में अच्छी लग रही है, इतना काफी है।

(मुस्कुराते हैं)

श्रोता : और न ये विभाजन समझ में आ रहा है

वक्ता : क्यों कह रहे हो कि समझ में नहीं आ रहा?

श्रोता : ताकि समझ में आये|

वक्ता : विभाजन हो गया कि नहीं? जब मैं कहता हूँ कि मुझे समझ में नहीं आ रहा, तो क्यों कहता हूँ? तो दो हुए कि नहीं? दो माने, विभाजन है। दो अलग अलग चीज़ें फिर हुई की नहीं? मैं कह रहा हूँ कि अभी नासमझ हूँ, लेकिन?

श्रोतागण : समझना चाहता हूँ|

वक्ता : तो विभाजन है कि नहीं है? दो हैं कि नहीं हैं?

तो क्या नहीं समझ में आ रहा? इसी को कहते हैं, ज़बरदस्ती आँख पर पट्टी को पकड़ के रखना। बात खुली सामने रख दी है, “मुझे तो नहीं समझ में आ रही”। समझ में आ नहीं रही या समझनी नहीं है?

कृष्ण वो जिसको जब समझ में आ रहा हो, तो कहे कि? आ रहा है। फिर गोपी मरती है उस पर।

यही तो अदा है कृष्ण की।

(हँसते हैं)

और जहाँ किसी वानवी कृष्ण ने कहा, कि नहीं मुझे तो समझ में नहीं आ रहा, मुझे तो समझ में नहीं आ रहा, तो गोपी कहती है, धत तेरे की, अच्छा अब निकल बाहर।

(हँसते हैं)

श्रोता : तो हर एक बंदा बनना कृष्ण ही चाहता है|

वक्ता : तो जिसने भी कहा कि कुछ बनना है, उसे कृष्ण ही बनना है। हाँ, नासमझी है, तो कृष्ण को कभी इस छोटी चीज़ में संकुचित कर दिया। कभी उस ज़रा सी बात में सीमित कर दिया, कभी इस रूप में देखा, कभी उस रूप में देखा। हर रूप, छोटा है, तो कभी पूरे तरीके से, कृष्ण को समेट नहीं पाता अपने में।

आध्यात्मिक, धार्मिक लोगों की कोई अलग कोटि थोड़े ही होती है। जिसने भी, कभी भी, कुछ भी चाहा है, वही आध्यात्मिक है। ‘चाहत’ ही सबूत है आध्यात्म का। तुम्हें परमात्मा न चाहिए होता तो तुम चाहते क्यों?

तो बहुत सुंदर बात है कि “लव” और “लोभ” शब्द आपस में जुड़े हुए हैं। तुम चाहते हो, यही तो लव है। और ये छोटा वाला नहीं है, ये परम प्रेम है।

श्रोता : जितने सवाल लाया था, अब तो ख़ास मन नहीं है कुछ पूछने का।

(मुस्कुराते हैं)

वक्ता : ऐसे हो जाओ, ‘पुरुष’, कि प्रकृति मजबूर हो जाए। समझ से अधिक, कोई भी आकर्षक नहीं होता। चाहते हो ना, कि लड़कियाँ खिंची आएं तुम्हारी ओर, स्त्रियाँ मरें? तो ऐसे हो जाओ।

परमात्मा, अति हॉट है ।

(अट्टाहस)

और उतना कुछ हॉट होता ही नहीं। बाकी तो सब जो तुम्हारा है यूँ ही है। गुनगुना, ल्यूक वार्म। तुम अपनी ओर से बहुत गर्मी भी दिखाते हो, तो वो ऐसा ही होता है जैसे किसी को बुखार आ गया हो। उससे पानी थोड़े ही उबल आएगा। कोई बुखारग्रस्त आदमी हो, उसके माथे पर तुम चाय रख दो – पानी और दूध डाल कर के। तो चाय थोड़े ही बन जाएगी? पानी थोड़े ही उबलेगा?

स्टीमिंग हॉट तो सिर्फ परमात्मा है, उसके आगे तो मजबूर हो जाते हैं सब। विकल्पहीन। भागे चले आते हैं। तुम पढ़ो पुराणों को, इधर मुरली बजी नहीं, कि कोई अपनी गाय छोड़ के भाग रही है, कोई अपना बच्चा छोड़ के भाग रही है। कोई अधनंगी है, बिना कपड़े के भाग आयी। तो हो जाओ ना ऐसे, कि मजबूर हो जाएँ सब।

और जैसे हो, वैसे में तो फिर वही होगा कि…

सर दर्द हो रहा है?

(श्रोतागण हँसते हैं)

औरतों को इतना सर दर्द होता ही इसलिए है, क्योंकि तुम कृष्ण नहीं हो। किसी गोपी को कभी सर दर्द हुआ होगा?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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