प्रश्नकर्ता: मैं थोड़ा सोचती ज़्यादा हूँ, काम कम करती हूँ और वो (मेरे पति) तो सोचते ही नहीं हैं, बस काम करते हैं। इतना ज़्यादा, इतना ज़्यादा कि अगर काम नहीं है तो बेचैन हो जाते हैं। और मेरा है कि काम तो लास्ट (अंत) में, जब टाला नहीं जा सकता, उसके पहले पूरा समय आराम से। दोनों ही गलत हैं, परन्तु परेशानी उन्हें ज़्यादा होती है।
आचार्य प्रशांत: काम तो अच्छा है। देखिए, आप गीता शुरू करेंगे, आरम्भिक अध्यायों में ही कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि, "देखो, जीव पैदा हुए हो तो यही पाओगे कि संसार प्रकृति के तीन गुणों से संचालित है, और यहाँ सब कुछ कर्मरत और गतिशील है।" कुछ रुका हुआ नहीं है, तो जब आप ये कहती हैं कि, "मैं काम नहीं करती", तो काम तो आप तब भी कर रही हैं, बस हो सकता है कि उचित काम न कर रही हों।
इस संसार में रुकना सम्भव नहीं है, चल सब रहा है। प्रश्न ये नहीं है कि आप चलेंगे कि नहीं। चलना तो असम्भावी है। प्रश्न सिर्फ ये है कि आप उचित चल रहे हैं या अनुचित चल रहे हैं, तो बात ये नहीं है कि आप नहीं करती, करती तो आप भी हैं। हो सकता है आप न कर के करती हों, और बात ये भी नहीं है कि वो ज़्यादा करते हैं। ज़्यादा करना कुछ नहीं होता, ना कम करना कुछ होता है। करने में दो ही भेद होते हैं, उचित या?
प्र: अनुचित।
आचार्य: हो सकता है कभी बहुत कम करना उचित हो, हो सकता है कभी बहुत ज़्यादा करना उचित हो। हो सकता है कभी इस दिशा करना उचित हो तो कभी उस दिशा करना उचित हो। पर करना तो पड़ेगा। कोई ऐसा नहीं है जो जिए और करे ना। जीवन माने कर्म।
आप ये ना पूछिए कि, "मैं कम क्यों करती हूँ?" आप ये पूछिए, "क्या मैं उचित कर रही हूँ?" वो ये ना पूछें, "क्या मैं बहुत ज़्यादा करता हूँ?" वो ये पूछें कि, "उचित कर्म क्या है?" उचित कर्म अगर यही है कि घोर कर्म में उतरो, तो ठीक।
देखता हूँ अगर यहाँ नेटवर्क आ रहा हो तो एक गीत सुनाता हूँ, सुना तो होगा ही ये गाना पहले, ये कुछ नहीं है, वही है — अर्जुन प्रश्न करता है कि अभी-अभी, सांख्य योग के बाद, दूसरे अध्याय के बाद, गीता में, कि, "अभी-अभी तो कह रहे थे ज्ञान इतना श्रेष्ठ है, तो फिर मुझे घोर कर्म में क्यों प्रेरित कर रहे हो?" तो कृष्ण उसको जो जवाब देते हैं, वही ये गाना है –
“ओ नदिया चले चले रे धारा, चंदा चले चले रे तारा, तुझको चलना होगा, तुझको चलना होगा। जीवन कहीं भी ठहरता नहीं है, आंधी से तूफ़ाँ से डरता नहीं है, तू ना चलेगा तो चल देंगी राहें, मंज़िल को तरसेंगी तेरी निगाहें, तुझको चलना होगा, तुझको चलना होगा। पार हुआ वो रहा जो सफर में, जो भी रुका फिर गया वो भँवर में, नाव तो क्या, बह जाए किनारा, बड़ी ही तेज है समय की ये धारा, तुझको चलना होगा, तुझको चलना होगा।"
और यहाँ से सवाल ये पीछे छूट जाता है, कि चलें या ना चलें क्योंकि “तुझको चलना होगा।” यहाँ से अब जो प्रश्न आता है वो प्रश्न आता है व्यवस्था का, आर्डर का। यहाँ से प्रश्न ये आता है कि तुम्हारी चाल व्यवस्थित है कि नहीं? चाल है या नहीं ये तो प्रश्न ही अप्रासंगिक है, गौण है। क्योंकि, तुझको? चलना होगा। चलना तो पड़ेगा। अब ये बताओ कि तुम्हारी चाल व्यवस्थित है कि नहीं, ऑर्डरली है कि नहीं, उचित है कि नहीं? तो व्यवस्था किसको बोलते हैं? सम्यकता किसको बोलते हैं?
गीतकार कह रहा था, “नदिया चले चले रे धारा, चंदा चले चले रे तारा।” तो एक व्यवस्था तो प्रकृति की होती है। वो हमें दिखती ही है। नदी बह रही है, उसके बहाव में अराजकता नहीं है, एक व्यवस्था है। और ये जो व्यवस्था है, ये ऊँची होती है, मन के उपद्रव से, अराजकता से, अव्यवस्था से, रैंडमनेस से।
जो लोग वृत्तियों के शिकार होते हैं, उनसे कहा जाता है कि तुम प्रकृतिस्थ हो जाओ। प्रकृति में तुम कुछ तो व्यवस्था पाओगे। और फिर एक व्यवस्था होती है, जो प्रकृति की व्यवस्था से भी ऊँची होती है। वो सत्य की व्यवस्था होती है। वो पुनः अराजक लगती है। अराजक इसलिए लगती है, क्योंकि उसमें अप्रत्याशितता होती है। उसमें जो कुछ होता है वो अन-एक्सपेक्टेड होता है। नदी कैसे बह रही है, ये अप्रत्याशित नहीं है। व्यवस्थित भी है, और अनुमेय भी है। तुम बता सकते हो कि नदी ऐसे बह रही है। वहाँ टिहरी से पानी छोड़ा जाएगा, तो यहाँ कितनी देर में पहुँचेगा तुम बता सकते हो।
सत्य की जो व्यवस्था होती है, वो होती तो बड़ी सुन्दर है, लेकिन आदमी के अनुमान से अतीत होती है।
चूँकि आदमी के अनुमान से आगे की होती है तो आदमी को ये भी लग सकता है कि व्यवस्था है ही नहीं, वो उपद्रव है, अराजकता है। बात समझ रहे हो?
मन अपनी ओर से व्यवस्था देता है, वो व्यवस्था वास्तव में अराजकता होती है। फिर होती है प्रकृति की व्यवस्था, और फिर होती है सत्य की व्यवस्था। तुम्हें देखना होगा कि कहाँ तुम्हें शान्ति मिलती है।
अगर क्षुद्रता के ही तल पर जी रहे हो, मन के ही तल पर जी रहे हो, तो प्रकृति के क़रीब आओ, वहाँ तुम्हें शान्ति मिलेगी। लोग इसलिए आते हैं पहाड़ों पर, समुद्र के पास, अन्य प्राकृतिक जगहों पर। वहाँ शान्ति मिलती है। शान्ति इसलिए मिलती है, क्योंकि अब तुम मनुष्यकृत व्यवस्था से हट कर के, प्राकृतिक व्यवस्था के पास आए हो। उसमें कुछ ऐसी बात है कि तुम्हें शांत कर जाती है। तुमने जो बिल्डिंग बनाईं, तुमने जो सड़क बनाईं, तुमने शहर के जो नियम क़ायदे बनाए, उसमें भी तो एक व्यवस्था है न? लेकिन यहाँ पर, नदी किनारे तुम्हें जो शान्ति मिलती है, वो तुम्हें अपने शहर में नहीं मिलती; भले ही वहाँ पर तुमने कितना गणित लगा कर के, कितनी बुद्धि लगाकर के व्यवस्था क्यों ना बनाई हो, है न?
मानसिक व्यवस्था से, सामाजिक व्यवस्था से ऊँची होती है प्राकृतिक व्यवस्था। व्यवस्था की परिभाषा ही यही है, जहाँ तुम्हें शान्ति है, वहाँ तुम कह सकते हो, व्यवस्था है। तुम सही अवस्थित हो। तुम सही अवस्थित हो, इसी को व्यवस्था बोलते हैं।
तुम्हारी स्थिति सही है, इसी को कहते हैं व्यवस्था। तो शहर से ज़्यादा तुम्हें शान्ति मिलती है, यहाँ पर। पर यहाँ भी रहने से ऐसा नहीं है कि तुम्हें आखिरी शान्ति मिल जाएगी। अगर तुम्हें यहाँ रहने भर से आखिरी शान्ति मिलती होती, तो जो लोग पहाड़ों में रहते हैं, सब ब्रह्मलीन होते। पर ऐसा तो होता नहीं। तो फिर आखिरी शान्ति किसी और व्यवस्था में होती है। उस व्यवस्था तक तुम्हें ग्रन्थ ले जाते हैं, तुम्हें ध्यान ले जाता है, तुम्हें प्रेम ले जाता है, तुम्हें गुरु ले जाता है, तुम्हें तुम्हारी अपनी मुमुक्षा ले जाती है। समझ रहे हो?
चलना तो है ही, तय करो किस व्यवस्था पर चलना है। किसके कहने पर चलना है? निम्नतम तल है व्यवस्था का — सामाजिक व्यवस्था। अगर तुम समाज के कहने पर चल रहे हो, तो अशांत रहोगे या कह लो कि तुम्हारी शान्ति आंशिक रहेगी। आंशिक शान्ति को ही अशांति कहते हैं। अगर तुम प्रकृति के कहने पर चल रहे हो, तो तुम्हारी शान्ति बढ़ेगी पर पूर्ण अभी भी नहीं रहेगी। और अगर तुम चल रहे हो सच्चाई पर, तो पूरी शान्ति मिलेगी।
तो हमने ये दो बातें एक साथ समझी हैं। पहली तो ये कि चलना तो ज़रूरी है। दूसरी बात ये कि तय कर लो कि किसके कहे पर चलना है, किसकी व्यवस्था पर चलना है, दुनिया के कहे पर चलना है, प्रकृति के कहे पर चलना है या सत्य के कहे पर चलना है। चलना तो है ही।
अर्जुन अगर कहता है कि वो लड़ाई नहीं करेगा, तो वो भी एक कर्म है, और उसका भी फल मिलेगा। और अगर वो लड़ता है, तो वो भी कर्म है, उसका भी फल मिलेगा। कर्म तो दोनों ही स्थितियों में हो ही रहा है, तुम देख लो कि किसके कहने पर चल रहे हो। अगर वो नहीं लड़ता है, तो कौन सी व्यवस्था का पालन कर रहा है? सामाजिक। वो कहता है, "अरे! ये सब बड़े लोग हैं, इन्होंने गोद में खिलाया, मैं इन पर बाण कैसे चला दूँ?" ये सारी बातें कौन सिखाता है? कि उम्र का आदर करो इत्यादि? ये समाज सिखाता है। तो अर्जुन सामाजिक व्यवस्था के तल पर उलझा हुआ था, कृष्ण ने उसे सीधे खींच कर उठा दिया, किस तल पर? सत्य के तल पर। तो पहले भी वो चलने को तैयार था, पर पहले चलता तो गलत। फिर वो चला, अब वो चला तो? सही। पहले चलता तो अशांत रहता। अब जैसे चला है वो, उसी में शांति थी, उसी को कृतत्व कहते हैं।
काम तो करना ही है, तुम देख लो कि किसके इशारे पर करने जा रहे हो। जीना माने? करना। कर तो रहे हो, कर तो रहे ही हो तो ठीक करो न भैया। कर तो तुम भी रहे हो, कर तो हम भी रहे हैं, कर तो ये भी रहा है, कर तो वो भी रहा है। ना करने वाला कोई नहीं। अंतर यह है कि कोई सत्य के इशारे पर कर रहा है, कोई देह के इशारे पर कर रहा है, कोई समाज के इशारे पर कर रहा है।
अभी कुछ दिन पहले ही मैं पढ़ रहा था, कि मंसूर ने—कौन से मंसूर? अल-हिल्लाज मंसूर, अन अल हक़ वाले। जो एक प्रमुख सीख दी थी, वो क्या सीख थी? छोटे के आगे कभी झुक मत जाना। कभी छोटे के आगे मत झुक जाना। अब जब इशारे पर चलना ही है, तो किस के इशारे पर चलो? अरे बड़े के इशारे पर चलो न! देह के इशारे पर क्यों चलते हो? पड़ोसी के इशारे पर क्यों चलते हो? हृदय के इशारे पर चलो, अनंत के इशारे पर चलो। चलना तो है ही।
प्र: आचार्य जी, ये सारे तीनों अपने आप मिलते हैं, या हमें खोजना पड़ता है?
आचार्य: सब उपलब्ध है, तीनों। जीव पैदा होने का सौभाग्य भी यही है, और त्रासदी भी यही है कि तीनों उपलब्ध हैं।
प्र: समाज में तो हम रहते ही हैं।
आचार्य: हाँ, समाज में रहते हो, हृदय आप में रहता है। समाज तो फिर भी थोड़ा दूर है, हृदय तो?
प्र: पास है।
आचार्य: तो उसका इशारा भी तो उपलब्ध है। मर्म समझना, क्या कहा अभी। आदमी पैदा होने का सौभाग्य भी यही है कि तीनों इशारे हैं, और दुर्भाग्य भी यही है, कि तीनो हैं। ऊँचे-से-ऊँची संभावना उपलब्ध है, अगर आदमी पैदा हुए हो और निचली से निचली भी। तो अपना क्या हश्र करते हो, तुम जानो।
प्र: जो कर्म हम कर रहे हैं वो उचित है या नहीं उसका क्या पहचान है?
आचार्य: शान्ति। उचित व्यवस्था शान्ति देती है, और उस शान्ति की कोई और पहचान नहीं होती, स्वयं उसके अलावा। वो शान्ति आप अपना प्रमाण होती है। वो आप किसी को समझा भी नहीं पाएँगे कि मुझे ये व्यवस्था क्यों रूचि है। किसी को अपनी शांति कैसे खोल कर दिखाओगे?
सिर्फ आप जानते हो न, कि आप जिस दिशा जा रहे हो उस दिशा आपको क्या मिला, क्या दिखा। दूसरे तो बस हक्के-बक्के रहेंगे, सवाल पूछते रहेंगे, सर धुनते रहेंगे, वो कहेंगे, "तुझे वहाँ क्या मिलता है, तू क्यों जाता है?" अब तुम कैसे अपना सीना चीर कर उन्हें दिखाओ कि क्या मिलता है?
प्र२: आचार्य जी, जब तक मैं कोई एक्टिविटीज करती रहती हूँ, जैसे डांस कर रही हूँ, गा रही हूँ, अपना काम कर रही हूँ, तब तो आनन्दमय महसूस करती हूँ, पर जब खाली बैठती हूँ, तो अशांति लगती है। तो ऐसा लगता है कि मुझे ये भी कर लेना चाहिए, वो भी करना चाहिए।
आचार्य: मत बैठो खाली। जिसके ऊपर कर्ज़ा लदा हो, उसे खाली नहीं बैठना चाहिए।
खाली बैठना बड़े सौभाग्य की, बड़े प्रिविलेज की बात होती है। अभी तो तुम दौड़ लगाओ, अभी तो तुम कर्ज़ा उतारो। अभी तो बहुत कुछ है जो किया जाना बाकी है, अभी तुम्हारी वो स्थिति नहीं आई है कि तुम विश्राम ले लो, निवृत हो जाओ। निवृत्ति के लिए भी तुम्हें दौड़ लगानी पड़ेगी।
हाँ, एक क्षण ऐसा आएगा, ज़रूर आएगा जब तुम्हें दिख जाएगा दौड़ की आवश्यकता नहीं। लेकिन याद रखना, निवृत्ति के लिए जो दौड़ लगानी है, वो उस दौड़ से पूर्णतया भिन्न है जो तुम आश्रयता में लगाते हो, जो तुम प्रवत्ति में लगाते हो। एक तो वो दौड़ है न, जो तुम दिन भर लगाती ही रहती हो, और एक वो दौड़ है जो बुद्ध ने लगाई थी, कि राजमहल छोड़ कर जंगल की ओर दौड़े थे। ये दोनों दौड़ें बहुत अलग हैं।
तो अभी तो तुम्हें दौड़ लगानी पड़ेगी। बुद्ध भी पहले दौड़े थे फिर थमे थे। सही दौड़ लगाओ।
प्रश्न ये नहीं है कि दौड़ोगे कि नहीं दौड़ोगे। प्रश्न यही है कि सही दौड़े कि नहीं दौड़े? सही दौड़ो। मैं ये अभी तुम्हें खोखला आश्वासन नहीं दूँगा कि जहाँ हो वहीं थम जाओ, क्योंकि तुम जहाँ हो वहीं थम गई तो गलत जगह थम जाओगी। अभी तो तुम दौड़ कर के वहाँ पहुँचो जहाँ तुम्हें होना चाहिए, और फिर थमो।
प्र३: आचार्य जी, कल आपने बोला कि छोटा बच्चा भी वृत्तियों के साथ पैदा होता है, संस्कार लेकर, तो डर का संस्कार है वो पहले से ही होता है। यदि किसी को बहुत ज़्यादा फियर (डर ) हो तो क्या करना चाहिए?
आचार्य: देखो तुम जब सोच नहीं रहे होते तो क्या डरे होते हो? सो जाती हैं तो क्या डरी रहती हैं? तो डर का आम चेतना से संबंध है न, जग कर जब विचार करते हो तभी तो डरते हो न, जग कर विचार करने की अपेक्षा काम करो। सही काम कर रहे हो और उसमें डूबे हो तो डरने का मौका नहीं मिलेगा।
प्र३: डर यह है कि गलत काम कर रहे हैं।
आचार्य: और जो हालत कर रहे हो अपनी डर-डर कर, वो गलत नहीं है?
डर रहे हो कुछ गलत ना हो जाए, और जो डरे जा रहे हो वो गलत नहीं है? काम करो। जो काम नहीं करते उन्हीं के पास उपद्रवी ख्याल रहते हैं, और उनका कोई समाधान नहीं है। कोई कहे कि, "पहले मेरे ये सब उलझने शांत करो, मेरे विचार शांत करो, फिर मैं काम करुँगी", तो ये असम्भव माँग है। तुम्हारी उलझने शांत ही काम करने से होंगी।
प्र: आचार्य जी, मनुष्य के अंदर दो इशारे तो प्राकृतिक हैं—देह के इशारे, दिल के इशारे। तो क्या सत्य का इशारा प्रकृति से नहीं आया है?
आचार्य: नहीं नहीं, हृदय का इशारा है, ये प्राकृतिक नहीं है। ये तीनों अलग हैं। सत्य, प्रकृति और मानव कृति, जिसको तुम कृति भी बोल सकते हो और विकृति भी बोल सकते हो, ये तीनों अलग हैं। तीनों को अलग-अलग देखा जाना चाहिए। प्रकृति परमात्मा नहीं होती।
प्र: क्या है जिसमें ये तीनों समाएँ हैं? क्योंकि मानवाकृति सत्य के अंदर नहीं समाया हुआ।
आचार्य: नहीं, समाया होगा। अब जैसे धुँआ आकाश में समाया हुआ है। लेकिन आकाश फिर भी धुँए से तो पृथक है न?
सत्य में ये दोनों समाए हुए हैं , लेकिन फिर भी सत्य इनसे तो पृथक ही है न? सब कुछ आकाश में है, लेकिन आकाश फिर भी हर चीज़ से अलग है।
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