प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मेरा प्रश्न यह है कि जब कोई शारीरिक क्षति हो, कोई बीमारी हो, या छोटी से छोटी चीज़ जैसे कि चोट भी हो, तो हम तुरंत उसका इलाज करने में जुट जाते हैं। परिवार भी सहयोग करने के लिए आगे आ जाता है। अगर घरेलू इलाज से ठीक ना हो तो डॉक्टर के पास, विशेषज्ञ के पास भी चले जाते हैं। मतलब शारीरिक स्तर पर जब भी कुछ होता है, वह तुरंत हमारी पहचान में आ जाता है और हम सक्रिय हो जाते हैं।
पर जब मानसिक स्तर की बात आती है कि जब हम हमारी पुरानी आदतों से ही घिरे होते हैं; कुछ जो पिछले अनुभव हैं, वही निरंतर चलते रहते हैं। और उसकी वजह से जो रोज़ का जीवन भी ख़राब होता है और वर्तमान परिस्थिति में भी जो हमारे साथ जुड़े हुए लोग होते हैं, उनको भी परेशानी होती है। फिर भी मानसिक स्तर के विषयों पर हम लोग खुले मन से दूसरे के साथ चर्चा करने में या अपना वो अंदर का घाव दिखाने में हिचकिचाते हैं।
तो मेरा वास्तव में ऐसा मानना है कि सब लोगों को ऐसा ही लगता है कि यह एक सार्वभौमिक सच्चाई है कि भाई मानसिक बीमारी तो है ही, तो उसको ऐसे ही स्वीकार कर लिया गया है, ऐसा मुझे लगता है। पर जब जैसे–जैसे आगे जीवन में जाते हैं तो पता चलता है कि वो जो छोटी सी चीज़ जिसका समय पर इलाज़ नहीं किया गया, वो आगे बढ़ती जाती है। तो क्या बिना दर्द निवारक दवाएँ खाए भी एक स्वस्थ जीवन जिया जा सकता है?
आचार्य प्रशांत: अच्छा हुआ कि इस सत्र की शुरुआत ही आपने इस प्रश्न से करी। आज या कल ही मैं कबीर साहब का एक छंद, "मन की दरार", देख रहा था।
देखिए, इंसान दो है। इंसान दो है।
ये जो पूरी बात ही हमें बार–बार समझा के कही गई है, अहम् और आत्मा की, इससे ही स्पष्ट हो जाना चाहिए कि इंसान दो है। नहीं तो ये अहम् क्या और आत्मा क्या, एक ही होते अगर हम।
एक तरफ़ तो हम शरीर हैं। वो शरीर जो इन्द्रियों से दिखाई पड़ता है। जिसके होने के, जिसको नापने के साफ़–साफ़ इंन्द्रियगत प्रमाण उपलब्ध हैं। और दूसरी तरफ़ हम कुछ और हैं, जो दिखाई नहीं पड़ता पर दिन–प्रतिदिन की अकुलाहट से अपने होने का एहसास कराता है। अब ये इंसान की स्वेच्छा पर है कि उसे अपने किस आयाम की ज़्यादा फ़िक्र करनी है, उसे अपने किस आयाम पर जीना है?
आप चाहें तो अपने–आपको शरीर घोषित कर सकते हैं। फिर शारीरिक स्वास्थ्य का ख़्याल रखें, शरीर के लिए सुख–सुविधाएँ जुटाएँ। भौतिक जितने भी साधन हो सकते हैं, सबको एकत्रित करें और उनका भोग करें। या फिर आप अपने–आप को वो अकुलाहट मान सकते हैं जो भीतर ही भीतर मौजूद है, सूक्ष्म है। वो चूँकि भीतर है तो साफ़–साफ़ अपने–आप को प्रमाणित नहीं कर पाती। इसीलिए उसकी उपेक्षा की जा सकती है।
ये चुनाव करने पड़ते हैं। अब अगर आपने चुन लिया है कि आप देह ही हैं तो आप दूसरे की भी चिंता किस तल पर करेंगे? आपको दूसरे की भी देह की ही खूब फ़िक्र रहेगी। मैं नहीं कह रहा हूँ कि आपको दूसरे की फ़िक्र नहीं रहेगी। आपको दूसरे की फ़िक्र रहेगी, लेकिन किस तल पर? देह के तल पर, और अपनी दृष्टि में आप बिल्कुल ठीक होंगे। आप दूसरे से यही कह रहे होंगे कि मैं तुम्हारी बेहतरी के लिए काम कर रहा हूँ। मुझे तुम्हारे हित की बड़ी चिंता है। लेकिन आप बँध गए होंगे व्यक्ति की अपनी ही परिभाषा से। आपने व्यक्ति को परिभाषित ही कर दिया है देह के रूप में। खुद को भी यही कहा है, 'मैं कौन हूँ? मैं देह हूँ।'
और ऐसी कोई घोषणा कभी कोई प्रत्यक्षतः करता नहीं, ऐसी घोषणा चुपचाप होती है। वो आपकी मान्यताओं में दिखाई देती है। आप ऐसा नहीं करने वाले हैं कि आप अपने घर में, दीवार पर बड़ा–बड़ा, अपने दस्तख़त के साथ लिखकर टाँग देंगे कि, 'मैं तो देह हूँ।' ऐसा कोई करता है क्या? तो पता कैसे चलता है कि किसी ने अपने–आप को देह ही बना लिया? उसकी ज़िंदगी देखो तो दिख जाएगा। अगर वो हर समय चीज़ों, वस्तुओं, पदार्थ, के पीछे ही भाग रहा है तो समझ लो कि इसने अपने–आपको देह घोषित कर दिया है।
अब ये व्यक्ति अगर आपकी ओर सद्भावना से भी भरा हुआ होगा तो ये अपनी सद्भावना किस रूप में दिखायेगा? आपकी देह की परवाह करके। और यह मजबूर है, यह सिर्फ़ आपकी देह की ही परवाह कर सकता है। और देह की परवाह करने में इस व्यक्ति को बड़ी विशेषज्ञता हासिल है, क्यों? क्योंकि ये खुद भी जन्म भर अपने साथ क्या कर रहा है? देह की ही परवाह। तो यह बड़ा गुणी–ज्ञानी हो गया है। किस क्षेत्र में? देह की चिंता करने में ये खूब गुणी–ज्ञानी हो गया है। और अब इसकी मजबूरी बैठ गई है कि आपको किसी और रूप में देख ही नहीं सकता है। क्योंकि अगर ये आपको चेतना सदृश मान सकता तो आपसे पहले इसने स्वयं को ही चेतना सदृश मान लिया होता।
तो आप इससे अगर बोलेंगे भी कि, 'भाई, तकलीफ़ देह में नहीं है, कहीं और है,' तो उसकी मजबूरी ये है कि उसको समझ में आ ही नहीं सकता कि तकलीफ़ कहाँ है। तो आपको कहीं भी तकलीफ़ होगी, वो इलाज एक ही करेगा। किस चीज़ का? देह का।
आप कहेंगे, 'चिंतित हूँ।'
वो कहेगा, 'नहा लो।'
आप कहेंगे, 'दुखी हूँ।'
वो कहेगा, 'पकौड़े बना लाता हूँ।'
आप कहेंगे, 'अकुलाहट हो रही है।'
वो कहेगा, 'सो जाओ।'
आप कहेंगे, 'बड़ी दुविधा रहती है।'
वो कहेगा, 'कुछ व्यायाम कर लो। मैं कुछ विधियाँ बता देता हूँ, शारीरिक।'
ऐसे लोग आपको घर में भी मिलेंगे, बाज़ार में भी मिलेंगे, दफ़्तर में भी मिलेंगे और ख़तरनाक बात ये है कि अध्यात्म में भी मिलेंगे। आप अपनी कोई भी समस्या बताइए, उनके पास इलाज शारीरिक ही होगा। 'लो, शारीरिक तल पर ऐसा कर डालो।'
अब शारीरिक समस्याओं के शारीरिक समाधान हो सकते हैं, होंगे ही। पर ये जो भीतर कोई है, जो तड़प ही इस वजह से रहा है कि वो शरीर के साथ फँस गया बेचारा! उसको अगर आप शारीरिक समाधान देंगे तो ये ऐसा ही है जैसे जेल में कोई कैदी बंद है। वो तड़प इसलिए रहा है कि जेल में बंद है और वो रोए, आपसे कहे, 'मैं बेचैन हूँ, मैं बंधक हूँ,' तो आप उससे कहें, 'चलो फर्श पर पोछा लगा लो, गंदगी बहुत है। चलो सलाखों को रंग–रोगन कर दो, पोत दो।'
आप उसे किस तल पर समाधान दे रहे हैं? शरीर के तल पर। आप उससे उन्हीं चीज़ों को सुसज्जित करने को कह रहे हैं जिन चीज़ों को लेकर के वो परेशान है। वो जेल को ही लेकर परेशान हैं और आपने कह दिया, 'चलो जेल को ठीक कर लो।' आप उससे कह रहे हैं, 'चलो जेल के अंदर ही धूपबत्ती लगा लो, खुशबू फैल जायेगी।'
अब उसकी भी मजबूरी है। मजबूरी क्या है? कि जिस कोठरी में आप बंद हैं, उसकी बगल वाली में वो भी बंद है। अगर उसको पता ही होता कि इस जेल से मुक्ति कैसे मिलती है, तो वो खुद नहीं निकल आया होता। हाँ, उसने जेल में बंद रहने के मनोरंजक तरीके ढूँढ निकाले हैं। उसने कहा, 'जेल तो है ही, और फँसे तो रहना ही है। तो हम कैद इत्यादि और कैद से मुक्ति की बात ही नहीं करेंगे। हम बात करेंगे कैद को ही और सुविधापूर्ण, और मनोरंजक बनाने की।'
तो आप उसे कोई भी बात बताओ, आप बोलो, 'आज़ादी के लिए तड़प रहा हूँ,' वो कहेगा, 'ये लो पेंट , ये लो ब्रश और कुछ चित्रकारी कर लो दीवार पर।' आप कुछ बोलिए, वो फ़िक्र आपकी देह की ही करेगा। कुछ बोलिए। और वो आपको बहुत डाँटेगा। किसी दिन आए, देखे कि आपकी कोठरी का फर्श गंदा है तो आपको बहुत डाँटेगा। कहेगा कि, 'ये क्या कर रहे हो, तुम्हें अपना कुछ ख़्याल नहीं है। तुमने अपना फर्श गंदा कर लिया।'
वो फ़िक्र तो आपकी कर रहा है, लेकिन किस तल पर फ़िक्र कर रहा है? देह के तल पर। और वो चाहता है कि आपकी कोठरी बड़ी अच्छी रहे, बढ़िया रहे, मस्त रहे। और निश्चित रूप से वो जो चाह रहा है उससे आप को कुछ तो लाभ होगा ही। जेल में अगर कैदी बंद है और उसकी कोठरी कुछ साफ़–सुथरी है तो जेल में रहने में थोड़ी सुविधा हो जाती है।
ये काम माएँ अपने बच्चों के साथ करती हैं। ये काम पति अपनी पत्नियों के साथ करते हैं। ये काम घर के बड़े–बुज़ुर्ग अक्सर घरवालों के साथ करते हैं और ये काम अध्यात्म में भी बहुत सारे गुरु अपने अनुयायियों के साथ करते हैं। वो देह–देह की ही रट लगाए रहते हैं—लो देह का अब ये कर लो, देह का अब वो कर लो। उनकी दृष्टि में भौतिक के अलावा कुछ है ही नहीं। वो जो भी आपको समाधान देंगे, उसका संबंध देह से होगा।
माँओं को देखिए। बच्चा एक दिन खाना ना खाए तो कितनी व्यथित हो जाती हैं। पर बच्चे की चेतना किस दिशा में जा रही है इससे उनको कोई विशेष मतलब नहीं होता है। बच्चा दूसरे बच्चे के बाल खींच रहा हो, बच्चा दूसरे बच्चे से छुड़ा के खा रहा हो, माँ को कुछ विशेष बुरा नहीं लगेगा। कहेंगे, 'ये तो साधारण बात है।' लेकिन बच्चा खाना ना खाए या बच्चे की उँगली ज़रा सी कट जाए और खून निकल आए तो माँ का दिल बिल्कुल उछल के छाती से बाहर आ जाता है। 'ये क्या हो गया!'
उतना बुरा क्या माँओं को लगता है जब वो पाती हैं कि बच्चा किसी दूसरे बच्चे के बाल खींच रहा है, उसे मार रहा है, हिंसा कर आया। कुछ बुरा लगेगा, उसे थोड़ा डाँट–डँपट देंगी। पर उतना बुरा नहीं लगेगा जितना बुरा उन्हें तब लगता है जब बच्चे की उँगली कट जाती है। यही काम पति पत्नियों के साथ और पत्नियाँ पतियों के साथ करती हैं।
कोई पूछे, 'कैसे हैं? क्या हालचाल है?'
और आप कहें, 'कल रात ज़रा बुखार था।'
'अरे! क्या हुआ? क्या हुआ? डॉक्टर को दिखाया कि नहीं? अभी कैसे हैं? देखियेगा आजकल डेंगू बहुत फैल रहा है। क्या बात है?'
वो तत्काल अपनी चिंता व्यक्त कर देगा। पर आपकी आँखों में ज़िंदगी के प्रति एक ऊब हो, कोई आपसे पूछता है कि, 'बात क्या है?' इसको तो साधारण ही मान लिया जाता है। इसकी उपेक्षा कर दी जाती है। और मजबूरी है उपेक्षा करना, क्योंकि वही ऊब हम सबकी आँखों में है। पूछ के कर क्या लेंगे? क्या करेंगे किसी के घाव पर नमक छिड़क के? और फिर उससे पूछें तो बेकार ही हमें भी याद आता है कि हमारी भी हालत उसी जैसी है।
धरती फाटे मेघ मिले, कपड़ा फाटे डौर। तन फाटे को औषधि, मन फाटे नहीं ठौर।।
~कबीर साहब, साखी –ग्रंथ
(संत कबीर के साखी–ग्रंथ से दोहा पढ़ते हुए)
"धरती फाटे मेघ मिले, कपड़ा फाटे डौर"
धरती अगर फट गई हो तो मेघ काम कर जाते हैं, सहायता हो जाती है। धरती फट गई हो माने, अगर सूखे से फट गई है तो बारिश हो जाती है, काम हो जाता है।
"कपड़ा फाटे डौर"
और कपड़ा अगर फट गया हो तो सुई धागा हो तो काम हो जाता है।
"तन फाटे को औषधि"
तन अगर फट गया हो तो औषधि से काम हो जाता है।
"मन फाटे नहीं ठौर"
मन फट गया है तो अब कहाँ जाओगे? और कोई नहीं मिलेगा जो तुम्हारा इलाज कर पाए।
मेघ से क्या तात्पर्य है? प्रकृति। प्राकृतिक तल पर तुम्हें अगर कोई व्याधि हो गई है तो उसका इलाज भी प्रकृति कर देगी।
"कपड़ा फाटे डौर"
कपड़े से क्या तात्पर्य है? कपड़ा एक मानवकृत उत्पाद है न! आदमी ने बनाया है। आदमी ने जो चीज़ बनाई है अगर वो ख़राब हो गई हो तो आदमी ही उसे ठीक भी कर देगा। कपड़ा भी आदमी बनाता है और डोरा भी आदमी ही बनाता है। कार भी आदमी बनाता है और कार में लगने वाले छोटे–मोटे कल–पुर्ज़े, जो कुछ भी कार में ख़राब हो सकता है, वो भी आदमी ही बनाता है। तो कार ख़राब हुई है तो आदमी ही ठीक करेगा। किसी और की ज़रूरत नहीं है।
"तन फाटे को औषधि"
और तन फट गया हो तो औषधि काम कर देगी।
"मन फाटे नहीं ठौर"
मन फट गया हो तो बोलो अब तुम्हें कौन बचाएगा? मन फट गया हो तो अब तुम्हें कौन बचाएगा?
आगे कबीर साहब, जो आम इंसान है, उसके चित्त की दशा बताते हैं—
मेरे मन में पड़ गई एक ऐसी दरार। फाटा फटिक पषाण ज्यों मिले न दूजी बार।।
~कबीर साहब साखी –ग्रंथ
‘स्फटिक पत्थर' – ‘फटिक पाषाण।‘ कोई भी पत्थर मान लीजिए। एक बार वो टूट गया, उसमें दरार पड़ गई फिर वो दुबारा मिलता है क्या? कोई भी पत्थर अगर टूट गया तो क्या दुबारा उसको जोड़ पाओगे?
"मेरे मन में पड़ गई एक ऐसी दरार। फाटा फटिक पषाण ज्यों मिले न दूजी बार।।"
अब कैसे सिलोगे? मन को कैसे सिलोगे? मन को सिलने में ना तो प्रकृति काम आनी है कि बारिश हो जाए, ना आदमी का कोई निर्माण काम आना है कि सुई धागा मिल गया, कि औषधि मिल गई और मन को दुबारा एक कर दिया, सिल दिया, जोड़ दिया। हो नहीं पाएगा।
फिर कह रहा हूँ, ना प्रकृति काम आएगी, ना इंसान की मशीनें, इंसान की तकनीक, इंसान की तरक्की, प्रगति, इंसान की होशियारी, इंसान की दुनियादारी, कुछ काम नहीं आने हैं अगर मन में दरार पड़ गई है। अब क्या करोगे?
हम सब ऐसे ही हैं जिनका मन खंड–खंड है, बिल्कुल विभाजित, छितराया हुआ। जैसे छन्न से काँच गिरे और हज़ार टुकड़ों में छितरा जाए। अब क्या करोगे?
"मेरे मन में पड़ गई एक ऐसी दरार। फाटा फटिक पषाण ज्यों मिले न दूजी बार।।"
तरीका भी साहब ने ही सुझा दिया है। कह रहे हैं कि देखो प्रकृति तो काम आएगी ही नहीं। ये तो सोचना ही मत कि जो कुछ भी प्राकृतिक है, उसका उपयोग कर पाओगे अपने इस फटे मन को सिलने के लिए।
प्राकृतिक क्या–क्या होता है? शरीर। तो सबसे पहले, तो ये जो दुनिया है, प्रकृति है, ये पूरी कायनात है; इसमें बसने वाले आदमी, औरत, बूढ़े, बच्चे हैं, इनसे तो उम्मीद रखना ही मत कि ये तुम्हारा मन सिल देंगे। ये नहीं कर पाएँगे। धरती फटी हो तो मेघ काम आ सकता है; मन फटा हो तो मेघ काम नहीं आएगा। पर हम यही सोचते हैं। हम सोचते हैं, 'मन फटा है, चलो पहाड़ों पर चलते हैं। वहाँ बारिश हो रही होगी, उससे मन अच्छा हो जाएगा।'
अरे प्रकृति काम नहीं आएगी अगर मन फटा हुआ है तो। पर आधे से ज़्यादा दुनिया का पर्यटन इसीलिए होता है। मन फटा है, चलो मॉरिशस हो आते हैं। समुंदर में गोता मारेंगे, मन ठीक हो जाएगा। होता नहीं है। मन फटा हो, राजस्थान का मरूस्थल घूम आते हैं, या पहाड़ों का हिमशिखर चूम आते हैं, मन अच्छा हो जाएगा। सबने करा है ऐसा कि नहीं करा है? आप जा कर के किसी से बोलो कि, 'खिन्न है, मन ख़राब है', तो कहता है, 'जाओ, थोड़ी देर घूम आओ बाहर, लॉन में टहल आओ।' ये वो लोग हैं जिन्हें मन की कोई समझ नहीं। ये वो लोग हैं जिन्होंने संतों को कभी पढ़ा नहीं।
उनसे कहिए,
"धरती फाटे मेघ मिले, कपड़ा फाटे डौर"
'अरे! मैं कोई मिट्टी हूँ कि फट गया हूँ तो तुम मुझे भेज रहे हो पानी में।'
इसी तरीके से दूसरे लोग होते हैं जिनसे आप जा कर के कहें अगर कि मन खिन्न है, तो वो कहेंगे, ‘अच्छा ठीक है' और थोड़ी देर में आपके लिए कुछ खरीद कर ले आएँगे— घड़ी, शर्ट, साड़ी, पैसा, ज़्यादा हुआ तो गाड़ी। कहेंगे, 'लो अब मन अच्छा हो जाएगा।'
बोलिए, 'अरे! मैं कोई कपड़ा हूँ? मानवीय उत्पाद हूँ कि तुम डोरा ला के मुझे सिलने की कोशिश कर रहे हो? अगर मैं इंसान का निर्माण होता तो इंसान का ही कोई दूसरा निर्माण मुझे सिल देता। पर ये जो कुछ भी तुम मुझे दिखा रहे हो—घड़ी, घोड़ा, गाड़ी या खाने की चीज़ें ले आ के दिखा दी कि लो ये खा लो, मन अच्छा हो जाएगा। तुम्हें समझ में नहीं आ रही बात! ये सब चीज़ें किसने बनाई हैं? इंसान ने बनाई हैं। और इंसान की बनाई चीज़ सिर्फ इंसान की ही बनाई किसी दूसरी चीज़ के काम आ सकती है। मेरे भीतर जो समस्या है, वो इंसान की बनाई चीज़ की है ही नहीं। वो कोई और बात है। उस समस्या का समाधान ना गाड़ी से होगा, ना साड़ी से होगा। वो चीज़ कुछ और है।'
और फिर गुरुदेव पधारे। गुरुदेव कहें, 'नहीं नहीं नहीं, कोई भी समस्या है, चलो फलानी क्रिया कर लो, फलाना आसन कर लो, फलानी चीज़ खा लो, या फलानी चीज़ खाना बंद कर दो।'
उनसे कहिए, शारीरिक तल की बात नहीं है। तन की समस्या होती तो गुरुदेव आपकी औषधि हमारे काम आ जाती। पर ये बात तन के तल पर है ही नहीं, बात कहीं और की है। जिस देश की बात है, आप उस देश कभी गए ही नहीं। और बेईमानी आपकी ये है कि उस देश को जाने की कोशिश करने की जगह आपने घोषणा कर दी है कि वो देश है ही नहीं। सिर्फ़ इसलिए क्योंकि आपने वो देश कभी नहीं देखा तो आप अब सबको बताते फिर रहे हैं कि वो देश कहीं है ही नहीं।
पर वो देश है और उस देश का प्रमाण है मेरी तड़प। इस देश में तो जो कुछ है उससे मेरी तड़प शांत होती नहीं। इसी से प्रमाणित हो जाता है कि कोई और देश होगा ज़रूर। इस देश में जो कुछ है, सब आज़मा कर देख लिया। वो विफल है। चाहे वो प्राकृतिक चीज़ें हों यहाँ की और चाहे मानवकृत। चाहे प्रकृति ने बनाई हों, चाहे मानव की कृति हों, यहाँ जो कुछ है हमने सब आज़मा कर देख लिया, उससे तो राहत मिली नहीं। तो कोई और देश होगा ज़रूर, राहत उसी से मिलेगी।
अब बताइए क्या करना है? चाहें तो अपना मनोरंजन करते रह सकते हैं। धरती बहुत बड़ी है और अब तो आदमी अंतरिक्ष में भी खूब घूम रहा है। घूमते–घूमते अगर लगे कि धरती चुकने लगी है तो चंद्रयान है, मंगलयान है। बोलिए कहाँ जाना चाहते हैं आप? चाँद पर और मंगल पर आदमी मुहल्ले बसा रहा है। उसकी अग्रिम बुकिंग हो रही है। अरे, मज़ाक की बात नहीं है। सौ से ज़्यादा लोग पैसे जमा करा चुके हैं, उसमें भारतीय भी हैं। और ये वो हैं जिन्होंने जमा कराए हैं। हज़ारों की कतार है जो जमा कराने को आतुर है। उनका नंबर नहीं आ रहा।
तो एक विकल्प तो ये है कि आप कहें, 'सारा ब्रह्मांड भोगूँगा। धरती पूरी भोग ली, अब चाँद भोगूँगा। क्या पता चाँद पर ही चैन मिल जाए।' वैसे भी शायर हर समय चाँद–चाँद करते रहते हैं। चलते ज़मीन पर हैं, देखते चाँद को रहते हैं। ज़रूर चाँद पर ही चैन होगा। तो पैसा जमा कराएँ, बुकिंग कराएँ, क्या पता मिल ही जाए। या आदमी ने जो चीज़ें आविष्कृत पर ली हैं, उनमें सहारा खोज लीजिए। कहिए, 'बेचैनी मेरी इसलिए है क्योंकि मेरे पास आधुनिकतम टेक्नोलॉजी (तकनीक) नहीं है। अभी फोन का दसवाँ या ग्यारहवाँ संस्करण चल रहा है। मैं पंद्रहवें की बुकिंग कराऊँगा।' आता है न! फोन वन, फोन टू, फोन थ्री, फोन फोर। आजकल कौन सा चल रहा है?
श्रोता : ग्यारहवाँ।
आचार्य: तो बोल रहे हैं, 'बात यही है कि अभी हम ग्यारह पर ही अटके हुए हैं। मैं बेचैन ही इसलिए हूँ कि पंद्रह पर जब पहुँचेंगे तब चैन मिलेगा।' तो जाएँ और आधुनिकतम तकनीक वगैरह हासिल करने की कोशिश करें, खर्चा करें।
जो कुछ भी इंसान ने बनाया है और प्रकृति ने जो चीज़ें बनाई हैं उनमें मैं तो अभी आपसे जंगल, पहाड़ का ही ज़िक्र कर रहा था। यदि आप युवा हैं तो उसमें सबसे पहले तो स्त्री और पुरुष आते हैं। वो भी प्राकृतिक ही हैं। प्रकृति का निर्माण हैं। कहें कि, 'बेचैन रहता हूँ। जो सबसे खूबसूरत स्त्री या पुरुष मिलेगा, उसी से विवाह कर लूँगा। ज़िंदगी बिल्कुल शांत हो जाएगी। दिल ठंडा हो जाएगा।' ये कोशिश करके देख लीजिए। क्या पता इससे काम बन जाए आपका।
भई, उम्मीद रखनी चाहिए। उम्मीद नहीं रखेंगे तो सच आ जाएगा। खतरा है। तभी तो जानने वालों ने कहा है उम्मीद पर दुनिया कायम है। और ये कह कर के, मुँह छुपा कर के, हँस लिए होंगे वो। क्योंकि आप समझे ही नहीं कि उनका आशय क्या था? वो कह रहे हैं कि उम्मीद पर ही दुनिया की मूर्खताएँ कायम हैं। हमें लगा वो कह रहे हैं कि उम्मीद बड़ी बात है। उम्मीद से ही तो दुनिया का कारोबार चल रहा है। वो कह रहे हैं, ‘दुनिया का मूर्खता का कारोबार चल रहा है।’
जिनको भी इस पंक्ति को सुनकर एक हूक उठती हो। कौन सी पंक्ति?
"मेरे मन में पड़ गई, एक ऐसी दरार"
जो भी यहाँ ऐसे हों, जिनके दिल की सच्चाई ये हो कि उसमें दरार पड़ी हुई है। मैं नहीं पूछूँगा कौन है? अपने दिल का हाल तो आप ही जानते हैं। उनके लिए सबसे पहले नसीहत ये है कि उस दरार को ना तो प्रकृति के माध्यम से भरने या सिलने की कोशिश करना और ना ही मानवकृति के माध्यम से।
ये दो ही तरह की कृतियाँ होती हैं। आप पूरी पृथ्वी पर देखिए तो दो ही तरह की कृतियाँ मिलेंगी। कृति माने जो चीज़ बनाई गई है। वो चीज़ या तो प्रकृति ने बनाई होगी या फिर आदमी ने बनाई होगी, और तो कोई कुछ बनाता नहीं न! ज़मीन किसने बनाई है? प्रकृति ने। और ज़मीन के ऊपर सड़क किसने बनाई है? इंसान ने। तो दो ही तरह के निर्माण होते हैं—या तो प्राकृतिक या फिर मानवकृत।
जिनके मन में दरार पड़ी हो, उन्हें सबसे पहले तो उम्मीद छोड़ देनी चाहिए कि कोई भी प्राकृतिक चीज़, कोई भी प्राकृतिक ज़रिया, साधन, उपाय, या फिर कुछ भी ऐसा जो मानवकृत है, वो उनके काम आएगा। तो फिर क्या काम आएगा? वो हमें नहीं पता। पहले आप व्यर्थ की उम्मीद छोड़िए, फिर हो सकता है कि कुछ पता लगे। व्यर्थ को छोड़े बिना, सार्थक की बात करना, कुछ ईमानदारी की चीज़ नहीं हुई।
अगली बार जब मन गुमसुम हो और कोई आकर कहे, 'कोई बात नहीं बैठो, तुम्हारी पसंदीदा कॉफ़ी पिलाते हैं तुमको।' तो क्या समझ जाना है? बोलिए साथ–साथ
आचार्य: धरती फाटे मेघ मिले
श्रोतागण: धरती फाटे मेघ मिले
आचार्य: कपड़ा फाटे डौर
श्रोतागण: कपड़ा फाटे डौर
आचार्य: तन फाटे को औषधि
श्रोतागण: तन फाटे को औषधि
आचार्य: मन फाटे नहीं ठौर
श्रोतागण: मन फाटे नहीं ठौर
आचार्य: ऐसों से सर्तक रहिएगा जो आपका मूड अच्छा करने के लिए आपको कॉफ़ी पिला देते हैं। ऐसे लोग ज़िंदगी में मौजूद हैं न खूब? या आएँ और आप ज़रा गंभीर हों, चिंतन में हों तो कहें, 'अरे! टीवी चलाओ, टीवी चलाओ। लगता है उदास हो!'
ये ना खुद को समझते हैं, ना आप को समझते हैं। ये बस शरीर को समझते हैं। ये उन लोगों में से हैं जो जब पाएँ कि कोई गंभीर हो गया है, एकांतप्रिय होने लगा है तो उसका लिवर और किडनी चेक कराते हैं। आप जानते हैं ऐसे लोगों को, जानते हैं कि नहीं? वो पाएँ कि आपमें एकांतप्रियता बढ़ रही है, आप शांत होने लग गए हो तो उन्हें लगता है कि ज़रूर बदन में कोई खोट आ गई है। कहते हैं, 'चलो पैथोलॉजी लैब। देखिएगा इसके जिगर में क्या हुआ, किडनी में क्या हुआ, दिल में क्या हुआ, फेफड़े ठीक हैं इसके?'
वो समझ रहे हैं कि भीतर की तड़प फेफड़ों के कारण है। उन्हें पता ही नहीं कि बात क्या है। फेफड़ों की परवाह कौन करे, अगर यही नहीं पता कि साँस किसके लिए आ–जा रही है? दिल की बीमारी की औकात क्या अगर यही नहीं पता कि दिल धड़क किसके लिए रहा है? पर फिर भी बहुत लोग हैं दुनिया में जो बस यही पूछते रहते हैं, हार्ट (हृदय) ठीक है? लंग्स (फेफड़े) ठीक हैं? वो कभी ये नहीं पूछते, 'साँस किसके लिए ले रहे हो? दिल धड़कता किसके लिए है?' वो ये नहीं पूछेंगे।
आपने भी ये करा होगा। ये ना कह दीजिएगा कि दुनिया वाले सब बेकार हैं, बेवकूफ हैं। वो आपके साथ ऐसा कर रहे हैं। आप भी खूब ऐसा करते होंगे। किसी के बच्चा हो छोटा। उससे पूछिएगा, 'कैसा है बेबी ?' तत्काल उत्तर आएगा, 'ठीक है। अब चार-दशमलव-दो (किलो) का हो गया है।' ये कोई जवाब है! चार-दशमलव-दो! इस पर तुमने उसकी हस्ती नाप ली। पर क्या करे, माँ है, वज़न के अलावा और कुछ जानती ही नहीं। चेतना से कोई लेना ही देना नहीं। उनसे पूछो, 'बेबी कैसा है?' बोलती हैं, 'चार दशमलव दो।'
ये वैसा ही है जैसे कि आप प्रश्न पूछें और मैं पूछूँ, 'जी अपने बारे में कुछ बताइए।' तो आप बताएँ, 'पाँच फुट सात इंच, अड़तीस इंच, साढ़े छः, शून्य-दशमलव-शून्य-चार।' ये सब आप क्या बता रहे हैं? ये सब आप अपने शारीरिक पैमाने बता रहे हैं। कोई तरीका है? कोई आपसे पूछे आए, आप कौन हैं? और आप उसे अपने कमर का घेरा बता दें, ३८ इंच। कैसा लगेगा? और आपको कैसा लगेगा अगर आपको कोई ऐसे बुलाए, 'ए अड़तीस इधर आना या ये पाँच-फुट-आठ-इंच इधर आना।
बुरा लगेगा न? क्यूँ बुरा लगेगा अगर कोई आपको बुलाए, ‘पाँच-फुट-आठ-इंच इधर आना’? क्योंकि भीतर कोई बैठा है जो जानता है कि मैं शरीर मात्र नहीं हूँ। अगर आप शरीर मात्र होते तो आपको बिल्कुल बुरा नहीं लगता, अगर आप को पाँच-फुट-आठ-इंच कहा जाता और पाँच-फुट-आठ-इंच तो आप हो। पाँच-फुट-आठ-इंच क्या आपकी ऊँचाई नहीं? बिल्कुल है। है कि नहीं?
अब कोई महिला हो और किसी दिन उसके पति की डायबिटीज़ (मधुमेह) दुर्भाग्यवश बढ़ गई हो और ये उसको बुलाएँ, 'ए साढ़े तीन सौ, चल उठ।' तो डायबिटीज़ से उसे कुछ हो न हो, इनके संबोधन से उसे ज़रूर कुछ हो जाएगा। ये क्या तरीका है? साढ़े तीन सौ! अभी आप हँस रहे हैं क्योंकि ये बात बड़ी असंगत लग रही है न कि ऐसे थोड़ी कोई करता है।
पर जो लोग आपको सिर्फ़ देह की दृष्टि से देखते हैं, क्या वो यही काम आपके साथ दिन–रात नहीं कर रहे? और अगर आप भी उन लोगों में से हैं तो क्या आप भी यही काम दिन–रात नहीं कर रहे। और इतनी शिष्टता हम रखते हैं कि किसी को सीधे–सीधे नहीं कह देंगे, पाँच-फुट-आठ-इंच, अड़तीस, साढ़े तीन सौ। कह नहीं देंगे, पर ख़्याल तो ऐसे ही करते हैं न उसके बारे में। कोई आपको दिख गया पुरुष और आपसे किसी ने पूछा, 'कैसा था?' और आप तत्काल खिलखिला के कहें, 'टॉल, डार्क एंड हैंडसम (लंबा, साँवला और सुंदर)', तो आपने उसका नाप–जोख ही तो बता दिया न। यही करा न?
अब आदमी बेचारे की मुसीबत ये है कि शरीर छोड़कर वो कुछ है नहीं। शरीर छोड़कर वो क्या है? मुर्दा, और सिर्फ़ शरीर बनकर भी वो कुछ है नहीं। सिर्फ़ शरीर बनकर वो क्या है? माँस। तो लोगों ने इन्हीं दो विकल्पों में से किसी एक को चुनकर जीना सीख लिया है। कुछ मुर्दा बनकर जी रहे हैं और कुछ माँस बनकर जी रहे हैं।
कुछ ऐसे हैं जिन्होंने शरीर का दमन सीख लिया है। ऐसे कम हैं, एक–आध दो प्रतिशत, अध्यात्मिक लोग; उन्हें बता दिया गया है शरीर बहुत बड़ी बला है, ये है, वो है। तो वो शरीर का दमन करने लग गए हैं। तो उनको देखो तो दिखाई पड़ता है, चलता फिरता अस्थि–पंजर। और कुछ ऐसे हैं जो बिल्कुल शरीर ही बनकर जीने लगे हैं। उनका क्या नाम होना चाहिए? माँस। उनका तो परिचय ही यही है। ये अड़सठ किलो! कसाई की दुकान पर माँस ऐसे ही तोला जाता है न, किलो में। तो जो लोग शरीर बनकर जी रहे हों, उनको भी ऐसे ही संबोधित किया जाना चाहिए—'ए अड़सठ!‘। क्योंकि माँस के अलावा वो कुछ हैं ही नहीं।