प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपने कहा था कि किसी को बचाने से पहले ख़ुद पहले योग्यता अर्जित करो। तो विवाह के लिए क्या योग्यता अर्जित करें और कब माने कि कोई विवाह के योग्य भी है।
आचार्य प्रशांत: देखो, अभी- अभी हमने बात करी कि जीवन में कोई भी निर्णय करना हो तो पैमाना एक ही है क्योंकि जीवन का लक्ष्य एक ही है।
जीवन का क्या लक्ष्य है?
बंधे हुए हो तो मुक्ति, कष्ट में हो तो आनंद, भ्रम में हो तो प्रकाश, स्पष्टता— ये जीवन का लक्ष्य है। ठीक है। अब ये बिलकुल सीधी बात। इसके ख़िलाफ़ कोई तर्क नहीं। इसको नहीं काट सकते। तो हम किसलिए हैं?
हम जहाँ कहीं भी खड़े हैं हम क्यों खड़े हैं— हम जहाँ कहीं भी खड़े हैं हम रोशनी के इंतज़ार में खड़े हैं। हम जहाँ कहीं भी खड़े हैं स्वतंत्रता के इंतज़ार में खड़े हैं। ठीक है। ये हमारी स्थिति। तो तुम्हारा सवाल क्या होना चाहिए— सवाल ये होना चाहिए कि बताइए कौन सा रास्ता है जो मुझे प्रकाश की ओर ले जाता है। ठीक है। कौन सा तरीक़ा है जिससे मुक्ति पा सकता हूँ;ये सवाल होना चाहिए।
अब ये विवाह मालूम नहीं!
कोई तुमको ऐसा साथी मिल रहा हो जो मुक्ति की विधियाँ जानता हो तो उसकी संगत कर लो मैं तो अधिक से अधिक ये कह सकता हूँ। विवाह तो तुमने एक सामाजिक प्रथा को नाम दे दिया है। कुछ लड़का लड़की मिले आग के चार फेरे हुए फिर वो साथ रहने लग गए और अगर उन्होंने सब धार्मिक रस्मों का पालन करके सहवास किया है, कानूनन वैध तरीक़े से वो अगर एकसाथ रह रहे हैं तो उसको तुम बोल देते हो विवाह। ठीक है।
विवाह की यही परिभाषा है न कि आदमी- औरत अगर सामाजिक और धार्मिक नियमों का पालन करते हुए साथ रह रहे हैं तो उसको हम बोल देते हैं कि ये विवाहित हैं। वरना और तो कुछ होता नहीं।
शादी से एक दिन पहले लड़का- लड़की होते हैं और के एक दिन बाद होते हैं। ऐसा तो है नहीं लड़की की पूँछ निकल आती हैं और लड़के के सींग निकल आते हैं। वो शादी से एक दिन पहले जैसे थे शादी के एक दिन बाद भी वैसे ही होते हैं। तो उनको तुम विवाहित कहना क्यों शुरू कर देते हो।
ये बीच में क्या हो गया?
बीच में कुछ नहीं हो गया; बीच में हस्ताक्षर हो गए। और कुछ हुआ क्या। कह लो हस्ताक्षर हो गए या कह दिया की क़ुबूल है। आग के फेरे ले लिए, चर्च में जाकर के पादरी की स्वीकृति ले ली, इनसब को फिर हम क्या बोल देते हैं कि विवाहित है वरना तो दोनों में कोई अंतर नहीं आ गया न। विवाह ये है।
अब काम तुम्हें वो करना है जो तुम्हें स्वतंत्रता की तरफ़ ले जाए, प्रकाश की तरफ़ ले जाए। उसमें बीच में तुम ये करो नहीं करो मैं नहीं जानता तुम जानो। मैं नहीं जानता। तुम्हारी मर्ज़ी हो करो। उससे कोई लाभ होता ह करो।
पैमाना क्या है दोहराओ ज़ोर से। तुमने पिछली बात ही फिर से दो मिनट के अंदर भुला दी। पैमाना क्या है? कुछ भी करने ना करने का निर्णय किस आधार पर करना है?
प्रतिभागी: क्या यह रास्ता प्रकाश की ओर स्वतंत्रता की ओर ले जाता है।
आचार्य: ये है न पैमाना। उस पैमाने पर नाप लो कि विवाह तुम्हें करना चाहिए कि नहीं करना चाहिए।
प्र: नाप नहीं पाते।
आचार्य: जिस चीज़ की ज़रूरत होती है उसे नापना थोड़ी न पड़ता है। प्यास लगी हो तो पानी पियोगे न। वो अनिवार्य हो जाता है। जो चीज़ अनिवार्य नहीं जो चीज़ इतनी ज़्यादा ज़रूरी नहीं है कि तुम उसके आगे बेबस हो जाओ। उसको क्यों कर रहे हो। किसी ने कहा हुआ है, डैट विच इज़ नॉट नेसिसेरी इज़ सिन (जो आवश्यक नहीं है वो पाप है।) सिन की क्या परिभाषा ही यही है वो जो आवश्यक नहीं है लेकिन फिर तुम करे पड़े हो। जिसके बिना भी काम चल जाएगा लेकिन तुमने काम चलाया नहीं।
तुमने ज़बरदस्ती कोई ऐसी चीज़ कर डाली जो अनिवार्य नहीं थी। आवश्यक नहीं थी। आवश्यक शब्द समझते हो? जिसपर वश नहीं चलता तुम्हारा। अ वश्य। जिसपर वश नहीं चलता। जैसे— साँस लेने पर वश नहीं चलता न। साँस के आगे बेबस हो न। वैसे अवश्य, अवश्य। अवश्य माने जिसपर तुम वश नहीं चला सकते।
विवाह तुम्हारे लिए ऐसी चीज़ हो जो आवश्यक हो तो बेशक कर लो और नहीं हो तो असली काम करो न। ये तुम कहाँ गोल-गोल घूमने लग गए। जाना था आसमानों की ओर लग गए गोल-गोल घूमने। घूमे ही जा रहे,घूमे ही जा रहे। तुम्हें क्या लगता है सात ही बार घूमना होता है। जो हैं शादीशुदा उनसे पूछो कितनी बार घूमना होता है उनका घूमना ही नहीं रुक रहा।
प्र: मेरा सवाल, करना है नहीं करना है इससे ज़्यादा यह है कि मैं किसी को डुबोऊँ नहीं। तो मैं अपने अदंर क्या योग्यता लूँ कि मैं किसी को डुबोऊँ नहीं बचाने नाम पर कम से कम।
आचार्य: तुम्हें किसी और में इतनी रुचि क्यों है भाई। बार-बार किसी और को ये न करूँ किसी और को वो न करूँ, अपनी हालत देखो न पहले। अगर अपनी हालत ठीक नहीं है तो तुम दूसरे का भला करना भी चाहोगे बेटा कर कैसे पाओगे। दूसरे में रुचि रखना कोई ज़रूरी नहीं अच्छा काम हो। हमने पहले दिन था शायद जब कहा था हस्तक्षेप कम से कम करो किसी के जीवन में। काहे को बार-बार दूसरे का क्या करूँ, दूसरे का क्या करूँ।
जैसे— कोई परीक्षा लिखने बैठा हो और उसकी करुणा इतनी जागृत है कि वो कह रहा है कि ये जो पूरा भवन है इसमें जितने लोग हैं इनके पर्चे कैसे ठीक किए जाएँ। इनके पेपर्स में क्या कर दूँ। तू अपना कर ले पहले। अपने दो सवाल नहीं किए अभी तक। उसके क्या करने हैं वो क्या कर रहा होगा। उसका क्या होगा। ये सोच रहे हो क्या फ़ायदा। नहीं।
प्रेम, प्रेम तभी है जब उसके आगे बेबस हो जाओ नहीं तो दूसरे को छूओ ही मत। दूसरों की ज़िंदगी में घुसो ही मत। जहाँ तक अपनेआप को रोक सकते हो रोक के रखो। प्रेम असली होगा तो तुम्हें तोड़ देगा फिर तुम अपनेआप को नहीं रोक पाओगे। और जहाँ तुम पाओ कि अपनेआप को रोक नहीं पा रहे। ऐसे नहीं रोक पा रहे कि कामवासना इतनी चढ़ी कि कूद पड़े और कह दिया कि नहीं रोक पा रही थे वो वाली बात नहीं हो रही है।
जहाँ तुम्हें दिख जाए कि अब सच्चाई के पक्ष का भी कोई भी तर्क मुझे रोक नहीं सकता है क्योंकि बात अब तर्क से आगे की हो गई है। तर्क से आगे की हो गई है माने ये नहीं कि भावना की हो गई है। भावना तर्क के आगे नहीं होती भावना का भी अपना एक तर्क होता है बस वो पाशविक तर्क होता है। भावना भी तर्क की परिधि के अंदर की होती है तर्क के आगे कुछ और होता है।
समझ रहे हो बात को?
मैं न तो किसी को सहारा देने के ख़िलाफ़ हूँ न संगति के ख़िलाफ़ कुछ बोल रहा हूँ। मैं बस ये कह रहा हूँ कि यूँही थोड़े ही किसी की छाती पर छुरी चला देते हैं। सर्जरी कब करी जाती है जब कोई और विकल्प ना बचे। समझ में आ रही है बात।
और सर्जरी करने का अधिकारी कौन होता है जो जानकार हो। लेकिन जानकार वो भी तभी चलाता है छुरी आपकी छाती पर जब कोई और कोई रास्ता नहीं बचा। यह दो शर्तें पूरी होनी चाहिए न— पहली बात कोई और रास्ता नहीं बचा। दूसरी बात मुझे छुरी चलानी आती है। प्रेम को समझ लो ऐसा ही है।
दूसरे के जीवन में तभी प्रवेश करो जब तुम्हें दिखायी दे कि तुमने प्रवेश नहीं करा तो कुछ उसका नुकसान हो जाएगा। और दूसरी शर्त यही है कि दूसरे के जीवन में प्रवेश कर रहे हो तो अपनेआप से पूछ लो कि मुझ में पात्रता भी है इसका भला कर पाने की या बेकार का ही मैं सर्जन बना घूम रहा हूँ।
नहीं तो तुम्हारा पहला अभियान भीतरी है। तुम्हारी पहली ज़िम्मेदारी अपने प्रति है। दूसरे के जीवन में क्यों दख़लअंदाज़ी कर रहे हो। हम बिगाड़ देंगे चीज़े। मैं बिलकुल नहीं चाह रहा हूँ कि हर आदमी स्वार्थी हो जाए और किसी दूसरे की परवाह ना करें। ग़लत मत समझो मुझे।
लेकिन अपने आसपास देखो तो तुम्हें क्या दिखायी देगा तुम्हें यह दिखायी देगा कि हम दूसरे की ज़िंदगी में घुसकर उसको शांत नहीं करते जो थोड़ी बहुत शांति है उसके पास रही भी होती है पहले से हम उसकी वो शांति भी लूट लेते हैं। मैं इसलिए कह रहा हूँ कि मत घुसो दूसरों के जीवन में।
तुम अगर वाक़ई ईमानदारी से यह सोचते हो कि तुम इस लायक हो गए हो कि तुम दूसरों के जीवन में शांति और सच्चाई लेकर के आओगे तो फिर मुझसे पूछने की ज़रूरत ही नहीं है। तुम्हें एक नहीं करोड़ों लोगों के जीवन में प्रवेश करो लेकिन ऐसा होता नहीं न।
आपने ऐसा देखा है कि नहीं देखा है किसी की ज़िंदगी ठीक-ठाक चल भी रही होती है उसको बर्बाद करने के लिए एक प्रेमी घुस आएगा अंदर। ऐसा कौन होता है जो तुम्हारा हाथ पकड़कर तुमको ऊँचाइयों की ओर ले जाए; बहुत कोई बिरला होगा; लाखों में एक। बाक़ी तो जो हाथ पकड़ते हैं तुम जानते ही हो उसके मंसूबे क्या होते हैं।
कौन निस्स्वार्थ होकर के किसी का हाथ पकड़ता है और फिर हो सकता है अपनी नज़र में आपको लग रहा हो कि आप निस्स्वार्थ हैं। लेकिन हमने कल बात करी थी न हम अपने चाहतों को जानते नहीं हैं, हम बँटे हुए लोग हैं। हमारा एक हिस्सा कुछ चाह रहा होता है और भीतर एक दूसरा छिपा हुआ हिस्सा कुछ और चाह रहा होता है।
ऊपर-ऊपर का जो प्रकट हिस्सा है वो कितना है—एक बट्टा नौ। एक बट्टा नौ किस तरीक़े से जैसे— आइसबर्ग का एक बट्टा नौ होता है सतह से ऊपर। और भीतर आठ बट्टा नौ छिपा हुआ है वो कुछ और ही चाह रहा है। एक बट्टा नौ जो तुम्हारा हिस्सा है वो चाह रहा है कि मैं इसके जीवने में आऊँगा तो बहार लाऊँगा। तुम्हें ऐसा लग रहा है कि मैं तो सच्चा आदमी हूँ संभाव से इसकी भलाई के लिए इसके जीवन में आ रहा हूँ। बहार लेकर के आऊँगा। तुमको ये पता भी नहीं है कि आठ बट्टा नौ भीतर छुपा हुआ है तुम्हें उसकी कोई जानकारी नहीं है। और उसका इरादा बहार-वहार का कुछ नहीं है वो तो बस अपने मंसूबे पूरे करने के लिए अपने स्वार्थ चमकाने के लिए दूसरों की ओर बढ़ा जा रहा है।
जबतक अपना ही शोधन नहीं कर लिया काहे को दूसरे की ज़िंदगी में घुस जा रहे हो। जैसे— साइकिल का पंचर अभी लगाना आता नहीं। और मर्सिडीज का इंजन खोल दिया। बहुत उत्सुकता रहती हमें दूसरे के जीवन में घुसो और उसे पूरा खोल दो। एकदम खोल दो। खोल दोगे। अब जो फैल गया है उसे समेटोगे कैसे। खोलना बहुत आसान है।
देखा है कैसी, कैसी तृप्ति मिलती है अहम् को दूसरे की दीवार तोड़ देने पर। तुम किसी लड़की ओर जाओ, तुम किसी पुरुष की ओर जाओ वो आसानी से तुमको जीवन में प्रवेश नहीं देते हैं। वो एक विरोध की दीवार खड़ी करते हैं। और अहंकार को कितना मज़ा आता है जब तुम वो दीवार ढाह देते हो। और वो दीवार ढाहने के लिए हम क्या-क्या नहीं करते।
कभी -तोहफ़े देंगे, कभी लुभाएँगे, कभी झूठ बोलेंगे, कभी ललचाएँगे। कितने काम हम करते हैं। ताकि सामने वाले की जो विरोध दीवार है उसको हम तोड़ दें। ये हिंसा है समझो बात को। और इसमें अहंकार को बड़ा रस आता है। वो नहीं चाहता था अपन कमरे का दरवाज़ा खोलना मैंने खुलवा लिया। कभी ये कहकर खुलवा लिया कि देखों मैं तुम्हारा कितना बड़ा प्रेमी हूँ। कभी ये कहकर खुलवा लिया कि तुमने दरवाज़ा नहीं खोला तो मैं अपनी नस काट लूँगा।
पर उसके विरोध की जो दीवार थी या तो मैं उसे लांघ गया या मैं उसको डायनामाइट लगाकर के ब्लास्ट कर दिया। उद्देश्य इतना ही था। शारीरिक रूप से हम इतना ही चाहते हैं न कि दूसरे के शरीर में प्रवेश कर जाएँ। हिंसा है और क्या है। मानसिक रूप से भी हम यही चाहते हैं कि दूसरे के मन में बिलकुल घुस जाएँ तीर की तरह जैसे शारीरिक रूप से। इसके ख़िलाफ़ कह रहा हूँ। बाक़ी एक इंसान दूसरे इंसान के वाक़ई काम आ सके इससे सुंदर कोई बात हो नहीं सकती। लेकिन वो एक महज आदर्श भर है। हम इस आदर्श का नाम लेकर, उस आदर्श को बहाना बनाकर अपने स्वार्थों और वासनाओं की तृप्ति करते रहते हैं।
इतनी ईमानदारी किसमें होती है कि वो दूसरे साफ़ बोल दे कि मैं तो अपना मतलब पूरा करने के लिए तेरी ज़िंदंगी में घुस रहा हूँ। तो हम नाम तो आर्दशों का ही लेंगे न। वो आदर्श बस आदर्श हैं। उन आर्दशों पर फिर कह रहा हूँ लाखों में कोई एक खड़ा उतरता है। बाक़ी सब तो आदर्शों के नाम पर लूट मचाते हैं।
प्र१: आचार्य जी एक पूछना था आपसे जैसे, एक कामवासना है जो पचास-पचपन तक रहती है या साठ तक रहती है। उसके बाद कोई दूसरी वासना है, या पैसे की वासना है, शेयर की वासना है, गोल्ड की वासना है, प्रॉपर्टी वासना है तो इनमें कोई मूलभूत अतंर है क्या? कुछ अलग हैं ये आपस में। कामवासना अलग है और ये वासनाएँ अलग हैं या इकठ्ठी ही चलतीं हैं।
आचार्य: मूलत: तो सब वासनाएँ एक ही हैं। मूलत: तो सब एक ही हैं। जीवन के अलग-अलग मुक़ामो पर अलग-अलग तरीक़े से, अलग-अलग नामों के साथ अभिव्यक्त होतीं हैं। बहुत छोटा बच्चा है उसमें कामवासना कहाँ से आ जाएगी; पर वासना है उसमें; वासना की वृत्ति है उसमें।
फिर वो एक उम्र पर पहुँचता है तो उसे दूसरे के शरीर से यौन संपर्क की इच्छा उठती है। फिर और आगे एक उम्र पर पहुँचता है तो दूसरे शरीर की इच्छा उसकी कम हो जाती है। ये ख़त्म हो जाती है। ये सब इच्छाएँ आती-जाती रहती है।
आपकी कोई भी इच्छा ऐसी नहीं होगी जो लगातार बनी रही हो। लेकिन इच्छा करने की इच्छा की इच्छा लगातार बनी रहती है। दी टेन्डेन्सी ऑफ़ टू डिज़ायर (इच्छा करने की वृत्ति)। इच्छा तो ऐसी ही होती है न। पतझर में पत्ते हुए थे गिर गए; दोबारा आ गए।
कुछ चीज़ें जो बहुत अच्छी लगतीं होंगी अब फूटी आँख न सुहाती होंगी। लेकिन अब दूसरी चीज़े अच्छी लगने लग गयी होंगी। और कुछ अच्छा नहीं लग रहा है ये भी तरह का इच्छा है।
आप कहते नहीं हो, ‘इसको देखने की मेरी इच्छा ही नहीं होती या इससे दूर रहने की मेरी इच्छा होती है।‘ वो भी तो एक तरह की इच्छा ही है। तो इच्छाएँ अपना नाम-रूप-आकार बदलती रहती हैं। अच्छा है न इच्छा बनी रहती है। जबतक आप अच्छे नहीं हो गए इच्छा होनी चाहिए।
मूलत: इच्छा यही चाहती है आपसे कि आप अच्छो हो जाएँ। जब आप अच्छे हो जाएँगे तो फिर इच्छा चुभनी बंद हो जाएगी। फिर इच्छा मौज बन जाती है। जबतक अच्छे नहीं हुए तबतक इच्छा सूल की तरह होती है चुभती रहती है।
काढ़ा पीने और शरबत पीने में अतर होता है न। पी तो दोनों को लेता है आदमी। जबतक हम बीमार हैं तबतक हमारी इच्छा कैसी है—काढ़े जैसी, कड़वा। वो हमें इसीलिए पीना पड़ता है क्योंकि हम ठीक नहीं हैं। हमारी ज़्यादातर इच्छाएँ इसीलिए उठती हैं क्योंकि हम ठीक— नहीं हैं। और जो स्वस्थ हो जाता है उसको भी इच्छाएँ रहतीं हैं पर उसकी इच्छाएँ कैसी होतीं हैं फिर—शरबत जैसी, रस जैसी।
“रसो वै स:” वह रस का पान करना है। उसकी इच्छा में कड़वाहट नहीं होती। उसकी इच्छा में दंश नहीं होता। उसकी इच्छा इसीलिए नहीं होती कि अगर ये मिल जाए तो स्वस्थ हो जाऊँगा। स्वस्थ तो वो है ही। अब स्वस्थ होकर वो रसपान कर रहा है।