कैसे मिटेगी जाति? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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कैसे मिटेगी जाति? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। आचार्य जी, मेरा प्रश्न जातिप्रथा से संबंधित है। हमने प्राचीन काल से देखा है कि जातिगत भेदभाव बहुत सारे लोगों को झेलना पड़ा है। जैसे महाभारत में भी विवरण मिलता है कि कर्ण को बचपन से ही उसकी जाति के आधार पर बहुत भेदभाव झेलना पड़ा।

और आज भी जब विज्ञान इतना प्रगति कर चुका है और समानता की बातें होती हैं, तब भी बहुत सारे क्षेत्र, खासकर भारत में ऐसे हैं जहाँ पर जातिगत भेदभाव बहुत सारे लोगों को झेलना पड़ता है। और यहाँ तक की हत्याएँ तक हो जाती हैं। लोग ख़ुद अपनी जान दे देते हैं या फिर उनकी जान के ली जाती है। तो इसका क्या कारण है कि इतना भीतर तक हमारे समाज में जातिप्रथा बैठी हुई है? इसको कैसे ख़त्म किया जा सकता है?

आचार्य प्रशांत: देखो! कुछ ऊँचा होना चाहिए, जिसके सामने जाति आदि न आए। संस्था में इतने लोग हैं, तुम्हें कितनो की जाति पता है? मैं यह नहीं पूछ रहा हूँ कि 'कितनों की जाति तुम्हारे लिए महत्त्व रखती है?' मैं पूछ रहा हूँ, तुम्हें पता भी कितनों की जाति है?

प्र: नहीं पता, किसी की भी नहीं।

आचार्य: जो लोग एक साथ रह रहे हैं, सात-सात या पाँच-पाँच करके; वो भी एक दूसरे की जाति जानते ही नहीं हैं। उत्सुकता ही नहीं है।

जाति तभी हटेगी जब उसमें उत्सुकता ही मिट जाए। कब मिटेगी उत्सुकता? जब किसी ऊँची चीज़ में पूरी उत्सुकता लग जाए।

जबतक आपकी सारी उत्सुकता ये छीछालेदर में ही है, जब तक आप देहभाव में ही जी रहे हो, आपको कोई स्पष्टता नहीं है, जीने के लिए कोई सही लक्ष्य नहीं है, तबतक ये सब बातें आपके लिए बड़ा महत्त्व रखेंगी — फलाने की जात क्या है, ये क्या है, वो क्या है।

देखो जाति को दो ही चीज़ें तोड़ सकती हैं — या तो पशुता, या चेतना। जब आप एकदम गिर जाते हो, तो भी आप जाति का ख़्याल नहीं करते। जब जातिप्रथा एकदम चरम पर थी, उस समय का हाल बताते हुए भी जो साहित्य लिखा गया है, उसमें बड़ा व्यंग्य किया गया है कि जो जातिप्रथा के बड़े-बड़े ठेकेदार थे, वो भी जब वेश्यालयों में जाते थे तो वेश्याओं की जाति नहीं पूछते थे। एक बंगाली उपन्यास है। नाम अभी नहीं ध्यान आ रहा है। जिसमें भद्र लोग होते हैं—वहाँ भद्र लोग चलते हैं, सज्जन—तो वो वेश्यालय जाते हैं। तो जैसे आमतौर पर भद्र लोग होते हैं मोटे-थुलथुल, बिस्तर से उतरते हैं तो हाँफ रहे होते हैं, पसीने आ रहे हैं बिलकुल, तो वो जो वेश्या है, वो उनको पानी देती है कि 'पानी पी लो, नहीं तो मर जाओगे हार्टअटैक से यहीं पर नहीं तो।' तो बोलते है, तू पता नहीं कौन-सी जात की है, तेरे हाथ का पानी पिऊँगा? तो वो बड़े मज़े लेती है, बोलती है कि 'अभी दो मिनट पहले मेरा थूक चाट रहे थे तुम, अब मेरे हाथ का पानी नहीं पियोगे?'

तो एक तो पशुता होती है, जो जाति को मिटा देती है। जब आप जानवर बन जाते हो तो जाति-वाती का ख़्याल नहीं करते। और दूसरी चीज़ जो जाति को मिटा देती है, वो है चेतना। जाति कहाँ बची रह जाती है? जब आप इन दोनों के बीच में हो, अधर में हो, त्रिशंकु में हो, तब बची रह जाती है।

जो ऊँचा उठ गया, वो भी जाति का ख़्याल नहीं करता। जो एकदम गिर गया, वो भी जाति का ख़्याल नहीं करता। यह जो सब बीच के संसारी हैं, इनके लिए जाति बहुत मायने रखती है। ऋषियों के लिए जाति का कोई अर्थ नहीं, संतों के लिए जाति का कोई अर्थ नहीं।

मैंने पिछली बार उपनिषद् से उद्धरण बताया था न, कि तन की जाति होती नहीं, तन तो सबका एक जैसा है। किसी भी जाति के व्यक्ति का खून, किसी दूसरे व्यक्ति को लग जाता है। आप मर जाएँ, आप नेत्रदान कर जाएँ, आपकी आँख किसी को भी लग जाएगी। जाति वगैरह नहीं देखी जाती उसमें।

जाति अगर वास्तविक होती तो एक जाति के आदमी का खून दूसरे को चढ़ ही नहीं सकता था, शरीर अस्वीकार कर देता। पर शरीर की कोई जाति नहीं, शरीर नहीं यह स्वीकार करता; तो शरीर के तल पर जाति नहीं होती। वहीं जैसा हमने कहा कि आप पशु हो जाएँ, माने बिलकुल शरीर बन जाएँ, तो वहाँ कोई जाति नहीं होती। आत्मा के तल पर भी कोई जाति नहीं होती। माने आप ऋषि बन जाएँ, जो आत्मस्थ होकर जी रहा है, तो वहाँ भी कोई जाति नहीं होती। ये जो बीच का होता है, जहाँ आप मानसिक कल्पनाओं में, और अंधविश्वासों में जीते हैं; मन में जाति होती है। मन माने कल्पना, मन माने मान्यता। वहाँ जाति होती है।

तो दो तरीक़े हो सकते हैं जाति मिटाने के: या तो एकदम ही जानवर बन जाओ—बन जाओ बिलकुल जानवर, अध्यात्म से बिलकुल दूर हो जाओ, जाति मिट जाएगी। वो आधुनिक तरीक़ा है, वहाँ सब एक बराबर हैं। जाति वहाँ चलती ही नहीं। लिबरल तरीक़ा वही है जाति मिटाने का।

लोगों में कामवासना का संचार करो, लोगों को ललचाओ। और जब आदमी वासना में होता है, लालच में होता है, तो जाति नहीं देखता। जो पुराने हीरो-हीरोइन वगैरह होते थे—पचास-साठ के दशक में, जब जातिप्रथा बहुत प्रबल थी—तो उनका जातिसूचक उपनाम नहीं लिखा जाता था। उनके नाम में कुमार लिख दिया जाता था और कुमारी लिख दिया जाता था। और कई बार तो सिर्फ़ पहला नाम चलता था, आगे का नाम बताते ही नहीं थे। और उनको प्रस्तुत किया जाता था एक सेक्सी चीज़ की तरह, जिसकी कोई जाति नहीं है। "आओ! टूट पड़ो इस पर।" समझ में आ रही है बात?

अभी भी ऐसा होता है। पहला नाम बताया जाएगा ये है, ये है, ये है; "व्हिच ऑफ देम इस हॉटर? (कौन सबसे ज़्यादा कामुक है) सियारा, चेबो, लीलो।" साथ में उनकी तुम्हें जाति थोड़ी बताई जाती है। जाति बता दो तो जानवर होने में तकलीफ़ होती है। जाति हटाने का यह आधुनिक तरीक़ा है कि सबको एक तल पर ला दो, न कोई ऊँचा न कोई नीचा। और वो जो एक तल है वो कौन सा है? जानवर का तल है। सब एक बराबर हो गए। इस हमाम में सब नंगे हैं, न ऊँची जात, न नीची जात। यह लिबरल तरीक़ा है। आध्यात्मिक तरीक़ा दूसरा है। वो कहता है, सबको ऊपर उठा दो, वहाँ भी सब एक तल पर हो जाएँगे। न ऊँची जात, न नीची जात। अब ये आप चुन लो कि आपको कौन से तरीक़े से जाति हटानी है।

आधुनिक तरीक़ा यह है कि सबको चेतना में इतना गिरा दो, इतना गिरा दो कि न कोई ऊँचा बचे, न कोई नीचा बचे। जब सबकी चेतना गिरी हुई है, सब एक बराबर हो गए, शून्य बराबर शून्य, सब गिरे हुए। और अध्यात्म कहता है सबको इतना उठा दो कि सब एक बराबर हो जाएँ, अनंत बराबर अनंत। अब वहाँ भी कोई ऊँचा नहीं कोई नीचा नहीं। जब तक अनंत से आपको प्रेम नहीं जगेगा, तब तक जाति क्या, कई तरह की बीमारियाँ बची ही रहेंगी।

जिसको किसी ऊँचाई से प्रेम हो गया, उसे फिर ये सब नहीं समझ में आता — वर्ण, वर्ग, रुपया-पैसा, भाषागत भेद, रंगभेद, मतभेद। उसे फिर कुछ और दिख रहा है। अध्यात्म है जो जातिप्रथा को मिटा सकता है, और कुछ नहीं। अन्यथा जातिप्रथा को मिटाने का जो तरीक़ा है, वो बड़ा ऐनिमलिस्टिक है। सबको जानवर बना दो, जानवरों में तो जात-पात चलती नहीं है। आ रही है बात समझ में?

आत्मा है जो एक है, और सिर्फ़ आत्मा के तल पर एकत्व हो सकता है। मन के तल पर तो भेद-ही-भेद हैं, खंड-ही-खंड हैं, कुछ ऊँचा है कुछ नीचा है। तुम जातिप्रथा को कानूनी तौर पर भी अगर पूर्णतया अवैध घोषित कर दो, तुम जातिसूचक उपनाम लगाने को संघीय अपराध भी बना दो, तो भी लोग एक-दूसरे से भेदभाव करने का कोई नया तरीक़ा ढूँढ़ लेंगे; क्योंकि मन को तो विषमताओं में ही जीना है। मन को किसी-न-किसी तरीक़े से कुछ भेद करना है, किसी को ऊँचा बनाना है, किसी को अच्छा बनाना है, किसी को बुरा बनाना है; कभी जाति के नाम से, कभी किसी और नाम से। ठीक है?

कहते हैं, ‘जाति न पूछो साधू की।’ सिर्फ़ साधु की ही जाति न पूछो, बाकी तो सबकी होती है। तो साधुता में ही जाति से मुक्ति है, और साधुता में फिर हर चीज़ से मुक्ति है, लिंग से भी मुक्ति है। साधुता में तो हर चीज़ से आप मुक्त हो जाते हो, वहाँ कुछ नहीं। हम जब तक मन को नहीं जानेंगे, हमें नहीं समझ में आएगा कि ये जाति का पूरा खेल मिटाना कितना कठिन है, हमें नहीं दिखाई पड़ेगा कि अहंकार चाहता ही यही है कि किसी को—किसी व्यक्ति को या किसी वर्ग को वो पराया घोषित करे रहे। क्योंकि जब तक कोई दूसरा नहीं होता, तब तक अहंकार ‘स्वत्व’ की घोषणा कर नहीं पाता।

अहंकार ‘मैं’ तभी बोल पाता है, जब सामने कोई पराया हो, अन्यथा वो 'मैं' नहीं बोल पाता। और वो ‘मैं’ भाव में ही जीना चाहता है। उसके होने के लिए ज़रूरी है कि कोई पराया हो, कोई अलग हो। इसलिए वो तरह-तरह के विभाजन और भेद खड़े करता है।

आप जैसे ही समझते हो, आत्मज्ञान में थोड़ा-सा आगे बढ़ते हो और समझने लग जाते हो कि ये जाति मन का खेल है बस, फिर जाति पीछे छूटती है।

जो अपने ही मन की तरफ़ अनजान है, उसके लिए बड़ा मुश्किल होगा जाति को पीछे छोड़ना। वो ऊपर-ऊपर से उदारवादी बन जाएगा लेकिन अंदर-ही-अंदर उसके वो धारणा जड़ जमाए बैठी रहेगी।

हो सकता है उसको पता भी न हो। हो सकता है ऊपर-ऊपर कहता हो कि ‘नहीं नहीं, मुझे तो जाति वगैरह से कोई मतलब नहीं।' लेकिन जब उसकी बहन आएगी और बोलेगी कि ‘वो दलित वर्ग का फ़लाना लड़का है, मुझे ब्याह करना है।' वो तुरंत भौचक्का रह जाएगा। कहेगा, अरे अरे अरे! ये कैसे, ये कैसे। और ये व्यक्ति जवान है, किसी बहुत लिबरल कॉलेज में पढ़ता है, और इसे स्वयं भी पता नहीं था कि इसके भीतर इतना गहरा जातिवाद बैठा हुआ है; लेकिन वो बैठा ही रहेगा।

जब तक आप नहीं जानेंगे कि महत्त्व सिर्फ़ और सिर्फ़ चेतना का है—आप किस घर में पैदा हुए हो, क्या आपने नाम लिया है, ये सब बातें बहुत पीछे की होती हैं—जब तक आप सिर्फ़ और सिर्फ़ चेतना से प्रेम करना नहीं सीखेंगे, तब तक बहुत सारी फ़िज़ूल बातें आपके लिए अर्थवान बनी रहेंगी। और थोड़ा-सा वो सब भी पढ़ने की ज़रूरत है जिसको बायोलोजी बोलते हैं। कहते हैं न हिटलर बोलता था, ‘रक्त की शुद्धता', प्युरिटी ऑफ द आर्यन ब्लड एंड द आर्यन रेस (आर्य जाति और आर्य रक्त की शुद्धता)। प्युरिटी ऑफ ब्लड क्या होता है भाई? बी पॉज़िटिव ? शुद्धता क्या होती है? तुम जाते हो, तुम्हें ब्लड चाहिए, तुम शुद्ध ब्लड माँगते हो? या अपने ब्लड ग्रुप का माँगते हो? ये ऐसा क्या होता है कि अब खानदान का खून खराब हो जाएगा?

प्र२: प्रणाम, आचार्य जी। मेरा प्रश्न शादी को लेकर है। मैं पिछले छह साल से अंतर्जातीय संबंध में हूँ। माता-पिता से शादी की बात करी, तो उन्होंने मना कर दिया। फिर कोर्ट मैरिज भी नहीं कर पायी थी कि फैमिली हर्ट हो जाएगी। और उस इंसान को भी नहीं छोड़ पायी, शायद स्ट्रॉन्ग अटैचमेंट के कारण। और अब अभिभावक शादी के लिए ज़ोर डाल रहे हैं। उस इंसान के साथ भी संबंध बहुत डिफिकल्ट एंड टॉक्सिक भी होता जा रहा है। इन सब वजह से बहुत ज़्यादा स्ट्रेस में हूँ, घुटन महसूस करती हूँ। समझ में नहीं आ रहा है क्या निर्णय लूँ। दोनों में से कोई भी चीज़ समझ में नहीं आ रही है। कृपया आप मार्गदर्शन करें।

आचार्य: देखिए! सबसे पहले तो मुझे पता नहीं कि आपने जिस व्यक्ति को चुना है, उसे क्या देखकर चुना है। आप किसी दूसरी जाति के व्यक्ति से प्रेम कर रही हैं, यह अपने-आपमें न बुरी बात है, न अच्छी बात है। दूसरी जाति के व्यक्ति से प्रेम होश में भी किया जा सकता है और पूरी बेहोशी में भी किया जा सकता है। सिर्फ़ इसलिए कि अंतर्जातीय है आपका प्रेम, वो बहुत ऊँचा नहीं हो जाता।

तो पहला तो आपको सवाल स्वयं से ये पूछना चाहिए कि मैंने उस व्यक्ति में क्या देखा। वहाँ पूरी स्पष्टता होनी चाहिए कि अगर मैं किसी व्यक्ति की ओर आकर्षित हो रही हूँ, तो उस व्यक्ति के ज्ञान का, गुण का, चेतना का स्तर क्या है। जाति को एक तरफ़ रख दीजिए, धर्म को एक तरफ़ रख दीजिए, जो भी बाकी चीज़े हैं उनको एक तरफ़ रखिए, लेकिन जो केंद्रीय बात है उसको याद रखिए कि उस व्यक्ति को मैंने क्या देखकर, क्या सोचकर अपने जीवन में आने दिया। ये पहली बात। और अगर इस पहली बात में आपको पूरा निश्चय हो, तो आप इस तरह अटकेंगी ही नहीं कि घरवालों ने बोल दिया तो मैं रुक गई, दुखी न होऊँ।

अहंकार को अगर चोट लगती है, तो अहंकार के लिए अच्छा होता है न? अगर आपने वाकई अपने लिए किसी अच्छे साथी का चयन करा है, और उसकी वजह से घरवाले आपत्ति कर रहे हैं, तो पड़ी रहने दीजिए आपत्ति। लेकिन घरवालों की आपत्ति को नज़रअंदाज़ करने का बल आपमें तभी आएगा, जब आपमें अपने चयन को लेकर के सबसे पहले स्पष्टता होगी। अगर आप जानती ही नहीं हैं कि आप जिसके साथ जाना चाहती हैं, उसके साथ क्यों जाना चाहती हैं—आमतौर पर देखिए या तो भाव जनित आकर्षण होता है या देह जनित। ठीक है? जवान लोग जब एक-दूसरे की तरफ़ बढ़ते हैं, तो कारण कामुकता या भावनात्मकता होती है। उसमें चेतना, समझदारी और बोध का तत्व बहुत कम होता है, और इसीलिए अक्सर प्रेम कहानियाँ असफल भी रह जाती हैं। दो लोग एक-दूसरे की तरफ़ बढ़े, परिवार वालों ने आपत्ति कर दी; अब वो दुख भरे गीत गा रहे हैं जीवनभर, क्यों? क्योंकि आपके प्रेम में बोध की ताक़त थी नहीं। आपके प्रेम में अगर बोध की ताक़त हो, तो वो सब आपत्तियों को तोड़कर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ जाती है। तो इन दोनों ही तलों पर ग़लती होती है। हमें नहीं पता होता हम जिस साथी को चुन रहे हैं, क्यों चुन रहे हैं। और जब अपने चुनाव की रक्षा करने की बात आती है तो हम कमज़ोर पड़ जाते हैं। और आप देख रहे होंगे ये दोनों बातें एक हैं।

अगर आप वाकई जानते हों कि आप क्या कर रहे हैं, आपके प्रेम में यदि बोध की गहराई हो, तो आपका प्रेम किसी के रोके रुकेगा ही नहीं। वो रुक ही इसलिए जाता है क्योंकि वह प्रेम आमतौर पर बेहोशी का संबंध होता है। और जो काम आप बेहोशी में कर रहे हैं, उसमें दम कितना होगा? बेहोशी के उस काम को माँ-बाप आ करके बिलकुल रोक देते हैं, 'रुको!' आपको रुकना भी पड़ता है क्योंकि आप क्या बोलकर लड़ोगे? वो पूछते हैं कि, ‘तुम्हें फ़लाना लड़का क्यों पसंद है, कोई और क्यों नहीं?’ आपके पास कोई उत्तर ही नहीं होता, क्योंकि वो रिश्ता सांयोगिक था।

कॉलेज में कोई था, वो बगल की सीट पर बैठता था तो प्यार हो गया। या जैसे कबीर सिंह, वो सीनियर आ करके इधर-उधर घूमता था; प्यार हो गया। अब आप क्या बताओगे घरवालों को? घरवालों को क्या बताओगे कि क्यों इसी के साथ रहना है? वो बोलते, "किसी और कॉलेज में चली गई होती, वहाँ कोई और होता तो उसके साथ चल देती। इस आदमी में क्या ख़ास है?" या आपके कार्यालय में कोई आपके साथ काम करता है, या आपका बॉस है, या कोई है, उससे संयोगवश मिले; खिंचाव हो गया। तो यदि नौकरी बदल ले, तो वहाँ किसी और से हो जाएगा। कहीं चले जा रहे थे, वहाँ कोई रास्ते में यूँ ही मिल गया (तो उसी से प्यार हो गया); तो किसी और रास्ते चले जाओ, वहाँ कोई और मिल जाएगा! (श्रोतागण हँसते हैं)

इसलिए हमारे प्रेम में फिर कोई ताक़त नहीं होती क्योंकि वो सांयोगिक होता है, एक्सिडेंटल। कोई दम नहीं है उसमें। उसके पीछे कोई मूलभूत प्रिन्सिपल नहीं है, एक रैन्डम अक्रेन्स है; हो गया! क्यों हो गया? दिख गई तो हो गया, न दिखी होती तो नहीं होता। ये तो कुल हमारी प्रेम कहानी है; दिख गयी हो गया! और नहीं दिखी होती तो ऐसा कुछ होता ही नहीं।

संबंध बनाने से पहले, साथी क्या, किसी का भी चयन करने से पहले, पहले खुद तो आश्वस्त हो लो कि जो कर रहे हो, उसमें कुछ बोध भी है, कुछ दम भी है। अपनी ओर से जब ये निश्चय रहेगा, तब दुनिया की कोई ताक़त तुम्हें नहीं रोक पाएगी। माँ-बाप रोकने की कोशिश ही नहीं करेंगे, उनको पता होगा कि इसने जो करा है, बड़ी तबियत से और बड़ी समझदारी से करा है; वो सामने आएँगे ही नहीं। रोडरोलर के सामने कोई आता है? बोध रोडरोलर जैसा होता है, उसके सामने आप नहीं आते; पंगे नहीं लोगे। माँ-बाप भी कहते हैं, 'पंगा नहीं!'

हमारा इश्क़ होता है ऐक्टिवा जैसा; कोई भी रोक दे। एक उतरे दूसरा पीछे बैठ जाए। और रास्ता ज़रा-सा खराब हो, वहीं थम जाती है। जब आप कह रही हैं कि, 'शादी नहीं हो पा रही है तो रिलेशनशिप टॉक्सिक हो गई है।' कुछ तो मुझे इसी से अंदाज़ा लग रहा है कि प्रेम कैसा होगा। फिर माँ-बाप कह रहे हैं, कहीं और शादी कर लो। आपको प्रेम अगर वाक़ई होता तो आप ये ख़्याल भी ज़हन में कैसे ले आती कि कहीं और कर लूँगी?

प्रेम कहीं हो, विवाह कहीं और करो, असली अडल्टरी (व्यभिचार) तो ये होती है। जिसको आप बोलते हैं न कि एक्स्ट्रामैरिटल (विवाहेतर संबंध)—एक्स्ट्रा मैरिटल का मतलब यही थोड़ी है कि शादी करी हुई है और कहीं और जाकर सेक्स कर लिया; प्रेम कहीं है, और जीवन कहीं और है, ये है असली एक्स्ट्रा मैरिटल लाइफ।

पर कानून में इसकी कोई सज़ा नहीं होती। एक सही समाज जब बनेगा तो इसकी बड़ी भारी सज़ा होगी। कानून में नहीं होती इसकी सज़ा लेकिन जीवन में होती है; जीवन बर्बाद हो जाता है। और वो महाराज भी कैसे हैं, वहाँ बैठे हुए हैं। वाक़ई इश्क़ किया है तो ले जाओ न। क्या वहाँ बैठे छह साल से इंतज़ार कर रहे हो? और अब टॉक्सिक हो रहे हो; टॉक्सिक माने भी समझ रहा हूँ, गाली-गलौज करते होंगे, 'तू बेवफ़ा निकली, तू कहीं और जा रही है।' तो क्या करे, तुम छह साल से वहाँ बैठे रहोगे तो? फिर जब शादी-ब्याह होने लगता है तो ये सब भी करते हैं, कि पता लगाते हैं किससे हो रहा है, उसको पुरानी तस्वीरें भेजते हैं कि ये देखो! शादी में गेट क्रैशिंग करते हैं। सबको टिकटॉक बनाना है।

(श्रोतागण हँसते हैं)

यूँ ही लुढ़कते-पुढ़कते किसी की गोद में जाकर गिर गए, इसको इश्क़ नहीं कहते। आप चली जा रही हैं, चली जा रही हैं, ऊपर से अमरूद गिर पड़े आपके ऊपर; ये प्यार कहलाता है?

पहले परखिए कि आपके रिश्ते में वाक़ई दम कितना है। मोह को अलग करिए, भावनाओं को अलग करिए, यथार्थ को परखिए। और रिश्ते में अगर दम हो, तो फिर उस दम के साथ न्याय करिए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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