कैसे जनोगे उसे?

Acharya Prashant

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कैसे जनोगे उसे?

प्रश्नकर्ता:

नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च।

यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च॥

(अध्याय 3, श्लोक 2)

मैं न तो यह मानता हूँ कि ब्रह्मा को अच्छी तरह जान गया हूँ और न ही समझता हूँ कि उसे जानता हूँ। इसलिए मैं न उसे जानता हूँ, हम में से न तो कोई उसे जानता है इस प्रकार जो जानता है, वही जानता है।

आचार्य प्रशांत: मन इधर को सोंचे चाहे उधर को सोंचे, जो भी सोंचेगा, वो पूरा नहीं होगा। मन दो ही बातें कहेगा: या तो कहेगा कि जानता हूं या ये कहेगा कि नहीं जानता। तुमसे कहा जा रहा है कि दोनों में से जो भी तुमने धारणा रखी, वहीं गलत है। तुम्हारा ये कहना भी गलत है कि जानते हो, ये कहना भी गलत है कि नहीं जानते हो। दोनों ही धारणाएं हैं बस, ये समझ लो।

देखो, मन को कोई विशेष असुविधा नहीं है अगर तुम उससे कहो कि तुम गलत सोंचे रहे हो। ज्यों ही तुम उससे कहोगे कि तुम गलत सोंचे रहे हो, वो कहेगा, "ठीक है। मैं सही सोंचने की कोशिश करता हूं।" लेकिन तुम गलत सोंच रहे हो चाहे सही सोच रहे हो, दोनों में एक बात पक्की है: तुम सोच रहे हो की सोच-सोच कर जाना जा सकता है। पहले गलत सोचा था अब सही। ये मंत्र तुमसे कह रहा है कि तुम क्या सोच रहे हो, ये नहीं गलत है। सोच कर जाना जा सकता है, ये सोच ही गलत है। तुम कुछ भी सोचो, फर्क नहीं पड़ता। गलत सोचो कि सही सोचो, दायां सोचा कि बायां सोचा, ऊपर का सोचा कि नीचे का सोचा, काला सोचा कि गोरा सोचा, सोचा ही तो। सोचने से नहीं होगा क्योंकि सोच कर तुम संसार को जान सकते हो, सत्य को नहीं जान सकते। तो विचार को माध्यम मत बना लेना। विचार नहीं माध्यम है, मौन माध्यम है।

देखो, पहला खेल मन ये खेलता है कि "मैं जो सोच रहा हूं वो सही है, और तू जो सोच रहा है वो गलत है।" आप उसे अगर ये सिद्ध कर दें कि "नहीं, तू जो सोच रहा है वो गलत है।" तो वो बुरा मानता है, लेकिन मान लेगा आपकी बात। उसे कोई बहुत कष्ट नहीं है। वो कहेगा, "ठीक है। मैं गलत सोच रहा हूं। अब मुझे नयी सोच दो, जो सही हो।" कुछ बदला नहीं। पहले भी वो क्या कर रहा था? सोच रहा था। अभी भी क्या कर रहा है? सोच रहा है। लेकिन मन को असली तकलीफ तब होती है जब आप उससे कहते हैं कि तू कुछ भी सोचे, तेरे बस की नहीं है। सोचने में समाएगा नहीं। तब असली समस्या शुरू होती है। जो सोच में समा गया, भूलना नहीं, वो संसार का हिस्सा है। जिसको तुमने सोच लिया, वो संसार है। सोच-सोच कर तुम जो ब्रह्मा खड़ा करोगे वो संसार का आधार नहीं होगा, वो संसार का अंग होगा। व्यर्थ ही इतना सोचा। फिर तो पूरा संसार अपने पूरे विस्तार में खड़ा ही है, उसमें एक ब्रह्मा जोड़ने की क्या ज़रूरत थी? जो है, उतना ही बहुत फैला हुआ है चारों तरफ।

प्र: सुकरात का जो वचन है "आई डू नॉट नो(मैं नहीं जानता) " वो भी एक तरह से धारणा ही है। "आई कैनोट नो(मैं नहीं जान सकता) " ऐसा बोलना चाहिए।

आचार्य जी: जो भी तुम बोलोगे "आई __ नो(मैं _ _ जानता) ", वो सब धारणा हो जाएगा। जब सुकरात बोल बोल कर थक जाए और मौन हो जाए, तब कुछ हुई बात।

प्र:

इह चॆदवॆदीदथ सत्यमस्ति न चॆदिहावॆदीन्महती विनष्टि:।

भूतॆषु भूतॆषु विचित्य धीराः प्रॆत्यास्माल्लॊकादमृता भवन्ति।।

(अध्याय 5, श्लोक 2)

यदि इस जन्म में ब्रह्म को जान लिया, तो ठीक है, और यदि इसे इस जन्म में नहीं जाना, तो बड़ी हानी है। बुद्धिमान लोग इसे समस्त प्राणी में उपलब्ध करके इस लोक से जाकर अमर हो जाते हैं।

आचार्य जी: क्या गा रहे थे कल? "भटक मरे ना कोई"। यहीं तो कह रहे हैं और क्या है? अमर हो जाओ, भटक-भटक काहे को मर रहे हो? भटकना ही तो मरना है। "भटक मरे ना कोई"। कितना बढ़िया तो कल गया था: साधो ये मुर्दों का गांव।

प्र: फिर ये क्यों लिखा है कि मनुष्य जीवन में ही संभव है?

आचार्य जी: कहां लिखा है?

प्र: "उस आत्मा का ज्ञान मनुष्य जीवन में ही संभव है।"

आचार्य: जीवन में ही संभव है, बस ये समझ लो। जीवन में ही संभव है।

प्र: "अन्य योनियों में रहकर इसे नहीं जाना जा सकता।"

आचार्य जी: जानने की जरूरत उसे है जो अनजान हो। जानने की जरूरत उसे है जिसके पास जानना ही माध्यम हो। बात को समझो। जब कहा जाता है कि अन्य योनियों में रहकर नहीं जाना जाता, तो इसके दो अर्थ हैं। पहला: उन्हें जानने की जरूरत नहीं। दूसरा: अगर उन्हें जानने की जरूरत है भी, तो उनके पास दूसरे, और कदाचित श्रेष्ठतर, माध्यम है जानने के। तुम्हारे पास एक ही माध्यम है, क्या? सोचना-विचारना और अंततः ध्यान में उतरना।

जिसने खोया नहीं, उसके लिए पाना शब्द क्या है? अप्रासंगिक है। क्या करेगा वो पाकर? उसने खोया नहीं। जब कहा जाता है कि मात्र मनुष्य को ही आत्मा की प्राप्ति हो सकती है, तो चौड़े मत हो जाना। इसका अर्थ ये होता है कि मात्र मनुष्य ने ही आत्मा को खोया है। इसका ये अर्थ नहीं होता कि तुम दूसरों से श्रेष्ठ हो। इसका अर्थ होता है कि तुम ही अकेले अभागे हो। तुम्हारे अलावा कोई नहीं इतना अभागा। पेड़ क्यों करेगा आत्मा की खोज? उसने खोई कब? लेकिन आदमी का अहंकार है। वो इन वक्तव्यों को सोचता है कि इसका मतलब हम श्रेष्ठ हो गए। इसका मतलब तुम श्रेष्ठ नहीं हो गए। इसका मतलब हो गया कि तुम ही बेचारे गिरे-पड़े, अस्तित्व के लावारिस। बाकी सब अपने स्रोत से जुड़े हुए हैं।

लावारिस शब्द बड़ा मजेदार होता है। लावारिस मतलब समझते हो? जो स्रोत से जुड़ा हुआ नहीं है, उसको लावारिस कहते हैं। कहने को इसका मतलब होता है जिसके बाप का पता ना हो, पर इसका अर्थ यही है जो स्रोत से जुड़ा हुआ नहीं है।

मनुष्य कौन है? वो अकेला है जो अस्तित्व में लावारिस है। मनुष्य की इससे सुंदर परिभाषा नहीं हो सकती, सटीक: अस्तित्व की लावारिस पैदाइश, जो अपने अब्बा का नाम भूल गया है और अब क्या कर रहा है? इधर-उधर खोज रहा है। कर्ण की कहानी सभी की कहानी है ना? हो सूर्य पुत्र, पता नहीं है, तो पूरी जिंदगी बेचैनी में गुजारी। मेरे पिता का नाम क्या है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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