कैसे हो मन की वृत्तियों से मुक्ति? || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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कैसे हो मन की वृत्तियों से मुक्ति? || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्न: आचार्य जी, ‘ध्यान’ में, वृत्तियों को भी पकड़ा जा सकता है?

आचार्य प्रशांत: उससे ज़्यादा सही शब्द ‘ध्यान’ है या ‘ईमानदारी’ है। वृत्ति तो हर समय अपना ज़ोर दिखाती ही रहती है ना? उसके लिए, उसको पकड़ने के लिए, ईमानदारी ज़्यादा चाहिए। तुमने देखा नहीं है, कई बार कोई कुछ कर रहा होता है, आसपास वाले सब को दिख रहा होता है कि ये तो आदत है इसकी, ये तो ऐसा ही है! उसको ही नहीं दिख रहा होता। अब इसके लिए ‘ध्यान’ क्या चाहिए? ये बेईमानी है एक तरह की ना? अड़ोस-पड़ोस सबको दिख रहा है, और तुम कह रहे हो, तुमको ही नहीं दिख रहा। तो ऐसा तो नहीं है कि दिख नहीं रहा होगा। वृत्ति को हम कहते हैं, छुपी हुई है, पर वो इतनी तगड़ी होती है कि हर समय सब कुछ उसी से हो रहा होता है। तो कोई छुपी हुई चीज़ हो, उसको बाहर लाने के लिए ध्यान चाहिए, ऐसा तो शायद कहा जा सकता है। वृत्ति छुपी हुई है कहाँ?

देखो, अब ये आदमी था, जिसकी और तुम इशारा कर रहे थे। हमको शायद, सबको, जो यहाँ अभी इस हालत में बैठे हैं, थोड़े शांत हैं। कहा जाए कि ये क्या था? तो तुम बड़े रंगीन तरीके से उसका चित्र बना दोगे। है ना? कहोगे, ‘आम आदमी’, बेहोश है, कुछ समझ भी नहीं पा रहा। अपनी ओर से बड़े महत्व का काम कर रहा है। उसे पता भी नहीं है वो जो कर रहा है उसकी कोई ख़ास क़ीमत भी नहीं है। तो इतनी प्रत्यक्ष बात है, इतनी ज़्यादा प्रत्यक्ष। उसको ध्यान चाहिए क्या? ध्यान की बात करके तो मुझे ऐसा शक़ हो रहा है कि जैसे हम बड़े महत्व दे रहे हों, कि बड़ी दबी-छुपी बात है, जिसपर जब जाँच-पड़ताल करोगे तब सामने आएगी। क्या? दबा-छुपा क्या है? क्या दबा-छुपा है? जो है सामने, प्रत्यक्ष है।

घूम फिर कर सारी बात, वही जो तुमने सवाल कहा था ना, “कि क्या ये मत्वपूर्ण है?” उसपर आ जाती है। ऐसी शिक्षा हो गयी है मन कि कुछ बातों को ‘महत्वपूर्ण’ कहने में, के उसको वही अब दिखाई पड़ता है। मैं जहाँ तक देख पा रहा हूँ, मुझे तो यही दिखाई पड़ता है कि कोई और तरीका है नहीं, पढ़ने के अलावा, सतसंग के अलावा! क्योंकि अगर एक बार मन को ये बात बता दी गयी ना, कि क्या महत्वपूर्ण है, मन उधर को ही भागेगा। वो जो कर रहा है, वो उसके लिए महत्वपूर्ण है। वो वही है जिसके लिए वो महत्वपूर्ण है। वो कौन है, जिसके लिए ये सब महत्वपूर्ण है? आप जब तक मन को किसी दूसरी दिशा में अनुप्रेरित नहीं करेंगे, वो वही सब मानता रहेगा जो है।

अब वो एक फिल्म आयी है, उसमें कुछ ऐसा नहीं है जो प्रतिकारक हो। तो एक घंटा बीत जाने के बाद मैंने इससे कहा, कि ये सामने चल रही है, पर चल नहीं रही है। मतलब, कुछ भी नहीं है इसमें जो छू रहा हो। कुछ भी नहीं है इसमें जो ज़रा भी महत्व का लग रहा हो। नहीं, मुझे उससे कोई नफ़रत भी नहीं हो रही थी। वो चल ही नहीं रही थी, वो मेरे लिए चल ही नहीं रही थी। मुझे उससे कोई समस्या नहीं थी, कोई दिक्कत नहीं थी। बस वो थी ही नहीं। समझ रहे हो ना बात को? थी ही नहीं, है ही नहीं!

तुम एक सिनेमा हॉल में बैठे होते हो, तुमने कभी गौर किया है, कि वहाँ कितनी चीज़ें होती हैं? वहाँ कुर्सियाँ होती हैं, वहाँ दीवार होती है, दीवार पर कुछ लिखा है। ठीक सामने, जब फिल्म चल रही होती है, तभी तुम्हारे नीचे फर्श होता है, फर्श पर कालीन होती है। बहुत सारा पॉपकॉर्न आसपास होता है, चाय होती है। पर तुम महत्व किसको दे रहे होते हो? तुम फिल्म को दे रहे होते हो ना?

सारा खेल महत्व का है, कि तुम्हें कुछ महत्वपूर्ण उसमें लग रहा है ना नहीं?

क्या आपके लिए वो कोई महत्व रखता है?

ना उन चरित्रों का कोई महत्व है, ना जो उसमें उसका विद्रोह दिखाया गया है, उस विद्रोह का कोई महत्व है। उसमें कुछ ऐसा है ही नहीं जिसके कारण मन में उत्तेजना उठे, बीच-बीच में उसमें कोशिश की गयी कुछ ऐसे पल दिखाने की शायद जो आपको गुस्से से भर दें, जिसमें आपको लगे कि ये चरित्र के साथ अन्याय हो रहा है। और यदि लगे ही ना? लगना ही बंद हो जाए?

ये खेल ऐसे नहीं खेला जा सकता कि लग रहा है, पर तुम वीरता से उससे लड़ाई कर रहे हो। ये खेल तो ऐसे ही जीता जाता है कि कुछ बातें हैं, जो अब प्रतीत होनी ही बंद हो गयी हैं। आभास ही नहीं हो रहा है।

श्रोता: मन ‘में’ बदलाव नहीं होगा, मन ‘का’ बदलाव होगा।

आचार्य जी:

तुम वही मन रखते हुए, ज़िन्दगी नहीं बदल सकते।

इसी को मृत्यु कहते हैं कि अब वो समाज तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता ना! यही सब तो उसके पास साधन हैं, तुम पर राज करने के। तुम्हें हँसा दे, तुम्हें रुला दे, तुम्हें उत्तेजित कर दे। उसके हँसाये तुम्हें हँसी आ नहीं रही, उसके रुलाये तुम्हें रोना आता नहीं। वो जब चाहता है कि तुम्हारे भीतर वासना उठे, तुम में वासना उठती नहीं । अब तुम मुक्त हो गए, अब तुम मालिक हो अपने।

तुम जाते हो एक फिल्म देखने, और वो जब चाहता है, तुम्हारे भीतर कामवासना उठा देता है। तो ये तो मतलब तुम प्रयोगशाला के जानवर जैसे हो। कि जो प्रयोग करना चाहता है तुम्हारे ऊपर, और जब चाहता है, तुम्हारे भीतर इंजेक्शन ठूँस देता है और तुम उत्तेजित हो जाते हो। तुम किसी के साथ रहते हो और यदि उस व्यक्ति के बस में है की वो जब चाहता है तुम्हें एक मानसिक स्थिति में ले आ दे!

मुक्ति का मतलब और कुछ थोड़े ही होता है।

मुक्ति का मतलब यही होता है कि हमारे पास वो हुक नहीं बचे, जिनमें तुम अपने रस्से फँसा सको।

अपने आपकी कल्पना ऐसे करो, कि जैसे तुम चलते हो तो तुम्हारे शरीर में हर तरफ़ हुक ही हुक हैं, और उस पर कोई भी रस्सी फेंक कर तुम्हें कहीं से भी खींच लेता है। तो मुक्त होने का मतलब ही यही है कि हुक नहीं रहे अब। तो तुम्हारी रस्सियाँ आएँगी, हमें रस्सियों से कोई शिक़ायत नहीं है, काटने में नहीं जुटे हैं। हम उन रस्सियों की परवाह ही नहीं कर रहे क्योंकि वो रस्सियाँ आएँगी तो उन्हें कोई हुक मिलेगा ही नहीं। कोई ठिकाना ही नहीं है जहाँ वो फंस सकें। तो आएँगी, पड़ेंगी, फिसल के लौट जाएँगी।

श्रोता: और उन्हें वो रस्सियाँ अगर अभी भी जलन दे रही हैं, तो अभी भी हुक हैं!

आचार्य जी: हुक हैं! भाई, जलन अपने आप में हुक है ना! जलन का मतलब ही है कि रस्सी कहीं फँस गयी।

तुम्हें क्या लगता है, ये उल्टी-पुल्टी फिल्में और ये सब, कैसे बंद होगा? ये ऐसे बंद होगा कि एक ज़बरदस्त चेतना आएगी और विद्रोह होंगे? ये ऐसे ही बंद होगा कि ये बिकना बंद हो जाए। कि हॉल पूरा बैठा हुआ है, और वहाँ सामने एक आइटम नंबर चल रहा है, और लोगों को कुछ हो ही नहीं रहा। जब ये स्थिति आ जाएगी, तब कोई कारण ही नहीं बचेगा प्रोड्यूसर के पास, कि इसमें आइटम नंबर डालो। वो कहेगा, डालते तो हैं, पर उससे कोई फायदा ही नहीं होता, तो क्यों डालें। बात समझ रहे हो?

श्रोता: एक चरम पर पहुँच कर ही बंद होगा!

आचार्य जी: चरम वगैराह कुछ नहीं कुंदन, चरम तो क्या होता है?

अब एक फिल्म है, उसमें ये दिखाया जा रहा है के एक बंदे ने शादी का वादा कर के वादा तोड़ दिया। अब इस कारण वो जो लड़की है, वो रो रही है, कलप रही है। अब इस बात से तुम प्रभावित तभी होओगे, जब तुम इस बात को मूल्य देते हो कि शादी का वादा निभाना चाहिए। अगर तुम खुद ही इस बात को मूल्य नहीं देते, तो उसकी जितनी भी तड़प और दर्द दिखाया जा रहा है, तुम कहोगे, क्या! वो तुम्हें छुएगा ही नहीं ना!

तुम्हारे मूल्य बदल गए, अब तुम उसके साथ कैसे एकात्मन होगे? नहीं कर पाओगे ना! अब वो उसके बाद बाहर निकली है, वो कुछ कुछ हरकतें कर रही है। और जो वो हरकतें कर रही है, उसको ये दिखाने की कोशिश की गयी है कि ये सब आज़ादी है। और ये आज़ादी नहीं है, ये एक नयी तरह ग़ुलामी है। पर निर्देशक को इससे ज़्यादा अक़ल ही नहीं है। उसको लगता है कि शादी को छोड़ दो, और ऐसे कुछ करने लग जाओ, तो वो आज़ादी है। तो उससे तुम प्रभावित तो तब होओगे ना, जब तुम्हारी अक़ल निर्देशक जितनी ही चलती हो। जब तुम्हें दिख ही रहा है साफ़-साफ़ कि ये जो तुम दिखा रहे हो, ये पागलपन है, तो तुम्हें कैसे हँसी आयेगी, और कैसे आँसू छूटेंगे?

जो तुमने लिखा था कि वही सत्य है, वही आत्मा ; उसका मतलब ही यही है। कि

जब अपनी सुध लगने लग जाती है ना, तो पूरी दुनिया का सच बिलकुल खुल के सामने आने लग जाता है। थोड़ा सा जब अपना मामला साफ़ होने लग जाता है, तो दुनिया बिलकुल ऐसे खुल जाती है के जैसे कुछ उसमें, कभी कुछ छुपा हुआ था ही नहीं।

वही हंसा-कागा वाली बात है। तुम्हें एक बार मोतियों का स्वाद लग गया। अब मैं परसों रात को क्या गा के आ रहा हूँ? और कल रात को, वो मेरे सामने एक पब में नाचती हुई पाँच-छह लड़कियों का गाना दिखाएँगे, तो मुझे उसमें कैसे रस आ जाएगा? वो कुछ कर ले, वो पूरा-पूरा नंगा कर दे उन लड़कियों को, तो भी मुझे रस कैसे आ जाएगा? तुम्हें जो करना है कर लो। एक बार जिसको मोती का स्वाद लग गया, उसको रस आएगा कैसे अब?

देखो, समाज इसलिए डरता है ना, तुमने किसी की लाख कंडीशनिंग कर रखी हो, एक बार वो उधर पहुँचा, वो लौट के नहीं आता। इर्रिवर्सिबल होता है, अपरिवर्तनीय होता है। एक गाना है ऐसा, “जाए जो उस पार फिर लौट के ना आये”। कि वो जाए जो उस पार, कभी लौट के ना आये। “बचपन के ये साथी, ये तेरे संग, ये सहारे, देते हैं आवाज़ तुझे, हर घड़ी पुकारे”। तो ये बात, इस गाने में भी, बड़े दुःख के साथ कही गयी है। कि बचपन के ये साथी और ये सब! लेकिन उन्हें भी पता है कि जो उस पार गया, वो लौट के आएगा नहीं। हाँ, जो इस पार है, उसका ख़तरा हमेशा बना हुआ है कि कभी भी उधर जा सकता है। जो उधर चला गया, उसका कोई ख़तरा होता ही नहीं कि लौट के आएगा।

अब समझ में आ रहा है, कि समाज क्यों इतना डरता रहता है?

श्रोता: इस पार वाले का मन भी रह-रह के करता है!

आचार्य जी: बिलकुल, बिलकुल। तो ख़तरा है। भई! हम लोग जब वहाँ पर थे, तो दो चार लोगों ने बोला नहीं कि घरवाले कह रहे थे कि, तू लौट के तो आयेगा ना? बाबा के साथ तो नहीं रह जाएगा? अब जब बाबा यहाँ आकर के सबको छोड़ता है, तो क्या किसी से पूछता है? कि अगली बार आयेगा ना? घर तो नहीं रह जाएगा? बाबा को पता है, आयेगा। अभी नहीं आयेगा तो बीस साल बाद आयेगा। बीस साल बाद भी नहीं आया, तो दो सौ साल बाद आयेगा। पर आना तेरी नियति है। बाबा को पता है। तो उसको कोई डर नहीं है, तो वो किसी से नहीं पूछता कि कल कार्यालय आयेगा या घरवाले बाँध लेंगे तुझे। आना तो तुझे है ही। कल नहीं आयेगा, तो दस जनम बाद आयेगा। आयेगा तो है ही। पर समाज को बहुत डर है, “लौट के आयेगा नहीं आयेगा”। पीछे से फ़ोन आयेंगे, सौ फोन आयेंगे, रिकॉर्डिंग ख़राब करेंगे।

ये अंतर देखो ना। तुम घरों में अपने जब उत्स्व मन रहे होते हो, जो भी कर रहे होते हो, अपने इंटिमेट मोमेंट्स में होते हो, तो मैं कभी फोन करता हूँ? “ए छोड़ दे, क्या कर रहा है?” पर मैं जब तुम्हें ले के बैठा होता हूँ, तो घरवाले हैरान हो जाते हैं। दनादन करेंगे फोन, पता नहीं क्या हो रहा है। यही बात है। कागा और हंसा वाली बात है। और वो जो फोन भी कर रहे हैं ना, उस बात को समझना, ठीक-ठीक सुनना। वो ये नहीं कह रहे हैं, अगर तुम सुन सको और तुम्हारे पास कान हैं। वो ये नहीं कह रहे कि तू क्यों गया है, वो जानते हो क्या कह रहे हैं? तू अकेले क्यों गया है? अब वो ये बात कह नहीं सकते अहंकार के मारे, तो इसलिए दबे-छुपे कह रहे हैं। पर चाहते वो वही हैं कि तुम किसी तरह उनको ले आते, पकड़ के ले आते, लड़-झगड़ के ले आते। ला नहीं पाए ना! तो पीछे से वो परेशान करेंगे, अंगुल करेंगे। ये सब और कुछ नहीं है, ये तरीके हैं।

और प्रेम यही है – के छोड़ के ना जाओ। किसी भी तरीके से बाँध के ले आओ।

शब्द-योग सत्र से उद्धरण। स्पष्टता के लिए सम्पादित।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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