आग जो लगी समुद्र में, धुआँ न परगट होए।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लागी होए।। – संत कबीर
वक्ता: जब विरह की आग उठती है तो बाहर वालों को कुछ समझ में नहीं आता कि ये क्या हो रहा है।
कबीर वैद बुलाइया, पकरि के देखि बाँही,
वैद बेचारा क्या करे, करक कलेजे माहि।।
कोई लक्षण नहीं प्रकट होगा शरीर में। धुआँ का अर्थ होता है लक्षण, कि आग लगी है तो आग का लक्षण होता है, आग का संकेत होता है– धुआँ। रोग होता है, तो रोग का संकेत होती है नब्ज़। वैद्य नब्ज़ पकड़कर देखता है और उसे पता चल जाता है कि क्या चल रहा है।
कबीर कह रहे हैं कि ये रोग ऐसा होता है जिसका कोई लक्षण प्रकट ही नहीं होता। ‘वैद बेचारा क्या करे, करक कलेजे माहि।’ बाहर वाले जान ही नहीं पाएँगे कि तुम्हें क्या व्याधि लगी है। लोग तुमसे इतना बस पूछेंगे – ‘’कुछ बदला-बदला सा है, हुआ क्या है तुम्हें? तुम्हारी आँखें बदल गईं हैं? तुम्हारा जीवन ही बदला सा लगता है, पर किसी को कुछ समझ में नहीं आएगा।’’
श्रोता : सर, इसमें समुद्र से क्या तात्पर्य है, आग कहाँ लगी है?
वक्ता : मन में। मन में आग लग गई है ज़बरदस्त।
श्रोता : पर सर, समुद्र में कैसे?
वक्ता : क्यूँकी जब पानी में आग लगती है तो वहाँ कोई धुआँ नहीं उठ सकता। इसी तरीके से जब भक्त के मन में आग लगती है तो उसका कोई बाहरी चिह्न नहीं दिखाई देता। दूसरी बात, ये जो आग भी है ये बड़ी शीतल कर देने वाली आग है। ठीक जैसे पानी में आग लगी हो। है पानी ही।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लागी होए। जिसको लगी है सिर्फ़ वही समझ सकता है कि मुझे क्या हो रहा है, दूसरे किसी को समझ में नहीं आएगा।
ये बात औरों को स्पष्ट नहीं होगी और तुम समझा भी नहीं पाओगे। जितना समझाने की कोशिश करोगे उतना असफल होगे और उतना ही हास्यास्पद भी लगोगे।
जो परम की दिशा में चलते हैं, वो कोई कारण दे नहीं पाते अपनी गति का, अपने चलने का।
वो चुप ही रहें तो बेहतर है। समझाने की कोशिश करेंगे तो बात और बिगड़ेगी। एक दूसरी जगह पर कबीर इसको ही कहते हैं कि जब मन में आग लगी हो तो-
जिनने देखीं वो लखें कि जिन लागी सोए।
पहली पंक्ति शायद कुछ इस तरह की है – कबीर अग्नि हृदय में जान सके न कोए, जिनने देखीं वो लखें कि जिन लागी सोए। दूसरी यही है, पहली में हेर-फेर हो सकता है शब्दों का। जो देख रहा है वो लख नहीं पाएगा, जिसको लगी है सिर्फ वही लख सकता है।
कबीर अग्नि हृदय में, जान सके न कोए।
जिनने देखीं वो लखें, कि जिन लागी सोए।।
जो देख रहा है वो तो बस यही कहेगा कि ये पागल हो गया है, इसका दिमाग खराब हो गया है, कुछ गड़बड़ हो गई है इसके साथ, सरक गया है।
भक्त की दशा को इसीलिए बार-बार कबीर, ‘गूँगे के गुड़’ की दशा भी बोलते हैं। क्या होती है वो दशा? गूँगे के मुँह में है गुड़, अब उसे क्या अनुभव हो रहा है वो कैसे किसी को बताए। मिल तो गया है। तो भक्त का पाना कैसा होता है, वो इसको भी अभिव्यक्त नहीं कर सकता और भक्त का विरह कैसा होता है, वो इसको भी अभिव्यक्त नहीं कर पाएगा। भक्त कहे कि मुझे मिल गया है तो तुम पूछोगे क्या? तो वो क्या बताएगा कि क्या मिल गया है। भक्त कहे कि मुझे नहीं मिला और मैं तड़प रहा हूँ, तो तुम पूछोगे कि क्या नहीं मिला? वो कैसे बताएगा कि क्या नहीं मिला है। दोनों ही स्थितियों में बताए क्या?
जब कभी भी कुछ भी ऐसा हो रहा होगा जो वास्तविक होगा तो तुम्हारे लिए उसका निरूपण करना बड़ा मुश्किल हो जाएगा। लोगों को बड़ी दिक्कत आती है ये भी समझा पाने में दुनिया को कि वो अद्वैत में काम क्या करते हैं। जो कुछ भी उथला है, बस यूँ ही है, पदार्थ जैसा है, उसको आप बड़ी आसानी से अभिव्यक्त कर सकते हो पर जो कुछ भी वास्तविक है वो बोल नहीं पाओगे, समझा नहीं पाओगे। हाँ, उसका स्वाद चखा सकते हो, कहोगे कि तू भी तभी जानेगा जब तू भी चख लेगा और कोई तरीका नहीं है कि मैं तुमको संप्रेषित कर पाऊँ कि मैंने क्या पाया। कोई तुमसे पूछे कि तुम जाते हो रविवार को सुबह, क्या? तुम सालों उससे झगड़ते रहो, सालों उसे बताने की कोशिश करते रहो कभी कुछ नहीं बता पाओगे। बस एक ही तरीका है बता पाने का। क्या?
श्रोता : कि हम उन्हें यहाँ सत्र में ले आएँ अपने साथ।
**वक्ता :** हाँ, साथ ले आओ। साथ ले आए तो काम हो जाएगा और वहाँ बैठ कर के वर्णन करने की कोशिश करते रहे तो बात और उलझ जाएगी। कोई पूछे, किसी ने प्रेम न जाना हो जीवन में और तुमको देखे कि खिले-खिले रहते हो जैसे कुछ मिल गया है। तुमसे पूछे, ”क्या मिल गया है?” तो कैसे समझोगे कि क्या मिल गया है? वासना समझाई जा सकती है, काम समझाया जा सकता है पर प्रेम कैसे समझोगे कि क्या मिल गया है?
~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।