कब हटेगी हिंसा? || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2017)

Acharya Prashant

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कब हटेगी हिंसा? || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2017)

कहता हूँ कहि जात हूँ, कहा जु मान हमार।

गल तुम काटि हो, सो फिर काटि तुम्हार।।

~ संत कबीर

आचार्य प्रशांत: कबीर जो भी कहें, उसमें शब्द भले ही हमारी भाषा के हों, वस्तुएँ भले ही हमारी ज़िंदगी की हों, सारे प्रतीक, सारी उपमाएँ हमारे ही संसार के हों, लेकिन अगर उसका वास्तव में लाभ उठाना है तो कबीर के कहे को कबीर के तल पर ही सुनना चाहिए; यथासंभव सुने पर से अपनी पकड़ छोड़नी चाहिए। देह, जीव, जीवन — इनका हमारे लिए जो अर्थ है, कबीर के लिए उतना ही अर्थ नहीं है इनका। कबीर के लिए देह, भोजन, हिंसा, संसार, जीवन, धर्म, ये सब बड़े व्यापक शब्द हैं, और जितना व्यापक हो करके आप इनको सुनेंगे उतने ही उनके व्यापक अर्थ आपके लिए खुलेंगे।

कहता हूँ कहि जात हूँ, कहा जु मान हमार।

जाका गल तुम काटिहो, सो फिर काटि तुम्हार।।

जिसका गला तुम काट रहे हो, वो फिर तुम्हारा गला काट रहा है। हम अपनेआप को जो समझते हैं, जो जानते हैं, वो काटने के अलावा कुछ और कर नहीं सकता क्योंकि ‘कटा होना’ ही उसका अस्तित्व है। इतना ही कह रहे हैं कबीर कि – दूसरे को काटने के लिए पहले तुम्हें दूसरे से कटना पड़ेगा। दूसरे के साथ कुछ भी करने के लिए, दूसरे को ‘दूसरा’ घोषित भी करने के लिए तुम्हें पहले दूसरे से अपनेआप को काटना पड़ेगा। अब बताओ कटा कौन – दूसरा या तुम? कटाव तो उसी वक़्त हो गया जिस क्षण तुमने ‘दूसरा’ पैदा किया, ‘दूसरा’ घोषित किया, दूसरे को ‘दूसरा’ कहा। अर्थ इसका ये मत कर लीजिएगा कि तुम किसी का यदि गला, इत्यादि काट रहे हो, तो वो पलटकर के आएगा किसी रूप में तुमको कष्ट देने के लिए, तुम्हें परेशान करने के लिए, कि बदले का खेल चलेगा।

कबीर हों या कोई भी हों, वो प्रतीकों में, इशारों में बात करेंगे, इशारे समझा करिए। इशारे से जब चूकते हो तो फिर सूक्ष्म की जगह स्थूल का इस्तेमाल करना पड़ता है। और जहाँ स्थूल आया वहाँ फिर रस हट जाता है।

जाका गल तुम काटि हो, सो फिर काटि तुम्हार।

डरा नहीं रहे हैं, यह नहीं कह रहे हैं कि दूसरे के साथ अच्छा करो ताकि वो तुम्हारे साथ अच्छा कर सके — ये तो लाभ-हानि का गणित हो गया। अगर यही बात होती, तो फिर तो अगर अपना गला कटने का भय ना होता, तो दूसरे का गला काटना वाजिब हो जाता। फिर तो ये कहा जाता कि दूसरे को हानि ना पहुँचाने के पक्ष में एकमात्र तर्क तुम्हारे स्वार्थ का है — कि दूसरे को हानि पहुँचाओगे तो ख़ुद भी हानि पाओगे। ना पहुँचती हो दूसरे को हानि तो फिर तो सब चलेगा, सब वाजिब है। नहीं, वो बात नहीं है।

जाका गल तुम काटि हो, सो फिर काटि तुम्हार।

दूसरे को जब भी ‘दूसरे’ के रूप में देखते हो, त्यों ही तुम हिंसा शुरू कर ही देते हो। और जब कभी-भी तुम केंद्रित हो स्वयं में, खोए हुए हो स्वयं में, अपना विचार लेकर के, अपना केंद्र लेकर के, अपनी जगह पर खड़े होकर के दूसरे को देख रहे हो, तो तुम हमेशा दूसरे को अपने संदर्भ में ही देखोगे। तुम एक नहीं, दो को देखोगे; दो नहीं, तीन को देखोगे। तुम्हें दिखाई देंगे दो, और तुम्हें दिखाई देगी उन दोनों के मध्य की विभाजन रेखा। तुम्हें दिखाई देगा कि एक रेखा है जो तुम्हें दूसरे से अलग करती है — उस रेखा के उस पार उसका संसार है, उसके स्वार्थ हैं; उस रेखा के इस पार तुम्हारा संसार है और तुम्हारे स्वार्थ हैं।

तुम्हारे स्वार्थ और फैल सकते थे, और बड़े हो सकते थे, तुम्हें और सुख मिल सकता था, अगर किसी तरीक़े से इस रेखा को ज़रा धक्का दे दिया जाए। अगर किसी तरीक़े से इस रेखा को सामने वाले की तरफ़, सामने वाले के क्षेत्र में, और गहरे भेज दिया जाए। तुम्हारे अपने हित हमेशा दूसरे वाले के हितों की क़ीमत पर होंगे। तुम्हारा कुछ भला हो नहीं पाएगा, जबतक कि दूसरे का नुक़सान ना हो। तुम ये सोचोगे कि दूसरे का नुक़सान इसमें निहित है कि तुमने अपने स्वार्थ बढ़ा लिए और उसके घटा दिए।

एक बात दूसरी होगी जो समझ नहीं पाओगे, वो ये है कि – अहंकार तब तो दुःख देता ही है जब वो बढ़ता है, वो तब भी दुःख देता है जब वो घटता है। ठीक उसी तरीक़े से, स्वार्थों की पूर्ति उतनी ही दुःखदाई होती है जितनी कि स्वार्थों की विफलता।

तुम जो कुछ हो, उसपर जब चोट पड़ती है, तब तो तुम्हें दुःख होना ही है; तुम जो कुछ हो वो जब और बड़ा आकार लेता है, वो जब और महत हो जाता है, तब भी तुम्हारा दुःख ही बढ़ता है। तुम्हें तब तो दुःख होगा ही जब दूसरे ने तुम्हारा क्षेत्र छोटा कर दिया, तुम्हारे स्वार्थों पर चोट कर दी; दुःख तुम्हें तब भी होगा जब तुमने दूसरे पर चोट कर दी और तुम्हारे स्वार्थों का घेरा बढ़ गया। घेरा ही दुःख है।

घेरा यथावत रहे, कायम रहे, न बढ़े-न घटे, तो भी दुःख है; घेरा छोटा हो जाए, अहंकार पर चोट पड़ जाए, तुम्हारे स्वार्थों की सीमा सिकुड़ जाए, तो भी दुःख है। घेरा विस्तीर्ण हो जाए, तुम्हारे कुछ स्वार्थ पूरे हो जाएँ, तुम्हारे अहंकार का दायरा बढ़ जाए, तो भी दुःख है। ये बड़ी अजीब स्थिति है।

तुम्हारे और संसार के मध्य में जो सीमा तुमने खींची है, जो विभाजन तुमने किया है, उस सीमा का कायम रहना भी दुःख, उस सीमा का सिकुड़ना भी दुःख, और उस सीमा का फैलना भी दुःख। फर्क नहीं पड़ता कि क्या हो रहा है, हर स्थिति में तुम्हारे लिए दुःख ही होगा, क्योंकि तीनों ही स्थितियों में एक चीज़ साझा है। क्या? सीमा बनी हुई है। सीमा के अंदर कितनी सामग्री है इससे फर्क नहीं पड़ता। सिकुड़कर भी जो एक चीज़ कायम है, वो है सीमा; फैलकर भी जो एक चीज़ कायम है वो है सीमा। सामग्री घट-बढ़ रही है, सीमा कायम है। कितनी बड़ी है, कैसी है, अपनेआप में क्या समेटे हुए है, इन सब बातों से फ़र्क़ नहीं पड़ता, सीमा है न? सीमा यदि है, तो दुःख है।

जाका गल तुम काटि हो, सो फिर काटि तुम्हार।

जहाँ कोई दूसरा है अपना गला लेकर के उपस्थित, वहाँ तुम्हारी और उसकी निभनी नहीं है। वहाँ तुम्हारा और उसका रिश्ता होगा बस गला काटने का ही। ‘जाका’ जैसे ही कहा गया, साथ में ‘काटि हो’ पक्का हो गया। ‘जाका’ माने – कोई और, कोई दूसरा, जिसका! ‘जिसका’ माने – किसी और का। ‘जाका’ जैसे ही कहा गया, ‘काटि हो’ वैसे ही पक्का हो गया। दूसरा अस्तित्व में आते ही, तुम्हारा और उसका संबंध तय हो जाता है। तुम्हारा और उसका जो संबंध है, वो होना हिंसा का ही है, वो होना डर का ही है।

इसीलिए हम अपने रिश्तों को नाम कोई भी दे दें, वस्तुतः डर उनमें मौजूद रहता ही रहता है, हिंसा मौजूद रहती ही रहती है; इसीलिए टकराव होता है, इसीलिए हम भिड़ जाते हैं। दूसरा आया नहीं कि उससे टकराव शुरू और टकराव का नतीजा एक ही होना है, वो ये कि तुम्हारा गला कटेगा, तुम्हें दुःख होगा। टकराव के दो नतीजे नहीं होंगे; टकराव का, ऐसा नहीं है कि एक नतीजा होगा तुम्हारी जीत, और दूसरा नतीजा होगा तुम्हारी हार। टकराव के नतीजे में तुम्हें जीत मिली तो भी तुम्हें दुःख है, तुम्हें हार मिली तो भी तुम्हें दुःख है। सीमा सिकुड़ी तो भी दुःख है, सीमा फैली तो भी तुम्हें दुःख है। फ़र्क़ ही नहीं पड़ता कि तुम दूसरे पर हावी हो या दूसरे से हारे हो, दोनों ही स्थितियों में तुम दुःख के ही मारे हो। ‘दूसरा’ मौजूद है न!

संसार में दो तरह के लोग होते हैं — एक वो जो संसार से जीतते प्रतीत होते हैं, एक वो जो संसार से हारते प्रतीत होते हैं। ये दोनों एक ही श्रेणी के हैं, ये दोनों उलझे तो हुए संसार से ही हैं।

फिर एक तीसरा आदमी होता है, एक तीसरा मन होता है, जो जान चुका होता है कि जीत में भी हार है, और हार में तो हार है ही। वो अपनेपन को ही त्याग देता है, अपनापन गया नहीं कि दूसरापन गया। वो अपनेआप को ही महत्व देना कम कर देता है, क्योंकि जो वास्तव में महत्वपूर्ण है, उसमें वो स्थापित हो गया है। उसने अपनेआप को भर लिया है उससे जो अति है। तो अब उसके पास जगह नहीं शेष है अपने भीतर ‘कुछ भी’ और प्रवेश होने देने की।

ये जो ‘कुछ भी’ और है, इसी को अहंकार कहते हैं।ये कभी अकेला नहीं होता, ये दो को लेके आता है। ये कहता है, “मैं और संसार।” और मैं जिसको ‘क़ीमती’ कह रहा हूँ, वो पूरी तरह अकेला होता है; वो सिर्फ़ होता है। कभी उसको ‘मैं’ कह दिया जाता है, कभी ‘सत्य’ कह दिया जाता है, कभी ‘ब्रह्म’ कह दिया जाता है।

जो जोड़े में चले, सो अहंकार; जो अकेला चले, सो आत्मा — यही अंतर है। अहंकार को हमेशा कोई दूसरा चाहिए, वो हमेशा दूसरे के संदर्भ में होता है, वो हमेशा दूसरे से संबंध बनाकर रखता है, वो हमेशा सापेक्ष होता है। आत्मा निरपेक्ष होती है, आत्मा को दूसरा नहीं चाहिए, आत्मा में कोई दूसरा है नहीं।

“जाका गला तुम काटि हो” — ये मत सोचिएगा कि कोई हो सकता है ऐसा जो दूसरा है, और आप उसका गला नहीं काट रहे। ‘जाका’ माने ‘काटि हो’ — दूसरा आया नहीं कि गला-काट शुरू। बिलकुल ये मत सोचिएगा कि कोई ऐसा हो सकता है जो मौजूद है आपके जीवन में दूसरे की तरह, और जिसका आप गला नहीं काट रहे हैं। गला काटने के तरीक़े अलग हो सकते हैं, औज़ार अलग हो सकते हैं, गला काटने को आप सुंदर नाम दे सकते हैं, लेकिन गला तो आप काट ही रहे हैं। वास्तव में आपका होना ही हिंसा है, आपको कुछ करने की आवश्यकता नहीं है।

हमने कहा – “सीमा बढ़े तो हिंसा, सीमा घटे तो हिंसा, और सीमा यथावत रहे तो भी हिंसा।”

आपका होना ही हिंसा है।

देखा है कभी किसी हिंसक मनुष्य को या क्रोधित आदमी को? दूसरों का नुक़सान करता है, साथ में अपना भी कर रहा होता है। ये हमारा अस्तित्व है, ऐसे हम जीते हैं। दोहे का अनर्थ मत कर लीजिएगा, यहाँ पर सद्भावनापूर्ण संबंध बनाने की बात नहीं कही गई है। यहाँ ये नहीं कहा गया है कि – “दूसरे का गला मत काटो।”

हम जैसे हैं, हम दूसरे का होना अपरिहार्य कर देते हैं। और जो दूसरा होता है, उसके साथ संबंध बस एक ही तरह का हो सकता है — विद्वेष, प्रतिद्वंदता, प्रतियोगिता। दूसरे के साथ और करोगे क्या? दूसरे को पैमाना बनाकर अपनेआप को नापोगे, अपने को मापदंड बनाके दूसरे को नापोगे, कोई-न-कोई छोटा निकलेगा, कोई बड़ा निकलेगा। तुम होड़ में पड़ोगे, कभी हीनता में पड़ोगे, कभी बड़प्पन में फूलोगे — ये सब हिंसा है, नाम इन्हें तुम कुछ भी दे दो; हिंसा के अतिरिक्त ये सब कुछ नहीं है।

जो आप हैं, वो रहते हुए हिंसा से मुक्ति पाना असंभव है। आपकी नीयत का सम्मान किया जा सकता है, आपकी कोशिश बिलकुल हो सकती है कि ना आप आहत हों, ना किसी को आहत करें, पर वो कोशिश, कोशिश ही रह जानी है; होना वही है जो नियम-निर्धारित है। होना यह है कि आपके होने भर से कष्ट प्रसारित होना है। हिंसा तभी हटेगी जब दूसरा हटेगा, दूसरा तभी हटेगा जब आप हटेंगे। आप, आपके इरादे, आपके विचार, आपकी धारणाएँ, आपके मत, आपकी बुद्धिमानी — ये आप हैं; इनके अतिरिक्त नहीं हैं कुछ और आप।

जानते हैं आप क्या हैं? कबीर जो कुछ कह रहे हैं उसको समझने की चेष्टा आप हैं; चेष्टा ना हो तो मात्र कबीर हैं। जानते हैं आप क्या हैं? कबीर जो कुछ कह रहे हैं उसका अर्थ आप हैं, वरना तो जो कबीर ने कहा मात्र वही रह जाएगा। लेकिन आप तक कबीर थोड़े ही पहुँचते हैं, आप तक तो कबीर के कहे का अर्थ पहुँचता है। वो अर्थ कबीर नहीं हैं, वो अर्थ आप हैं — वही हिंसा है, वही संसार है, वही दुराव है।

आपका होना लगातार है। वास्तव में आप हैं ही तभी तक, जब तक आप ख़िलाफ़ हैं। नदी की कई धाराएँ हों, वो नदी के साथ ही बह रही हों तो उनका अस्तित्व ही नहीं है; वो तो बहाव का अंग है। धारा वहीं नज़र में आती है, धारा वहीं उभरकर आती है जो नदी के ख़िलाफ़ बह रही होती है। तो ख़िलाफ़त आपकी मजबूरी है। ‘होने’ के लिए आपको ख़िलाफ़ होना पड़ता है; विरोध आपका जीवन है।

जीवन की जो धारा बही जा रही है उसमें यदि आप भी बह लिए तो आपके सामने अस्तित्वगत संकट आ जाता है। आप कहते हैं, “फिर तो जीवन मात्र बचा न? हम कहाँ गए? जीवन की धारा थी, हम उसमें सम्मिलित हो गए, निर्विरोध, अब धारा ही बची, हम कहाँ हैं?” जीवन आपको चाहिए नहीं, आपको व्यक्तिगत जीवन चाहिए; आपको आपका जीवन चाहिए। आपको वो जीवन चाहिए जिसमें आप दुनिया के संदर्भ में, दुनिया के विरोध में खड़े हों। वास्तव में ‘संदर्भ’ का अर्थ ही विरोध होता है।

जब भी आप कहेंगे कि कोई ची़ज आप किसी के संदर्भ में देख रहे हैं, तो उन्हें आपस में विरोधाभासी होना ही चाहिए। सफ़ेद दीवार पर काला निशान लगा हो तो दिखाई देता है। सफ़ेद के संदर्भ में है काला, इसी को तुम कह सकते ह, “सफ़ेद के विरोध में है काला”। ‘संदर्भ’ का अर्थ ही है विरोध। दूसरे के संदर्भ में जो जीता है, दूसरों को पैमाना बनाकर जो जीता है, फिर जान लीजिए कि वो दूसरे के विरोध में जीता है, क्योंकि दूसरे को यदि आपने पैमाना बनाया है, तो आपको होने के लिए दूसरे से भिन्न होना पड़ेगा, और बड़ा होने के लिए आपको पैमाने से ऊँचा होना पड़ेगा।

जाका गल तुम काटि हो, सो फिर काटि तुम्हार।

गला कटवाने के बाद वो पलटकर थोड़े ही आएगा तुम्हारा गला काटने – ये बात कोई शरीर के तल पर थोड़े ही हो रही है। माँसाहार के अंग में ये दोहा है तो कबीर ये थोड़े ही कह रहे हैं कि तुमने बकरी का, बकरे का गला काटा है, तो गला कटा हुआ बकरा फिर पलटकर आएगा और उछलकर तुम्हारा गला काट देगा। संतों की बातों के मूर्खतापूर्ण अर्थ मत कर लीजिएगा।

तुम हो तो दूसरा है, तुम हो तभी तक जब तक दूसरा है। दूसरे से तुम्हारा संबंध सदा घर्षण का रहना है, संघर्ष का रहना है, और जहाँ संघर्ष है और घर्षण है, वहाँ सदैव दुःख है; फ़र्क़ नहीं पड़ता कि तुम दूसरे से जीते हो या हारे हो। दूसरे से तुम जीते तो भी दुःख है, दूसरे से तुम हारे तो भी दुःख है। तुम्हारे और दूसरे के बीच की विभाजन रेखा ही दुःख है, तुम्हारा होना ही दुःख है। लेकिन चूँकि हम आदि हैं अपनेआप को दूसरे की तुलना में ही परिभाषित करने के, इसीलिए हमें वो रेखा खींचनी ही पड़ती है; रेखा ना खींची हो तो हमें लगता है हम हैं ही नहीं।

कबीर कह रहे हैं, “जब तक हालत ऐसी चलेगी, जब तक तुम ये ख़्याल लेकर के रखोगे, जब तक तुम्हें ऐसा ही लगता रहेगा, तब तक बस गले ही कट रहे होंगे।” ‘गले कटने’ का अर्थ समझते हो? जीवन से हाथ धो रहे होगे — ज़िंदगी है शांति, तुम अशांति में जी रहे होगे; जीवन है सरल, तुम जटिलताओं में जी रहे होगे; जीवन है सहज, तुम उतार-चड़ाव, घात-प्रतिघात में जी रहे होगे।

जो हो नहीं सकता, अगर वो स्पष्ट ही हो जाए कि नहीं हो सकता, तो ना हो सकने वाली वस्तु से मुक्ति मिल जाती है। हम फँसे तभी रहते हैं जब हमें ये भ्रम बना रहता है कि जो हो नहीं सकता वो हो रहा है। दूसरे से संबंध हमारा प्रेम का हो नहीं सकता, ये बात अगर पहले ही चरण पर स्पष्ट हो जाए तो जीवन कम-से-कम प्रेम की तलाश में व्यर्थ ना जाए। तो कम-से-कम फिर झूठ बोलने का बहाना गिर जाए।

फिलहाल तो हमारी धारणा ये रहती है कि दूसरापन संभव है, और दूसरेपन के साथ-साथ प्रेम संभव है। “बस ज़रा कहीं कोई छोटी-सी चूक रह जा रही है, ज़रा कहीं कोई छिद्र रह जा रहा है, उसको भर दूँगा तो सब ठीक हो जाएगा; बुनियाद ठीक है, बस भवन को ज़रा मरम्मत की ज़रूरत है। मैं मरम्मत कर दूँगा तो इस भवन में फिर जीवन बड़े सुख और बड़ी शांति से बीतेगा” — ऐसी हमारी धारणा होती है।

हमें लगता है, “न! कोई छोटी-सी भूल हो रही है।” भूल छोटी-सी नहीं हो रही है, भूल बुनियादी हो रही है। आप अपने भीतर जो भरकर चल रहे हैं, आप अपनेआप को जो समझ रहे हैं, भूल वहीं पर है, भूल पहले ही क़दम पर है। इस गाड़ी की बार-बार मरम्मत कराकर कुछ नहीं होगा, इस गाड़ी का डिज़ाइन, इसकी अभिकल्पना ही ग़लत है, और ग़लत ही नहीं है, झूठी है, नकली है, काल्पनिक है। उस तरीक़े से कहें तो आप जिस गाड़ी की बार-बार मरम्मत कराते हो, वो है ही नहीं, वो सिर्फ़ ख्वाबों-ख्यालों में है। उसको छोड़ने में आपको कोई तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए, क्योंकि आप उसको छोड़ रहे हो जो है ही नहीं; दूसरे शब्दों में कहें तो आप कुछ भी नहीं छोड़ रहे हो।

लेकिन मनुष्य के जीवन की ये बड़ी हास्यास्पद त्रासदी है कि सबसे ज़्यादा तकलीफ़ हमें उसे छोड़ते हुए होती है जो होता ही नहीं। जो कुछ नकली है वही नहीं छूटता; जो झूठा है वही नहीं छूटता; जो है ही नहीं वही नहीं छूटता। और चूँकि नकली को ही पकड़ने की आदत हो जाती है, तो नकली के फिर संदर्भ में असली गैर-मौजूद लगने लग जाता है, कि वो तो है ही नहीं।

YouTube Link: https://youtu.be/7DV2ZxvqIYY

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