काम में मन क्यों नहीं लगता?

Acharya Prashant

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काम में मन क्यों नहीं लगता?
हम सोचते हैं न कई बार कि हम आलसी हैं या सिर्फ़ अनाड़ी हैं इसीलिए हम किसी भी काम में डूबते नहीं हैं, लोग असफल हो जाते हैं। छात्र होते हैं वो असफल हो जाते हैं, वो पढ़ाई नहीं कर पाते ठीक से। लोग नौकरी करते हैं, नौकरी नहीं कर पाते ठीक से। काम में डूब नहीं पाते। जो वजह है, वो कौशल, वग़ैरह का अभाव नहीं है, उसकी ज़्यादा गहरी वजह मनोवैज्ञानिक है। आपको स्वयं से ज़्यादा उस विषय को याद रखना होगा, डूबने के लिए ज़रूरी होता है कि अहंकार को भुलाया जाए। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। आचार्य जी, आज का जो सत्र था, मैं ये देख पा रही हूँ कि जीवन की सारी समस्याओं का समाधान देता है क्योंकि हम जीवन में बहुत कुछ कर रहे होते हैं, लेकिन डूब के कुछ भी नहीं करते हैं। जैसे ए, बी, सी, डी कर रहे हैं, तो से — जब बी में जाते हैं, तो आधा चलता रहता है दिमाग में, और बी से सी में जाते हैं, तो पिछला चलता रहता है, और ये जानते हुए कि मैं अभी जो कर रही हूँ, इसमें पूरा करना है। लेकिन फिर भी पिछला चलता रहता है क्योंकि उसको अच्छे से नहीं किया, और ये एक तरह की मसल मेमोरी बन गई है — हमेशा पिछले में जीने की, या फिर जो आने वाला है वो दिमाग में चलता रहता है। तो इसको कैसे दूर करूँ?

मतलब, ये आपके सत्रों से जुड़ के काफी हद तक समझा है कि ये मेरी गलती है। और जैसे बहुत सारी चीज़ें जीवन में लाई, बहुत कुछ बदला है फिर भी ये जो चीज़ है कि खो जाती हूँ, कि जहाँ पर हूँ, वहाँ 100% नहीं दे पाती हूँ।

आचार्य प्रशांत: जब आप बी पर हैं, जो की याद आ रही है, वो तो एक तरह का कम्पेन्सेशन है, मुआवज़ा है। कि जब पर थे, तो को जो ध्यान देना चाहिए था दिया नहीं, तो बी पर जाने के बाद की याद आ रही है। ये लगभग वैसा ही है कि किसी व्यक्ति के चले जाने के बाद उसको याद करना — कहना, "बड़ा अच्छा आदमी था।" उतना अच्छा आदमी था, तो उसके साथ संबंध में वो गहराई क्यों नहीं रखी जब तक वो था?

असली मुद्दा ये है कि क्यों नहीं रखी गहराई के साथ जब तक मौजूद है सामने? वहाँ हमें डर लगता है, वो एक तरह का डर है। हम सोचते हैं न कई बार कि हम आलसी हैं या सिर्फ़ अनाड़ी हैं इसीलिए हम किसी भी काम में डूबते नहीं हैं, लोग असफल हो जाते हैं। छात्र होते हैं वो असफल हो जाते हैं, वो पढ़ाई नहीं कर पाते ठीक से। लोग नौकरी करते हैं, नौकरी नहीं कर पाते ठीक से। काम में डूब नहीं पाते।

जो वजह है, वो कौशल, स्किल वग़ैरह का अभाव नहीं है, उसकी ज़्यादा गहरी वजह मनोवैज्ञानिक है। काम में डूबने के लिए भी अहंकार को थोड़ा अलग रखना पड़ता है। देखो, अहंकार का काम होता है बार-बार आपको अपनी सुरक्षा के लिए याद दिलाते रहना — याद दिलाते रहना, याद दिलाते रहना। और कहीं आप डूबोगे, तो आपको स्वयं से ज़्यादा उस विषय को याद रखना होगा, डूबने के लिए ज़रूरी होता है कि अहंकार को भुलाया जाए।

अच्छा, ऐसा कितनों के साथ हुआ है कि कोई ऐसी चीज़ याद रखना चाह रहे थे जो ज़रूरी लगती है — ठीक है? — और उसको लगभग हर मिनट, दो मिनट याद रखना चाह रहे थे। उदाहरण के लिए, प्लेटफॉर्म पर खड़े हैं और कोई ट्रेन आती है, और पता नहीं किस प्लेटफॉर्म पर आएगी, और वो दो ही मिनट रुकती है, चली जाती है। तो लगातार याद रखना चाह रहे थे कि कोई अनाउंसमेंट तो नहीं हो रही, या कुछ ऐसा तो नहीं हो गया? और फिर किसी से बात करने लग गए, और पाँच मिनट उससे बात कर डाली। और फिर अचानक याद आया कि कुछ याद रखना था, जो इन पाँच मिनट में याद नहीं रखा, और एकदम जैसे बिजली छू गई हो — कि ये क्या, कोई गलती कर दी?

ये समझ रहे हैं, मैं किधर को इशारा कर रहा हूँ?

अहंकार वैसे ही होता है। वो चाहता है, "मुझे लगातार याद रखो, मुझे लगातार याद रखो।" या घर में बच्चा है छोटा, कुछ बीमार है या कुछ है, तो उसको लगातार हर दो मिनट में जाकर देखना होता है कि ठीक है कि नहीं है। कभी टीवी पर कुछ देखने लग गए, या फोन पर किसी से बात करने लग गए और 5–7 मिनट बात चल गई, और बाद में अचानक याद आया कि पिछले 5–7 मिनट में, मैंने इसका विचार नहीं किया है — बच्चे का — और एकदम फिर वही जैसे बिजली छू गई हो।

इस तरह के हुए हैं अनुभव?

जब आप बोलते हैं न कि, "ओ शिट, वो तो रह गया!" — हुए हैं? ये तो ऐसी चीज़ें थीं जो आती हैं, जाती नहीं। कि बच्चे की चलो आज तबियत खराब है, कल नहीं होगी या प्लेटफॉर्म पे अभी खड़े हैं, बाद में नहीं खड़े होंगे। अहंकार लगातार साथ रहता है, और वो चाहता है कि "मुझे ही दो पहली वरीयता, किसी भी और चीज़ से या काम से पहले, और ज़्यादा मुझको याद रखो।" कुछ और याद रख सकते हो, पर मेरे बाद।

अब आपको डूबना है में, तो सचमुच डूबने के लिए को याद रखना पड़ेगा और “आई” को भूलना पड़ेगा। "आई" ये होने नहीं देता। नतीजा ये रहता है कि से आपका जो एंगेजमेंट होता है, वो कभी पूरी तरह गहरा नहीं हो पाता। इधर "आई" बैठा है। उसका इरादा ही यही है कि "आई" याद रहे, बाद में आए।

"आई, ए, आई, ए, आई, ए।"

तो वो को अपना दुश्मन मानता है। को दबा के रखता है कहता है, "मुझे याद रखो, उसको याद मत रखना।" तो इसीलिए आप किसी भी काम में स्किल्ड भी नहीं हो पाते। हाँ, जब आप बी में चले जाते हो, तो अब "आई" को खतरा किससे है? बी से। से खतरा नहीं रहा। तो वो अब को छूट दे देता है कि अब तू याद आ जा।

तो अब बी के सामने एक नहीं, दो दुश्मन हैं। "आई" तो है ही इटरनल दुश्मन। अब भी दुश्मन है। क्यों? — क्योंकि को आपने तब नहीं याद रखा था जब याद रखना चाहिए था। तो अब आ जाता है, "देखो बेटा, मेरे बारे में तुमने ये नहीं किया, मेरे बारे में वो नहीं किया।" समझ में आ रही है बात? जैसे कि किसी दिन सुबह की पारी में भूगोल की परीक्षा हो। शाम की पारी में गणित की परीक्षा हो। भूगोल बर्बाद कर लिया। उसके बाद जब गणित लिखने बैठे, तो?

श्रोता: भूगोल याद आ गया।

आचार्य प्रशांत: भूगोल याद आ रहा है, और बैठ के कह रहे हैं, "शिट! उस वाले में क्या करा है मैंने ये? अरे यार! पूरा एक सेक्शन ही छोड़ दिया क्या?" और पेपर सामने अब किसका रखा है? और घड़ी कर रही है: टिक-टिक-टिक- टिक।

ये हमारी ज़िन्दगी है। ज़िन्दगी इसलिए है क्योंकि भूगोल में डूबते, तो ये जो भीतर है — गोल-गोल — ये गोल हो जाता। इसने गोल होने नहीं दिया मामला।

हम डरे हुए हैं, समझिए। जितना आप उस डर को देख पाएँगे, उतना उससे आज़ाद होते चलेंगे।

हमें बार-बार ये लगता है कि कुछ अनिष्ठ हो जाएगा, लगता ही रहता है। और उस अनिष्ठ को रोकने के लिए, हम दुनिया में किसी भी काम में डूब नहीं पाते। मैंने विशेषकर गृहिणियों को देखा है। उनसे बोलो, "अच्छा, कल इतने बजे यहाँ चलेंगे?" अपनी माँ को ही देखा है। मेरे पास समय नहीं होता, जब कभी मैं समय निकाल के जाऊँ — 10 दिन, 15 दिन में — "मम्मी, मैं आ रहा हूँ।" यहाँ आया — “चलिए बाहर चाय पीने चलेंगे।"

वो एकदम हड़बड़ा जाती हैं, जबकि उनके पास अब कोई काम नहीं है, कुछ भी नहीं है। "कि नहीं, बहुत काम पड़ा है, जाना होगा, देखना पड़ेगा, ऐसे अचानक बता देते हो, तरीक़ा नहीं, तुम तो खाली बैठे हो, हम थोड़ी खाली।"

तो मैं पूछूँगा, "क्या काम है? क्या काम है?" — काम नहीं है पता। और ज़्यादा ज़ोर देकर पूछोगे, तो चिढ़ और जाएँगी। पर लगातार मन में एक भाव है कि कुछ काम है और काम सचमुच है, पर वो काम वो नहीं है जो आप सोच रहे हो। वो बस ये है — कि काम है।

"आई, आई"

वो काम कोई अच्छा काम करने नहीं देता।

आपके साथ होता है — कोई अचानक से आकर बोल दे, अभी आपको बोल दिया जाए — मान लीजिए, "आप सबके लिए खुशखबरी है। आपको आज यहाँ यूँही नहीं बुलाया गया है। आप सब, जितने लोग आए हुए हो, सबके गोवा के टिकट तैयार हैं, और आज रात की 11:00 बजे की फ्लाइट है। सत्र खत्म होते ही बाहर एक बस खड़ी होगी हम सब लोग गोवा जा रहे हैं।"

अरे देखिए, अभी पसीने छूटने लग जाएँगे और हालत ख़राब हो जाएगी। और पूछूँगा, "क्या काम है? क्यों नहीं जा सकते?" कोई जवाब नहीं आएगा। कुछ नहीं, कोई जवाब नहीं।

इंटरनेट का ज़माना है, फोन है, किसी को बताना है तो वॉइस या वीडियो कॉल कर लो और यहाँ से क्या करनी है? वहीं से कर लेना। और किसी की बहुत चिंता है, तो उसको भी वहाँ बुला लो। क्या समस्या है? कोई समस्या नहीं निकलेगी। बस ये लगेगा लेकिन — कि कुछ छूट रहा है। ये भाव है —

श्रोता: “कुछ छूट रहा है।”

आचार्य प्रशांत: “दया, कहीं तो कुछ।” — ये अहंकार है। इसे अपनी उपस्थिति का एहसास कराना है हर समय। बस — सेल्फ इंपॉर्टेंस। "मैं बहुत आवश्यक हूँ, मज़बूत हूँ, ज़रूरी हूँ मैं और मेरे पास, मेरे अपने काम हैं, ढर्रे हैं, वरीयताएँ हैं — और कुछ और आ गया तो बड़ी गड़बड़ हो जाएगी।" वो कुछ भी और नहीं आने देगा।

दिनभर सोचते हो आप, कई बार अकेले बैठे-बैठे बड़बड़ाते हो आप। उसकी कोई भी महत्ता है? कोई उपयोगिता है? पर जब आप सोच रहे हो, आप बड़बड़ा रहे हो, तो आपको यही लग रहा है कि हम कितना ज़रूरी काम कर रहे हैं। यही अहंकार है। ये आपको कुछ नहीं करने देगा, ये कुछ सीखने नहीं देगा। ये आपके हर काम में बाधा बनेगा।

जिनको हम प्रवेश परीक्षाएँ वग़ैरह बोलते हैं, जिनको हम बहुत कठिन काम कहते हैं सीखने के संदर्भ में — कि "अरे, ये सीखना तो बड़ा मुश्किल हो गया।" वैसे — "अरे बाप! क्वांटम मेकैनिक्स ओ बाप रे! बाप रे बाप! — जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी!” ये सब बहुत आसान है।

अगर आप कुछ दिनों या हफ्तों के लिए अपने आप को भूल सको — कुछ नहीं है ऐसा इसमें कि इंसान से बाहर की बात है या बाप रे! पर ये शब्द ही हमारे लिए बिल्कुल बम जैसे हो गए कि बहुत बड़ी बात हो गई, बड़ी नहीं बात।

या भगवत गीता ही है। अरे, गीता हमें कहाँ समझ में आए? इंसानों के लिए ही कही गई है, हमारे लिए ही कही गई है। पर जब हम गीता के साथ भी होते हैं, तो गीता से पहले अपने साथ होते हैं, तो इस मारे फिर गीता समझ में नहीं आती।

अपने आपको थोड़ा असुरक्षित छोड़ना सीखिए, कुछ नहीं चला जाएगा आपका।

मैं देवियों को जानता हूँ जिन्होंने बोला हुआ है, "हम ट्रेन में सो नहीं पाते।" अच्छा, समझ में आता है — आप जनरल कंपार्टमेंट में चल रहे हैं तो, नहीं "ट्रेन में तो मैं जब भी चलती हूँ, तो मैं तो टू-टियर एसी या कई बार तो फर्स्ट क्लास में चलती हूँ।" तो वहाँ तो सब बंद होता है। आपकी अपनी बर्थ है — सोइए आराम से, अपना रजाई डाल के। क्या समस्या है?

"नहीं, हर आधे घंटे में नींद खुलती है और ऐसे-ऐसे देखते हैं।"

"क्या गहना-ज्वेलरी बहुत ले के साथ चलती हैं?"

"बोले, नहीं गहना-ज्वेलरी मैं पहनती नहीं।"

"तो क्यों नहीं?"

"बस हमें लगता है कुछ है।"

दीदी, अब कुछ नहीं है, आप 45 की हो चुकी हो। गहना-ज्वेलरी तुम ले के नहीं चल रही, और कुछ है नहीं — तो सो लो न चुपचाप। वही ले लो — नींद के मज़े ले लो। उन्हें लगातार आधे घंटे में लग रहा होता है, "कुछ है, कुछ नहीं है।" अहंकार है — सेल्फ इंपॉर्टेंस। अपने आप को असुरक्षित छोड़ना सीखिए, सीखिए। कुछ नहीं हो जाएगा।

और थोड़ा बहुत कुछ हो भी गया, तो जितनी-जितनी आप आशंकित हो, उससे कम ही होगा। और एक–दो बार चोट खा लेना भी ठीक है, बजाय जीवन भर डरे रहने के।

मैंने ये खुद देखा है — बचपन में। उनकी बिटिया है — वो बोल रही है, "बाहर साइकिल चलाने जाना है।" जाड़े के दिन हैं, जल्दी सूरज ढल गया है। तो बोल रही है, "नहीं, साइकिल चलाने जाना, नहीं जाना, नहीं जाना।" तो वो पाँव पटक रही है, बोल रही है, "नहीं! क्यों नहीं जाना है, क्या है बाहर क?" तो बोले, "नहीं, वो आएगा और चोटी काट के ले जाएगा।"

ये क्या जवाब है? "वो आएगा, वो चोटी काट के ले जाएगा?" चोटी काट के क्यों ले जाएगा? चोटी का क्या है? कुछ हो जाएगा? और मैं कुछ समझ रहा हूँ — हज़ार में से एक किस्सा हो जाता है, — उसके लिए बाकी नौ सौ निन्यानवे दहशत में रहें? ये तो कहीं से भी उचित नहीं है।

आपने देखा है, आप कुछ भी कर रहे होते हैं — आप गाड़ी चला रहे हो, आप टीवी देख रहे हो, ऑफिस का काम कर रहे हो, आप खाना बना रहे हो — आप जो भी कुछ कर रहे हो, एक आत्मसंवाद चलता रहता है। आप अपने साथ कुछ न कुछ गुफ़्तगू कर ही रहे होते हो। देखा ये आपने? — बंद करिए। जो कर रहे हैं, उसमें मौजूद हो जाइए। जो आप कर रहे हो न, वो महत्त्वपूर्ण है, उसके साथ रहो।

के साथ हो तो के साथ रहो। "आई–ए" के साथ मत रहो। ये विक्षिप्तता की निशानी है — आदमी ख़ुद से बात करे, अकेले में बैठे हुए हैं, पिक्चर चल रही है सामने। एक पिक्चर वहाँ चल रही है, एक पिक्चर यहाँ चल रही है। वो वाले भी सोच रहे होंगे कि इसको देख लें क्या? ये ज़्यादा रोचक है। और संस्था से जो लोग बैठे हो, जिनको बहुत ये रहता है कि हमसे फलाना काम नहीं हो रहा — उनको भी ये बताए दे रहा हूँ।

काम कठिन नहीं है, काम के रास्ते में तुम ख़ुद खड़े हुए हो। कोई भी संभाला जा सकता है, पर आई–ए नहीं संभाला जा सकता। काम हो जाएगा, पर तुम कहते हो — आई–ए का मतलब समझते हो क्या होता है? सिर्फ़ यही नहीं कि समय की बर्बादी हो रही है और ध्यान बटा हुआ है।

आई–ए का मतलब होता है कि अगर होना भी है, तो आई के तरीके से हो। काम अगर होगा भी, तो मेरे तरीके से होगा। अब काम कुछ ऐसा है कि वो अपने तरीके से होगा — तुम्हारे तरीके से नहीं हो सकता। तुम काम के बीच में अपना व्यक्तित्व खड़ा कर देते हो।

उदाहरण के लिए — आपको कोई संदेश लिखना है। वो संदेश आप वैसे नहीं लिख रहे, जैसी काम की माँग है। वो संदेश आप वैसा लिख रहे हो, जैसे आपका व्यक्तित्व है। तो फिर वो संदेश अप्रभावी हो जाएगा। आपको किसी से फोन पर बात करनी है। आप फोन पर वैसे नहीं बात कर रहे, जैसी काम की माँग है। आप फोन पर वैसे बात कर रहे हो, जैसा आपको ठीक लगता है तो अब काम नहीं हो पाएगा।

फिर आपको काम में जब असफलता मिलती है, तो आप कहते हो — "बड़ा कठिन है, बड़ा कठिन है।" कठिन नहीं है। आप बीच में आ गए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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