काम टालना अच्छा है या बुरा?

Acharya Prashant

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काम टालना अच्छा है या बुरा?
काम को टालना बुरा नहीं है, पर यह समझना ज़रूरी है कि टालने वाला कौन है और क्यों टाल रहा है। यदि टालने वाला छोटा बने रहने, डरे रहने या अहंकार बचाने के लिए टाल रहा है, तो यह गलत है। लेकिन यदि भीतर सच्चाई, प्रेम और बोध है, और इसीलिए तुम जानते हो कि कौन सा काम सही नहीं है, और उसे टालते हो, तो टालना गलत नहीं है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रोक्रेस्टिनेशन यानी काम टालने की बुरी आदत के बारे में कुछ बोलें।

आचार्य प्रशांत: नहीं, प्रोक्रेस्टिनेशन माने काम में टालमटोल करना, विलंबित करना, स्थगित करना, आवश्यक नहीं है कि अपने आप में कोई बुरी बात है। समझना होगा। किसी भी काम को टाल देना भी अपने आप में एक काम है। वो भी एक कर्म हो गया, है न?

तुमसे कोई पूछे, अभी-अभी तुमने क्या किया। तुम कहोगे, ‘मैंने एक काम को टाल दिया।‘ ठीक है? कोई काम तुमने अपने लिए अभी तय कर रखा था, उसको तुमने कल पर टाल दिया। तो कोई तुमसे पूछे अभी क्या किया, तो इसका सही जवाब ये थोड़ी होगा कि मैंने कुछ नहीं किया। इसका सही जवाब ये होगा कि मैंने अभी-अभी अपने काम को टाल दिया कल पर। तो कुछ तो तुमने किया न।

एक मूल सूत्र होता है कि कर्म को नहीं, कर्ता को देखना होता है। एक्शन से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण होता है एक्टर। डीड (कर्म) से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण होता है डूअर (कर्ता)। कर्म से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण होता है कर्ता। ये अलग बात है कि कर्ता तो अंदर छुपा हुआ है, उसका कुछ पता तो चलता नहीं। तो कर्ता की पहचान करने के लिए हमको परीक्षण किसका करना पड़ता है? कर्म का। लेकिन कर्म का परीक्षण भी करा इसीलिए जाता है ताकि कर्ता की सही-सही पहचान हो सके। ठीक है?

तो प्रोक्रेस्टिनेशन माने विलंबन भी एक कर्म है। इसके पीछे प्रोक्रेस्टिनेटर कौन है, टालमटोल करने वाला कौन है? विलंबनकर्ता कौन है? वो क्यों टाल रहा है काम को, ये समझना ज़रूरी है।

देखो, अगर भीतर जो टालने वाला है, वो कोई डरी हुई शह है या अपना ही बुरा चाहने वाली शह है, हिंसा से घिरा हुआ कोई केंद्र है भीतर, जो किसी चीज़ को टाल रहा है तो वो जिस चीज़ को टाल रहा है, वो निस्संदेह टालने लायक नहीं रही होगी, कोई अच्छी ही चीज़ रही होगी।

ऐसे मामलों में टालकर के बुरा किया तुमने क्योंकि जिस चीज़ को तुम टाल रहे थे, वो चीज़ तुम्हारे लिए अच्छी थी। तुमने उसे टाला ही इसीलिए क्योंकि वो चीज़ तुम्हारे लिए अच्छी थी और तुम्हारी नीयत है छोटा बने रहने की, बुरा बने रहने की, डरे रहने की, अपने अहंकार को बचाए रखने की। ये नीयत है इसलिए टाला।

जो टालने वाला है, वो ग़लत है इसीलिए वो सही चीज़ को टाल रहा है। एक मामला तो ये हो सकता है। लेकिन इसके विपरीत एक दूसरी बात भी हो सकती है। दूसरी बात ये हो सकती है कि भीतर से तुम सही हो। भीतर तुम्हारे सच्चाई है, भीतर तुम्हारे प्रेम है, बोध है। तुम जान रहे हो कि तुम कौन हो और इसीलिए तुम्हारे लिए क्या करना ठीक है, क्या करना ठीक नहीं है। चूँकि तुम्हें पता है क्या करना ठीक नहीं है, इसलिए जो ठीक नहीं है उसको तुमने टाल दिया। अब प्रोक्रेस्टिनेशन बुरा बिल्कुल भी नहीं है।

तो लोग बार-बार ये सवाल लेकर के आते हैं कि प्रोक्रेस्टिनेशन-प्रोक्रेस्टिनेशन बुरी चीज़ है, बुरी चीज़ है। नहीं, अपने आप में बिल्कुल भी बुरी चीज़ नहीं है। ख़याल तुमको आ रहा है कि किसी का सिर फोड़ दूँ अभी और इस ख़याल से तुम आज़ाद नहीं हो पा रहे हो। टाल दो न, क्या बुरा है! जो चीज़ करने लायक़ नहीं है, उसको टाल दो।

साल-दो-साल पहले का मेरा वीडियो था, आप लोगों ने पसंद भी खूब किया था, जिसमें बार-बार एक लड़का आकर के पूछे, ‘वासना बहुत सताती है, वासना बहुत सताती है।‘ तो मैंने उसको कहा था कि तुम उससे कहा करो, ‘ओ स्त्री! कल आना।‘ ये क्या है? ये प्रोक्रेस्टिनेशन ही तो है। टाल दो।

भीतर-ही-भीतर तुमको पता है कि सही क्या है। लेकिन बाहर जो सही नहीं है तुम्हारे लिए, जो ग़लत है तुम्हारे लिए, वो तुमको निमंत्रण दे रहा है, आकर्षित कर रहा है, बुला रहा है। और तुम पा रहे हो कि ये जानते हुए भी कि क्या सही है, तुम उस आमंत्रण को सीधा-सपाट ठुकरा नहीं पा रहे। तो फिर उसको क्या करो? टाल दो। कि ‘हाँ ठीक है, हम आएँगे, आप बुला रहे हैं तो हम आएँगे; आज नहीं, कल आएँगे।‘

तो ये जो प्रोक्रेस्टिनेशन है, ये अपने आप में तुम्हारा दोस्त भी हो सकता है। तुम जानते हो कोई काम निस्संदेह आवश्यक है। अब नींद आ रही है, दो चीज़ें हो सकती हैं, या तो काम टाल दो या नींद टाल दो। दोनों ही स्थितियों में तुमने कुछ-न-कुछ तो टाल ही दिया न। तो मुझे बताओ टालना बुरा कैसे हो गया? टालना सिर्फ़ तब बुरा है जब तुमने नींद के चलते काम को टाल दिया। पर काम के चलते अगर तुमने नींद को टाल दिया तो बिल्कुल बुरा नहीं है।

बात समझ में आ रही है?

तो ये देखो कि टालने वाला कौन है। टालने वाला अगर ग़लत है तो वो हर सही चीज़ को टाल रहा होगा।

एक सज्जन आए, वो बोले कि मेरे एक दोस्त हैं, उनको मैं बोला करता हूँ कि चलिए आचार्य जी के सत्रों में चलिए। बोलते हैं, ‘हाँ-हाँ, हाँ-हाँ, बिल्कुल आप इतनी प्रशंसा करते हैं तो आचार्य जी कुछ बहुत ही ऊँची बात बोलते होंगे और मैं ये भी देख रहा हूँ कि जब से आपने आचार्य जी को सुनना शुरू किया है, आपका जीवन बेहतर हो गया है, आप हर तरीक़े से एक बेहतर इंसान हो गए हैं। काम में आपकी प्रवीणता बढ़ गई है, आपके रिश्ते बेहतर हो गए हैं। ये सब मैं देख रहा हूँ।‘ तो कहते हैं, ‘आप ये सब देख रहे हैं तो चलिए, आप भी साथ में चलिए।‘ अपने दोस्त से ऐसा कहते हैं वो। तो दोस्त महाराज क्या फ़रमाते हैं? बोलते हैं, ‘हाँ, चलूँगा-चलूँगा, अगले सत्र में चलूँगा, अगले सत्र में चलूँगा।‘

कब चलूँगा? अगले सत्र में चलूँगा। ये भी प्रोक्रेस्टिनेशन है। यहाँ क्या टाला जा रहा है? यहाँ बेहतरी का मौक़ा टाला जा रहा है। क्यों बेहतरी का मौक़ा टाला जा रहा है? क्योंकि भीतर से तुम क्षुद्र हो, क्षुद्र माने छोटा। भीतर से तुम संकुचित हो, भीतर से तुम डरे हुए हो, भीतर से तुम अपनी पुरानी धारणाओं में जकड़े हुए हो और तुम वैसे ही बने रहना चाहते हो। इसीलिए सुधरने और आगे बढ़ने का जो मौक़ा आ रहा है, उसको तुम टाल रहे हो, प्रोक्रेस्टिनेट कर रहे हो।

ये बात आज सबको स्पष्ट हो जाए, क्योंकि जब भी कभी सवाल पूछा जाता है कि प्रोक्रेस्टिनेशन बीमारी है, तो तत्काल समाधान देने वाले लोग समझाना शुरू कर देते हैं कि प्रोक्रेस्टिनेशन की बीमारी को ऐसे ठीक करिए। आदत लगी हुई है प्रोक्रेस्टिनेशन की तो ऐसे ठीक करिए। वो कभी ये पूछते ही नहीं कि तुम क्या टाल रहे हो और क्या बनकर टाल रहे हो। सही हो तो ग़लत को टालोगे, ग़लत हो तो सही को टालोगे। तो ये देखो न पहले कि तुम हो कौन।

अगर तुम सही हो तो प्रोक्रेस्टिनेशन बहुत अच्छी चीज़ है। फिर भूल जाओ कि तुम क्या कर्म कर रहे हो। कर्ता सही हो गया न, कर्ता सही हो गया तो कर्म उसका कैसा भी हो, ग़लत हो ही नहीं सकता। तुम सही हो जाओ पहले, उसके बाद तुम्हारी टालमटोल भी शुभ हो जाएगी।

कोई परिपक्व इंसान हो, जिसके मन में गहराई हो, जिसके दिल में प्रेम हो, उसको अगर कभी टालमटोल करता पाओ तो समझ लेना कि बिल्कुल ठीक कर रहा है। ये किसी ऐसी चीज़ को टाल रहा है जो करने लायक़ ही नहीं है, इसीलिए तो टाल रहा है।

दूसरी ओर अगर किसी ऐसे इंसान को टालमटोल करते पाओ जिसको तुम जानते हो कि अभी मन का उथला है, उसकी चेतना में अभी परिपक्वता नहीं आई है, अल्हड़ सा ही है, सोच में उसकी कोई गहराई नहीं है, प्रेम और करुणा का कोई स्पर्श नहीं हुआ है उसको। ऐसे इंसान को अगर तुम पाओ टालमटोल करते तो समझ लेना कोई बिल्कुल जायज़ और अनिवार्य चीज़ होगी, बिल्कुल सही चीज़ होगी, ये उसी को टाल रहा होगा क्योंकि ये बंदा ही ग़लत है।

अगर इंसान ही ग़लत हो तो वो किस चीज़ को अनिवार्य रूप से टालेगा? जो कुछ भी सही होगा। तो ये देखो भी मत कि वो किस चीज़ को टाल रहा है। ये जान लो कि अगर ये इंसान ग़लत है तो सही चीज़ को टाल रहा होगा। तो आप अपना ध्यान इस बात पर कम लगाएँ कि टालने की आदत से मुक्ति कैसे पाएं। आप अपना ध्यान इस बात पर ज़्यादा लगाएँ कि आप कौन हैं।

ये जो टालने वाला केंद्र है भीतर, जो टालने की भावना और इच्छा उठ रही है भीतर से, वो क्यों उठ रही है? किसकी सुरक्षा की ख़ातिर आप अपना काम टालना चाहते हैं, इरादे क्या हैं भीतर? क्योंकि टालने के पीछे हमेशा कोई इरादा होता है।

भूलना नहीं, काम भी टाला जा सकता है और नींद भी टाली जा सकती है। लेकिन दोनों मामलों में इरादे बहुत अलग-अलग होंगे। पूछो यही कि टालना तो चाहते हो, इरादा क्या है? इरादा अगर शुभ है तो बेशक टाल दो। टालना फिर शुभ हो जाएगा। ठीक है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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