काम बिगड़ते हैं क्योंकि तुम बहुत ज़्यादा करने की कोशिश करते हो || आचार्य प्रशांत, छात्रों के संग(2012)

Acharya Prashant

6 min
58 reads
काम बिगड़ते हैं क्योंकि तुम बहुत ज़्यादा करने की कोशिश करते हो || आचार्य प्रशांत, छात्रों के संग(2012)

प्रश्नकर्ता: सर, सच्चा आनंद क्या है जीवन में?

आचार्य प्रशांत: झूठा आनदं भी कुछ होता है?

होता है, तुम्हें झूठे आनंद की ऐसी लत लगाई गई है कि अब तुम्हें पूछना भी होता है तो पूछते हो, ‘सच्चा आनंद क्या है?’, तुम्हें किसी से बोलना भी होता है कि प्रेम करते हो तो तुम जाकर बोलते हो, ‘मैं तुमसे सच्चा प्रेम करता हूँ’, तो सच्चा प्रेम तो वही बोल सकता है जिसने झूठा बहुत किया हो! जिसने मात्र प्रेम जाना हो वो तो कहेगा नहीं कि मैं सच्चा प्रेम करता हूँ, पर झूठा तुमने इतना ज्यादा जाना, और ऐसी आदत लगी है, कि वैसी ही बात कि मैं तुमसे कहूँ कि ‘ज़रा पानी लाना पीने का’ , और फिर कहूँ, *‘साफ़ लाना’*।

अरे पानी मंगा रहा हूँ तो साफ़ ही लाओगे! पर अगर मुझे शक है कि खुराफात होगी तो मैं कहूँगा कि ‘जरा साफ़ लाना’ , नहीं तो ये कहने का क्या प्रयोजन कि साफ़ लाना! अरे पानी है पीने का तो साफ़ ही होगा।

श्रोता: सर, हमें वर्तमान में रहना है और उसके हिसाब से काम करना है…

आचार्य जी: वर्तमान ही काम है, बिना वर्तमान में रहे तुम काम कैसे करोगे, लेकिन तुम बिना वर्तमान में रहे काम करते हो, कैसे?

फिर तुम जो काम करते हो वो तुम अपनी सोच के मुताबिक करते हो, सोच कभी वर्तमान में नहीं होती है, विचार कभी भी वर्तमान में नहीं होते, अगर तुम समझते हो तो काम अपने-आप होगा, अगर सच में समझते हो तो काम अपने-आप होगा, तुम्हें काम करने का प्रयास नहीं करना होगा।

फिर कहोगे, ‘सर ये भी उलटा हो गया, हमें बचपन से सिखाया गया है कि मेहनत बड़ी बात है, खूब श्रम करना चाहिए ‘रसरी आवत-जात ते, सिल पर परत निशान’ और आप बोल रहे हो कि प्रयास की ज़रूरत नहीं है सिर्फ समझ लो, हमें मोरल साइंस में पढ़ाया गया था कि मेहनत सफलता की कुंजी है।’

काम होता है।

काम है क्या?

तुम साँस ले रहे हो, ये काम हैच तुम यहाँ से वहाँ जाते हो; वो काम हो रहा है। लेकिन तुम्हारी भाषा में काम तभी काम है जब वो थका दे, और ऊब पैदा कर दे। तुम जाते हो और क्रिकेट खेलते हो, तुम्हें आनंद आया, क्या तुम उसे काम कहते हो? पर तुम काफ़ी ऊर्जा जलाते हो, पता नहीं तुम कितने हज़ारों, लाखों जूल्स उड़ा देते हो क्रिकेट खेलने में पर क्या तुम उसे काम बोलते हो?

उतनी ही ऊर्जा अगर तुम दिन में बाज़ार में कुछ काम करते हुए बिताओगे तो तुम कहोगे आज बड़ा काम किया, तुमने उसके बराबर ही कैलोरी जलाए खेलने में, पर क्योंकि वो तुम किसी प्रयोजन से नहीं कर रहे हो, वो तुम किसी लक्ष्य से नहीं कर रहे हो, खेलना अपना संतोष आप है, इसलिए तुम्हें उसमे थकान नहीं लगती, इसीलिए तुम उसे काम नहीं बोलते।

जीवन खेल होना चाहिए या काम होना चाहिए? कैसा जीवन चाहोगे?

खेल ना?

या ऐसा जीवन चाहोगे कि शाम को आ रहे हो ऑफिस से और बोल पड़ते हो, ‘काकू, रामू, चामू की अम्मा चाय मिलेगी क्या?’ , नहीं ये सब तुम्हारे काम’ के नतीजे हैं, तुम्हारा काम ऐसा ही होता है, काकू, रामू, चामू!

या ऐसा जीवन चाहते हो जो उल्लास में बीते?

खेल के आते हो और थके भी रहते हो तो रोना शुरू कर देते हो?

‘कैसी ज़िन्दगी है! इतना थकना पड़ता है!’

तुम में से कितने लोग खेलने के बाद खूब फूट-फूट कर रोते हो?

‘कि आज इतनी कैलोरीज जला दी! हे! ईश्वर उठा ले मुझे आज!’

फूटबाल खेली और खूब रोना आया हो, ‘ऐसे जीवन से मृत्यु बेहतर है!’ , कितने लोग रोए हो खेलकर?

खेलकर इसीलिए नहीं रोते क्योंकि उसमें कोई लक्ष्य नहीं है, भविष्य की कोई इच्छा नहीं है, जो है बस है, अभी है, अभी खेला, अभी खुश हो लिए किसी को रिपोर्टिंग नहीं करनी है, और यदि जब उसमें भी रिपोर्टिंग आ जाती है कि क्यों खेल रहे हो?

‘क्योंकि ट्रॉफी जीतनी है!’

तब फिर क्रिकेट भी काम बन जाता है, फिर वो भी थकाता है, फिर उसमें भी तनाव होता है।

समझने से सहज रूप से क्रिया होती है ये डरने की बात नहीं है कि, ‘अगर मैं टारगेट नहीं बनाउँगा तो में काम कैसे करूँगा’ , तुम समझो और वर्तमान में मौजूद रहो, उस मौजूदगी से भी अपने-आप क्रिया घटेगी और वो बहुत सुंदर रूप से घटेगी। तुम कोशिश करके जैसा काम करते हो उससे बेहतर होगा जब तुम कोशिश नहीं करोगे, तुम सिर्फ उपलब्ध रहोगे काम हो जाने के लिए। पर तुम्हें कोशिश की लत लगी हुई है कि ‘नहीं सर! जब तक मैं करूँ नहीं तो होगा कैसे? मेरे करे बिना हो कैसे जाएगा? भूत आएँगे क्या?’ मैं तुमसे कह रहा हूँ, तुम्हारे काम बिगड़ते ही इसीलिए हैं क्योंकि तुम बहुत ज्यादा करने की कोशिश करते हो; कम करो, समझो ज्यादा और उस समझने से क्रिया अपने-आप निकलेगी और वो प्लेफुल क्रिया होगी, वो काम नहीं लगती फिर, वो खेल हो जाती है। समझ के जो तुम करते हो वो खेल बन जाता है, काम करना है या खेलना है?

खेलना है? तो खेलने की कीमत ये है कि ‘समझो’, और समझने की कीमत क्या है? अटेंशन। अभी सुबह-सुबह बर्ड सैंक्चुअरी घूम के आया, तो उसमें कुछ पक्षी थे जिन्होंने अपने घोंसले वगैरह बना रखे थे, इतने सुंदर और इतने महीन कारीगरी करने के लिए आदमी को बहुत वक़्त लग जाएगा और बड़ी कमिटी बैठानी पड़ेगी, विशेषयज्ञों की टीम बैठानी पड़ेगी कि ऐसा बना दो, और पक्षी कैसे बना देता है?

खेल-खेल में! वो राम दुहाई नहीं देता, ‘इतना बड़ा घोसला बना दिया और अभी तक सैलरी भी नहीं मिली!’

आदमी बनाएगा तो कहेगा, ‘पहले बताओ कितना पैसा?’ फिर चार लोगों की कमिटी है तो वो एक-दूसरे को कहेंगे कि तुम्हारा ये काम, तुम्हारा ये काम और जब वो बर्बाद निकले घोंसला तो वो कहेंगे कि ‘ये नालायक था! मैंने तो काम पूरा करा, मेरा तो पूरा पेमेंट कर दो।’

पक्षी पेमेंट नहीं मांगता वो अपने मज़े के लिए कर रहा है, और ऐसा सुंदर बन कर निकल रहा है जो आदमी की मेहनत से कभी नहीं बन सकता क्योंकि वो उसके लिए खेल है, खिलवाड़ है।

शब्द-योग सत्र से उद्धरण। स्पष्टता के लिए सम्पादित।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories