काल में रहते हुए अकाल को कैसे याद रखें || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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काल में रहते हुए अकाल को कैसे याद रखें || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, नितनेम साहिब ग्रन्थ को ध्यान में रखते हुए आज का मनुष्य समय में रहते हुए समयातीत को कैसे याद रख सकता है?

आचार्य प्रशांत: कह रहे हो समय में रहते हुए समयातीत को कैसे याद रखें? समय परेशान करेगा इसलिए समयातीत को याद रखना पड़ेगा; समय ही तो विधि है। समय द्वारा दी जा रही परेशानी और समयातीत के प्रति तुम्हारा प्यार; इन दोनों के अतिरिक्त कोई विधि हो सकती है क्या?

समय तुम्हें अगर परेशान करता हो तो तुम ज्ञानमार्गी हो जाओ। समयातीत से अगर तुम्हें प्रेम है तो तुम प्रेममार्गी हो जाओ। और कोई ऐसा नहीं होता जो इन दोनों में से बिलकुल किसी एक पाले में पड़ता हो। सब ऐसे होते हैं जिनको समय परेशान भी करता है और समयातीत आकर्षित भी करता है। इसीलिए हम सबको ‘ज्ञानप्रेम मार्गी' ही होना पड़ेगा। हम सबको ‘ध्यानीभक्त’ होना पड़ेगा।

बात समझ पा रहे हो?

समय परेशान करता है कि नहीं? ये जो पूरा प्रवाह है समय का, बदलाव का, ये भीतर लहरें पैदा करता है न? विक्षेप पैदा करता है न? तो समय से ज़्यादा उपयुक्त तुम्हें क्या विधि चाहिए बताओ?

तुम्हारी बात ऐसी है कि जैसे किसी के शरीर में खुजली हो और वो पूछे कि डॉक्टर के पास जाना याद कैसे रहे? तो मैं कहूँगा, खुजली ही तो विधि है। खुजली जब उठे तब तुम्हें ख़ुद ही स्मरण आ जाएगा कि चिकित्सक चाहिए।

इसी तरीक़े से समय ही तो विधि है। समय माने खुजली; समय माने तमाम तरह के झंझट। समझ रहे हो? समय माने जो अभी है वो थोड़ी देर में नहीं होगा; समय माने तुम्हारी उम्मीदों का टूटना; समय माने अप्रत्याशित बदलाव; समय माने क्रोध; समय माने काम; समय माने अवस्थाओं का बदलना। यही सब तो परेशान करते हैं न तुम्हें? समय और क्या है?

जब तुम कहते हो कि दोपहर में एक बजा था, अभी रात का नौ बजा है, तो क्या आशय होता है तुम्हारा? बहुत कुछ है जो बदल गया। कहते हो, दो-हज़ार-पन्द्रह साल चल रहा था और दो-हज़ार-उन्नीस है अब, तो क्या मतलब है तुम्हारा? पाँच, नौ हो गया, ये मतलब है? न, बहुत कुछ बदल गया। और ये जो बदलाव है, यही तो तुम्हें चैन से जीने नहीं देता। जब चैन से नहीं जिओगे तो अपनेआप ही चैन की याद आएगी न।

वियोग ही विधि है, परेशानी ही विधि है, पीड़ा ही विधि है, बेचैनी ही विधि है। समय में रहते हुए समयातीत को कैसे याद करें? समय में तुम्हें जो अनुभव हो रहे हैं, उनके प्रति बेईमानी मत करो।

मेरी बात सुनने से तो ऐसा लगा होगा कि अगर खुजली के मरीज़ हो तो स्वमेव ही चिकित्सक की याद आ जाएगी। ऐसा ही लग रहा होगा न? लग रहा होगा ये तो मामला बड़ा आसान है, साफ़ है, अब तो बात ज़ाहिर हो गयी कि जिसको भी कष्ट होगा वो परमात्मा को याद कर ही लेगा; पर ऐसा होता नहीं है। पूछो तो क्यों नहीं होता? क्योंकि तुम खुजली को खुजली का नाम नहीं देते, तुम खुजली को कुछ और नाम दे देते हो; अब चिकित्सक नहीं चाहिए।

अगर तुम ईमानदारी से बस कह पाओ कि 'अभी जो मेरी खाल की हालत है इसको खुजली कहते हैं', तो फिर तुम्हें चिकित्सक के पास जाना ही पड़ेगा, मजबूर होकर जाना पड़ेगा क्योंकि तुमने स्वीकार कर लिया कि तुम्हें तकलीफ़ है। अब तुम्हें जाना पड़ेगा।

पर अगर तुम खुजली को खुजली कहो ही नहीं, अगर तुम अपने को ही बुद्धू बना दो, तुम्हें हो रही है खुजली और तुम कहो, 'ये खुजली नहीं है ये हमारे भीतर का शौर्य प्रकट हो रहा है, खाल को लाल-लाल कर रहा है'। या तुम कहो कि 'ये हमारे भीतर से होली के स्वागत की तैयारी उठ रही है। खाल नहीं लाल है, लाल ये गुलाल है'। तुम न जाने कितने तरीक़े के अपनेआप को बहाने बता सकते हो। आदमी झूठ बोलने में बड़ा माहिर है, ख़ासतौर पर जब ख़ुद से झूठ बोलना हो।

अब चिकित्सक के पास नहीं जाओगे, अब तो बल्कि और दस लोगों को घोषणा करते फिरोगे कि 'देखो, हम कितने भक्त हैं, वैष्णव भक्त हैं, विष्णु का त्यौहार आ रहा है और हमारे भीतर से गुलाल उठ रहा है। तुम तो बाहरी गुलाल लगाते हो, हमारा तो भीतरी है।'

और कोई कहे, 'कहाँ है गुलाल'?

तहाँ लगे खुजाने। बोले, 'ये देखो, सब लाल'।

तुम अपनी ख़राब हालत को ख़राब मानते नहीं न, ख़राब हालत को ख़राब मान लो तो अपनेआप फिर तुम्हें सुमिरन करना ही पड़ेगा। संसार तुम्हें कष्ट दे रहा है, तुम इस बात को स्वीकार कर लो तो फिर तुम्हें “एक ओंकार” की शरण में जाना ही पड़ेगा।

अहंकार को लेकिन ये बात बहुत चुभती है कि वो मान ले कि वो रोज़ पिट रहा है, प्रति पल पिट रहा है। यही बात तो वो मानना नहीं चाहता कि उसकी हालत ख़राब है। और क्यों नहीं मानना चाहता उसकी हालत ख़राब है? तुम भलीभाँति जानते हो। क्योंकि जो भी तुम्हारी हालत है उसके ज़िम्मेदार तुम्हीं हो।

अगर तुम ये मान लो कि तुम्हारी हालत ख़राब है तो तुम्हें ये भी मानना पड़ेगा कि पूरा जीवन तुमने ख़ुद ही बर्बाद किया, तुम्हीं ज़िम्मेदार हो। इस वृत्ति से तो तुम भलीभाँति परिचित हो न। खाना तुमने बनाया हो, पूरी तरह से तुम्हारी निर्मित्ति हो भोजन और फिर कोई बोल दे कि खाना ख़राब है, तो कैसा लगता है? बुरा लगता है न? कोई चित्र तुमने रचा हो, पूरी पेन्टिंग (चित्र) तुमने बनायी और फिर कोई आकर के बोल दे कि ख़राब है, तो कैसा लगता है? बुरा लगता है न?

अपनी ही करतूत को व्यर्थ स्वीकार करना, अहम् को बहुत बुरा लगता है न? वो दो काम करेगा, या तो कह देगा कि ये चित्र बुरा है ही नहीं, ये भोजन बुरा है ही नहीं। या वो ये कह देगा कि 'अगर ये बुरा है भी तो दोष दूसरों का है। हम तो बढ़िया खाना बना रहे थे, मसाला नकली था। और घी तेल का आप पूछिए ही मत। और वो जो छिपकली गिरी इसमें, उसको क्या हमने आमंत्रण दिया था? हम बना रहे थे, ऊपर से गिर पड़ी।'

समझ में आ रही है बात?

कोई ऐसा आदमी चाहिए जिसको अहंकार से ज़्यादा अपना भला प्रिय हो। इस बात को समझना। हमें ग़ुरूर प्रिय होता है, हमें ग़ुरूर ज़्यादा प्रिय है; अपना उद्धार नहीं। हम उन लोगों में से हैं जो अपनी नाक की ख़ातिर बाक़ी सबकुछ कटाने को तैयार हो जाते हैं। हम कहते हैं, 'देखो, नाक ऊँची रहनी चाहिए'। ये हम बिलकुल भी नहीं मानेंगे कि हमने ग़लतियाँ करी हैं। और जब तुम नहीं मानते कि तुमने गलतियाँ करी हैं, तब तुम्हें सज़ा ये मिलती है कि तुम उन्हीं ग़लतियों को बार-बार दोहराते हो।

तुम चुपचाप झुककर के ये मानने को तैयार ही नहीं होते कि जो चल रहा है सब ग़लत है। ये बात ही तुम्हें बड़ी भयानक लगती है क्योंकि अगर मान लोगे कि जो चल रहा है सब ग़लत है, तो तुम्हें ये भी मानना पड़ेगा न कि बहुत बुद्धू हो तुम। तो तुमको अपना बुद्धुपना स्वीकार न करना पड़े, इसकी ख़ातिर तुम अपनेआप को प्रतिपल बुद्धू बनाते हो। ये कैसी चाल?

'तुम बेवकूफ़ हो'—ये बात तुम्हें माननी न पड़े इसलिए तुम अपनेआप को लगातार बेवकूफ़ बनाते हो। ये आदमी की ज़िन्दगी है—पहले पल से लेकर के मृत्युशैय्या तक वो ये मानेगा ही नहीं कि हम बेवकूफ़ हैं। और, और अपनेआप को बनाएगा बेवकूफ़।

न! दाल में नमक थोड़े ही ज़्यादा है; ये नयी तरीक़े की दाल है। ये हमें घाटा थोड़े ही हुआ है; हम प्रयोग कर रहे थे। आदमी मुहावरे गढ़ लेगा, सिद्धांत गढ़ लेगा, संतो के वचनों को भी अपनी भूल को छुपाने के लिए इस्तेमाल कर लेगा।

अभी कल किसी की गाड़ी ठुक गयी तो वो रुका, पीछे वाले से जाकर बोला, 'महाराज, क्या कर रहे हो, गाड़ी क्यों ठोक दी'?

पीछे वाला बोलता है, 'हरी ओम! बीती ताहि बिसार दे।'

ये तो ग़ज़ब हो गया!

तुम बस ये नहीं मानोगे कि तुमने ग़लती करी। ये मानते तुम्हें बड़ी लाज आती है और ये न मानना ही दिखाता है कि तुम अपने प्रति कितने लज्जित हो।

जो अपने प्रति गहराई से लज्जित नहीं होगा वो आसानी से मान लेगा कि वो ग़लतियाँ कर रहा है और ग़लतियाँ करता आया है। और जो अपनेआप को लेकर के बड़ी हीन भावना से ग्रस्त होगा, उसके लिए एक काम बड़ा मुश्किल पड़ेगा — अपनी ग़लती मानना। तुम्हें अगर ये पहचानना ही हो कि कौनसा आदमी हीन भावना से कितना ग्रस्त है, तो बस एक चीज़ तुम जाँच लो — वो अपनी ग़लती कितनी आसानी से स्वीकार कर लेता है।

जो हीन भावना से जितना ग्रस्त होगा वो ग़लती मानेगा नहीं और दूसरों पर सदा दोषारोपण करेगा। इसकी ग़लती, उसकी ग़लती, इसकी ग़लती, उसकी ग़लती। ये बस यही बताता है कि भीतर से बिलख रहा है, भीतर वो बड़ी क्षुद्रता से ग्रस्त है।

तुम लोग कहते हो, संत बड़ी तपस्या करते हैं, संतो का काम बड़ा कठिन है, साधना बड़ी टेढ़ी खीर है। ग़लत बात है! संत का काम तो बहुत आसान है, उसको तो बात को जस को तस कह देना है। तथाता में जीता है वो। वो देखेगा उसके जीवन में आग लगी है, तो वो सीधे कहेगा, 'मेरे जीवन में आग लगी है।'

काम मुश्किल है संसारी का, काम मुश्किल है गृहस्थ का। गृहस्थ का काम संत तो कभी कर ही न पाये, संत के छक्के छूट जाएँ, तुरंत त्यागपत्र दे दे वो। कहेगा, 'ये काम हम से नहीं होगा।'

गृहस्थ का काम जानते हो क्या है? गृहस्थ का काम है लगातार भूलों में जीना, उन भूलों को स्वीकार न करना। ये घोषणा करना कि हमारी भूलें ही तो हमारा सौंदर्य हैं, हमारी उपलब्धियाँ हैं, हमारा गौरव है। और ये घोषणा कर देने के कारण फिर अपने ही वचन से बंधकर के उन्हीं भूलों को दोहराना। क्योंकि वो भूलें तो भूलें है ही नहीं, वो भूलें तो उपलब्धियाँ हैं। अगर वो भूलें उपलब्धियाँ हैं, तो उपलब्धियों को आगे बढ़ाओ न! यही करना पड़ता है फिर बेचारे संसारी को।

फिर संसारी को ज़वाब देना पड़ेगा अगर वो अपने रास्ते बदलना चाहे। कोई पूछेगा कि कल तक तो आप कह रहे थे कि आप अभी तक जैसे जीते आये हैं वो बहुत बढ़िया था, तो अब आप नया रास्ता क्यों ले रहे हैं? नया रास्ता भी नहीं लिया जा सकता क्योंकि नये रास्ते को स्वीकार करने का मतलब होगा ये मानना की पुराना रास्ता ग़लत था।

तो न सिर्फ़ पुराना रास्ता ग़लत है बल्कि आगे भी जो कुछ करना है वो ग़लत ही ग़लत करना है, ये संसारी की मजबूरी है। उसने न सिर्फ़ ग़लत अतीत जिया है, उसे भविष्य में भी सबकुछ ग़लत ही ग़लत करना है। बिलकुल तय है कि वो कुछ ठीक कर ही नहीं सकता, ये संसारी की मजबूरी है। संत तो इस मजबूरी को कभी उठा ही न पाये।

बिलकुल भी मुश्किल नहीं है प्रतिपल सुमिरन। जिस कान्स्टन्ट रिमेम्ब्रन्स (निरंतर स्मरण) की तुमने बात करी वो बिलकुल भी मुश्किल नहीं है; दिल में ज़रा सत्यता होनी चाहिए; ईमानदारी होनी चाहिए; दुख के प्रति अस्वीकार होना चाहिए।

एक निर्मलता होनी चाहिए जो कहे — गंदगी क्यों है?। एक निर्दोष मुक्तता होनी चाहिए जो पूछे — बंधन क्यों है? एक भोलापन होना चाहिए जो चालाकी जानता ही न हो, जो कहे — अगर कुछ ग़लत है तो ग़लत ही है न। ग़लत सही कैसे हो सकता है?

हम ज़रूरत से ज़्यादा चालाक लोग हैं। हम दो और दो, आठ कर डालते हैं। हम बेड़ियों को आभूषण न सिर्फ़ बता देते हैं बल्कि आभूषण बनाकर के बेच भी देते हैं। बाज़ार चल रहे हैं ऐसे आभूषणों के। हम बहुत पहुँचे हुए लोग हैं। ऊपर वाला भी नीचे देखता है तो हैरान हो जाता है। उसकी हिम्मत नहीं पड़ती नीचे आने की।

पुरानी कहानियाँ जानते हो क्या कहती हैं? पुरानी कहानियाँ ये कहती हैं कि — कबीलाई कहानियाँ हैं, वो कहते हैं कि — परमात्मा ने जब नयी-नयी सृष्टि बनायी तो वो पहले धरती पर ही रहा करता था। फिर लोगों ने उसको लूटना शुरू कर दिया तो वो भाग गया। अब वो जान बचाकर के ऊपर बैठा रहता है, वहीं से झाँकता रहता है; कहता है, 'नीचे मामला बहुत ख़तरनाक है!'

जब फ़िल्मी गीतों पर यही श्रृंखला चल रही थी तो याद है न प्राण ने गीत गाया था — 'देते हैं भगवान को धोखा, इन्सां को क्या छोड़ेंगे।'

वो जान बचाकर भागा है ऊपर, ऐसा कुछ नहीं है कि उसको…। अंतर्यामी है, निराकार है, अरूप है, असंग है इसलिए दूर रहना है। असली बात यही समझ लो, उसको बड़ा खौफ़ है तुम्हारी दुनिया में आने से, इसलिए नहीं उतरता। तुम्हें पता भऱ अगर चल जाए परमात्मा है इधर-उधर, फिर देखो!

चालाकी मत रखो। जैसी हालत है उसको वैसा जानो, यही विधि है। क्यों ख़ुद को ही बेवकूफ़ बनाते हो?

जो मैने कहा न आदमी परमात्मा को भी लूटने को तैयार हो जाता है, वो यही है — ख़ुद को बेवकूफ़ बनाना। मन आत्मा को बेवकूफ़ बनाना चाहता है। आत्मा ही तो वो ऊपर वाला है न। तुम इतने चालाक हो कि तुम आत्मा को ही बेवकूफ़ बना देना चाहते हो।

उसके दरबार में चालाकी से ज़्यादा बड़ा गुनाह दूसरा नहीं होता। तुम भोंदू हो, तुम बेवकूफ़ हो, तुम बिलकुल ही मंदबुद्धि हो; वो तुमको स्वीकार कर लेगा। लेकिन अगर तुम चालाक हो, तो तुम्हें प्रवेश नहीं मिलने का।

प्र: आचार्य जी, समयातीत (परमात्मा) की उपासना समय में रहकर कैसे करी जाए उस विषय में जो ग्रन्थ है, जपुजी साहिब में आता है कि “आदि सच जुगादि सच है भी सच नानक होसी भी सच” इसमें जो वर्णन है “इक ओंकार” का, पूरा बीज मंत्र ही है। इस बानी पर आपसे कुछ सुनना चाहेंगे। समयातीत (परमात्मा) के बारे में जो व्यक्त करा गया है।

आचार्य: कुछ भी ऐसा नहीं है तुम्हारे संसार में जिसको समय छोड़ देगा, कुछ भी नहीं है ऐसा। वो चीज़ें भी जिन्हें तुम बहुत पक्का समझते हो, बहुत पुराना समझते हो, बहुत यथार्थ समझते हो, वो भी समय के प्रवाह में बूंदें भर हैं, लहरें भर हैं, या कह दो कोई तिनका है जो धारा पर बहा जा रहा है।

समय में कुछ उठा है तो समय उसको लील भी लेगा। और जिस चीज़ को समय लील ले वो चीज़ तुमको चैन नहीं दे सकती।

नानक साहब कह रहे हैं — “उसको याद रखो जो समय की धारा के बाहर का है। जो समय के आदि पर बैठा है, समय के मूल पर, स्रोत पर बैठा है। जो इतना पक्का है कि न अतीत उसको स्पर्श कर पाया, न ही भविष्य उसे कभी छू पाएगा। कुछ ऐसा पाना, तो उसके हो जाना। और जो कुछ है तुम्हारे पास अगर वो इस शर्त को नहीं पूरा करता, तो तुम उसमें सत्यता मत ढूंढो, तुम उससे गठबंधन मत बनाओ, तुम उसके मत हो जाओ।“

इससे पहले कि तुम मुझसे पूछो कि वो क्या है जो समय के बाहर का है? मैं कहूँगा, 'अपने हाथ तो ख़ाली करो'। तुम्हारे हाथों में वो सबकुछ भरा हुआ है जो समय का है। उसे कसौटी पर कसो तो। जाँचने के लिए तुमको सूत्र नानक साहब ने दिया। क्या है सूत्र?

आदि सच जुगादि सच। है भी सच नानक होसी भी सच।।

था, है, रहेगा। बोलो, ऐसा क्या है तुम्हारे पास?

और ऐसा कुछ नहीं है तुम्हारे पास तो सबसे पहले अपने ख़ाली हाथों को देखो, बिलख-बिलख के रोओ। इस ग़ुरूर से बाज़ आओ कि तुम कुछ हो, तुम्हारी कुछ हस्ती है, कोई औक़ात है, कि तुम्हारी कोई उपलब्धि है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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