प्रश्नकर्ता: प्रणाम सर। सर, मैं अपना सवाल दो सिनारियो (स्थिति) से समझाती हूॅं, जैसे मैं पहली बार जब जिम (व्यायामशाला) गयी तो दो घंटे मेहनत करके आयी, तो ऐसा लगा कि अब तो और खा लेती हूॅं, क्योंकि दो घंटे मेहनत कर ली है। दूसरी बार जिम किया तो ऐसा लगा कि दो घंटे मेहनत की है, यहाँ पर पसीना बहाया है, अब कुछ खाऊॅंगी तो वो पसीने बहाने वाली मेहनत कम जाएगी। तो आप जब डिसिप्लिन (अनुशासन) की बात कर रहे थे तो वही चीज़ होती है — कभी मेहनत करते हैं, तो ऐसा लगता है कि नहीं अब इतनी मेहनत कर ली है। अब ख़ुद को छूट दे देते हैं और कभी-कभार ऐसी मेहनत की होती है, तो ऐसा लगने लगता है कि नहीं, अब पकड़कर रखो! ऐसे में निरन्तरता नहीं बन पाती, ऐसा क्यों होता है?
आचार्य: ये इसमें हमें पहले से ही पता होता है कि नीयत क्या है। जब नीयत ये होती है; कि जिम बस ऐसा नहीं है कि एक-दो बार दिखावे के लिए जाना है बल्कि वहाँ जाकर के कम-से-कम साल–दो–साल लगाकर शरीर बनाकर आना है, तो एक बात होती है।
दो लोग मान लो जिम जा रहे हैं, एक का ये है कि मैं जा रहा हूँ साहब, एक टेम्परेरी हाई (अस्थायी उच्चता) के लिए, दो-चार दिन की बात है, मन बहलाव है। अभी मौसम कुछ ऐसा आया है कि सब जिम जा रहे हैं, तो मैं भी चला जाता हूँ, दोस्तों के साथ मेम्बरशिप ले ली है, मैं भी चला जाता हूॅं, एक ये इंसान होता है। और दूसरा होता है जो इस उद्देश्य से जाता है कि कम-से-कम साल दो साल तो मैं इसमें कमिटेड (प्रतिबद्ध) रहूॅंगा, निविष्ट रहूॅंगा और यहाँ अब आया हूँ तो शरीर को बदलकर ही बाहर निकलूॅंगा। अब ये नहीं हो सकता कि शुरुआत कर दी और दो साल बाद भी जैसे थे पहले, वैसे ही हैं।
इन दोनों के रवैयों में बहुत अन्तर होगा। जो पहला व्यक्ति है, जो बस यूँही टहलने के लिए जिम पहुॅंच गया है, वो कहेगा, ‘आज देखो बढ़िया है, कैलोरी जला दी हैं एक हज़ार — तो अब कम-से-कम पाॅंच-सात-सौ कैलोरी मैं एक्स्ट्रा (अधिक) खा सकता हूँ!’ जो दूसरा व्यक्ति है, वो कहेगा, ‘आज जो खा रहा हूँ ये कल फिर जलानी पड़ेंगी।’ क्योंकि उसके पास एक आगे का और बड़ा लक्ष्य है, वो बस यूॅंही टहलने के लिए वहाँ नहीं पहुॅंच गया था। तो जीवन में आप कोई भी नयी शुरुआत करते हो, वो कितनी आगे तक जाएगी, वो इसी पर निर्भर करता है कि आपने लक्ष्य ऐसा बनाया है कि जैसे फ़्लर्ट (छेड़छाड़) कर रहे हो नयी शुरुआत से या लक्ष्य ऐसा बनाया है कि आपने किसी ऊॅंचाई को अपना कमिटमेंट (प्रतिबद्धता) दे दिया है। ऊॅंचाइयों के साथ फ़्लर्ट नहीं करते, ऊॅंचाइयों के साथ फ़्लर्ट करना फिर वैसे ही हो जाता है जैसे, ‘द मिथ ऑफ़ सिसिफस’, ‘अल्बर्ट कामू’ का है उसमें कहानी है ‘सिसिफस’ की।
सिसिफस को उन्होंने प्रतीक बनाया है पूरी मानवता की हालत का। कि वो अपना पत्थर चढ़ाया करता है रोज़ सुबह, रोज़, प्रतिदिन पहाड़ पर और साॅंझ ढले वो पत्थर फिर नीचे आ जाता है, वो फिर चढ़ाता है फिर नीचे आ जाता है। तो एक तो ये व्यक्ति होता है जो कहीं पहुॅंचने वाला नहीं है, ये थोड़ा आगे बढ़ेगा, थोड़ा पीछे आएगा — थोड़ा आगे बढ़ेगा, थोड़ा पीछे आएगा, इसे अपनी जगह नहीं छोड़नी है।
ये अभी हाल ही के पिछली शताब्दी के फ्रेंच दार्शनिक थे ‘कामू’, अस्तित्ववादी दार्शनिक थे। तो जो कामू का पत्थर है वो अपनी जगह कहाँ छोड़ता है? वो सुबह जहाँ था, शाम को ऊपर पहुॅंचता है और रात आते-आते वो फिर वापस आ जाता है। तो एक तो ये लोग होते हैं जिन्हें इधर-उधर बस थोड़ा सा मन बहलाव के लिए भटकना है लेकिन रहना उन्हें अपनी जगह पर है। उन्हें अपनी मूल स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं चाहिए, तो वो पत्थर थोड़ा ऊपर जाएगा फिर वापस आ जाएगा।
जो हालत पहले थी वही हालत फिर हो जानी है। तो एक तो ये लोग हैं, इन्हें बस दिखावा करना है, इन्हें बस ख़ुद को ही धोखा देना है कि साहब, हम ज़िन्दगी में कोई बदलाव ला रहे हैं। ये चाहते ही नहीं कि ज़िन्दगी में कोई बदलाव आये, ये जहाँ बैठ गये हैं, वहीं जम गये हैं। इसी को तमसा कहते हैं। तमोगुण! कि ग़लत जगह बैठ गये हो और ग़लत ही जगह जम भी गये हो। न सिर्फ़ ग़लत जगह बैठ गये; पहली ग़लती ये करी कि बैठ गये और दूसरी ग़लती ये करी कि जहाँ बैठ गये वहीं घर बना लिया, जम ही गये वहीं। तो अब ये थोड़ा-बहुत इधर-उधर करेंगे भी तो भी वही जो ग़लत जगह है उसी पर वापस आ जाऍंगे। इन्हें बदलाव चाहिए ही नहीं!
तो बदलाव आ भी रहा होता है, तो ख़ुद उस बदलाव को नलिफ़ाई (प्रभावहीन) कर देते हैं। हज़ार कैलोरी जलायी तो सात-सौ अतिरिक्त खायी! और अब सात-सौ जब खा लोगे तो अगले दिन बहुत ज़्यादा एक्सरसाइज़ भी नहीं कर पाओगे, तो दूसरे दिन जाकर सिर्फ़ चार-सौ जलाओगे। जब इतना खाकर जाओगे जिम में, तो क्या करोगे तुम ट्रेडमिल पर और कौनसे वेट्स (भार) करोगे? कुछ नहीं होगा।
तो दूसरे दिन सिर्फ़ चार-सौ जलाओगे और फिर आकर खाओगे कितना? सात-सौ! दो दिन में कुल मिलाकर कितनी जलायी? पहले दिन हज़ार, दूसरे दिन चार-सौ — चौदह-सौ! और खा कितना लिया? चौदह ही-सौ — मिथ ऑफ़ सिसिफस! वो पत्थर वहीं-का-वहीं है, कुछ नहीं हुआ, समय और ख़राब कर लिया!
समझ में आ रही है बात?
ज़्यादातर लोग बदलाव का बस दिखावा करते हैं, उन्हें कोई बदलाव नहीं चाहिए। उनके पास फ्लर्टिंग होती है, कमिटमेंट नहीं होता। मैं किस कमिटमेंट की बात कर रहा हूँ? मैं कह रहा हूँ, ‘मुझे वैसा नहीं रहना जैसा मैं हूँ, क्योंकि मैं जैसा हूँ ऐसा होना मेरी तक़दीर, मेरी नियति, मेरा अन्त नहीं हो सकता! ऐसा कीड़े जैसा होने और जीने के लिए थोड़े ही पैदा हो सकता है कोई, मैं किसी हालत में अपनी हालत को पसन्द नहीं करता! तो मुझे तो बदलना है।’
मुझे सिर्फ़ यही नहीं करना कि जैसे गाय खूॅंटे से बॅंधी हुई है और खूॅंटे के इर्द-गिर्द ही चक्कर काटे ले रही और उसको लग रहा है, ‘बदलाव आ गया, बदलाव आ गया। देखो, मैं पहले उत्तर दिशा खड़ी थी, अब पश्चिम दिशा खड़ी हूँ, कहीं भी खड़ी है, बॅंधी तो खूॅंटे से ही है।
और दूसरा एक व्यक्ति होता है जो सचमुच बदलाव चाहता है उसे कॉस्मेटिक चेंज (कृत्रिम परिवर्तन) नहीं चाहिए, उसे सन्तुष्टि ही नहीं होती है ख़ुद को धोखा देकर के। वो कहता है, ‘नहीं, ज़िन्दगी बदलनी चाहिए साहब! ये मैं क्या कर रहा हूँ, किसको बेवकूफ़ बना रहा हूँ? ख़ुद को ही बेवकूफ़ बना रहा हूँ?’
इन दोनों लोगों के बर्ताव में आपको बहुत फ़र्क मिलेगा। एक जो अपनी जगह छोड़ना नहीं चाहता इसलिए बस अपनी जगह के इर्द-गिर्द ऐसे ही थोड़ा मटरगश्ती कर रहा है। और दूसरा, जो इसलिए चल रहा है क्योंकि उसे सचमुच बदलना है, बेहतर होना है। बेहतर होना कोई मज़ाक की बात नहीं होती, बेहतर होने का मतलब ही होता है श्रम, अनुशासन, कष्ट झेलने की सहर्ष तैयारी। दर्द भी हो रहा हो, तो उसमें मुस्कुरा गये! तब बदलाव आता है, नहीं तो वही अपना बोला तो था, तमोगुण, तमसा! पड़े हुए हैं बिस्तर पर। ख़ुद गन्धा रहे हैं, बिस्तर भी गन्धा रहा है। ऐसों को देखा नहीं है क्या?
जो हॉस्टल में रहे होंगे उन्होंने देखा होगा, इस तरह के बहुत होते थे। ख़ास तौर पर जो अच्छे कैम्पस के हॉस्टल वगैरह होते हैं, उनमें सौ तरह की सुविधाएँ होती हैं, जो चाहो कर सकते हो, सीख सकते हो, वहाँ आप दो साल, पाॅंच साल, जितने भी समय के लिए हो, उसका आप ऐसा उपयोग कर सकते हो कि आपका पूरा व्यक्तित्व बदल जाए। पर अगर आप बहुत धोखेबाज़ आदमी हो, आपको ख़ुद को ही धोखा देना है तो आप क्या करते हो? कुछ नहीं, आप किसी तरीक़े से बस औसत तरीक़े के नम्बर ले आ लेते हो और सारे टाइम बस बिस्तर ख़राब करते हो। ऐसों के कमरे में घुसो तो कमरा गन्धा रहा होता था। क्योंकि वो हर समय कमरे में ही होते थे न! इतना बड़ा कैम्पस है, पता नहीं कहाँ-कहाॅं जाकर क्या-क्या सीख सकते हो, कर सकते हो — पर ये आदमी चौबीस में से अठारह घंटे अपने कमरे में ही पाया जाता था, तो कमरा इसका पूरा महक रहा होता था इसी की गन्ध से। इसे कुछ नहीं करना, इसे कहीं भी पहुॅंचा दो इसे नहीं बदलना (आचार्य जी मुस्कुराते हुए), इसे नहीं बदलना!
ये नर्क में हो, आप इसे स्वर्ग में डाल दो, आप पाओगे ये नर्क अपने साथ लेकर गया है, इसे नहीं बदलना। आप इसको नर्क से निकाल सकते हो, आप इसके भीतर से नर्क को नहीं निकल सकते! इसे नहीं बदलना। कमरे के बगल में बड़ा भारी जिम दे दो, उसको नहीं जाना, वो नहीं जाएगा। कमरे के नीचे दे दो, उसे नहीं जाना। उसे महकना है, उसे सोना है! पशु योनि।
मैंने देखा, बन्दे का नाम था ‘पशुपति’, माँ-बाप ने बड़े लाड़ से रखा होगा, उसकी गर्लफ्रेंड उसको बोल रही है, ‘माय पशु’! मैंने कहा, ‘कुछ तो इसने सच्ची बात बोली, पहचान ही गयी ये! वो पशु ही है।’ पशुपति कूल नहीं लगता, तो धोखे से उसके मुॅंह से सही निकल गया। वो पशु ही है उसको वहीं पर कीचड़ में ही सड़ना है, नहीं तो ऐसी गर्लफ्रेंड पकड़ी होती?
समझ में आ रही है बात?
बहाना बनाना आसान है कि हमने शुरूआत तो करी थी जिम जाने की। कोई भी और नयी सार्थक शुरुआत — पढ़ने की, किसी भी तरीक़े से ज़िन्दगी को बेहतर करने की, हमने शुरूआत तो करी थी, पर कुछ हुआ नहीं। कुछ इसलिए नहीं हुआ क्योंकि तुम कुछ चाहते ही नहीं थे कि हो। क्यों झूठ बोलते हो कि तुम प्रयास कर रहे थे, पर हुआ नहीं? तुम्हारा सारा प्रयास स्वयं के ही विरुद्ध एक दिखावा था, आत्म-प्रवंचना थी, ख़ुद को दिया हुआ धोखा था। ‘हमने तो पूरी कोशिश करी थी कुछ बदला नहीं, दो किलो बढ़ और गया!’
नीयत थी कि कुछ बदले? और इस तरह के बहुत घूम रहे हैं। सच्ची बात, ऊॅंचे लोगों की बात, दार्शनिकों की बात; चाहे मैं कामू को बोलूँ, चाहे अध्यात्म में श्रीकृष्ण को बोलूँ — इनकी बात लूज़र्स (फिसड्डियों) के लिए नहीं होती। लूज़र से मतलब समझ रहे हो? जिन्हें ख़ुद को जितना ही नहीं है, मैं उसको लूज़र बोलता हूँ। जो ख़ुद से हारा हुआ है, मैं उसको लूज़र बोलता हूँ। जो अपनी ही ज़िन्दगी से परास्त है, मैं उसको लूज़र बोलता हूँ। ये लूज़र हैं, इन्हें कुछ नहीं करना। इन्हें दिखावा करना है। इनको धक्का भी दो कि तुम कुछ कर लो, कुछ सीख लो, ये तो भी न करें।
इनके सामने कोच लाकर खड़ा कर दो कि लो भाई, ये कोच है, ये तुम्हें कुछ सिखाएगा, मान लो बैडमिंटन। तीन दिन बाद कोच मिला, ‘क्या हुआ?’ बोला, ‘बैडमिंटन भूल गया हूँ!’ यहाँ वो जलवा है। ‘हम नहीं बदलेंगे क्योंकि हम क्या हैं? पशु! हम पशु हैं, हम नहीं बदलेंगे।’ पशु कभी बदलता है?
कुत्ते को देखा कि वो बैठकर नोवेल पढ़ रहा है? भैंस को देखा, जिमिंग कर रही है? ‘क्या कर रही है?’ कह रही है, ‘बेली टोन (पेट अन्दर) कर रही हूँ।’ भैंस ने ऐब्स मार दीं! कभी देखा है ऐसा? वो नहीं करेगी क्योंकि वो भैंस है। हममें से ज़्यादातर लोग ऐसे ही होते हैं। पशु माने जो बॅंधा हुआ हो, पाश से जो बॅंधा है उसे पशु बोलते हैं। जो ख़ुद से बॅंधा हुआ है वही पशु है। जो ख़ुद को नहीं हरा सकता, वही पशु है। उसकी हस्ती, उसका अहम् ही उसका पाश है, उसी खूॅंटे से वो बॅंधा हुआ है।
ऐसों की समस्या ये नहीं है कि ये ख़ुद नहीं बदलेंगे, ऐसों की समस्या ये है कि दूसरे भी इन्हें बदलना चाहें, तो ये दूसरे का वक़्त और ख़राब कर देंगे, बदलेंगे किसी हालत में नहीं। अपनी नीयत टटोलना बहुत ज़रूरी होता है, इससे पहले कि शिकायत करो कि ज़िन्दगी में तरक़्क़ी नहीं हुई, ये नहीं हुआ, क़िस्मत ठीक नहीं थी, वक़्त ने साथ नहीं दिया — अपनेआप से पूछा करो कि नीयत भी थी सुधरने की, बदलने की, बढ़ने की? ईमानदारी से, कड़ाई से, झूठे जवाब नहीं स्वीकार! ‘चाहते भी थे?’
कोई बोले, ‘मिला नहीं ज़िन्दगी में!’ उससे पूछो, ‘मिला नहीं या चाहा नहीं?’
“ये जो आपकी चाहत है न, इससे बड़ी ताक़त दुनिया में नहीं होती। पूरी दुनिया एक तरफ़, ब्रह्मांड पूरा एक तरफ़, प्रकृति का पूरा प्रपंच एक तरफ़ और बेहतर होने की आपकी चाहत एक तरफ़।”
शास्त्रीय भाषा में उसको कहते हैं, मुक्ति की चाहत, मुमुक्षा!
“मुमुक्षा ऐसी चीज़ है जो प्रकृति के सारे पाशों को काट देती है। आपकी चाहत में वो दम है कि माया भी उसके आगे घुटने टेक देती है, आप चाहो तो सही!”
और नहीं चाहो तो बहाने तो बहुत हैं। है न, ‘दिल को बहलाने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है!’ हमारे पास तो ख़याल-ही-ख़याल होते हैं दिल को बहलाने को। मुझे कोई नहीं मिलता जिसको मैं पूछूँ कि ये नालायक़ी क्यों की जो आज तूने की। तो वो बोले, ‘जानते-बूझते की, क्योंकि मैं तो हूँ ही नालायक़!’ सबके पास कोई-न-कोई दिल को बहलाने को ख़याल होता है, कुछ-न-कुछ तर्क लिख देते हैं। जानना चाहते हो कि आपका असली चेहरा कैसा है, आपका तेज से भरा हुआ चेहरा कैसा है, तो अपने आप को तपाओ और फिर देखो अपना तेज!
“जब आप ख़ुद के ख़िलाफ़ संघर्ष में होते हो उस वक़्त आपका जो चेहरा होता है, चेहरे पर खून दौड़ आया है, लाल हो गया है चेहरा बिलकुल और पसीना है — उस चेहरे को बोलते हैं खूबसूरती!”
खूबसूरती इसमें थोड़े ही है कि बिस्तर पर पड़े हुए हैं! कभी देखा है नाली के किनारे सुअरों को लोटते हुए? अभी आजकल जाड़ा है तो धूप लेते हैं वो भी। उसमें थोड़े ही कोई खूबसूरती है? खूबसूरती है जब आप दाॅंत भींचकर कहते हो, ‘ख़ुद को हरा दूॅंगी।’
आ रही है बात समझ में?
तो लूज़र मत बनो, ख़ुद को हराओ। महाभारत के युद्ध में — आपमें से कई लोग सोने को हो रहे हो तो मैंने कहा उल्लेख कर दूॅं — एक योद्धा का आता है, मेरे ख़याल से शायद भूरिश्रवा है, जॉंचिएगा थोड़ा, तो वो इतना वृद्ध था, इतना वृद्ध था कि उसकी पलकें ही ऊपर टिकी नहीं रह पाती थीं, इतना बूढ़ा हो गया था! और वो लड़ने आया था पूरी जान लेकर।
आप तो तय करते हो कि सोना है, उस बेचारे की तो पलकें गिर जाती थी। (पलकों को छूकर इशारा करते हुए) उसके यहाँ पर कुछ समस्या हो गयी होगी या जान नहीं बची होगी पलकों में। तो उसने पता है क्या करा? (पलक और भौहों को छूकर बताते हुए) उसने यहाँ छेदा और यहाँ छेदा और पलकें ऐसे बाॅंध दीं! फिर वो जो लड़ा है, जो लड़ा है! महाभारत का जो पूरा निष्कर्ष है वो आप क्या सोच रहे हो कि बस कौरवों-पांडवों से निकला है? नहीं! उसमें भूरिश्रवा, सात्यकि, इन लोगों का बड़ा योगदान था।
तो ऐसे भी होते हैं कि पलक गिर रही है तो ऐसे यहाँ (भौहों की ओर इशारा करते हुए) पर छेद करके यहाँ बाॅंध दूॅंगा, अब गिर के दिखा! ये होती है जवान आदमी की ललकार। ‘ख़ुद को हराकर दिखाऊॅंगा।’ नहीं तो ख़ुद से ही शर्मसार रहो, सिर झुका-झुका रहेगा, तुम्हें ही पता है लजाये हुए हो, सिर ऐसे थोड़े ही झुका रखा है, ज़िन्दगी के आगे बेइज़्ज़त हो।
ज़्यादातर लोगों की यही हालत है न, वो बेइज़्ज़त क्यों है? क्योंकि पता है कि जो हार हुई है वो अपनी ही वजह से हुई है, इससे बड़ी बेइज़्ज़ती नहीं हो सकती! दुश्मन बहुत ताक़तवर था वो चढ़कर बैठ गया उसने गला काट दिया आपका, वो एक बात होती है। और एक बात होती है कि हारे क्यों? कहे, ‘दुश्मन जब चढ़ा आ रहा था तो हम सो रहे थे, इसलिए हारे।’
वाज़िद अली शाह की ज़िन्दगी से आता है, अंग्रेज़ घुस आये थे, इनको कपड़े-जूते पहनाने वाला और तैयार करने वाला युद्ध के लिए कोई नहीं था, तो ये इन्तज़ार करते रहे, हार हो गयी। बोले, ‘अपने हाथों हम कैसे जूते पहन लें? बुलाओ, कनीज़ को बुलाओ! कनीज़ें होती थीं भाई वो!
अब ये बेइज़्ज़ती की हार है। हम ज़्यादातर लोग न अपनी ही नज़रों में बहुत बेइज़्ज़त हैं, हो? अगर हो तो एक तरीक़ा बता देता हूँ, हार-जीत की बात नहीं है, लड़कर दिखाओ! ख़ुद से लड़ो। उसके बाद पाओगे कि भीतर न एक गरिमा पैदा हुई है, डिग्निटी (गरिमा) और जो डिग्निटी होती है ये सेल्फ़ एस्टीम (आत्मसम्मान) से बहुत आगे की बात होती है, सेल्फ़ एस्टीम तो झूठी चीज़ होती है।
जब आप अपनेआप को यूॅंही जताना चाहते हो कि आप भी किसी हैसियत के हो, तो आप झूठ-मूठ ही कुछ करते हो। कपड़े डाल लिये, कुछ और कर लिया, ऊँची-ऊँची बातें करने लग गये। प्रिटेंस ऑफ़ सेल्फ़ एस्टीम (आत्मसम्मान का दिखावा) और डिग्निटी दूसरी बात होती है। डिग्निटी आती है ख़ुद से ही जूझ जाने से। उसी से भीतर एक फ़ौलाद तैयार होता है। नहीं तो बाहर झूठ बोलते रहो। डरता नहीं फिर आदमी, आदमी कहता है, ‘जब हम ख़ुद से नहीं डरे तो तुमसे क्या डरें, जब हम ख़ुद से नहीं हारे तो तुमसे क्या हारेंगे!
एक बड़ी सहज आश्वस्ति आ जाती है चेहरे पर। अ काम अश्योरडनेस (एक शान्त आश्वासन) एकदम ऐसे (हाथों को बाॅंधकर बैठते हुए) कोई पूछता है, ‘क्यों तुम्हें इतना विश्वास है कि तुम दुनिया से हारोगे नहीं? तो वो जवाब देता है, ‘क्योंकि हम ख़ुद से नहीं हारे।’ जो ख़ुद से नहीं हारता वो किसी से नहीं हारता। जब भी हारना, कभी किसी को दोष मत देना, आपको किसी दूसरे ने नहीं हराया है, आप ख़ुद से हारे हो! और ये बहुत शर्म की और बेइज़्ज़ती की बात है।