जूता सर पर नहीं रखा जाता || आचार्य प्रशांत, वेदान्त पर (2020)

Acharya Prashant

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जूता सर पर नहीं रखा जाता || आचार्य प्रशांत, वेदान्त पर (2020)

आचार्य प्रशांत: आप मन का कोई विषय नहीं हैं। मन में कभी कोई विषय देखा है जो शाश्वत रहे कि अब आ गई मन में वो बात तो लगातार है, कोई भी ऐसी बात है? ज़िंदगी में आपको जो चीज़ सबसे प्यारी हो, वो भी क्या ऐसा होता है कि वो किसी भी पल मन से ओझल नहीं होती? कुछ भी ऐसा है जीवन में? कुछ भी है क्या? तो मन ही वो जगह है जहाँ चीज़ें आती हैं और जाती हैं, वही जन्म और मरण का चक्र है। वहीं पर ये सारी घटनाएँ घट रही हैं।

"हे रुद्रदेव, आप जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हैं। न आपका उदय होना है, न आप कभी अस्त होते हैं। न आप आते हैं, न आप जाते हैं। आप मन का कोई विषय हैं ही नहीं।" ये बात हम फिर दोहरा कर कहेंगे कि मन के विषयों के विरुद्ध इतनी सावधानी रखने को क्यों कहा जा रहा है। कदाचित ऋषि उनमें से हैं जिन्होंने मन की तगड़ी चोट सही है।

थोड़ा और स्पष्ट करूँगा — मन की चोट पड़ती तो हम सब पर है, पर सिर्फ़ कोई संवेदनशील व्यक्ति होता है, जो उस चोट का पूरा-पूरा प्रभाव अनुभव करता है; क्योंकि आपके साथ क्या हो रहा है और आपने क्या अनुभव करा, इसमें बहुत अंतर हो सकता है। अगर आपमें संवेदना नहीं है, अगर आपका अंतर्जगत सुन्न सा पड़ा हुआ है, तो ये बिलकुल हो सकता है कि ज़िंदगी आपको रोज़ चोटें देती रहे और आपको कुछ पता ही न चले। वास्तव में ज़िंदगी हमें रोज़ जो चोटें देती है, वो हमें पता न चले इसके लिए हम इंतज़ाम ही यही करते हैं, क्या? सुन्न पड़ जाओ, असंवेदनशील हो जाओ। फिर दर्द नहीं होगा, पीड़ा नहीं होगी।

ऋषि उनमें से हैं, जिन्होंने चोट भी सही है और चोट का पूरा-पूरा बेख़ौफ़ अनुभव भी करा है। मैं बेख़ौफ़ क्यों बोल रहा हूँ? क्योंकि अनुभव कष्ट देता है न, तो अनुभव को गहराई तक भीतर जाने देने के लिए बड़ा निडर होना पड़ता है। हम तो अनुभव से डरते हैं। हमें लगता है अनुभव हमें तोड़ देगा। हम तो सख़्त हो जाना चाहते हैं, कठोर हो जाना चाहते हैं, एक तरह से निष्प्राण और अचेतन हो जाना चाहते हैं। क्योंकि पूरा अगर अनुभव हो गया, तो वो हमें दहला देता है, हमें तोड़ देता है। हमें माने अहंकार को ही, और किसी को नहीं। तो इसीलिए फिर हम अनुभवों के प्रति संज्ञाशून्य हो जाना चाहते हैं। हम कहते हैं, हमें नहीं पता कुछ हुआ कि नहीं हुआ, हुआ भी हो तो कहीं हो गया होगा, मैं उसका संज्ञान ही नहीं लूँगा। समझ में आ रही बात?

तो ऐसे मत सोच लीजिए कि देखिए ये तो एक तरीक़ा है, परम्परा है, एक विधि है, रवायत है तो इसलिए शिव को ऐसे संबोधित किया जा रहा है। नहीं, बात परम्परा की, प्रथा की नहीं है; बात उसके पीछे के अर्थ की, मर्म की है। ये समझना होगा कि क्यों कहा जा रहा है, “हे रुद्रदेव आप जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हैं।” ये कुछ ऐसे ही कहा-सुनी की, मुहावरे की, कहावत की बात नहीं है। इसके पीछे मनोविज्ञान की गहराईयाँ हैं। “हे रुद्रदेव, आप जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हैं।” वास्तव में मन अपनी ही उस संभावना को संबोधित कर रहा है जिसमें वो अपनी ही क़ैद से बाहर आ सकता है।

तो हमने पिछली बार अभी, पिछले श्लोक में पूछा था कि 'परमात्मा कौन है?' एक तरीक़ा उत्तर देने का ये है कि मन की ही अंतिम संभावना को आत्मा या परमात्मा कहते हैं। मन की ही अंतिम और उच्चतम सम्भावना को सत्य, आत्मा या परमात्मा कहते हैं।

मन जब तक अपने साधारण रूप में है वो जन्म और मृत्यु में ही फँसा हुआ है। जन्म-मृत्यु में क्यों फँसा हुआ है? एक चीज़ उसमें उठती है वो उससे बद्ध हो जाता है फिर ठोकर खाता है, निराशा पाता है; फिर जाकर के दूसरी चीज़ से लग जाता है। दूसरी चीज़ से लग जाना, पहली चीज़ की मृत्यु और दूसरी चीज़ का जन्म होता है। जन्म और मृत्यु आपके साथ घटने वाली घटनाएँ नहीं हैं, जन्म और मृत्यु आपके अनुभव हैं। जन्म और मृत्यु आपके विषयों की प्रकृति हैं। आपका जन्म और मृत्यु नहीं होता। आप जिन विषयों से संलग्न हो जाते हैं, उनकी प्रकृति हैं एक रूप को छोड़कर के दूसरा रूप धारण करना, इसी को कभी जन्म कभी मृत्यु बोलते हैं।

आपकी क्या प्रकृति है? आपकी प्रकृति है बेवकूफ़ बनना। आपकी प्रकृति है ऐसों के साथ जुड़ना, जो जुड़ने के लायक़ नहीं हैं। जिनके साथ आप जुड़ रहे हैं उनकी क्या प्रकृति है? रूप बदलना; आपकी क्या प्रकृति है? रूपों के झाँसे में आ जाना। कुल इतनी सी बात है। समझ में आ गयी बात? जिनसे आप जुड़ रहे हैं, उनकी प्रकृति है रूप बदलना; कोई चीज़ अपने एक रूप में नहीं रह सकती। और आपकी क्या प्रकृति है? रूपों के झाँसे में आना, उसके अलावा कोई प्रकृति नही।

कोई पूछे, आप कौन हैं; आप कोई नहीं हैं। 'मैं बस वो हूँ, जो दूसरों के झाँसे में आ जाता है।' उस मूर्खता के अलावा अहम् की कोई पहचान नहीं है। इसीलिए अहम् का दूसरा नाम अज्ञान है; अहम् कोई वस्तु नहीं है, अहम् कोई विचार नहीं है, अहम् बस अज्ञान मात्र है। अज्ञान का मतलब वो जो फेर में, फ़रेब में आ जाए।

"आप जन्म मृत्यु के चक्र से मुक्त हैं, ऐसा जानकर कोई भीरु आपके आश्रय में आता है।" कौन है ये भीरु? मन। तो मन अपनी ही अंतिम सम्भावना को संबोधित करके कह रहा है, अपने वर्तमान स्थान से। मन अपनेआप को देख रहा है, “मैं वैसा हो सकता हूँ।” अपनी हालत को देख रहा है, कह रहा है, “अभी तो बहुत भीरुता की हालत है, डरा हुआ हूँ।” सच पूछो तो वो ये नहीं जानता है कि अमरता क्या होती है। लेकिन वो इतना ज़रूर अनुभव करता है कि मृत्यु का डर, मिटने का डर, खोने का डर बहुत भयंकर है। वो जब रुद्रदेव को, शिव को, सत्य को संबोधित कर रहा है तो भी वो नहीं जानता वास्तव में कि किसको संबोधित कर रहा है; जाना जा भी नहीं सकता। उसका संबोधन तो बस एक आर्तनाद है, अपनी वर्तमान अवस्था के विरुद्ध। वो ये नहीं जानता, उसे बचाने कौन आएगा।

जैसे, किसी राह पर गहरी अँधेरी रात में कोई मुसाफ़िर लुट रहा हो। वो क्या करता है? वो ज़ोर से चिल्लाता है। क्या उसे पता है, वो किसके लिए चिल्ला रहा है? किसके लिए चिल्ला रहा है? रास्ता सुनसान है और वो उस क्षेत्र से अपरिचित है। वो बिलकुल नहीं जानता कि उस क्षेत्र में कौन है, कौन नहीं है। पर जब वो लुटने लगता है तो क्या करता है? ज़ोर से चिल्लाता है। वो किसी को बुलाने के लिए नहीं चिल्ला रहा है, क्योंकि वो किसी को जानता नहीं है। वो अपनी अवस्था के ख़िलाफ़ चिल्ला रहा है। एक उम्मीद उसमें ज़रूर है कि क्या पता मेरे चिल्लाने से कोई आ जाए। कोई आ जाए; कौन आ जाए, ये उसको पता नहीं। पर शायद उसको लगता है कोई आ जाए। कोई तो होगा, कोई तो होगा न जो इन लुटेरों जैसा नहीं होगा। प्रार्थना इसी को कहते हैं।

प्रार्थना का मतलब ये नहीं है कि तुम जिसके सामने प्रार्थी हो रहे हो उसको तुम जानते हो। उसको तुम अगर जानते ही होते तो तुम्हारी हालत इतनी ख़राब क्यों होती? उसको तुम जानते नहीं हो। बस तुम अपनी वर्तमान हालत के ख़िलाफ़ दुख और आक्रोश से भरे हुए हो, ये प्रार्थना है। वही यहाँ पर हो रही है।

“हे रुद्रदेव, आप जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हैं, ऐसा जानकर कोई भीरु मृत्यु के भय से डरने वाला मेरे जैसा आपके आश्रय में आता है।” बस इसको इतना ही पढ़ लो, “मैं बहुत डरा हुआ हूँ। मेरा कुछ खो रहा है, मेरा कुछ मिट रहा है। न जाने कल क्या होगा, मैं बचूँगा कि नहीं बचूँगा।” बस इतना बोला गया है अभी तक। 'हाय, मेरा क्या होगा!' बस इतना। 'हाय, मेरा क्या होगा!'

फिर प्रार्थना करता है आपसे कि “रुद्रदेव, आप अपने कल्याणकारी रूप (कल्याणकारी रूप को नाम दे दिया — दक्षिणमुख) से मेरी सर्वदा रक्षा करें।" अब ये तरीक़ा है अहंकार का। और कर भी क्या सकता है। जब वो चिल्लाता है तो निष्प्रयोजन तो चिल्ला नहीं रहा है। उसके पास तो एक वजह है न, क्या वजह है? ‘आओ रक्षा करो मेरी।’ और वो जब कहता है, ‘रक्षा करो मेरी’ तो वो ये नहीं कहता 'मुझे बदल दो।' वो कहता है, 'मुझे बस इन लुटेरों से बचा दो।' वो ये नहीं कहता कि मुझे वो रहने ही मत दो जो इस काली अँधेरी रात में, इस बियावान में लुटने के लिए चला आया। (हँसते हुए) नहीं समझ रहे?

क्या उसने चिल्लाकर ये कहा कि मुझे वो रहने ही मत दो जो ऐसी मूर्खता करता है कि इस काली अँधेरी रात में अपना सारा काला धन लेकर के, काले लुटेरों से लुटने के लिए चला आया है? वो क्या ये कह रहा है? वो ये नहीं कह रहा है। वो सिर्फ़ क्या कह रहा है? मुझे बचा लो। मुझे बचा लो ताकि फिर मैं कभी दोबारा ऐसी किसी राह पर अपना कालाधन लेकर के लुटने के लिए पहुँच जाऊँ। मैं अपनी तरफ़ से कुछ सीख लूँगा, मैं कहूँगा, 'अच्छा इस वाली राह पर नहीं आऊँगा, मैं इस तरह की किसी दूसरी राह पर आ जाऊँगा। इस तरह के लुटेरों से नहीं लुटूँगा, किसी दूसरे तरह के लुटेरों से लुटूँगा। पर मेरा ये इरादा तो नहीं है कि मैं मूलभूत रूप से बदल जाऊँ। मेरा इरादा तो बस अभी ये है कि हाय, हाय! मैं लुट गया, मुझे बचा लो।' प्रार्थी भी प्रार्थना इसी प्रकार की करता है।

तो देखो अभी शिव से क्या कहा जा रहा है, “अपना जो कल्याणकारी रूप है न दक्षिणमुख, वो दिखाएँ।” अरे, सत्य के क्या पचास मुख होते हैं? पर यहाँ भी हम अपनी ओर से चुनाव कर रहे हैं, जैसे रेस्टोरेंट में मेन्यु देखकर के आर्डर दिया जा रहा हो, ‘हे शिव, आप दक्षिणमुखी हो जाएँ।’ सत्य से कहा जा रहा है कि 'देखो सत्य वग़ैरह तो ठीक है, सत्य पूर्ण होता है, पर अभी हमें पूर्ण की आकांक्षा नहीं है। अभी तो हमें बस उतना हिस्सा दिखा दो जो प्रार्थियों को सुरक्षा देता है।'

शिव तो प्रलय भी करते हैं। तांडव भी होता है, सब नष्ट भी कर देते हैं। कह रहा है, ‘नहीं, नष्ट कर देने वाला कार्यक्रम आप बाद के लिए रखिएगा। अभी तो आप बचाने वाला कार्यक्रम रखिए। हमें आ कर बचाइए, हमारा बड़ा बुरा हाल है।’ बचा तो देंगे, सत्य बचाता है निश्चित रूप से, पर वैसे नहीं बचाता जैसा हम चाहते हैं। वो वैसे बचाता है जैसे बचा जा सकता है। वो हमें वैसे नहीं बचाता जैसे हम बचना चाहते हैं; वो हमें वैसे बचाता है जैसे बचा जा सकता है।

मान लीजिए, सांड लाल कपड़े के पीछे भागता है। भागता नहीं है, पर हम मान लेते हैं। उदाहरण के लिए अच्छा रहेगा। सांड लाल कपड़े के पीछे भागता है और आपने यहाँ सिर पर लाल टोपी पहन रखी है, लाल गॉगल्स भी लगा रखे हैं, मुँह भी लाल रंग रखा है, होंठ भी लाल रंग रखे हैं, शर्ट भी लाल है, पैंट भी लाल है, जूते भी लाल हैं। आपका नाम ही है लालमलाल! और सांड आपके पीछे पड़ा हुआ है। अब आप चाहते हो आपको बचाया जाए। आपकी नज़र में आपको बचाने का तरीक़ा ये है कि सांड को भगा दो। आप ये नहीं समझ रहे हैं कि आपकी जो हालत है, एक सांड भगा दिया, दूसरा लगेगा। क्योंकि अभी आप सांडों के लिए चुम्बक हैं। तो शिव आपको जब बचाएँगे तो ऐसे नहीं बचाएँगे कि वो सांड को भगा देंगे। सांडों से तो शिव का वैसे भी (मित्रता का रिश्ता है), आप जानते हो। तो भगाएँगे ही नहीं सांड को।

क्या करेंगे? आप ऐसे पहुँचेंगे सामने और वो आपके कपड़े फाड़ देंगे सारे। आप कहेंगे, 'ये क्या हो रहा है?' ये वही हो रहा है, जो होना चाहिए। ये एकमात्र तरीक़ा है जिससे आपको बचाया जा सकता है — आपको नंगा कर दिया जाए, आपकी बिलकुल परत उघाड़ दी जाए। छिलका उतार दिया जाए आपका। पूरा ऊपर से लेकर नीचे तक छिलका उतार दिया। सत्य ऐसे बचाता है आपको, आपके छिलके उतारकर के। क्योंकि आपका जो छिलका है, यही आपके कष्ट का कारण है। इसी के पीछे सारे सांड लगे हुए हैं। जब तक ये उतरेगा नहीं, तब तक आप एक जगह से बचेंगे तो दूसरी जगह पिटेंगे। कहाँ-कहाँ आपको बचाते फिरेंगे शिव, उनका यही धंधा है?

तो कहते हैं, अगर तुम इतने ही उत्सुक हो बचने के लिए, तो हम पूरा ही तुम्हारा इलाज़ किए देते हैं, उतारो छिलका। लेकिन, वो भाव प्रार्थी की प्रार्थना में नहीं है। वो कह रहा है, आप तो अभी अपना दक्षिणमुखी रूप हमें दिखाएँ और बस बचा दें। वैसा होगा नहीं। बचाया हमेशा दूसरे तरीक़े से जाता है; आपकी कामनाएँ पूरी करके नहीं। अगर आपकी प्रार्थना यही रहती है कि मेरी कामना पूरी कर दो, तो यह प्रार्थना तो अच्छा है कि विफल जाए। वास्तविक प्रार्थना में बस आप खड़े हो सकते हैं कि मैं जानता ही नहीं मेरे लिए अच्छा क्या है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ये जो बातें बतायीं, मतलब आप सब से पूछ रहे थे, 'समझ आया?' सब सिर हिला रहे थे कि समझ आ गया। मेरे को तो ईमानदारी से कहूँ, कुछ समझ नहीं आया। मुझे सब हवाई बातें लगीं। मतलब क्या पॉसिबल (संभव) है, ऐसे हो कर जीना?

आचार्य: कैसे?

प्र: किसी से जन्म न मृत्यु। जो आपने बोला शरीर से हमारा इतना...।

आचार्य: चलो, मैं तुमसे पलट कर पूछता हूँ। तुम्हारे लिए कैसे पॉसिबल (संभव) है जूता सिर पर रखकर जीना? मैंने कहा, 'जूता सिर पर नहीं रखो, पाँव में पहनो।' तुम कह रहे हो, पॉसिबल (संभव) है ऐसे जीना?

प्र: आचार्य जी, वो-वो एक एनालॉजी (सादृश्यता)।

आचार्य: तुम मुझे पहले बताओ। जूता सिर पर रख कर जीना कैसे पॉसिबल (संभव) है?

प्र: वो तो आचार्य जी, आपने एक एक्ज़ाम्पल (उदहारण) दिया न?

आचार्य: एक्ज़ाम्पल (उदहारण) किसी चीज़ की ओर इशारा कर रहा है न। जूता जूता नहीं है, वो ज़िंदगी में पचास ऐसी चीज़ों की ओर इशारा कर रहा है, जो वहाँ है जहाँ तुम्हें नहीं रखना चाहिए उनको। हाँ, अब इसमें तुम्हें मेहनत ये करनी है कि ईमानदारी से स्वीकारो कि वो चीज़ें हैं। तकलीफ़ हो रही है स्वीकारने में कि हाँ, पाँव की चीज़ को मैंने सिर पर बैठा रखा है।

प्र: आचार्य जी, जितना भी छोड़ लें, पर अंत में शरीर का डर तो रह ही जाता है कोई डरा दे तो। मतलब अब मान लो, किसी को इस अंधेरी रास्ते में जैसे एकदम जंगल से या किसी को अकेले में पैदल भेज दिया जाए, तो उसको थोड़ा-बहुत डर तो लगेगा ही।

आचार्य: तो क्यों जाए?

प्र: चेक (जाँच) करने के लिए कि भैया, आध्यात्मिक तरक्क़ी हुई है कि नहीं?

आचार्य: क्यों, क्यों, चेक (जाँच) करने का यही तरीक़ा है?

प्र: इन पैमानों को चेक करने के लिए। उसे जन्म-मृत्यु का डर...।

आचार्य: यही तरीक़ा है क्या? उसका जो मूल डर है, वो देखना है न। अध्यात्म ज़िंदगी के बाहर की कोई चीज़ है क्या, कि तुम बाहर कृत्रिम स्थिति पैदा करोगे कि 'भई, इसको जंगल भेज के देखते हैं, ये जा पाता है कि नहीं? इसको श्मशान बैठा कर देखते है, बैठ पाता है कि नहीं?'

प्र: नहीं, वो सिचुएशन (परिस्थिति) आ भी सकती है।

आचार्य: अरे! वो आ सकती है। जो आयी हुई है, उसकी बात क्यों नहीं कर रहे? जो रोज़मर्रा के तुम्हारे डर हैं उनका सामना करो। नया, कृत्रिम डर खड़ा कर रहे हो कि 'मैं जा रहा हूँ, वो फ़लाना रसखान, भूत बैठता है, फ़लानी जगह कब्रिस्तान में। अगर मैं उसका सामना कर पाया तब तो मैं आध्यात्मिक हूँ, नहीं तो, नहीं हूँ।' और जो तुम रोज़ डरते हो, पड़ोस वाले से डरते हो, पिताजी से डरते हो, फ़लाने से डरते हो, उनका सामना नहीं करोगे? तुम्हें रसखान भूत चाहिए? अपनी ज़िंदगी को देखो, यह मत बताओ कि कृत्रिम रूप से उसको रात में वहाँ पर भेजेंगे, हाइवे पर। हाइवे में तो इतना ज़्यादा ट्रैफिक हो गया है कि कैसे तुम्हें वहाँ कोई लूटेगा।

प्र२: ‘रक्षा करे’ जो लास्ट (आख़री) सेंटेंस (वाक्य)। सो डज़ रक्षा हैव अ ड्युअल मीनिंग हिअर (यहाँ रक्षा के दो अर्थ हैं)? एक, रक्षा जो मेरा अहम् बोल रहा है और एक, जो रुद्रदेव जिस तरह से रक्षा। डज़ द श्लोक कैन बी बोथ ?

आचार्य: जो कर रहा है प्रार्थना, वो तो रक्षा का वही अर्थ रखेगा, जो उसके अनुकूल है। लेकिन रक्षा का वास्तविक अर्थ उसके लिए दूसरा होगा।

प्र२: विच इज़ आलसो गुड फॉर हिम (जो उसके लिए भी अच्छा है)।

आचार्य: टू विच ही मे नॉट ऍग्री (जिससे शायद वह सहमत न हो)। जैसे, किसी बच्चे को आप दवाई पिलाएँ तो वो उसके लिए अच्छी है, पर उसको चॉकलेट चाहिए। तो एक है वो रक्षा, जो आप माँग रहे हो। आप रक्षा माँग रहे हो उसकी, जो आप बने बैठे हो।

एक तरह से जो बीमार है, वह अपनी बीमारी की रक्षा माँग रहा है। जब वो बोलता है, 'हे डॉक्टर मेरी रक्षा करें।' तो वो अपनी रक्षा माँग रहा है, माने किसकी? उस पूरी व्यवस्था की रक्षा माँग रहा है, जो बीमार होती रहती है बार-बार। जिसमें बीमार होने की वृत्ति है, टेंडेंसी है। चिकित्सक अगर असली है तो वो रक्षा नहीं करेगा बीमार की। वो बीमार को, बीमारी के प्रति, बीमारी के विरुद्ध रक्षित कर देगा।

एक होता है बीमार की बीमारी की रक्षा कर दी, बीमार की रक्षा कर दी बीमारी के साथ। और एक होता है बीमार को बीमारी के विरुद्ध रक्षित कर दिया।

ऐसे समझ लीजिए, आपको ठंड लग रही है — बारिश हो गई, आपके कपड़े गीले हैं, आपको ठंड लग रही है। ऐसा भी करा जा सकता है, आपको तात्कालिक राहत देने के लिए कि आपको आपके गीले कपड़ों के ऊपर एक भारी जैकेट पहना दी जाए। उससे भी आपको थोड़ी राहत मिल जाएगी। हम ऐसी रक्षा माँगते हैं। मुझे मेरे गीले कपड़ों के ऊपर एक भारी जैकेट पहना दो। इससे मुझे कुछ तो राहत मिल ही जाती है, मिल जाती है कि नहीं मिल जाती है? लेकिन इससे क्या होगा? इससे यह होगा कि जो कपड़ा सूख भी जाता वह अब सूखेगा नहीं। और आपके लिए वो बड़ी बीमारी का कारण बन सकता है। और दूसरी रक्षा ये होती है कि ये जो कपड़े गीले हो गये हैं, इस छिलके को ही उतार दो।

हम कौनसी रक्षा माँगते हैं? कि कपड़े तो मेरे गीले ही रहे। मैं इनसे तो आज़ाद नहीं हो सकता, इसके ऊपर मुझे पहना दो जैकेट। हम माँगते ही ये हैं। लेकिन अगर प्रार्थना सफल गई तो कपड़े उतर जाते हैं।

तो जो प्रार्थी है, वो इस तल से बात करता है। उसको गाय चाहिए, उसको घोड़ा चाहिए, उसको पुत्र चाहिए, पौत्र चाहिए। वो कह रहा है, हमारे वीर पुरुषों का नाश न करें। उसे अपने समूह, समुदाय, दल की भौतिक सुरक्षा चाहिए और इसके लिए वह आवाहन किसका कर रहा है? वह रुद्रदेव का कर रहा है। और रुद्रदेव का भी आवाहन कैसे कर रहा है? भविष्य लेकर के, हवन में जो सामग्री आती है, अन्न लेकर के। ये आम आदमी की प्रार्थना है।

हम ऐसा चाहते हैं, ठीक है? और ये बड़ी राहत की बात है कि हमारी ऐसी प्रार्थनाएँ पूरी नहीं होतीं। वास्तव में जिसे हम अपनी प्रार्थना कहते हैं, वो हमारी कामना का ही एक संवर्धित रूप है। सीधे-साफ़, सरल शब्दों में कह देते हो तो कामना है और उसी को ज़रा आध्यात्मिक तरीक़े से बोल देते हो तो कहने लग जाते हो प्रार्थना है। वो प्रार्थना नहीं है, वो कामना की ही अभिव्यक्ति है।

और अगर हमारा पूरा जीवन है ही कामना भर पूरी करने के लिए, तो ये भी समझ लो कि फिर हमारा सारा धर्म, हमारे सब देवी-देवता, सब भगवान ये भी हमने रचे होंगे बस अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए। इसीलिए धर्म से और मंदिरों से, देवताओं से हमारा सबसे गहरा सम्बन्ध कामना का ही रहता है। कुछ माँग रहे हैं कुछ मिल जाए, कुछ माँग रहे हैं कुछ मिल जाए। बोलते हो कुछ हमें दे दो, बदले में हम तुम्हारे आगे सिर झुकाते हैं।

बाज़ार सी बात हो गई। हम सिर झुका रहे हैं, इतना तो दे दीजिए। बाज़ार में जब तुम सिर झुकाते हो तो बस कामना के आगे झुकाते हो। इस तरीक़े से जब सिर झुकाते हो, प्रार्थना करके, तो कामना और अज्ञान दोनों के आगे झुकाते हो। बाज़ार में तो तुम बस अपने लालच के ग़ुलाम हो गए। लालच के आगे सिर झुकाया है कि फ़लानी चीज़ दिख गई, पैसा देकर के, कहा दे दो। लेकिन जब प्रार्थना कामना बनी हुई हो तब लालच भी है और मूर्खता भी।

क्योंकि बाज़ार में तो सौदा जो करना चाहते हो वह हो जाएगा। एक कपड़ा पसंद आ गया, रुपया दोगे कपड़ा मिल जाएगा। लेकिन जब ऐसी प्रार्थना कर रहे हो, तब लालची भी हो और मुर्ख भी, क्योंकि जो चाह रहे हो पाना वो मिलेगा भी नहीं। बार-बार कहोगे कि मुझे गाय दे दो, घोड़े दे दो, आसमान की ओर सिर उठाकर के तो गाय और घोड़े मिल जाएँगे क्या? हाँ! रुपया-पैसा लेकर के बाज़ार चले गए होते तो गाय और घोड़े वहाँ से मिल भी सकते थे। तो प्रार्थना को प्रार्थना ही रहना चाहिए, कामना नहीं बन जाना चाहिए।

प्रार्थना ग़लत, दूषित है, विषाक्त है, यह पता कैसे चले? जब पाओ कि उसमें इच्छा बैठी हुई है। प्रार्थना असली है इसके बस एक या दो ही निशान हो सकते हैं। शुद्धतम निशान तो यही है कि चुप हैं, मन एकदम शांत। और दूसरा निशान ये हो सकता है कि प्रार्थना नकार की दिशा की है। तुम कह रहे हो कि मुझे साहस मिले कि मैं ख़ुद को छोड़ सकूँ, उतार सकूँ या ख़ुद से आगे जा सकूँ। ख़ुद का विरोध कर सकूँ। तो या तो कुछ नहीं माँग रहे हैं, या जो माँग रहे हो वो अपने विरुद्ध माँग रहे हो। अपने सुख के लिए नहीं माँग रहे, अपनी काट के लिए माँग रहे हो। या तो प्रार्थना के समय कोई शब्द ही न हो, होंठ चले ही नहीं। और अगर शब्द हों तो शब्द यह ना कह रहे हों कि मुझे सुख दो। शब्द हों तो कह रहे हों मुझे काट दो। ये प्रार्थना होती है।

प्र३: आचार्य जी, अभी हमने डिस्कशन (चर्चा) किया कि ऐसे कर्म जो अहंकार का विगलन करते हैं, वो कष्टदायी होंगे। तो क्या कष्टों का पीछा कर-करके ही मुक्ति मिल सकती है?

आचार्य: कुछ हद तक हाँ। अगर बिलकुल तात्विक दृष्टि से पूछ रहे हो, वस्तुनिष्ठ हो कर, तो हाँ। पर अगर पूछने में भावना मुक्ति से ही मुक्ति पा लेने की है तो, ना। अगर ये बिलकुल ऑब्जेक्टिवली (वस्तुनिष्ठ) पूछा है तुमने कि — क्या मुक्ति के रास्ते पर कष्ट होते हैं? बिलकुल होते हैं। क्या मुक्ति के लिए कष्टों का पीछा ही करना पड़ता है? बिलकुल करना पड़ता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि तुम्हें मुक्ति से वैसे ही बचना है जैसे हम कष्टों से बचते हैं।

क्योंकि कष्ट की बात जैसे ही उठती है, वैसे ही भावना बचने की उठती है। तो अगर तुम कष्टों की बराबरी मुक्ति से रख दोगे तो मुक्ति से भी तुम्हारी भावना बचने की हो जाएगी कि इससे भी वैसे ही बच कर रहो जैसे कष्टों से बचा जाता है। तो मुक्ति की दिशा में जो कष्ट मिलते हैं थोड़े विशेष होते हैं। उनमें और साधारण कष्टों में अंतर करके देखना चाहिए। एक कष्ट होता है इसलिए क्योंकि तुम मुक्त नहीं हो। और एक कष्ट होता है इसलिए क्योंकि तुम मुक्त होना चाहते हो।

कष्ट दोनों हैं। जो पहला कष्ट है, जो इसलिए होता है कि तुम मुक्त नहीं हो, वो छिपा हुआ होता है, सोया हुआ होता है, प्रकट-प्रत्यक्ष नहीं होता है। इसीलिए बहुत ज़्यादा अनुभव नहीं होता। जो कष्ट तुम झेलते हो मुक्ति की दिशा में बढ़कर, वो एकदम प्रकट कष्ट होता है। तुमने उसका चुनाव किया होता है। चूँकि ये प्रकट होता है, इसीलिए ज़्यादा बड़ा दिखता है। चूँकि ये ज़्यादा बड़ा लगता है तो ऐसा लगता है कि मुक्ति माँगने वालों को ज्यादा कष्ट मिलता है बजाय उनके जो मुक्ति नहीं माँगते, जो बंधन में पड़े रहते हैं। नहीं ऐसा नहीं है।

कष्ट उनको भी है जो बंधन में पड़े हुए हैं। कष्ट उनको भी है जो मुक्ति के दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। तुम सही कष्ट चुनो।

बंधनों में जो पड़े रहकर कष्ट झेल रहे हैं, उन्हें उनके कष्टों से कभी मुक्ति नहीं मिलेगी। मुक्ति की दिशा में बढ़कर अगर तुम कष्ट झेल रहे हो तो तुम्हें धीरे-धीरे अपने कष्टों से भी मुक्ति मिल जाएगी। बोलो फिर कौनसा कष्ट चुनना है। ऐसा कष्ट चुनना है जिसे कितना भी तुम भोगे जाओ फिर भी वो कम नहीं होगा या ऐसा कष्ट चुनना है जिसको जितना भोगोगे उतना कम होता जाएगा?

साहसी आदमी चाहिए ये कहने के लिए कि तिल-तिल करके क्यों मरें। जो चीज़ इतना हमें छुपे-छुपे परेशान कर रही है, सता रही है उसका सामना ही क्यों न कर लें!

प्र३: एक तरह से कष्टों को होश में चुनना होगा, बेहोशी में नहीं।

आचार्य: कष्टों को होश में चुनना होगा। मुक्ति की दिशा में बढ़ने पर भी तुम्हें जो कष्ट मिलते हैं न, वो वास्तव में मुक्ति के द्वारा दिए गये कष्ट नहीं हैं; वो तुम्हारी ग़ुलामी के ही कष्ट हैं। जो तब तक चुपचाप पड़े थे जब तक तुम्हें ग़ुलाम रहना स्वीकार था। लेकिन जैसे ही तुम आज़ादी की ओर बढ़ने लग गए वैसे ही वो तुम्हें चुभने लग गए।

ऐसे समझ लो, मुझे बाँध दिया गया है। मुझे इसी मेज़ से बाँध दिया गया है। मेज़ के पाँव से मेरे पाँव को बाँध दिया गया है और ज़ंजीर है एक इतनी लम्बी और मैं बैठा हुआ हूँ। मैं जब तक यहाँ बैठा रहना स्वीकार कर लूँ, मुझे कोई कष्ट पता चलेगा? पर मैं मुक्ति की दिशा बढ़ने लग जाऊँ, तो तब क्या होगा? तब वो ज़ंजीर मेरे पाँव को बहुत ज़ोर से चुभेगी। क्या मुझे वो कष्ट मुक्ति ने दिया? नहीं, मुझे वो कष्ट मेरी ग़ुलामी ने ही दिया है। पर मैं जब तक ग़ुलामी स्वीकार कर रहा था, तब तक मुझे ग़ुलामी का कष्ट पता नहीं चल रहा था। ग़ुलामी का कष्ट भी उन्हीं को पता चलता है जो ग़ुलामी के ख़िलाफ़ विद्रोह करके मुक्ति की ओर बढ़ते हैं। जो विद्रोह ही नहीं कर रहा है ग़ुलामी से, उसे ग़ुलामी में कोई कष्ट पता भी नहीं चलता। यही वजह है कि ज़्यादातर लोग ग़ुलाम रहना मंज़ूर कर लेते हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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