जो संसार से मिले सो समस्या; समस्या का साक्षित्व है समाधान

Acharya Prashant

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जो संसार से मिले सो समस्या; समस्या का साक्षित्व है समाधान

श्रोता१: जो भी माइंड (मन) में थॉट्स (विचार) घूमते रहते हैं, वो तो हमेशा होते ही हैं।

वक्ता: हाँ, हाँ।

श्रोत१: लेकिन उनके बारे में सोचने लगता हूँ तो फ्रस्ट्रेशन अपने आप बढ़ती रहती है।

वक्ता: नहीं बढ़ेगा क्योंकि जिसको तुम फ्रस्ट्रेशन कह रहे हो ना, वो भी सिर्फ़ एक थॉट (विचार) है। इस बात को समझना, तुम कुछ मूलभूत बातें देख नहीं रहे हो, फ्रस्ट्रेशन क्या है थॉट (विचार) के अलावा? क्या कोई ऐसा है, जो सो रहा हो, गहरी नींद में हो और गहरी नींद में भी चिंतित हो, उत्तेजित हो, फ्रस्ट्रेटेड हो? कोई ऐसा है यहाँ पर? किसको देखा है कि वो सोते वक्त भी झुंझलाया हुआ है?

सारी झुंझलाहट तुम्हारी शुरू किस क्षण होती है, कभी देखा तुमने ये? तुम्हारी सारी झुंझलाहट शुरू कब होती है? तुम सो रहे हो, और तुम्हें होंगी सौ चिंताएँ, दुनिया होगी तुम्हारे लिए बहुत बड़ी मुसीबत, पर जब तक तुम सो रहे हो तब दुनिया है कहाँ? कहाँ है? और मैं गहरी नींद की बात कर रहा हूँ, सपने वगैरह नहीं ले रहे। सारी चिंताएँ किस पल शुरू होती हैं? जिस पल विचार शुरू होता है, जिस पल तुम सोचना शुरू करते हो। और याद रखना सोचना हक़ीकत नहीं है, सोचना कई बार यथार्थ भी नहीं है।

सोचने के अलावा और कोई चिंता नहीं होती। चिंता को तुम सोचने से अलग मत समझ लेना, जब तुम कहो कि मुझे चिंता हो रही है, तो उसका अर्थ बस इतना ही है कि तुम चिंतित विचार कर रहे हो। चिंता, विचार और सोच से अलग कुछ भी नहीं होती।

और अगर तुम अभी चिंतित होना चाहते हो तो हो सकते हो; आँख बंद करो और जितनी आफतों की कल्पना कर सकते हो कर लो, फिर देखो यहीं बैठे-बैठे चिंतित हो जाओगे। करो, प्रयोग करना चाहते हो तो अभी करके देख लो?

तुम्हारे जितने भी मनोभाव होते हैं, वो सब विचार हैं| प्रमाण ये है कि तुम यहाँ बैठे-बैठे चाहो तो खुश हो सकते हो। जो लोग प्रसन्न होना चाहते हों, वो आँख बंद करें और अतीत की जितनी प्यारी-प्यारी स्मृतियाँ हैं उनका विचार करने लगें; देखो मन अभी कैसे प्रफुल्लित हो जाएगा। और जो लोग दुखी होना चाहते हों वो उन सब घटनाओं को याद कर लें जो तुम्हारे साथ घटी हैं या जिनकी तुम्हें आशंका है कि घट सकती हैं, तथाकथित बुरी घटनाएँ। याद करने भर से दुखी हो जाओगे, अभी दुखी नहीं थे।

श्रोता२: लेकिन सर, अकेले बैठने पर ही टेंशन (तनाव) ज़्यादा होती है।

वक्ता: अकेले बैठने पर दोनों चीज़े हो सकती हैं। ऐसे भी लोग हैं जो जब अकेले बैठते हैं तो और ज़्यादा तनाव मुक्त हो जाते हैं। समझो बात को| तुम जब अकेले बैठे हो तब तुम्हारे पास कोई और पदार्थ नहीं होता। मन के कुछ नियम है इनको जानना अभी, मन खुद सिर्फ़ पदार्थों को पकड़ सकता है।

मन क्या है? क्या मन में कुछ भी तुमने ऐसा देखा या सोचा है जो पदार्थ न हो, जिसका रूप, रंग, आकार, नाम न हो, जिसकी कुछ पदार्थगत विशेषता न हो? तुम्हारे मन में क्या कभी ऐसी कोई चीज़ आई है? जल्दी बताओ, क्या तुम्हारे मन में कभी भी ऐसा कुछ भी आ सकता है जिसका रूप, रंग, आकार, नाम, फिजीकल कैरेक्टरस्टिक्स न हों? आ सकता है? जल्दी बोलो?

श्रोतागण: नहीं।

वक्ता: नहीं आ सकता ना? तो मन पदार्थों में ही जीता है। मन किन में जीता है?

श्रोतागण: पदार्थों में।

श्रोत२: ये बना ही ऐसे है।

वक्ता: हाँ, ये बना ही ऐसे है, बढ़िया। जो मन पदार्थों में जीता है, उसे पदार्थ की ख़ुराक लगातार चाहिए, नहीं तो वो मर जाएगा। मन किस में जीता है?

श्रोतागण: पदार्थ में।

वक्ता: पदार्थ में। तो मन को लगातार किसकी ख़ुराक चाहिए? – पदार्थ की, नहीं तो वो मर जाएगा। मन मरना नहीं चाहता। अब जब मैं यहाँ बैठा हूँ और तुम सब मेरे सामने बैठे हो, तो तुम सब मन के लिए पदार्थ हो, भोजन हो, आहार, ख़ुराक हो, मन को ख़ुराक मिल रही है। मन को ख़ुराक किस रूप में मिल रही है? दूसरों के रूप में मिल रही है, दूसरे मन की ख़ुराक हैं। तो तुम्हारी बात सुनी ख़ुराक मिल गयी, तुम्हारी शक्ल देखी ख़ुराक मिल गयी। बात क्या है? पदार्थ है, क्योंकि कान में पड़ती है। शक्ल क्या है? पदार्थ है, क्योंकि आँख से देखा जाता है। या मैंने चाय पी मुझे ख़ुराक मिल गयी, क्योंकि चाय भी क्या चीज़ है जो हाथ से पकड़ी जाती है।

जो कुछ भी तुम्हारी इन्द्रियों से, सेंसेज़ से जाना, देखा, समझा जा सकता है, अनुभव किया जा सकता है, वो सब पदार्थ है। वो सब क्या है? पदार्थ हैं। तो जब दूसरे सामने होते हैं, तो दूसरों के माध्यम से मन को ख़ुराक मिलती रहती है। अब दूसरे मान लो हट गए, खुले आकाश के नीचे हो, खुला मैदान है और दूर-दूर तक कोई नहीं है, पर मन को ख़ुराक तो अभी भी चाहिए ना? कि नहीं चाहिए? जल्दी बोलो|

श्रोतागण: चाहिए।

वक्ता: चाहिए ना? मन को अगर अब ख़ुराक चाहिए तो वो ख़ुराक कहाँ से पाएगा? अब ख़ुराक के लिए विचार उठते हैं, और विचार भी सब पदार्थ होते हैं क्योंकि तुम्हारा कोई भी विचार बिना किसी पदार्थगत विषय के, मटेरियल ऑब्जेक्ट के बिना कोई विचार हो नहीं सकता। ये भी कोशिश कर के देख लो, सोचो किसी ऐसी चीज़ को जो पदार्थ न हो? पदार्थ का मतलब कोई ऐसी चीज़, जो समय में और स्थान में न हो, टाइम-स्पेस न हो जो।

पदार्थ की परिभाषा होती है, वो जो टाइम-स्पेस में है। तो अब जब कोई नहीं है, तो मन को जिन्दा रहने के लिए क्या करना पड़ेगा? – सोचना पड़ेगा। समझ रहे हो? जब कोई है तो उससे बातचीत करना ही काफ़ी है, क्योंकि ख़ुराक मिल रही है। ख़ुराक कहाँ से मिल रही है? बाहर से मिल रही है। और जब बाहर से मिलनी बंद हो गयी तो वो भीतर से शुरू कर देता है। इसीलिए पाँच इन्द्रियाँ होती हैं और छठी इन्द्रीय मन को ही कहा जाता है। या तो पाँच बाहर वाली इन्द्रियों से ख़ुराक आएगी और अगर बाहर वाली से नहीं आ सकती, तो छठी ख़ुद ही पैदा कर लेगी। इस छठी ख़ुराक का क्या नाम होता है?

श्रोतागण: मन।

वक्ता: (नहीं में सिर हिलाते हुए) विचार। छठी इंद्री है मन और छठी ख़ुराक है?

श्रोतागण: विचार।

वक्ता: विचार। पाँच ख़ुराके क्या हो गयी? दृश्य, शब्द, स्पर्श ये सब। ये सब क्या हो गई? पाँच ख़ुराके। और छठी ख़ुराक क्या हो गई? – विचार। हालांकि दृश्य, शब्द ये सब भी जा करके अंततः विचार में ही सम्मिलित हो जाते हैं, लेकिन ये सब उपलब्ध यदि न भी हों, तो विचार अपने दम पर ही खड़ा हो जाता है। आ रही है बात समझ में? तो इसीलिए जब अकेले होते हो तो खूब सोचते हो ताकि मन चलता रहे और मन जब तक चलता रहेगा, चिंता चलती रहेगी। कितने लोगो को चिंतित होना पसंद है? जल्दी बोलो?

श्रोतागण: किसी को नहीं।

श्रोता३: अपने आप आ जाता है।

वक्ता: अपने आप रहते हैं।

श्रोता४: सर ये जो सामजिक महत्व है, ये जो समाज़ में चलता है, क्या ये होना चाहिए था या नहीं होना चाहिए था ये भी कुछ फ़िक्स नहीं है?

वक्ता: हाँ, पर इसका मन से क्या सम्बन्ध है?

श्रोता४: सर, तो इन्ही सब चीजों काअट्रैक्शन है, यही सब चीज़े घूमती हैं दिमाग में, इन्ही का विचार आता है।

वक्ता: बहुत बढ़िया, अब तुमने बात कुछ खोली है। तो थोड़ी देर पहले हमने जो कहा था देखो वो बात फिर सामने आ गयी। हमने कहा था, “सो रहे हो जब तक, तब तक चिंता नहीं होती|” हो सकता है कि तुम्हारे शरीर को कैंसर भी हो, और हो सकता है कि तुम कैद में पड़े हो, और हो सकता है कि तुम राजा हो, पर अगर गहरी नींद में सो रहे हो तो सब बराबर है, और सब ठीक है।

सारी चिंता, या सारी प्रसन्नता शुरू किस समय होती है? जब आँखों के सामने संसार आता है, और संसार का बड़ा हिस्सा है समाज, जो इंसान ने बनाया, ये पूरा मॉहौल। ये जैसे ही इन्द्रियों के माध्यम से मन में घुसता है, आक्रमण करता है वैसे ही चिंता शुरू, और इसका कोई उपचार नहीं है, क्योंकि इसकी परिभाषा ही यही है। अगर इसने मन को जकड़ लिया, तो चिंता होनी ही होनी है। तुमने आँख खोली और बाहर उपद्रव देखा, चिंता शुरू, क्योंकि उपद्रव सीधा आँखों से घुस कर के मन तक पहुँचा और मन को अपनी गिरफ्त में ले लिया। तुम कुछ कर नहीं पाओगे। तो ये तो बड़ी लाचारगी की हालत हो गयी, क्या करें? कुछ करा जा सकता है। करा ये जा सकता है कि तुम अपने आप को मन से ज़रा हटा लो, मन तो पकड़ में आ ही जाएगा संसार की क्योंकि मन बना ही संसार से है। संसार माने पदार्थ और मन भी?

श्रोतागण: पदार्थ।

वक्ता: पदार्थ। जो मन संसार से ही बना है, जो मन संसार का ही बच्चा है, जिसमे संसार की ही दी हुई सारी सामग्री भरी हुई है, वो मन संसार की कैद में भी आ जाएगा। तुम्हारे मन में कुछ भी ऐसा है क्या जो संसार से न मिला हो? तुम्हारा सारा ज्ञान तुम्हें कहाँ से मिला है?

श्रोतागण: संसार।

वक्ता: तुम्हें कहाँ से मिला है? तुम जो कुछ भी सोचते हो, वो सारे पदार्थ कहाँ है?

श्रोतागण: संसार में।

वक्ता: तो मन जब भरा ही पूरा संसार की सामग्री से है, तो संसार अगर उसमे और सामग्री डाल दे, तो उसे कोई रोक नहीं सकता। संसार ऐसा कर सकता है। मन किसका?

श्रोतागण: संसार का।

वक्ता: संसार का। तन भी किसका?

श्रोतागण: संसार का।

वक्ता: संसार का। अब जब तन और मन कह ही दिया है तो बता दो धन भी किसका? (हँसते हुए)

श्रोतागण: संसार का।

श्रोता५: हमारा।

वक्ता: वो भी संसार का है बेटा, तुम्हारे पास कितने रुपये हैं जेब में जो तुमने खुद छापे? जल्दी बताओ?

श्रोता५: एक भी नहीं।

वक्ता: तुम दावा तो करते हो कि तुम्हारे हैं, पर कोई भी छीन सकता है। है कि नहीं?

श्रोता६: संसार से कोई कुछ लेता है तो देना तो पड़ता है ना संसार से लेने के लिए कुछ…।

वक्ता: जो तुमने दिया किसको दिया? जो तुमने दिया वो किसको दिया?

श्रोतागण: संसार को।

वक्ता: जो तुमने लिया वो भी किस से लिया?

श्रोतागण: संसार से।

वक्ता: सब संसार में ही तो कर रहे हो।

श्रोता६: फ्री ऑफ़ कॉस्ट थोड़ी है सर।

वक्ता: जो कॉस्ट है, जो तुम कह रहे हो, “कॉस्ट है” ये देनी पड़ेगी ये नियम भी किसने निर्धारित किया?

श्रोतागण: संसार।

वक्ता: ठीक है तुम जाते हो, तुम कहते हो कि “दस रुपये के दो आलू। तो मैं दस रूपये ले कर के दो आलू ले लूँगा।” तुम कहते हो “फ्री ऑफ़ कॉस्ट नहीं है” पर ये नियम कि हर चीज़ की कीमत होनी चाहिए, ये नियम भी क्या तुमने बनाया?

श्रोता६: नहीं सर।

वक्ता: ये नियम भी तो संसार ने बनाया ना? अभी तुम ऐसे कह रहे हो, जैसे कि ये कोई अस्तित्व का नियम हो। ये नियम भी तो बाहरी ही है ना? तुम्हारा तो नहीं है? बाहर तुम जो कुछ भी करते हो वो बाहरी ही है और उसका प्रमाण ये है बेटा कि तुम पैदा हुए थे, तो ये सब जानते हुए नहीं पैदा हुए थे, ये सब तुम्हें दिया गया है। या पैदा होते तुमने कहा था कि “दूँगा तभी मिलेगा”? अगर ये पता होता कि दूँगा तभी मिलेगा तो माँ से स्नेह कैसे मिलता? माँ को तुमने क्या दिया था?

आज तुम कह रहे हो “फ्री ऑफ़ कॉस्ट कुछ भी नहीं मिलता।” माँ को तुमने क्या दिया था जो स्नेह मिला? और तुमने अस्तित्व को क्या दिया था जो जन्म मिला? अगर सब कुछ क़ीमत अदा करने पे मिलता है तो तुमने पैदा होने की किसको क़ीमत अदा करी थी?

श्रोता७: सर वो तो पापा ने की।

वक्ता: तुमने पापा को क़ीमत दी थी?

श्रोता७: सर वो तो काम है उनका।

(सब हँसते हैं)

वक्ता: उनका है तुम्हारा तो नहीं? मान भी लिया पिता जी का काम है तुम्हें पैदा करना (हँसते हुए) तो भी तुमने क्या क़ीमत अदा करी अपने पैदा होने की?

श्रोता७: क़ीमत तो दी है।

वक्ता: क्या दी है बेटा?

श्रोता७: सर जो पैसे हैं हमारे पास।

वक्ता: अरे बेटा, तुम पैदा हुए थे तुमने कौनसी क़ीमत दी थी पैदा होने की?

श्रोता७: सर किसी न किसी ने तो दी थी।

वक्ता: तुमने क्या दी थी?

श्रोता८: सर, हम आगे देंगे।

वक्ता: और तुम मर गए होते दो की उम्र में?

वक्ता७: नहीं सर उन्होंने तो…

वक्ता: तुम्हें ये सीधी सी बात समझ में नहीं आ रही या समझना चाह नहीं रहे कि अपने पैदा होने की कोई क़ीमत नहीं अदा करता। जानवरों के बच्चे पैदा हो रहे हैं, वो क़ीमत दे के पैदा हो रहे हैं?

श्रोतागण: नहीं सर।

वक्ता: एक पेड़ से दूसरा पेड़ पैदा हो रहा है वो क़ीमत दे के पैदा हो रहा है?

श्रोतागण: नहीं सर।

वक्ता: तो ये नियम भी, जिनको तुमने आज ऐसा समझ लिया है कि ये तो बड़े भारी नियम हैं, ये सारे नियम भी सांसारिक नियम हैं। और अगर तुम तक पहुँचाए न जाएँ तो कोई ज़रूरी नहीं है कि तुम इन्ही नियमो का पालन करो। आज तो तुम हज़ार नियमो का पालन करते हो धर्म के, जाति के, संस्थानों के, सम्प्रदायों के, क्या तुम इन्ही नियमों का पालन करते अगर तुम कहीं और पैदा हुए होते? ये सारे नियम तुम तक पहुँचाए गये हैं, तुम्हारे नहीं है। अगर तुम्हारे होते तो तुम्हारे भीतर से उठते। पर आज अगर तुम्हारी स्मृति का लोप हो जाए, मान लो तुम्हारे सर पर कुछ मार दिया जाए और तुम्हारी सारी याद्दाशत गायब हो जाए, तो तुम कभी क, ख, ग नहीं जान सकते, जब तक कोई बाहरी आ करके तुम्हें न दे दे; तुम्हारी सारी चालाकी ख़त्म हो जाएगी, तुम्हारी सारी होशियारी ख़त्म हो जाएगी।

इसका मतलब क्या है? ये सब बाहर से मिला है तुमको। तुम्हारा सारा ज्ञान कहीं नहीं बचेगा, जिसको तुम आज अपनी पहचान मानते हो वो सब चला गया; ये सब स्मृति ही था, संसार ने ही दिया था। तो वापस आते हैं इस बात पर कि मन पूरा संसार की सामग्री से ही भरा रहता है और जो संसार की सामग्री से भरा हुआ है, संसार उसे कब्ज़े में कर ही लेगा| तो ये उम्मीद भी मत रखना कि तुम मन के मालिक हो सकते हो। अगर कोई दावा करता है कि “मैं मन का मालिक हूँ” तो मन का मालिक तो नहीं ही है, मूर्ख भी है।

फिर तुम कर क्या सकते हो? क्या तुम्हारी नीयति ही यही है कि तुम भुगतते रहो और संसार के गुलाम बने रहो? तुम्हें जो पढ़ा दिया जाए तुम उसी पर चलते रहो? तुम जिस ज़गह पर, जिस काल में पैदा हुए थे उसी के बन्धनों में बंधे रहो? नहीं, ये तुम्हारी नियति नहीं है। मन जो करे सो करे, तुम मन को जानने वाले हो सकते हो। करेगा मन, पर जानने वाले तुम हो सकते हो, ये तुम बिलकुल कर सकते हो। मन हज़ार चीज़े कर रहा है, और तुम कह रहे हो “हाँ मन कर रहा है, ठीक। अब मन को मिली है ज़रा गति, हम देख रहे हैं। मन अपनी सारी हरकतों में लगा हुआ है लेकिन हम मन से ज़रा सा हट कर के हैं। हम चिपक नहीं गए हैं मन से, मन हमारी पहचान नहीं है।”

ठीक है, पाँव में चोट लगी है और मन को दर्द प्रतीत हो रहा है और हम देख पा रहे हैं, हम शान्ति से कह पा रहे हैं कि “बहुत दर्द हो रहा है।” दो व्यक्ति हैं, दर्द दोनों को हो रहा है, बराबर का दर्द हो रहा है, अगर किसी यंत्र से नापा जाए तो दोनों को दर्द बराबर का है, दोनों को चोट भी एक समान गहरी दी गयी है, दोनों की उम्र वगेरह भी एक जैसी ही है। लेकिन उनमे से एक चीख़ रहा है, चिल्ला रहा है, बिलख रहा है और कह रहा है, “अरे, अब तो मैं कुछ नहीं कर सकता, इतना ज़्यादा दर्द है।” और दूसरा कह रहा है, “हाँ दर्द बहुत है पर कोई बात नहीं।”

दर्द बराबर का हो रहा है दोनों को, याद रखो संसार की दी हुई चोट ने दोनों के मन को गिरफ्त में ले लिया है। दर्द दोनों को बराबर का है लेकिन एक दर्द के साथ संयुक्त हो गया है और दूसरा कह रहा है, “ठीक है, दर्द है। दर्द को अपना काम करने दो हम अपना काम करेंगे।” इसी तरह से तुम कह सकते हो कि हाँ है, चिंता है, चिंता को अपना काम करने दो हम अपना काम करेंगे।”

“चिंता है पर चिंता के रहते हुए भी हम ज़रा चिंता से अछूते हैं। मौजूद है चिंता पर हम कहीं ऐसी जगह बैठे हैं जहाँ चिंता हमे छू भी नहीं पा रही। हम चिंता से ज़रा से पीछे बैठे हैं, ज़रा सा हट के बैठे हैं।” अब बच सकते हो चिंता से। बात समझ में आ रही है? और जब तुम चिंता से हट करके बैठ जाते हो तब तुम चिंता को इंधन देना बंद कर देते हो। चिंता में इतनी ताकत, इतनी हैसियत नहीं है कि अपने दम पे बहुत देर तक चलती रहे।

जब तुम चिंता के साक्षी हो जाते हो तो थोड़ी ही देर में चिंता लुड़क-पुड़क कर के ढह जाती है, ख़त्म हो जाती है। पर जब तक नहीं भी ढह रही, जब तक वो चल भी रही है तब तक भी तुम्हें उसे छेड़ने की ज़रूरत नहीं है। चिंता को छेड़ना, चिंता को दबाना ऐसा ही है कि जैसा कोई आग को बुझाने की कोशिश करे उसके ऊपर पेट्रोल डाल करके। तुम्हें चिंता हो रही है और तुम लगे हुए हो कि “मैं चिंता को दबा दूँगा, बुझा दूँगा, चिंता से मुक्त हो जाऊँगा।” और तुम जितनी कोशिश करोगे उससे चिंता को इंधन ही मिलेगा।

जब चिंता हो रही हो तो बस ठीक है। कोई पूछे कि कैसे हो? बोलो, “चिंतित हूँ।” स्वीकार करो, लड़ो मत इस बात से, खुल के कहो, “खूब चिंता है, पर आओ ज़रा फुटबॉल खेल लेते हैं। चिंता बहुत है पर ज़रा सो लेते हैं। बहुत चिंता है, चलो ज़रा घूम के आते हैं।” हम कर रहे हैं जो हमे करना है, जो धर्म है हमारा, चिंता है तो है हमे चिंता से कोई लेना देना ही नहीं है, बैठी रह तू, बैठी रहे, देखते हैं कितनी देर बैठी रहेगी।”

कोई बिन बुलाया मेहमान हो तो ज़रूरी थोड़ी है कि उसे धक्के दे के ही बाहर निकालो, उससे बातचीत ही मत करो। कोई बिन बुलाया मेहमान हो तो उससे लड़ने की ज़रूरत है क्या?

श्रोतागण: नहीं सर।

वक्ता: बस बातचीत मत करो, आदर सत्कार मत करो, खाना-पीना मत दो; कितनी देर टिकेगा? कितनी देर टिकेगा? खुद ही चला जाएगा। और अगर उससे तुम लड़ने बैठ गए तो बड़ी बात नहीं कि बुरा मान जाए और कहे कि “अब निकाल के दिखाओ। अब तो धरना दे दिया, अब यहीं बैठेंगे, कहीं नहीं जाना हमे।” और कोर्ट कचेहरी और हो जाए, पुलिस बुला ले कि “अब तो हमारा ही घर है, हम जाएंगे ही नहीं यहाँ से।” तुमने करना क्या है? बात आ रही है समझ में?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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