जो छोटे मसले नहीं संभाल सकता, वो बड़े क्या संभालेगा || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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जो छोटे मसले नहीं संभाल सकता, वो बड़े क्या संभालेगा || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्न: सर, जैसे कर्ताभाव की बात होती है, तो कर्ताभाव जब उठता है, तब तो पता ही नहीं चलता कि ये कर्ताभाव है। जैसे कभी कर्ताभाव आ जाता है, कि हम पढ़ा रहे हैं, तो उस समय तो पता ही नहीं चलता कि ये कर्ताभाव है। अगर जान जाएँ कि कर्ताभाव उठ रहा है, तो क्या सिर्फ़ जानने से इससे मुक्ति मिल जाती है?

वक्ता: नहीं, जानने से नहीं होगा क्योंकि ‘जानना’ तात्कालिक होता है। उस समय हुआ होता है, इन दा प्रेजेंट मोमेंट (उसी क्षण) होता है। लेकिन जानना जिस ज़मीन पर है, वो ज़मीन अभी गंदी है। समझ रहे हो बात को? ऐसे समझ लो कि जैसे यह कमरा है, मान लो इसमें चार पाँच खिड़कियाँ हैं, और खिड़कियाँ खुली हुई हैं, और उनसे ख़ूब धूल और रेत आती है। और दरवाज़ा टूटा हुआ है, और उससे आदमी, जानवर, सब गंदे कपड़े, गंदे जूते, गंदे पाँव लेकर घुसते रहते हैं। तो तुम इस कमरे की एक बार को ख़ूब सफ़ाई कर भी दो, तो भी क्या होगा?

श्रोता १: फिर गन्दा हो जाएगा।

वक्ता: तो दोनों बातें ज़रूरी हैं। तात्कालिक ध्यान भी ज़रूरी है, सफ़ाई भी ज़रूरी है, लेकिन उस सफ़ाई के साथ-साथ ज़्यादा ज़रूरी है कि जो सिस्टमेटिक फ्लॉज़ (प्रणालीगत ख़ामियाँ) हैं न तुम्हारी ज़िन्दगी में, जहाँ सिस्टम (प्रणाली) ही ख़राब है, प्रोसेस (प्रक्रिया) ही ख़राब है, उनको ठीक करना पड़ेगा। दरवाज़े को जुड़वाना पड़ेगा, खिड़कियों में शीशे लगवाने पड़ेंगे ताकि बाहर की जो रेत बार-बार आ जाती है, यह आनी बंद हो जाए। घर के किवाड़ नहीं है, घर में जानवर घुसे आते हैं, जानवरों को भगाना पड़ेगा। नहीं तो बार-बार सफ़ाई करोगे, और बार-बार पाओगे कि- “धत, फिर गन्दा, फिर गन्दा। सफ़ाई तो रोज करते हैं, और फिर गन्दा हो जाता है।”

एक दिन ऐसा आएगा कि सफ़ाई करने से ही थक जाओगे। कहोगे, “जब गन्दा होना ही है, तो क्यों सफ़ाई किए जाते हैं, छोड़ो।” हार जाओगे। सिस्टम ठीक करने ज़रूरी हैं। देखो, तुम कर्ताभाव की बात कर रही हो, एक तो बात ये है कि- “कर्ताभाव उठ गया, तो क्या करें?” उस समय ध्यान आपके काम आ जाएगा। आप ध्यान दे देंगे, तो आपको कर्ताभाव दिखाई दे जाएगा। लेकिन ज़्यादा बड़ा सवाल ये है कि – कर्ताभाव बार-बार उठता क्यों है?

तुम्हें बीमारी आ गयी, तो तुम्हें दवाई दे दी जाएगी। दवाईयाँ हैं, वो बीमारी का ज़ोर कम कर देंगी। पर क्या ज़्यादा बड़ा सवाल ये नहीं है कि बीमार हो क्यों जाते हो बार-बार? एक छात्र ने पूछा था एक संवाद में, “सर, थॉट कंट्रोल (विचार नियंत्रण) कैसे करें?” मैंने कहा, “मैं बता सकता हूँ, लेकिन क्या ज़्यादा महत्त्वपूर्ण सवाल ये नहीं है कि पूछो कि विचार उठते ही क्यों हैं बार-बार?” मन ऐसा क्यों न बन जाए कि जिसमे फ़ालतू विचार उठते ही न हों?

चित्तवृत्तिनिरोध के तरीके हैं, पतंजलि ने बता दिए, आप इस्तेमाल कर लो। लेकिन ये भी तो देखो कि बार-बार चित्त में वृत्तियाँ उठ क्यों रही है? ये भी पूछो, “बार-बार बीमार पड़ क्यों रहे हैं?”

क्यों पड़ रहे हो बार-बार बीमार? क्योंकि जिस माहौल में रह रहे हो, उसमें गन्दगी है, उसमें विषाणु हैं। कितनी बार दवाई लोगे डॉक्टर की? डॉक्टर दे देगा दवाई। कर्ताभाव तब हटेगा, जब ज़िन्दगी का ढर्रा बदलेगा। कक्षा में सत्र लेते समय कर्ताभाव उठता है, तो इसका यह अर्थ नहीं है कि सत्र में कुछ गड़बड़ हो गयी थी। इसका अर्थ यह है कि जीवन में कहीं गड़बड़ है। जीवन ठीक रहेगा, तो सत्र ठीक चलेगा।

आज हमारे पास कक्षा में अगर*राईट रेस्पोंस (*उचित प्रतिक्रिया) नहीं होता है, तो ऐसा इसलिए नहीं होता क्योंकि ज़िन्दगी में हमारे पास राईट रेस्पोंस नहीं है। मैंने अभी कहा न कि हमकक्षा के बच्चे को सही जवाब कैसे दे पाएँ, जब हम अपने बच्चे को सही जवाब देना नहीं जानते। हमारा अपना बच्चा हमारे हाथ से फिसला हुआ होता है, तो कक्षा के बच्चे को हम कैसे पकड़ेंगे? समझो बात को।

तुम कक्षा में जाते ही अलग थोड़ी हो जाते हो। होते तो वही हो न जो घर से आए होते हो। हो तो वही न जो गाड़ी में बैठे थे, होते तो वही हो न जो ड्राईवर के साथ एक तरह का बर्ताव कर रहा था, और जब ट्रैफिक को देख रहा था तो जिसके मन में चिंता उठ रही थी। होते तो वही हो न जो अलार्म लगा के सोता है कि सुबह उठना है। तुम वही सब हो न?

जीवन जितना अच्छा रहेगा, जितना शुद्ध रहेगा, तुम पाओगे कि मन को कंट्रोल , व्यवस्थित, नियंत्रित करने की ज़रूरत अब है ही नहीं। यह अब सवाल ही व्यर्थ हो गया है कि थॉट कंट्रोल (विचार नियंत्रण) कैसे करें, क्योंकि वो थॉट (विचार) अब है ही नहीं जिसे नियंत्रित करने की ज़रूरत पड़ती थी। तुम पूछते हो, “सर आपने कह दिया नॉन वेज (माँसाहार) नहीं खाना, ये नहीं करना, वो नहीं करना, और नॉन वेज देखते हैं तो लार टपकती है मुँह से, तो क्या करें?” तो मैं यही कह सकता हूँ कि अब लार टपक रही है, तो भाग जाओ कहीं। लेकिन ये कोई समाधान नहीं हुआ। ये तो एक तात्कालिक पैबंद लगाने वाली चीज़ हो गयी, कि पैंट फट गयी है तो उसमें पैबदं लगा दिया है।

इसका असली समाधान क्या है?

श्रोता २: यही कि लालसा ही न उठे मन में।

वक्ता: हाँ, मन ऐसा रखो जिसमें लालसा ही न उठे। ज़िन्दगी ठीक रखनी पड़ती है। अगर तुम दिनभर अपनी सारी वासनाओं को तूल दे रहे हो, और शाम को फिर जब बाहर निकलोगे खाना खाने, और माँस दिखाई देगा, तो क्या यह वासना भी नहीं चढ़ेगी सिर पर? इसीलिए सात्विक जीवनशैली बहुत ज़रूरी है। सात्विक जीवनशैली वही होती है जिससे विचार अपने आप शाँत रहते हैं। तुम जितना गन्दा खाना खाओगे, तुम जितने गन्दे तरीकों की बात सुनोगे, दृश्य देखोगे, साहित्य पढ़ोगे, उतना तुम्हारे मन में कुत्सित विचार उठेंगे।

अगर अचार की दो कलियाँ खाते हो, तो एक खाया करो। शरीर की उत्तेजना माने, मन की उत्तेजना। तुम माँस खा रहे हो, अब पक्का है कि तुम्हें कामवासना उठेगी। तुम अपना आह़ार-विहार भी तो देखो कि करते क्या हो।

जीसस को हम पढ़ रहे थे बाइबिल में, तो क्या कह रहे थे? “दोस हू कैननॉट बी ट्रस्टेड विथ स्मॉल मैटर्स, दे कैननॉट बी ट्रस्टेड विथ लार्ज मैटर्स” (जिसका छोटी बातों में भरोसा नहीं किया जा सकता, उसका बड़ी बातों में भी कोई भरोसा नहीं किया जा सकता)

जिसका छोटी बातों में अपने ऊपर नियंत्रण नहीं है, वो बड़ी बातों में नियंत्रण कैसे करेगा? तुम छात्रों को कैसे नियंत्रित करोगे, अगर तुमसे गोल-गप्पे का स्वाद नियंत्रित नहीं होता? जो गोल-गप्पे खा रहे हैं, मान लो वो तुम्हारे छात्र हैं, और तुम्हें ललचा रहे हैं। वहाँ तुमसे नियंत्रण हो नहीं रहा, अब कक्षा में छात्रों को नियंत्रित कैसे करोगे?

छोटी बातों में थोड़ा सयंम सीखो।

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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