जो ये बात समझ गया वो ज़िन्दगी से ठोकर नहीं खाएगा || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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जो ये बात समझ गया वो ज़िन्दगी से ठोकर नहीं खाएगा || आचार्य प्रशांत (2021)

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। आपसे जो एक चीज़ सीखी — संवेदनशीलता, कि आप लगातार ज़िन्दा हो, हर सेकंड में संवेदनशील हो। पर मेरे साथ ऐसा होता है कि एक-दो सेकंड के लिए ही संवेदनशीलता आती है, उसके बाद चली जाती है।

अभी आपको भी सुन रहा था तो बीच-बीच में सब भूल जा रहा था, और कभी लग रहा था कि पता नहीं क्या बोल रहे हैं आप। फिर झटका लगा कि अरे! इतने बेवकूफ़ हैं क्या हम सही में?

आचार्य प्रशांत: ये बात हम सब पर लागू होती है, हमारे पास एक बड़ी गड़बड़ ताक़त होती है। वो ताक़त होती है — जो जैसा चल रहा है उसको सामान्य मान लेने की। जो कुछ भी चल रहा है, उसको सामान्य मान लेने की। हम — आप अपने दिमाग पर ग़ौर करिएगा — सबके साथ होता है; हम नॉर्मल (सामान्य) को राइट (सही) मान लेते हैं। ठीक है? हम जो सामान्य है उसको सच मान लेते हैं।

आज ही मैं देख रहा था, किसी ने एक बात लिखकर के भेजी, कोई वीडियो था जो कि आज की हालत को बदलने का आह्वान कर रहा था। तो उस पर किसी ने लिखकर के भेजा कि एक्सेप्ट द न्यू नॉर्मल, एक्सेप्ट द न्यू नॉर्मल। (नये सामान्य को स्वीकार करें।) कि अब जो चल रहा है, बस उसको स्वीकार कर लो।

और वो बात उस व्यक्ति के कहने की नहीं है, वो बात तो स्वतः हो ही जाती है, सबके साथ हो जाती है। कि हम जीवन में जिस भी हालत में होते हैं, हम उसी को ठीक मानना शुरू कर देते हैं। इसको आप कंडिशनिंग (संस्कारित) भी बोल सकते हो, इसको आप एक्लीमेटाइज़ेशन (अनुकूलन) भी बोल सकते हो। शरीर के पास ये ताक़त कुछ सीमा तक होती है।

उदाहरण के लिए, आप एक बिलकुल अंधेरे कमरे में प्रवेश करें तो शुरू में आपको कुछ दिखायी नहीं देगा, लेकिन थोड़ी देर में आपको दिखायी देना शुरू हो जाता है। क्यों दिखायी देना शुरू हो जाता है? क्योंकि आपकी आँखें एडजस्ट (समायोजन) कर लेती हैं।

इसी तरीक़े से अभी यहाँ जैसे-जैसे तापमान बढ़ेगा, वैसे-वैसे आपकी जो प्रस्वेत ग्रंथियाँ हैं, स्वेट ग्लैंड्स हैं, वो थोड़ा-थोड़ा पसीना सिक्रीट (छोड़ना) करना शुरू कर देंगी, ठीक है। वो पसीना भाप बनकर उड़ेगा और आपको गर्मी लगनी कम हो जाएगी। तो वो ताक़त कुछ हद तक शरीर में भी है कि जैसी भी स्थिति है, उसी से एडजस्ट हो जाओ, समायोजित हो जाओ।

और ये बिलकुल नहीं लगेगा फिर कि स्थिति में कुछ गड़बड़ है, क्योंकि जैसी भी स्थिति थी आप उसी से समायोजित हो गये। आप उसी के अनुरूप ढल गये, आप अनुकूलित हो गये, आपने अपनेआप को स्थितियों के अनुकूल बना लिया। तो हम अनुकूलित हो जाते हैं। इसी को कहते है, कंडीशंड होना। माने हमने अपनेआप को कंडीशंस के उपयुक्त बना लिया; तो हम क्या हो गये — कंडीशंड हो गये।

प्रकृति ने ये ताक़त देह को दी है; और देह को मिलनी ज़रूरी है, नहीं तो आप जी नहीं पाएँगे न। जैसे ही ठंड आती है, वैसे ही आपका शरीर ज़रा अलग तरीक़े से व्यवहार करना शुरू कर देता है, क्यों? ताकि आप ठंड में जी पाओ। तो ये जो हमारा भौतिक शरीर है, ये लगातार आगे बढ़ता रहे, ये ख़त्म ही न हो जाए, इसके लिए प्रकृति ने शारीरिक तौर पर हमें ये ताक़त दी और शारीरिक तौर पर निश्चित उसकी उपयोगिता भी है।

समझ रहे हो बात को?

आपके कहीं पर चोट लग जाती है शरीर में। तो आप इस तरह से लंगड़ा कर चलते हो — मान लीजिए आपके एक पाँव में चोट लगी है, तो आप इस तरह से चलने लगोगे कि आपका ज़्यादा वज़न दूसरे पाँव पर पड़े। ये शरीर ने क्या किया? ये शरीर ने अपनेआप को इस तरीक़े से एडजस्ट कर लिया कि बदली हुई स्थिति में भी काम चलता रहे।

आप कभी किसी जीव को देखिए, किसी कुत्ते को देखिएगा, उसकी टाँग पर चोट लगी है — देखा है, उसे सिखाना भी नहीं पड़ता, वो अपनेआप ही तीन टाँगों पर चलना शुरू कर देता है। चौथी टाँग अगर उसकी कट भी जाए, तो भी वो तीन टाँगों पर कुछ हद तक गति करता रहता है। है न ऐसा?

तो प्रकृति ने ये ताक़त हमें इसलिए दी ताकि शरीर चलता रहे। लेकिन हमने एक बड़ा गड़बड़ काम कर लिया। मैंने कहा — उस ताक़त का हम बड़ा दुरुपयोग कर रहे हैं। हमने मन को भी वही ताक़त दे दी है। हमने मन को कह दिया है कि जो चल रहा है, तुम उसी को ठीक मान लो। एक्सेप्ट व्हाट इज़ गोइंग ऑन एज़ राइट'। (जो चल रहा है उसे सही की तरह स्वीकार कर लो।)

बात समझ रहे हो?

जो चल रहा है, उसको मान लो कि ठीक ही चल रहा होगा। तो फिर हमारे भीतर कोई विरोध नहीं उठता। आपके शब्दों में कहें तो कोई झटका नहीं लगता। क्योंकि जब सब ठीक ही चल रहा है तो झटका काहे को लगेगा। लेकिन वो जो हमें लग रहा है कि ठीक चल रहा है, वो बस काल्पनिक तौर पर ठीक चल रहा है। वास्तव में ठीक चल नहीं रहा है। और कल्पनाएँ जब भी जीवन के तथ्यों से टकराएँगी, शीशे की तरह चूर-चूर हो जाएँगी।

फिर लगता है अचानक, ज़ोर का झटका। अचानक लगता है। पहली बात, अचानक लगता है और दूसरी बात, ज़ोर का लगता है।

वो क्यों अचानक लगता है? वो इसीलिए लगता है क्योंकि हमें दिन-प्रतिदिन छोटे-मोटे झटके — बोलिए-बोलिए, साथ में चलिए। क्योंकि हमें रोज़ाना वो जो छोटे-मोटे झटके लगने चाहिए थे, वो लग ही नहीं रहे; वो हमें पता ही नहीं चल रहे। जबकि वो अगर रोज़-रोज़ लग जाते, तो हम जीवन के बड़े झटकों से बच जाते। बच जाते न? लेकिन उन छोटे झटकों के ख़िलाफ़ हम एक मानसिक रेज़िलियेंस (लचीलापन), एक, एक मेंटल शॉक एब्ज़ॉर्बर (मानसिक सदमा अवशोषक) तैयार कर लेते हैं। वो पता ही नहीं चलते।

जैसे कि आपको एक गाड़ी मिल गयी जिसका बहुत बढ़िया सस्पेंशन है और शॉक एब्ज़ॉर्बर है और बहुत अच्छी टेक्नोलॉजी (तकनीक) से उसमें काम हुआ है ये सब। टायर भी उसमें कुछ ख़ास तरीक़े के हैं, वो भी शॉक (झटका) झेल ले रहे हैं, सबकुछ है। तो छोटे-मोटे गड्ढे आपको पता ही नहीं चल रहे। आप उसे स्पीड-ब्रेकर (गति अवरोध) पर से भी गुज़ार दे रहे हो, तो भी पता ही नहीं चल रहा है। तो आपकी आदत फिर क्या बनती जा रही है — कि गड्ढा आये, स्पीड-ब्रेकर आये, उस पर निकालते चलो। क्योंकि पता तो चल ही नहीं रहा है। हमें वो सब क्या लग रहा है, नॉर्मल।

आपकी आदत एक दिन इतनी बिगड़ जानी है कि आप गाड़ी को ले जाकर के इतने बड़े गड्ढे में डाल देंगे कि शॉक एब्ज़ॉर्बर, सस्पेंशन, चेसी सब टूट जाएगा। आप भी टूट जाएँगे, कुछ नहीं बचेगा। ये फिर होता है हमारे साथ।

वही जो हमारी मेंटल नॉर्मलसी (मानसिक स्थिति) है, जो नहीं होनी चाहिए, जो एबनॉर्मल (असमान्य) है, हम उसको भी नॉर्मल मानते हैं। वही जो मिस्प्लेस्ड मेंटल नॉर्मलसी (ग़लत मानसिक स्थिति) है, वही मेंटल डिज़ीज़ (मानसिक बीमारी) बन जाती है फिर। आज जो इतना महामारी के तौर पर फैल रही है मानसिक बीमारी, उसका कारण ही यही है कि कोई भी आदमी प्रतिदिन जो उसे स्वस्थ छोटे-छोटे झटके लगने चाहिए थे, द हेल्दी डेली शॉक्स ऑफ़ लाइफ़ (जीवन के स्वस्थ दैनिक झटके), वो खाने को राज़ी नहीं है।

तो हमें दो विपरीत ध्रुव देखने को मिल रहे हैं। एक ध्रुव पर लोग हैं जिनमें बड़ी अकड़ है। आज का समय आंतरिक अकड़ का है जिसमें हर आदमी यही कह रहा है — मैं जानता हूँ, मैं ठीक हूँ। उसे कुछ बोलो तो बोलेगा, 'बाप को मत सिखा!' ‘मैं जानता हूँ, मैं ठीक हूँ, मैं हैप्पी (ख़ुश) हूँ, मैं चिल (ठंडा) हूँ। मैं ये कर रहा हूँ, मैं वो कर रहा हूँ’, एक ध्रुव ये है। और फिर उस ध्रुव से, उस पोल से कूदकर के या लात खाकर के बंदा सीधे आता है दूसरे ध्रुव पर और वहाँ पर क्या है? कि मैं मेनियेक हूँ, मैं मनोरोगी हूँ। मुझे एंग्ज़ाइटी (चिंता) है, मुझे डिप्रेशन (अवसाद) है, मुझे पता नहीं क्या-क्या है।

वो सब क्यों हुआ? वो दूसरे ध्रुव पर आपको आना ही इसीलिए पड़ा क्योंकि आप उधर वाले पोल पर अड्डा मारकर बैठ गये थे जहाँ पर आप ज़िन्दगी के छोटे-छोटे झटके स्वीकार करने को, झेलने को और उनसे सीखने को तैयार ही नहीं थे। आपके पास एक बुलंद और झूठा दावा था कि साहब, मैं ठीक हूँ, मैं जानता हूँ और मेरा सब कुछ ठीक चल रहा है। बढ़िया है, मुझे समझ में आती हैं चीज़ें और मैं देख लूँगा। ये हम सब के साथ हो रहा है।

ख़ासतौर पर आप अगर आज की पीढ़ी को देखें — मैं बात को ज़रा व्यापक तौर पर ले रहा हूँ सबके लिए — तो ये डाँट खाने को राज़ी नहीं हैं। जिन्हें आप मिलेनियल्स (सहस्त्राब्दी) बोलते हैं, इन्हें आप डाँट के देख लीजिए। अब क्या ये सिर्फ़ संयोग है कि मेंटल डिज़ीज़ का प्रिवेलेंस (विशेषाधिकार) भी सबसे ज़्यादा मिलेनियल्स में ही है। ये सिर्फ़ संयोग मात्र है क्या।

जब आप अपने शुभचिंतकों से डाँट खाने को राज़ी नहीं होते तो फिर ज़िन्दगी आपको लात मारती है। या तो उनसे डाँट खाना बर्दाश्त कर लो जो तुम्हारे भले के लिए तुमको चार बातें बता रहे हैं या फिर सीधे-सीधे ज़िन्दगी जब हथौड़ा मारेगी, तोड़ेगी, तब झेल लेना।

सातवीं-आठवीं के लड़कों को आप कुछ बोलिए, तो कहेंगे कि दिस इज़ नॉट चिल, यू आर बुलींग मी। (ये सही नहीं है, आप मुझे धमका रहे हैं।) वो सातवीं का लड़का है, उसको एक बात बतायी जा रही है और वो क्या बोल रहा है, 'यू आर बुलींग मी।' (आप मुझे धमका रहे हैं।)

सबसे बडे़ बुली (डराने-धमकाने वाले) तो फिर हमारे संत लोग थे। वो तो जीवनभर बातें बताते ही रहे और उन्होंने कभी चाशनी में लपेट कर नहीं बतायीं, जस का तस सामने रख दीं। तो तुम बोलो फिर कि कृष्ण बुली थे, अष्टावक्र बुली थे। वो बोलेंगे भी कैसे, इनका उनसे कुछ सम्बन्ध ही नहीं, कभी पढ़ा ही नहीं; और पढ़ेंगे भी इसीलिए नहीं।

आज जो पूरी हमारी संस्कृति खड़ी हुई है, आज का कल्चर (संस्कृति), उसके तीन स्तंभ हैं — मैं कहा करता हूँ — हैप्पीनेस, कंज़म्प्शन, मोटिवेशन (ख़ुशी, भोग, प्रेरणा)। इन तीन चीज़ों पर चल रही है हमारी संस्कृति। और तीनों एक-दूसरे से, समझ ही रहे होंगे आप कि परस्पर सम्बन्धित हैं। और तीनों का कुल नतीजा वही सामने है कि हम भयानक रूप से बीमार होते जा रहे हैं।

शरीर स्वस्थ दिखते हैं और मन बहुत-बहुत बीमार होते हैं, बहुत-बहुत बीमार। और मन की बीमारी को नापने वाला कोई मीटर नहीं होता तो ये छुपाए रहना भी आसान होता है कि व्यक्ति बीमार है। वो तब तक अपनी बीमारी को छुपाए रखता है जब तक कि बीमारी उसके रेशे-रेशे से फूट ही नहीं पड़ती। अच्छा और उसमें मज़ेदार बात है, अगर दस जने बीमार हों तो उसमें जो बीमार है वो भी क्या हो जाएगा — सामान्य, नॉर्मल।

तो बीमारी की परिभाषा भी बदल जानी है। और अगर बीमारी की परिभाषा बदल गयी तो खौफ़नाक बात आप समझ रहे हैं, क्या बोलने वाला हूँ मैं? बीमारी की अगर आपने परिभाषा ही पलट दी तो फिर बीमार कौन कहलाएगा — जो स्वस्थ है, वो बीमार कहलाएगा। ये हो रहा है इस युग में — परिभाषाएँ ही पलट दी जा रही हैं।

ज़िन्दगी आपको लगातार सिखाने के लिए तैयार है ही। जो छोटे-छोटे संकेत वो कदम-कदम पर देती है, रोज़ाना देती है, उनकी अवहेलना मत किया करिए। चीज़ों की तह तक जाया करिए।

आप अपनी नौकरी से परेशान हैं — कल इसको लेकर के यहाँ काफ़ी चर्चा हुई। आप अपनी नौकरी से परेशान हैं, ये बात यूँही नहीं है। क्योंकि नौकरी में जाने का आपका निर्णय और उस नौकरी में बने रहने का आपका निर्णय आपके जीवन के बाक़ी सारे निर्णयों से सम्बन्धित है बाबा! ऐसा थोड़ी है कि आप नौकरी का निर्णय करते समय भूल कर बैठे और बाक़ी सारे निर्णय जो आप कर रहे थे वो आपने बड़ी समझदारी में किये — व्यक्ति तो एक ही है न।

तो आप अपने दफ़्तर में बैठे हुए हो, दोपहर का तीन बजा है और आपका सिर दर्द हो रहा है। एसी चल रहा है फिर भी पसीना सा आ रहा है, और आप ऐसे बैठे हुए हो सिर पकड़कर बैठने का अभिनय करते हुए)। ये वक़्त है कि आप कहो कि मुझे अब झटका लगना चाहिए।

बात ये नहीं है कि आज सुबह-सुबह क़लीग (सहकर्मी) से या बॉस से तकरार हो गयी। बात ये नहीं है कि क्लाइंट (ग्राहक) को जो चीज़ मुझे बोलनी चाहिए थी उसकी जगह मैं कुछ और बोल आया। बात गहरी है, आज की घटना कोई संयोगभर नहीं है। आज की घटना लक्षणभर है किसी बहुत गहरी बात का, बीमारी का। मुझे वो बात समझनी पड़ेगी।

लेकिन हम समझना नहीं चाहते क्योंकि अगर समझने जायेंगे तो क़ीमत चुकानी पड़ेगी। देखिए, एक बार आप स्वीकार कर लें कि आपने कोई निर्णय ग़लत करा है, उसके बाद ईमानदारी का तकाज़ा ये होता है न कि सुधार लायें। स्वीकार के बाद सुधार भी तो चाहिए होता है और सुधार में लगती है मेहनत, वो मेहनत हम करना नहीं चाहते। तो इससे अच्छा ये है कि स्वीकारो ही मत कि कुछ ग़लत है।

समझ रहे हो न हम झटका खाने से इन्कार क्यों करते हैं। ये हम अपनेआप को क्यों इस तरीक़े से एक्लीमेटाइज़ और कंडीशन कर लेते हैं कि हमें झटके लगें ही नहीं। वो हम इसीलिए करते हैं क्योंकि हम सुधरने की क़ीमत नहीं अदा करना चाहते।

ये नहीं होना चाहिए।

इसमें भी और गहरे जाना चाहेंगे? हम सुधरने की क़ीमत इसलिए नहीं अदा करना चाहते क्योंकि हमको स्वीकार है बस किसी भी तरह जिये जाना, बजाय कि क़ीमत अदा करके एक ऊँचा जीवन जीना; भले ही उस ऊँचा जीवन जीने में शारीरिक तौर पर कष्ट होता हो और शारीरिक आयु भी कम हो जाती हो।

समझो इस बात को — आपके पास ऊर्जा है, ऊर्जा संसाधन है। आपके पास बुद्धि है, बल है, सोच है, तमाम तरीक़े के आपके पास संसाधन हैं। मैं कहा करता हूँ — समय सबसे बड़ा संसाधन है। धन संसाधन है, जो आपने मेहनत करी है, वो सब आपका संसाधन है। उसका इस्तेमाल दो तरीक़ों से हो सकता है बल्कि दो आयामों में हो सकता है।

एक तो ये कि आप उसका इस्तेमाल करें चीज़ें जैसी चल रही हैं उनको लंबा खींचने में। ‘लंबा, लंबा; मैं मरने नहीं दूँगा, मैं मरने नहीं दूँगा’, ठीक है? मरने नहीं दूँगा माने जो जैसा चल रहा है वो चलता रहे। जैसा शरीर चल रहा है तो चलता रहे, मरे नहीं। रिश्ते चल रहे हैं, चलते रहें, मरें नहीं। व्यापार चल रहा है, चलता रहे, मरे नहीं। मेरी विचारधारा है कुछ, वो क़ायम रहे, उस पर कोई चोट न पहुँचे, वो मरे नहीं। मेरी धारणाएँ हैं, मेरी मान्यताएँ हैं, वो चलती रहें, मरें नहीं। ठीक है? शारीरिक तल पर, मानसिक तल पर जो कुछ भी है वो यथास्थिति एक स्टेट्स को बना रहे।

एक तो ये तरीक़ा है अपनी ऊर्जा को लगाने का कि चलता रहे-चलता रहे-चलता रहे-चलता रहे, रेलगाड़ी चलती रहे। और दूसरी जो दिशा होती है, दूसरा जो आयाम होता है जिसमें लगाई जाती है ऊर्जा, वो ये है कि मैं बेहतर बनूँ। मामला लंबा खिंचे न खिंचे, मामला बेहतर होना चाहिए।

अब ज़ाहिर सी बात है कि जब आप इस दूसरे आयाम में अपनी ऊर्जा लगाओगे, तो पहले वाले के लिए ऊर्जा कम हो जाएगी। नहीं समझे? बेहतर बनने में ऊर्जा लगाओगे तो वही ऊर्जा जो मिलनी चाहिए थी पुरानी चीज़ को चलायी रखने में, उसमें तो जाएगी नहीं, तो पुरानी चीज़ की उम्र कम हो जाएगी। पुरानी चीज़ को पोषण कम मिलेगा, पुरानी चीज़ टूटेगी, मिटेगी — वो हम करना नहीं चाहते।

दो चीज़ें आड़े आ जाती हैं, ऊपर है मेहनत और नीचे है मोह। दोनों फँसा लेते हैं। नीचेवाले से मोह है, उसको छोड़ कैसे दें! और छोड़ भी दें तो ऊपर जाने के लिए लगेगी मेहनत। मोह छोड़ा नहीं जाता, मेहनत करी नहीं जाती। नतीजा — जो जैसा चल रहा है, चलने दो। और जीवन जब तुम्हें समझाने की कोशिश भी करे कि जो चल रहा है, ग़लत चल रहा है, तो उसको अनदेखा, अनसुना कर दो। और जीवन आपको कैसे समझाता है, झटका देकर के ही।

तुम्हारी आँखें ख़राब हैं, जीवन तुम्हें कैसे समझाएगा — एक झटका ये देगा कि कुछ देख रहे हो, दिखायी नहीं देगा, लेकिन तुम अपनेआप को बोल दोगे, ‘नहीं, मुझे तो दिख रहा है, मुझे तो दिख रहा है।’ तो फिर जीवन ये करेगा कि आप चल रहे हो, चल रहे हो, सामने पत्थर है दिखायी नहीं दिया, गिरोगे, चोट लगेगी। जीवन ऐसे समझाता है, चोट दे-देकर समझाता है।

लेकिन आप उसके ख़िलाफ़ भी कोई व्यवस्था बना सकते हो कि मैं गिरूँ ही न! भले ही मेरी आँखें ख़राब हैं पर फिर भी मैं कोई ऐसी टेक्नोलॉजी विकसित कर लूँगा कि ख़राब आँखों के साथ भी काम चलता रहे। तो आँखें और ज़्यादा ख़राब होती जाएँगी, होती जाएँगी, होती जाएँगी।

समझ रहे हो न बात को?

गाड़ी इतनी बढ़िया है, इतनी बढ़िया है और मैंने देखा है ये। गाड़ी इतनी बढ़िया है कि टायर में हवा नहीं है तो भी ड्राइवर (चालक) को पता नहीं चल रहा, गाड़ी चलती जा रही है। ड्राइवर का पहले का अनुभव था कोई रफ़ (कठोर) गाड़ी चलाने का। उसमें सड़क पर छोटी सी गिट्टी भी होती थी तो बिलकुल पिछवाड़े में पता चलती थी। दूसरी गाड़ी मिल गयी, वो इतनी बढ़िया है कि टायर में हवा कम है ज़्यादा है, पता ही नहीं चलता, एकदम स्मूद (चिकना)।

और ये असली वाक्या है, मेरे ही साथ हुआ है, मैं नहीं चला रहा था पर गाड़ी मेरी थी। हवा ही नहीं है टायर में और चलाने वाले को पता ही नहीं है। चलाने वाले जब तक घर पहुँचे तब तक टायर हो चुका है. . .?

श्रोतागण: ख़राब

आचार्य: चिथड़े। ख़राब ही नहीं, तीन-चार जगह से फट चुका है और चलाने वाले को तब भी नहीं पता चल रहा है, गाड़ी इतनी बढ़िया। तो हमने टेक्नोलॉजी विकसित कर ली है झटका खाने के ख़िलाफ़। और उनमें से काफ़ी सारी टेक्नोलॉजी मटीरियल टेक्नोलॉजी नहीं है, स्पिरिचुअल (आध्यात्मिक) टेक्नोलॉजी है; थर्रा जाइए, ख़ौफ़ की बात है।

कुछ तो मटीरियल टेक्नोलॉजी है जो आपको ज़िन्दगी में झटका खाने नहीं देती और उसके साथ-साथ हमने स्पिरिचुअल टेक्नोलॉजी भी विकसित कर ली है जो आपको झटका खाने नहीं देती।

बहुत सारा जो आप मेडिटेशन (ध्यान) वग़ैरा करते हो, वो वही है, जो आपको झटका नहीं खाने देती। ज़िन्दगी बर्बाद चल रही है, सबकुछ आपका ग़लत है लेकिन सुधरने की कोई ज़रूरत नहीं है। आधे-एक घंटे बैठकर के गाइडेड मेडिटेशन कर लो, वहाँ तुमको गुरुजी कान में बता देंगे कि तुम एक सरोवर के किनारे बैठे हो, उसमें पूर्णिमा के चाँद की छवि झलक रही है और अप्सराएँ अपना वहाँ नृत्य कर रही हैं और प्रकृति का अप्रतिम सौंदर्य है, और आप सुन रहे हो और ऐसे-ऐसे झूम रहे हो (झूमने का अभिनय करते हुए)। सब थकान उतर गयी; ये टेक्नोलॉजी है।

और कई संस्थाएँ तो अब खुलेआम बोल रही हैं कि हम टेक्नोलॉजी ही देते हैं तुमको। अंदरूनी वेलबींग (स्वास्थ्य) की टेक्नोलॉजी दी जा रही है और तुम्हें समझ में भी नहीं आता कि ये टेक्नोलॉजी तुम्हारे साथ क्या करेगी। ये टेक्नोलॉजी तुम्हारे टायर के चिथड़े-चिथड़े कर देगी। क्योंकि ये टेक्नोलॉजी बदलाव की टेक्नोलॉजी नहीं है, ये टेक्नोलॉजी स्थायित्व की, कॉन्टिनुएशन की टेक्नोलॉजी है कि जो जैसा चल रहा है, चलता रहे। हम उसी में फँसे हैं।

अब बताओ, तुम बदलोगे कैसे?

जो तुमको विज्ञान ने दे दिया है और इकॉनोमिक्स (अर्थशास्त्र) ने दे दिया है, वो भी इसीलिए है कि तुमको दुख का अनुभव न हो, ठीक है न? अभी हम जो भी चीज़ें यहाँ लेकर के बैठे हुए हैं, वो सब इसी दृष्टि से तो बनाई गयी हैं न कि हमें दुख का अनुभव न हो। कुर्सियाँ बढ़िया नरम हैं न, और अभी गर्मी लगेगी तो एसी चल जाएगा, है न? कपड़े भी पहन रखे हैं तो बढ़िया हैं एकदम, मौसम के हिसाब से। सब ठीक है, खाने-पीने की भी व्यवस्था है शहर में, कोई आपको तकलीफ़ नहीं।

तो विज्ञान ने भी पूरी व्यवस्था कर दी है कि आपको दुख का अनुभव न हो; कुछ बदले नहीं। दुख का अनुभव होता है तो चीज़ें बदलती हैं। समाज ने भी ऐसी व्यवस्था कर दी है कि कुछ बदले नहीं! चाहे वो परिवार की संस्था हो, चाहे धार्मिक मान्यताएँ हों, उनको बदलने की आज़ादी है आपको? बोलिए, परिवार की संस्था हो, चाहे धर्म की संस्था हो, उसमें से कुछ भी बदल सकते हो? बदल सकते हो पर बड़ी मेहनत लगेगी।

पुरानी रूढ़ियों में, रीति-रिवाज़ों में परिवर्तन लाना कितना मुश्किल होता है, जानते हो न। सती प्रथा आसानी से तो नहीं मिट गयी थी और आज भी कई कुप्रथाएँ हैं, लोग लगे हुए हैं उनको मिटाने में, कहाँ मिट रही हैं? तो वहाँ भी कोशिश यही की जा रही है कि कुछ बदले नहीं। परिवार में भी यही खेल है। शादी करना ज़्यादा आसान है या शादी तोड़ना ज़्यादा आसान है? करना।

जो लोग कभी सोचे हों तोड़ने की, उनसे पूछो कितना मुश्किल है; सौ तरह के झमेले होते हैं — सामाजिक भी, पारिवारिक भी और सबसे ख़तरनाक, कानूनी भी। हर तरफ़ खेल यही चल रहा है कि जो जैसा चल रहा है, चलता रहे। और अध्यात्म इसलिए है कि तुम जैसे पैदा हुए हो और जैसे चल रहे हो, वो पूरे तरीक़े से बदल जाए। कैसे बदलेगा? सबकुछ अंदर का, बाहर का, इसी कोशिश में है कि कुछ न बदले, तो बदलेगा कैसे?

एक उम्मीद होती थी, संतों की, साधुओं की, वो आकर के साफ़-साफ़ तुमको बताते थे जीवन की व्यर्थता के बारे में — जीवन माने जैसा जीवन हम आमतौर पर जीते हैं, वैसा जीवन। वैराग्य शब्द, त्याग शब्द, समर्पण शब्द, अनासक्ति शब्द इनको सामने लेकर के आते थे, अब वो संभावना भी ख़त्म हो गयी।

आज का अध्यात्म वैराग्य की बात करता है? बताओ कब आख़िरी बार तुमने ये शब्द सुना था — वैराग्य? अब तो वैराग्य का कोई मतलब ही नहीं है। आज तो सबसे ज़्यादा राग के और भोग के जो पोस्टर बॉयज़ हैं, वो गुरुदेव ख़ुद हैं। वैराग्य की बात हटा दो।

पर्सनल हेलीकॉप्टर तुम रखना चाहते हो, देखो गुरुदेव के पास पहले से है। दस देशों में संपत्ति तुम रखना चाहते हो, देखो गुरुदेव के पास पहले से है। जो भी तुम्हारी सामान्य, लौकिक इच्छाएँ हैं, मटीरियल डिज़ायर्स (पदार्थ की इच्छा), गुरुदेव उन सब पर चढ़कर पहले से ही बैठे हुए हैं; तो वैराग्य की क्या बात है।

ये शब्द गये सब — वैराग्य गया, त्याग गया, समर्पण गया, निर्मोह गया, अनासक्ति गयी, निर्ममता गयी, सब गये। आज के अध्यात्म में ये शब्द बचे ही नहीं।

आज का अध्यात्म भी अब क्या काम कर रहा है? तुमको वैसी ही सहूलियत देने का जैसे कि साइंस (विज्ञान) और टेक्नोलॉजी देते हैं। तो साइंस और टेक्नोलॉजी लगे हुए हैं तुमको फ़िज़िकल कम्फ़र्ट (शारीरिक आराम) देने में और आज का अध्यात्म लगा हुआ है तुमको मेंटल कम्फ़र्ट (मानसिक सुख) देने में। अब बदलाव क्यों होगा? तुम जैसे हो, अगर वैसा रह करके ही कम्फ़र्ट मिल सकता है, तो बाबा तुम काहे को बदलो! बोलो!

ले-देकर के हर तरफ़ हमने ज़िन्दगी के ख़िलाफ़ शॉक एब्ज़ॉर्बर्स (आघात अवशोषक) खड़े कर दिये हैं। ज़िन्दगी शॉक देने आएगी, हमारे पास एक शॉक एब्ज़ॉर्बर पहले से ही तैयार रहता है। पहले से ही तैयार है।

तुम कुछ भी ऐसा करने जा रहे हो जो तुम्हें नहीं करना चाहिए, उसका फल तुम्हें महसूस न हो, इसके लिए एक व्यवस्था तैयार कर दी जाएगी। कुछ ऐसा कर दिया जाएगा कि आप कर सकते हैं, आपको डरने की ज़रूरत नहीं है, जाइए करिए; भोगिए। उसी व्यवस्था के शिकार हो।

मेरा काम है उस व्यवस्था को तोड़ना। आपका भी वही काम होना चाहिए। मुझे ये काम इसलिए करना पड़ रहा है क्योंकि हम सब वो काम ख़ुद ही नहीं कर रहे हैं। ये काम हमें ख़ुद ही कर लेना चाहिए न। ये तो साधारण ईमानदारी का तकाज़ा है न कि जो चीज़ जैसी है उसको स्वीकार करो, जहाँ हार है उसको हार मानो; शब्दों का खेल मत खेलो। हम तो चीज़ों को छुपाने में पूरा विश्वास रखते हैं; चीज़ों को छुपाओ, छुपाओ। शब्द ही ऐसे गढ़े जाते हैं कि बस छुपा लो। कमज़ोरी को कमज़ोरी मत बोलो, उसको रुई के फाहे में लपेट दो।

कल को अगर मैं बोल नहीं पाता हूँ, सुन नहीं पाता हूँ, तो मैं नहीं चाहूँगा कि आप मुझे दिव्यांग बोलें, आप मुझे 'मूक' और 'बधिर' ही बोलिएगा। जो बात है सो है। अगर मेरी आवाज़ चली जाती है, तो उससे मुझमें कौनसी दिव्यता आ गयी भाई। लेकिन ये युग ऐसा ही है, यहाँ जो चीज़ जैसी है उसको बोलो मत।

अभी बड़ा आंदोलन चल रहा है कि कमिटेड सुसाइड (आत्महत्या कर‌ ली) मत बोलना, बोलना डाइड बाय सुसाइड (आत्महत्या से मर गया)। कि जैसे लोग कई तरीक़ों से मरते हैं, वैसे ही ये भी एक — जैसे होता है न, डेथ बाय इलेक्ट्रोक्यूशन (करंट लगने से मौत) वैसे ही डेथ बाय सुसाइड , तो कमिटेड सुसाइड मत बोल देना। क्योंकि बोल दिया अगर तो जीवन का भयावह चेहरा हमारे सामने आने लग जाता है न कि ऐसी बात है। काहे नहीं बोलते हो फ़लाना पर्सन डाइड (व्यक्ति मर गया है)? ये क्या होता है पास्ड अवे (गुज़र गया)? ये क्या है?

क्योंकि अगर सही शब्द का इस्तेमाल करते हो तो झटका लग जाता है न। हम उस झटके के ख़िलाफ़ अपनी भाषा में भी, अपने शब्दकोश में भी शॉक एब्ज़ॉर्बर्स बना रहे हैं कि सच्चाई को सीधे-सीधे मत बोलो। ‘ही एक्सपायर्ड (वह मर गया)।’ ब्रूफ़ेन (दवाई) है? एक्सपायर्ड क्या होता है? और डेथ (मृत्यु) में इतनी समस्या क्या है भाई? डेथ में समस्या ये है कि उसका ख़याल आते ही मन को लगता है झटका और वो झटका हम अपनेआप को देना नहीं चाहते। तो हम इस तरीक़े से झूठे शब्द ईजाद करते हैं।

अब और देखिएगा, अपनी भाषा को देखिएगा कि किस तरीक़े से हम सच्चाई को छुपाने की कोशिश में लगातार लगे रहते हैं क्योंकि वो सच्चाई हमें झटका देगी। बाज़ार चल ही सच्चाई को छुपाने की कोशिश पर रहा है और किसलिए है, पूरा बाज़ार है क्यों?

इतनी ऊँची हील के जूते काहे को पहनते हो? (हाथों से ऊँचाई बताते हुए) क्यों? क्यों? क्योंकि बड़ा बुरा लगता है कोई बोल देता है कि अरे! तुम तो बस पाँच-चार हो। तो चार इंच और बढ़ाना है वो जूते से। जबकि आप सीधे-सीधे मान ही लो कि पाँच-चार हूँ और शरीर की ऊँचाई मेरी किस्मत नहीं हो गयी, तो वो होगी स्वस्थ बात। ये स्वस्थ बात होगी कि नहीं — हाँ, मैं हूँ पाँच-चार। नेपोलियन भी था, गावस्कर भी था, हूँ पाँच-चार; तो?

अभी मेराडोना की मृत्यु हुई, मुझे लगता है उसकी भी बहुत कम ही थी कद-काठी। तो? बोलो! लेकिन उसकी जगह टेक्नोलॉजी , टेक्नोलॉजी। ताकि ज़िन्दगी के झटके न लगें। एक बार वो झटका खा लो न कि हाँ मैं हूँ पाँच-चार, हूँ, अब बोलो क्या करना है? और मेरी पहचान मेरे कद से नहीं है, मेरी पहचान मेरे कर्म से है मैं हूँ पाँच-चार।

कल्पना करो न! सचिन तेंदुलकर इतने हील के जूते पहनकर बैटिंग करने आया है, उसको भी बड़ा कॉम्प्लेक्स हो रहा है अपने कद का।

ज़्यादातर लोग काम-धंधा, व्यापार भी इसीलिए करते हैं क्योंकि वो पैसे का इस्तेमाल करना चाहते हैं ज़िन्दगी द्वारा दिये जा रहे झटकों को न्यूट्रलाइज़ (बेअसर) करने के लिए। अंदर से बहुत कुछ है जो खाली है, तो चलो बहुत सारा पैसा इकट्ठा कर लेते हैं। आप सौ में से निन्यानवे लोगों को परखिएगा, यही पाएँगे कि उन्हें इतने पैसे क्यों कमाने हैं।

तभी तो मैं कह रहा हूँ कि पूरी अर्थव्यवस्था ही ऐसे चल रही है। शॉक एब्ज़ॉर्बर्स अगेंस्ट द नेकेड रियलिटी ऑफ़ लाइफ़। (ज़िन्दगी की नंगी सच्चाई के विरुद्ध आघात अवशोषक।)

और और सीधे देखना है तो ये पूरी कॉस्मेटिक्स इंडस्ट्री क्या है? उसमें तो मानसिक तल पर भी कुछ नहीं हो रहा। वहाँ तो सीधे-सीधे प्रकट शारीरिक तल पर हो रहा है। एंटी-एजिंग, एंटी-फ़ार्टिंग, एंटी. . .

आपको पता नहीं लगना चाहिए कि आपकी उम्र बढ़ रही है, तो उसके लिए बोटॉक्स करवाओ; झुर्री हटाने का ख़ास उपचार होगा। शरीर ढ़लकने लगा है तो उसके लिए सर्जरी होगी, ताकि आईना झटका न दे। नहीं तो आईना ही आपको शंट करके रखेगा बिलकुल। आईने के सामने खड़े हो जाएँगे, सारा बॉडी आडेंटिफ़िकेशन (शरीर से तादात्मय) हवा हो जाना है। आईना कहेगा, 'इस ढ़लती हुई चीज़ से आइडेंटीफ़ाइड हो, पगला गये हो क्या!’ कोई बेहतर चीज़ खोजो न, ख़ुद ही शरीर को छोड़ोगे फिर। कहोगे, ‘कुछ बेहतर करते हैं, कुछ कर्म करते हैं।’

जब पचीस के थे, तब तो बॉडी आइडेंटिफ़ाइड होना तार्किक बात भी लगती थी कि मैं शरीर ही हूँ क्योंकि शरीर तब था आकर्षक, सुन्दर। अब हो रहे हो पैंतालीस के, शरीर इधर से, उधर से लीक होने लग गया है। अब तुम्हें फ़ायदा भी क्या मिलना है बॉडी आइडेंटिफ़ाइड होकर के, आईना ही बता देगा। लेकिन आईने को भी धोखा दे दिया, अब आईना भी झटका नहीं दे पाता। आईने को बेवकूफ़ बनाया, ख़ुद को बनाया। तो ये चल रहा है।

फिर मैं कुछ कह देता हूँ, उसमें झटका लग जाता है तो बड़ा बुरा लगता है। कह रहे हैं, 'हमारी तो ज़िन्दगी अच्छी चल रही थी, ये नालायक़ आदमी झटका देता है।' तुम्हारी ज़िन्दगी अच्छी नहीं चल रही थी और मैं झटका कोई ईजाद करके नहीं दे रहा हूँ। मैं ज़िन्दगी की तरह हूँ, बस मैं थोड़ी अक्ल लगा देता हूँ।

ज़िन्दगी तुम्हें जो झटके देती है, वो प्रिडिक्टेबल हैं, प्रत्याशित हैं, तो तुमने उन झटकों के ख़िलाफ़ इंतज़ाम तैयार कर रखे हैं। ज़िन्दगी को तुमने बेवकूफ़ बना दिया है, वो तुम्हें झटके दे ही नहीं पाती। हाँ देती है, एक बार में ही देती है फिर, ज़बरदस्त देती है। पर जब तक वो नहीं दे रही तब तक तुम ज़िन्दगी के ख़िलाफ़ शॉक एब्ज़ॉर्बर बनाए बैठे हो।

मैं ज़िन्दगी जितना सरल नहीं हूँ, और प्रिडिक्टेबल भी नहीं हूँ। तो मैं जो झटका देता हूँ उसके ख़िलाफ़ आपके पास कोई इंतजाम नहीं होता; वो लग जाता है। जब लग जाता है तो कहते हो, 'इन्होंने झटका दे दिया।' मैंने क्या झटका दे दिया?

हर छोटी-छोटी चीज़ पर ग़ौर किया करिए, दुख इतनी बुरी भी चीज़ नहीं होती कि उससे एकदम दूरी ही बना लो। स्वेच्छा से दुख को स्वीकार किया करिए। जो स्वेच्छा से दुख को स्वीकार करने लग जाता है, वो फिर जीवन के बड़े झटकों से बच जाता है।

कष्ट और पीड़ा, इनके प्रति अपने द्वार ज़रा खुले रखिए, आने दो इनको, कोई बात नहीं। हल्का सा सिरदर्द हुआ, गोली मत ले लिया करिए। ज़रा सी तबीयत ख़राब हुई, अस्पताल मत भाग जाया करिए, हॉस्पिटलाइज़ (अस्पताल में भर्ती) मत हो जाया करिए।

समझ रहे हो बात को?

थोड़ा झेलना सीखिए। कोई एकदम छोटा-मोटा प्रोसीज़र (प्रक्रिया) हो, उसमें ज़रूरत भी नहीं है कि एनेस्थाइज़ (बेहोश) करें और फिर बहुत पेनकिलर और फिर ये और वो; चलने दो। और मैं ये कोई ब्रिवेडो (वाहवाही) के लिए नहीं बोल रहा हूँ। अगर वाक़ई ऐसी स्थिति आ जाए कि अब आपको विशेषज्ञ की ज़रूरत है ही शरीर के, तो चले जाइएगा। पर ज़रा थ्रेसहोल्ड सीमा उठाइए। बात-बात पर नहीं कूद जाइए।

दर्द बहुत प्यारी चीज़ है। उसकी संगत में जीना सीखिए, आपके जीवन में गहराई आ जाएगी, और ज़बरदस्त सृजनात्मकता आ जाएगी। क्योंकि दर्द मजबूर करता है न सच जानने को। जब आप खुश होते हो तो मन करता है क्या कि सच्चाई जानूँ? सच्चाई जानूँ — नहीं मन करता न? बल्कि तब डर लगता है, सच्चाई जानी तो कहीं ख़ुशी उड़ न जाए! तो ख़ुशी आपको सच से दूर ले जाती है।

आपके सौ में से पिचानवे नंबर आ गये, आप रिइवैलुएशन (पुनर्मूल्यांकन) की कोशिश करोगे? बल्कि अगर ख़बर आ गयी कि आपकी कॉपी रिइवैलुएट हो रही है — रिइवैलुएशन समझते हो न, पुनर्मूल्यांकन। सौ में पिचानवे आ गये हैं आपके और तभी ख़बर आयी कि अब रिअसेसमेंट हो रहा है, तो कैसा लगेगा? बुरा लगेगा कि ये जो ख़ुशी मिली है कहीं छिन ही न जाए।

तो ख़ुशी ये बिलकुल नहीं चाहती कि मामले की जड़ तक जाओ कि कॉपी में क्या लिखा है। और हम साफ़-साफ़ देखेंगे कि इस पर पिचानवे मिलने चाहिए थे कि नहीं मिलने चाहिए थे। ख़ुशी कहती है, 'बस ख़ुशी मिल गयी न, अब कुछ पता नहीं करना है। आँख-कान बंद कर लो, जानना ही नहीं है।‘ अब बोध, रियलाइज़ेशन के लिए कोई जगह बची कहाँ है? क्योंकि अब तो ख़ुशी मिल गयी।

दुख आपको मजबूर करता है रिअसेसमेंट के लिए; आप जानना चाहते हो कि क्या चल रहा है, क्या नहीं चल रहा है। सौ में पैसठ आ गये तो आप तुरन्त बोलोगे कि रिइवैलुएट। यही काम ज़िन्दगी में अपने साथ किया करो। कीप ऑन रिइवैलुएटिंग योरसेल्फ़। (अपनेआप को पुनर्मूल्यांकन करते रहें।) ज़बरदस्ती के कॉन्फ़िडेंस में कुछ नहीं रखा है कि मेरा तो सब अच्छा ही चल रहा है, अच्छा ही चल रहा है। अच्छा नहीं चल रहा बाबा! कैसे पता मुझे कि अच्छा नहीं चल रहा है? अच्छा चलना ही होता बहुत तो हम पैदा नहीं होते।

मैं बार-बार याद दिलाता हूँ कि गड़बड़ तो शुरुआत में ही हो गयी थी। तो अच्छा चल कैसे रहा होगा! अगर बिना तहक़ीक़ात किये, खोजबीन किये आप कोई डिफ़ॉल्ट एज़म्प्शन रखना भी चाहते हो तो ये मत रखो कि सब अच्छा चल रहा है; यही रखो कि कुछ न कुछ गड़बड़ ज़रूर है।

पहली बात तो एज़म्प्शन (धारणा) की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए, सच्चाई होनी चाहिए न — खोजबीन करो, तहक़ीक़ात करो। लेकिन अगर तहक़ीक़ात नहीं करनी है और कोई मान्यता, कोई एज़म्प्शन रखना ही है तो एज़म्प्शन ये मत रखो कि सब ठीक है। यही मानो कि कुछ तो गड़बड़ होगा ही। मेरी ज़िन्दगी है और उसमें सब ठीक हो, हो नहीं सकता। तो कुछ तो ग़लत होगा ही होगा। उससे जानने के, जिज्ञासा के दरवाजे़ खुले रहते हैं। वरना जिज्ञासा बंद हो जाएगी।

समझ रहे हो?

और जब भी जानने निकलोगे, छोटा-छोटा झटका लगता चलेगा। पाँच नंबर का सवाल था, आप मान बैठे थे इसमें पाँच में पाँच मिलने चाहिए। जब उसका रिइवैलुएशन किया तो पता चला, ‘अरे! इसमें तो गड़बड़ करके आये हुए थे।’

अच्छा बताइएगा, आप सब अच्छी बड़ी डिग्रियाँ लेकर के बैठे हुए हैं। ज़्यादा क्या होता था — कि आपने सोचा है कि अस्सी आएँगे और आये साठ, या ये होता था कि साठ सोचा और अस्सी आ गये? ज़्यादातर क्या होता था? जल्दी बोलो, ज़्यादातर क्या होता था? कि जितने सोचे थे उससे कम ही आते थे।

इससे मानव प्रकृति के बारे में क्या पता चलता है? क्या पता चलता है? कि हमें अपनी कमियाँ नहीं पता होतीं। आप अपनेआप को जो सोच रहे होते हो, आप उतने अच्छे होते नहीं हो। इसी तरीक़े से आप अपनी ज़िन्दगी के बारे में जो सोच रहे होते हो, उतनी अच्छी होती नहीं है। लेकिन शिक्षा की जो पूरी पद्धति है, वो बहुत ईमानदार है और पारदर्शी है, ट्रांसपेरेंट। वहाँ आपने जो करा है उसका मूल्यांकन करके ऐसे आपको कॉपी लौटा दी जाती है, ‘लो भाई! देख लो’।

ज़िन्दगी में दुर्भाग्यवश ऐसा कोई सिस्टम है नहीं कि जहाँ आज आपने दिन कैसे जिया, आप रात को अपने बिस्तर पर जायें और आपकी मार्कशीट ऐसे पड़ी हुई होगी — बेटा, आज पूरे दिन में तुमको मिले हैं सौ में अठारह नंबर। तो उससे हमको बड़ी झूठी सुविधा मिल जाती है, क्या? ‘आज का दिन तो अट्ठासी वाला था।’ काहे कि आएगा कौन पर्दाफ़ाश करने! कोई नहीं बताने आएगा कि बेटा अट्ठासी वाला नहीं था, अठारह वाला था।

ये काम आप दसवीं में, बारहवीं में, ग्रेजुएशन, पोस्ट ग्रेजुएशन में नहीं कर सकते थे। वहाँ आप मानते रहते कि मैं अट्ठासी वाला हूँ। लेकिन परिणाम घोषित हो जाता और दीवाल पर चिपका दिया जाता, वेबसाइट पर आ जाता कि बेटा, अठारह नंबर वाले हो तुम।

ज़िन्दगी में कोई आता ही नहीं बताने न, तो हम क्या माने रहते हैं — कि हम तो अट्ठासी वाले हैं। और फिर ज़िन्दगी अचानक बड़ा वाला झटका देती है। और जब बड़ा वाला झटका देती है तब भी हम ये नहीं कहते कि हम आज तक लगातार ग़लती कर रहे थे।

जब बड़ा वाला झटका देती है तो मालूम है हम क्या कहते हैं — जब आज तक मेरा सबकुछ सही ही चल रहा था तो अब जो हुआ है, वो एक दुर्घटना मात्र है, एक एबरेशन (घर्षण) मात्र है। तो फिर वो तो नाइंसाफ़ी हुई न। क्योंकि आज तक तो मुझे कोई झटका लग नहीं रहा था, आज अचानक लगा है, इसका मतलब आज जो मेरे साथ हुआ है वो नाइंसाफ़ी है। तो मैं विक्टिम (पीड़ित) हूँ।

तुम विक्टिम नहीं हो, तुम जो इतने सालों से क़ीमत नहीं अदा कर रहे थे न, वो ज़िन्दगी ने एकमुश्त, एक झटके में, एक किश्त में वसूल कर ली है, सूद समेत। ये कुछ तुम्हारे साथ नाइंसाफ़ी नहीं हुई है।

ये मत कह दिया करो कि ये तो जीवन का संयोग है, इतना बढ़िया मेरा सब व्यापार चल रहा था बीसों साल से, और क्या मेरा परिवार था! लेकिन बस इसी साल देखो क्या हो गया — लड़का ड्रग एडिक्ट (नशे का आदी) निकल गया, लड़की खिड़की से कूद गयी, पत्नी और कहीं भाग गयी और व्यापार चौपट हो गया। ये तो दो हज़ार इक्कीस ही इतना बुरा साल है, मैं क्या करूँ, वरना तो मैं बहुत बड़ा सूरमा हूँ। देखो पिछले बीस साल से सब कुछ ठीक चल रहा था।

पिछले बीस साल से भी कुछ ठीक नहीं चल रहा था, तुमने बस शॉक एब्ज़ॉर्बर्स लगा रखे थे। तुम अपनेआप को ये पता ही नहीं लगने दे रहे थे कि चीज़ें कितनी ज़्यादा ख़राब हैं। जैसे कि आज आपको रिपोर्ट मिल जाए कि आपको लंग कैंसर (फेफड़े में कैंसर) हो गया है। साहब, आप पिछले पच्चीस साल से सिगरेट फूँक रहे थे; दो हज़ार इक्कीस नहीं ख़राब है, आप पिछले पच्चीस साल से सिगरेट फूँक रहे थे। और बीच-बीच में छोटे-छोटे झटके आते थे, उन झटकों को आप महसूस करने से ही इन्कार कर देते थे। आपने टेक्नोलॉजीज़ बना रखी थीं न। टेक्नोलॉजीज़ बना रखी थीं कि मुझे वो झटका महसूस ही न हो।

सबसे ज़्यादा क्रोध मुझे मेडिटेशन नाम की टेक्नोलॉजी पर है। ध्यान को हमने एक क्रिया बना डाला। ध्यान से ज़्यादा पवित्र शब्द नहीं हो सकता। लेकिन जिसको आप मेडिटेशन बोलते हो वो सिर्फ़ एक खुराफ़ाती टेक्नोलॉजी है, वो ध्यान नहीं है।

ध्यान जीने का एक तरीक़ा है। ध्यान कोई क्रिया, कोई विधि नहीं हो सकता।

बहुत बड़ा शॉक एब्ज़ॉर्बर है ये। एक शॉक एब्ज़ॉर्बर है पैसा, एक शॉक एब्ज़ॉर्बर है सेक्स और एक शॉक एब्ज़ॉर्बर है मेडिटेशन ; और इसमें आप फ़ेहरिस्त लंबी जोड़ सकते हो। ये आपको पता नहीं लगने देते कि आप कितने ज़बरदस्त तरीक़े से ख़तरे में हो। आपको नहीं पता लगने देंगे।

वास्तव में हमें इस सत्र की कोई ज़रूरत ही न पड़े अगर हम जीवन से ही सीखने को राज़ी हो जाएँ। क्योंकि ये सत्र भी एक तरह से विशेष हो गया न — हमने इसको आयोजित करा है। किसी भी आयोजित चीज़ की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी अगर जो जीवन की साधारण अनायोजित घटनाएँ हैं आप उनसे ही सीखते चलो। चूँकि हम अनायोजित घटनाओं से नहीं सीखते तो फिर इस तरह का आयोजन करना पड़ता है।

मुझे बहुत ख़ुशी होगी कि कोई दिन ऐसा हो जिस दिन खाली। अरे! खाली इसलिए नहीं कि झटका नहीं खाना है, खाली इसलिए कि अब झटका खाने से कोई विरोध ही नहीं रहा है। इसलिए खाली। खाली इसलिए भी हो सकता है, और ज़्यादा संभावना यही है कि अंदर मत आना, बुड्ढा काटता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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