जो वचन आपसे न आए, वही मीठा है || संत कबीर पर (2016)

Acharya Prashant

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जो वचन आपसे न आए, वही मीठा है || संत कबीर पर (2016)

ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय। औरन को सीतल करै, आपहुँ सीतल होय।।

~ संत कबीर

आचार्य प्रशांत: बड़ी ग़लती कर देते हैं हम, हमें लगता है कबीर कह रहे हैं - ऐसी वाणी बोलिये जिससे मन का आपा खो जाए, नहीं। कबीर कह रहे हैं - ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय - मन का आप पहले खोया है, वाणी उससे उद्भूत हो रही है। ऐसी वाणी बोलो, मन का आपा खो कर। वाणी तो चरित्र है, आचरण है, वो तो फल है। हर कर्म के, हर फल के केंद्र में तो कर्ता बैठा है न। पहले कारण आता है, फिर कार्य आता है।

जब वो मन, जो केंद्र में है, जो कर्ता है, अपने कर्तत्व का समर्पण कर देता है, तब वाणी मीठी हो जाती है, और यही मधुरता की परिभाषा है। एक समर्पित मन जो कुछ कहेगा, वो मधुर।

और यदि मन समर्पित नहीं, तो अगर शब्द मधुर प्रतीत हो रहे हैं, तो वो मधुरता फिर झूठी ही है।

अधिकांशतः जब आप मीठा सुनते हो, तो वो बड़ा प्रयोजित मीठा होता है। उस मिठास के पीछे कारण होता है, वो हलवाई की मिठास होती है, शक्कर की मिठास होती है। वो ऐसा ही होता है, कि आटा चाशनी में डाला गया, चाशनी आटे का स्वभाव नहीं, आवरण है। अधिकांशतः जब आप मीठा सुनते हो, तो वो मीठा ऐसा होता है। कबीर दूसरे मीठे की बात कर रहे हैं। मन का आपा खो कर जो बोलना हो बोलो, और जो बोलोगे उसी का नाम है ‘सुमधुर संभाषण’। और फिर ख्याल भी मत करो कि क्या बोल रहे हो, मीठा या कड़वा। कबीर ने कभी ख्याल नहीं किया कि वो मीठा बोलें। कबीर का डण्डा ऐसी चोट देता है कि पूछो मत, और बड़ा सौभाग्य होगा तुम्हारा अगर कबीर का डण्डा तुम्हें लगे।

‘औरन को सीतल करै, आपहुँ सीतल होय’

जो स्वयं शीतल है, मात्र वही दूसरों को शीतलता दे सकता है। जब तक तुम शीतल नहीं, तब तक तुम दुनिया को मात्र जलन ही दोगे। तपता हुआ लोहा अगर किसी को स्पर्श करे, तो उसे शीतल थोड़े ही कर देगा।

हम सब जलते हुए पिंड हैं, हमारा होना ही जलन है हमारी। हमारा अहंकार ही जलन है हमारी, हम जहाँ से निकल जाते हैं, वहाँ आँच फैला देते हैं।

कभी ग़ौर किया है आपने कि आपके होने भर का, आपके माहौल पर क्या प्रभाव पड़ता है? हम में से अधिकांश ऐसे हैं कि किसी शांत जगह पर पहुँच जाएँ, तो जगह पूरी कंपित हो जाए, जैसे भूचाल। कभी आप कहीं मौन बैठे हों, तो फिर आपकी नज़र में आया हो, कि एक विक्षिप्त मन आता है, और ऐसे उसके कदम होते हैं, ऐसे उसके वचन होते हैं, ऐसा उसका होना होता है कि उसको पता भी नहीं लगता कि उसने शांत झील में कैसी-कैसी लहरें उठा दीं। जैसे साफ़ फ़र्श हो, और किसी के कदमों में कीचड़-ही-कीचड़ लगा हो, और वो ऐसा बेहोश कि वही अपने पैर ले कर के साफ़ सफ़ेद फ़र्श के ऊपर से निकल गया। उसे पता भी नहीं उसने क्या कर दिया। ऐसे हम होते हैं।

जिसके अपने पाँव गंदे हैं, वो कहीं क्या सफ़ाई लाएगा? उन्हीं कदमों से चल कर तो सफ़ाई करने जाएगा, जहाँ जाएगा वहीं गन्दा करेगा। आप शीतल, तो दूसरे शीतल। आत्मार्थ ही परमार्थ है। अपनी मुक्ति के लिए ध्यानस्थ रहो, यही परमार्थ है।

इसी में तुम पूरे जगत का हित कर लोगे।

वाणी का बड़ा महत्व बताया गया है। श्रवण, मनन, निदिध्यासन, समाधि तो सुना है, पर इन सबसे पूर्व क्या आती है?

प्रश्नकर्ता: वाणी।

आचार्य: वाणी है तभी तो श्रवण है, मनन है, निदिध्यासन है, फिर शान्ति है। पर कैसी वाणी? अब ज़रा बात समझना। श्रवण, मनन, निदिध्यासन, समाधि, वाणी, श्रवण, मनन, निदिध्यासन, समाधि; वृत्त है पूरा। मात्र ऐसी ही वाणी सुनने योग्य है, जो समाधिस्थ मन से निकली हो। समाधिस्थ मन से प्रस्फुटित वाणी ही मन को समाधि में ले जा सकती है।

वही पुरानी भूल फिर मत कर लेना, कबीर को तुम्हारी वाणी से कोई मतलब नहीं है, कबीर को मतलब है तुम्हारे मन से। ‘मन का आप खोये’ वो काम ठीक हो गया, तो उसके बाद वाणी भी ठीक हो जाएगी, श्रोता पर उसका असर भी ठीक हो जाएगा। कई बातें बोल रहे हैं कबीर – ऐसी वाणी बोलिये, मन का आप खोय, औरन को सीतल करै, आपहुँ सीतल होय। उनमें प्रथम क्या है? ये ध्यान रखना, प्रथम है मन का आपा खोना। वो एक सध गया, तो बाकी सब स्वयमेव सध जाएँगे।

कबीर ने ख़ुद कभी फ़िक्र नहीं की कि वो किन शब्दों का चयन कर रहे हैं, वो तुम्हें थोड़े ही ना कहेंगे। हज़ारीप्रसाद द्विवेदी ने कबीर को भाषा का तानाशाह कहा है, कोई भी शब्द उठा कर कहीं भी डाल देते थे। ना तुम्हारे व्याकरण की परवाह करते थे, ना तुम्हारे समझने की, उन्हें तो कहना था। महत्वपूर्ण ये था कि किस केंद्र से कहना था, केंद्र ठीक रखो। अपना केंद्र मत रखो, ‘आपा खोय’। नहीं कह रहे हैं कि सत्य के केंद्र से बोलो, बस ये कह रहे हैं अपने केंद्र से मत बोलना, ये एहसान करना। अपने आप को खो दो, किसी दिन ऐसे घूमने निकलो और जाकर धीरे से अपने आप को गिरा आओ। बोलो, 'खो गया!' इतना कुछ खोते रहते हो, किसी दिन अपने-आप को खो आओ। आपा खोने के बाद चाहे हँसो, या रोओ कोई फ़र्क नहीं पड़ता, कोई आचरण महत्वपूर्ण नहीं है।

प्र: सेन्स ऑफ़ ह्यूमर (हास्यवृत्ति) उच्चतम धर्म है।

आचार्य: तुम्हें क्या पता किस ह्यूमर (हास्य) की बात कर रहा है कहने वाला। तुम्हें लगता है ‘हँसने’ की बात हो रही है, क्या पता कहने वाले ने सही केंद्र से कही हो बात? तो इसका मतलब ये भी हो सकता है कि अपने को महत्ता मत देना, हलकापन। हम सुनते भी तो वही हैं न जो हमें भाए। अब वाक्य कहा जाता है, और भाषा की ये अक्षमता है कि वो ये नहीं बता पाती कि किस शब्द को महत्व देना है। मान लो एक वाक्य में आठ शब्द हैं, तो क्या आठों शब्द एक बराबर हो गए? उन आठों में हो सकता है एक केंद्रीय शब्द हो, ये केंद्रीय शब्द बताने कौन आएगा? हमें एक नयी भाषा चाहिए जो ये भी इंगित कर सके कि इसमें से ख़ास शब्द कौन सा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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