जो पसंद हो वो करो! || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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जो पसंद हो वो करो! || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या सबसे जरूरी यही नहीं है कि हमें अपने पसंद के हिसाब से चलने की आजादी होनी चाहिए?

आचार्य प्रशांत: न, न, न, पसन्द की बात नहीं है यह कि तुम्हें कौन पसन्द है। अन्तर समझना। पसन्द तो अहंकार की होती है, अहंकार दो दिशाओं में बढ़ता है — और यह भेद बहुत साफ़-साफ़ समझो — एक दिशा होती है उसकी पसन्द की और एक दिशा होती है उसकी मुक्ति की और दोनों ही दिशाओं में बढ़ने को वो आतुर रहता है। एक दिशा होती है जिसमें वो कहता है कि मैं अपनी फ़्रीडम का इस्तेमाल कर रहा हूँ, मुझे जो चीज़े पसन्द है मैं उनकी ओर बढ़ रहा हूँ। और एक दिशा होती है बढ़ने की जहाँ वो कहता है कि मुझे फ़्रीडम चाहिए और ये दोनों बहुत अलग-अलग दिशाएँ हैं। एक होती है फ़्रीडम ऑफ़ ईगो (अहंकार की मुक्ति) और एक होती है फ़्रीडम फॉर ईगो (अहंकार के लिए मुक्ति) दोनों का अन्तर समझना।

तुम यहाँ बैठे हो, तुमको पिज़्ज़ा खाने का मन है, यह क्या है? फ़्रीडम ऑफ ईगो। फ़्रीडम कह रही है यह मेरी फ़्रीडम की बात है मुझे पिज़्ज़ा खाना है, मैं खाऊँगा। कौन है जो मुझे रोक सकता है? मेरी ज़बान, मेरा पैसा, मेरा पेट, मेरा पिज़्ज़ा, मैं खाऊँगा, यह मेरी फ़्रीडम की बात है और कोई मुझे रोकेगा तो मैं पुलिस बुला दूँगा। और कानून तुम्हारा समर्थन भी करेगा, भाई तुम्हारा हक़ है पिज़्ज़ा खाना, तुम पैसा दे रहे हो तो खाओ। लेकिन पिज़्ज़ा खाने से मुक्ति तो नहीं मिल जाएगी। यह हुई फ़्रीडम ऑफ ईगो। इसके लिए भी ईगो बहुत तत्पर रहती है कि मुझे अपनी फ़्रीडम की दिशा में बढ़ना है, अपनी पसन्द की दिशा में बढ़ना है।

अध्यात्म में पसन्द दो कौड़ी की चीज़ है। अध्यात्म पिज़्ज़ा चुनने का नाम नहीं है। अध्यात्म है फ़्रीडम फॉर ईगो , कि जब अहंकार कहता है कि मैं उसको पसन्द करना चाहता हूँ जो मुझे मिटा दे। पिज़्ज़ा खाते वक़्त अहंकार कह रहा है मैं उसको पसन्द कर रहा हूँ जो मुझे बढ़ा देगा, मुझे और मोटा करेगा, और अध्यात्म में अहंकार बढ़ता है स्वयं से मुक्ति की ओर; वो कहता है मुझे अपनेआप से ही आज़ादी चाहिए। मुझे अब वो नहीं चाहिए जो मुझे बढ़ा दे, मुझे वो चाहिए जो मुझे मिटा दे।

और ये दोनों ही तरह के लोग तुम्हें आकर्षित करते हैं। तुम अपनी ज़िन्दगी को ग़ौर से देख लो, ज़िन्दगी में तुम्हें दो तरह के लोग आकर्षित करेंगे, दो के अलावा कोई तीसरा हो ही नहीं सकता। एक वो जो तुम्हारे अहंकार को बहुत बढ़ाते हों वो तुम्हें आकर्षित करेंगे।

बात बहुत सीधी है, तुम्हारी जैसी वृत्तियाँ हैं, संस्कार हैं उसके अनुसार लोग तुम्हें आकर्षित करते हैं। कोई फ़िल्मी चरित्र होगा वो तुम्हें आकर्षित कर लेगा, पुरुष हो तो स्त्रियाँ तुम्हें आकर्षित कर लेंगी, लोभी हो तो सोना-चाँदी तुम्हें आकर्षित कर लेगा, ये सब चीज़ें हैं इनकी ओर अहंकार बढ़ता है। इनकी ओर बढ़कर के अहंकार और प्रबल हो जाता है। और साथ-ही-साथ तुम्हें आकर्षित कौन करते हैं? तुम्हें वो लोग आकर्षित करते हैं जो इस धरती के फूल रहे हैं। तुमने अभी नाम लिया पैगम्बर का, तुम्हें पैगम्बर आकर्षित करते हैं। तुम्हें राम, कृष्ण आकर्षित करते हैं। तुम्हें भगत सिंह आकर्षित करते हैं।

ये बात कितनी अजीब है न, कभी ग़ौर नहीं किया? हम वही, दिन के एक समय हम भाग रहे होते हैं किसी नितान्त घटिया चीज़ की ओर, और दूसरे समय पर वही मन पागल हो जाता है कि मुझे अभी जाना है, मुझे सन्त के पास जाना है, मुझे अभी बुल्लेशाह की काफी गाने दो। दो घंटे पहले क्या गा रहे थे? एक गिरा हुआ फ़िल्मी गाना गा रहे थे। गा रहे थे कि नहीं गा रहे थे? और अपनी पसन्द से गा रहे थे, कोई मजबूरी नहीं थी। और दो घंटे बाद तुम ही बेताब हुए जा रहे हो कि इस वक़्त तो सिर्फ़ और सिर्फ़ शेख फरीद को गाना है मुझे, यह क्या चमत्कार है? यह अहंकार की दो दिशाओं के सूचक हैं। जब मैं कह रहा हूँ आदर्श बनाओ तो मैं इन दो में से किस दिशा की बात कर रहा हूँ? पसन्द की दिशा की या मुक्ति की दिशा की।

प्र: मुक्ति की दिशा की।

आचार्य: तो मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि तुम किसी क्रिकेटर को कह दो कि वो मेरा आदर्श है, या तुम कह दो कि वो फलाना है उसने बड़ी कम्पनी चला रखी है या फलाना किसी देश का राष्ट्रपति है तो वो मेरा आदर्श हो गया। वो आदर्श नहीं, वैसे आदर्श तो सब बना लेते हैं। किसी भी स्कूल-कॉलेज चले जाओ लड़कों के हॉस्टल में वहाँ उन्होंने पोस्टर लगा रखा होगा किसी क्रिकेटर का, किसी फुटबॉलर का, किसी सिने तारिका का, ये सब अपना लगाकर घूम रहे हैं। इनका अनुगमन करके मुक्ति थोड़े ही मिल जाएगी, फिर तो अर्थ का अनर्थ हो गया।

मैंने कहा कि जिसको आदर्श बनाओ उसी के जैसा जीवन जियो और तुमने जीवन जीना शुरू कर दिया वो जिसका तुमने पोस्टर लगा रखा उसके जैसा, तो फिर तो बड़ी गड़बड़ हो जाएगी। आदर्श किसको बनाना है? जिसकी और अहंकार इसलिए बढ़ता हो क्योंकि उससे मुक्ति मिलेगी। पसन्द नहीं, मुक्ति। उसकी ओर नहीं बढ़ना है जो तुम्हें पसन्द हो, उसकी ओर बढ़ना है जिससे तुम्हें मुक्ति मिलती हो। जो तुम्हारे बन्धनों को काटता हो उसको आदर्श बनाना है।

प्र: कोई स्पोर्ट्स (खेल) में या कोई साइंस (विज्ञान) का, ये लोग अगर उनका जो एक्सीलेंस (उत्कृष्टता) है उस वजह से पसन्द हैं, तो...?

आचार्य: तो उस सीमा तक वो तुम्हारे काम आएँगे, उसके आगे नहीं काम आएँगे।

भई, तुम अपनेआप को क्रिकेटर मानते हो तो तुमने धोनी को आदर्श बना दिया, उससे तुम्हें लाभ होगा, इस सीमा तक लाभ होगा कि तुम भी अच्छे क्रिकेटर बन सकते हो, इससे ज़्यादा नहीं लाभ होगा, मुक्ति नहीं मिल जाएगी। या कि तुमने किसी वैज्ञानिक को अपना आदर्श बना लिया, ठीक है, कुछ लाभ होगा, उसके आगे नहीं लाभ होगा।

जिन्हें मुक्ति चाहिए उनको तो फिर ज्ञानियों को, और सन्तों को, और पैगंबरों को ही अपना आदर्श बनाना पड़ेगा। जिन्हें संसार की चीज़ चाहिए कि हम छक्के मारें वो क्रिकेटरों को बना लें आदर्श; जिनको दूसरे लोगों को प्रभावित करना और लुभाना है वो फ़िल्मी एक्टरों को आदर्श बना लें; जिन्हें सत्ता पर क़ाबिज़ होना और ताक़त पानी है वो नेताओं को और राजनीतिज्ञों को आदर्श बना लें; पर जिन्हें मुक्ति पानी है उन्हें तो फिर किसी कबीर को ही अपना आदर्श बनाना पड़ेगा।

प्र: यह जो अलग-अलग क्षेत्र में उत्कृष्टता है, क्या इसमें कोई अध्यात्म नहीं है?

आचार्य: कुछ नहीं, शून्य।

प्र: जैसे कि कोई वैज्ञानिक है और वो बहुत ही बुद्धिमान है।

आचार्य: यह माना जाता है और इस तरह के बहुत सारे पोस्टर घूम रहे हैं इन्टरनेट पर, पर वो सब फालतू के हैं। संसार को तुम कितना भी वैज्ञानिक दृष्टि से देख लो, जब तक संसार के प्रति तुम में वैराग्य नहीं उत्पन्न हुआ तब तक तुम आध्यात्मिक थोड़े ही हो गये। वैज्ञानिक दुनिया को जानता है, दुनिया को जानता है न? स्वयं को तो नहीं जानता। दृश्य को जानता है दृष्टा को तो नहीं जानता। और दृश्य को भी जानकर वो यह थोड़े ही कह रहा है कि यह सब दृश्य, अखिल जगत झूठा है। ऐसा कहा क्या किसी आइंस्टाइन ने? ऐसा तो नहीं कहा न? जब तक यह नहीं कहा तब तक अध्यात्म शुरू कहाँ हुआ?

भई कोई बिलकुल अनाड़ी है, विज्ञान बिलकुल नहीं जानता तो वो कहेगा, ‘यह (हाथ में मग उठाकर) क्या है? यह मग है।’ कोई थोड़ा और विज्ञान पढ़े हुए है तो वो आएगा, वो कहेगा, ‘यह क्या है? अरे! यह मग थोड़े ही है, ये इलेक्ट्रॉन, प्रोटोन, न्यूट्रॉन हैं।’ दोनों में ही क्या बात साझी है? दोनों अपनी बात तो कर ही नहीं रहे, भीतर जो राग-द्वेष, मोह-माया बैठे हैं उनकी नहीं बात कर रहे। बात किसकी कर रहे हैं? बात इसकी (मग की) कर रहे हैं।

अब थोड़ा और कोई आ गया जो और विज्ञान पढ़े हुए है वो कहेगा, ‘अरे! तुम छोड़ो इसको बोल रहे हो कि ये इलेक्ट्रॉन, प्रोटोन, न्यूट्रॉन है। ये तो निन्यानवे दशमलव नौ प्रतिशत खाली स्पेस है।’ अब इसने और आगे की बात कर दी पदार्थ के बारे में, लेकिन एक बात इसने भी नहीं करी, क्या नहीं करी? तुम कौन हो? तुम कौन हो जो इस मग को देख रहे हो, मग से रिश्ता रख रहे हो, अपनी बात नहीं कर रहे अभी भी। फिर और कोई आगे का आ गया उसने मॉडर्न फिजिक्स (आधुनिक भौतिकी) के आगे क्वांटम फिजिक्स पढ़ी हुई है, वो कह रहा, ‘अजी हटाइए कि ये खाली स्पेस है, मैं बताता हूँ यह क्या है? स्ट्रिंग थ्योरी का मैं अब उपयोग करने जा रहा हूँ।’ वो और नई बात बता देगा आपको फिर कोई और आएगा वो और आगे की बात बता देगा।

पर सब के सब लगे हुए हैं किसके बारे में बात करने में? बात तो इसी के बारे में बात कर रहे है न, ऑब्जेक्ट (विषय) के बारे में बात कर रहे हैं, सब्जेक्ट (विषयी) के बारे में कोई नहीं बात करना चाहता। आइंस्टीन ने भी समझाया तो क्या समझाया? प्रकाश ऐसा है, स्पेस ऐसा है, दुनिया ऐसी है, पदार्थ ऐसा है। कहीं ये बताया क्या कि तुम कैसे हो? और पीड़ा किसको है? पदार्थ को है स्पेस को है या तुम्हें है? तो तुम्हारी पीड़ा और तुम्हारी बेचैनी और तुम्हारे मूल अज्ञान का निवारण थोड़े ही हो जाएगा।

तुम थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी कितनी भी पढ़ लो, तुम जीवन भर पढ़ लो थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी , उससे तुम्हारे दुख नहीं कट जाएँगे। हाँ, तुम अष्टावक्र गीता का पाठ कर लोगे तो कट सकते हैं, यह अन्तर हैं। तो बड़े वैज्ञानिक को तुम अगर आदर्श बनाओगे, बहुत अच्छी बात है पर उससे लाभ इतना ही मिलेगा कि तुम विज्ञान सीख पाओगे, आध्यात्मिक प्रगति नहीं हो जाएगी। रोनाल्डो (फुटबॉल के एक प्रसिद्ध खिलाड़ी) को बना लोगे आदर्श, लाभ तो मिलेगा, क्या लाभ मिलेगा? फुटबॉल अच्छा खेल लोगे। कोई बहुत अच्छी नृत्यांगना हो उसको बना लो आदर्श, तुम भी जाकर के किसी जगह अच्छा नाच आओगे। लाभ तो मिल गया, लोग ताली बजा देंगे, इससे ज़्यादा कुछ नहीं मिलेगा।

तो यह तो तुम पर निर्भर करता है बेटा कि तुम्हारे जीवन में लक्ष्य कितना ऊँचा है। तुम्हारे जीवन में यही लक्ष्य हो कि मुझे भी नेता बनना है तो अपने ज़िले के किसी धाकड़ नेता को आदर्श बना लो, तुम भी नेता बन जाओगे। वैज्ञानिक बनना हो, वैज्ञानिक को बना लो। पैसा कमाना हो, कोई बड़े सेठ जी हो, इन्टरनेशनल लाला, उसको बना लो। तुम्हारे लक्ष्य की बात है कि तुम्हारा लक्ष्य क्या है। अध्यात्म उनके लिए है जिनका लक्ष्य है मुक्ति। मुक्ति अगर तुम्हारा लक्ष्य है और तुम कहो कि नहीं मैं तो गूगल वालों को और फ़ेसबुक वालों को अपना आदर्श मानता हूँ, तो तुम बेकार की बात कर रहे हो।

प्र: कोई एक कला में उत्कृष्ठता जैसे कि काव्यात्मकता, क्या यह सत्य की ओर नहीं ले जा सकती?

आचार्य: यह नहीं लेकर जाएगी। अध्यात्म अगर तुम्हारे केन्द्र में है तो तुम इनमें रंग भर दोगे अध्यात्म का। संगीत सीख कर कोई आध्यात्मिक नहीं हो जाता, पर अगर तुम आध्यात्मिक हो तो तुम्हारे संगीत में अध्यात्म रहेगा; बात उल्टी है। पोएट्री (कविता) लिखकर के कोई आध्यात्मिक नहीं हो जाता। ये जितने तुम फ़िल्मी गाने सुनते हो ये पोएट्री ही हैं, उससे क्या हो गया? एक-से-एक लिरिसिस्ट (गीतकार) घूम रहे हैं, वो चालीस साल से लिख रहे हैं गीत और ग़ज़लें और एक-से-एक घटिया गीत और घटिया ग़ज़लें, ऐसी की उनको सुन लो तो चित्त दूषित हो जाए। तो गीत और ग़ज़ल लिखकर के आध्यात्मिक नहीं हो जाओगे। पर अगर आध्यात्मिक हो तो फिर जो ग़ज़ल लिखोगे तुम, उसकी खुशबू दूसरी होगी। प्रक्रिया भीतर से बाहर की है, बाहर से भीतर की नहीं है।

कोई ऐसी कला नहीं है जो तुम्हें आध्यात्मिक बना दे, लेकिन अगर तुम आध्यात्मिक हो तो तुम्हारी हर कला फिर उसको समर्पित हो जाती है। फिर तुम खाना भी बनाओगे तो उसके लिए, गीत-ग़ज़ल भी लिखोगे तो उसके लिए, चित्रकारी करोगे उसके लिए, जो भी करोगे उसके लिए करोगे। पर तुम कहो कि मैं फलानी कला सीख रहा हूँ और उस कला के माध्यम से मैं सत्य तक पहुँच जाऊँगा, तो यह नहीं होने का। बहुत-बहुत कलाकार हैं, वो आध्यात्मिक नहीं हो गये, एक-से-एक पहुँचे हुए, मंझे हुए खिलाड़ी हैं, वैज्ञानिक हैं, कलाकार हैं उन्हें कोई अध्यात्म नहीं उतरा।

प्र: क्या हमें अपनी मर्ज़ी के अनुसार कर्म करने का हक़़ नहीं है?

आचार्य: यह आज के युग का बहुत बड़ा वहम है, बड़ा अंधविश्वास है कि मज़ा बड़ी चीज़ है। एक-से-एक धुरंधर हैं जो बच्चों को समझा रहे हैं वो करो जिसमे तुम्हें मज़ा आता हो। यह प्रोफेशनल सलाह दी जाती है काउंसिलर्स द्वारा चूज़ एन एरिया ऑफ इंट्रेस्ट (अपनी रुचि का क्षेत्र चुनो) और तुम्हें समझ में नहीं आ रहा कि अगर वो शराबियों के घर में पैदा हुआ है तो उसका इंटरेस्ट होगा ही क्या? यह बड़ा स्थूल उदाहरण है लेकिन जब समाज में नशा-ही-नशा फैला हो तो तुम्हारा जो भी इंट्रेस्ट होगा वो नशे से ही तो सम्बन्धित होगा। नशा किसी भी तरह का हो सकता है, शराब का नहीं तो इज़्ज़त का, पैसे का, सफलता का। तो यह मज़ा इत्यादि बहुत छोटी बात है।

प्र: सर, अगर वो चीज़े दूसरों के लिए भी फायदेमंद हैं तो?

आचार्य: हाँ, तो फिर वो अच्छी बात है। लेकिन उससे पहले पता कर लेना कि बेनिफिट (लाभ) शब्द का अर्थ क्या होता है। यह न हो कि तुम कहो कि ‘देखिये साहब, चिकन खाने में मुझे मज़ा आता है और जो बोटी है वो कुत्ते के लिए भी बेनिफिशियल (लाभदायी) है’, तो इसलिए तो मैं चिकन खाता हूँ। ‘मैं चिकन खाता हूँ, हड्डी कुत्ता चबाता है, यह तो मैं परमार्थ कर रहा हूँ। इससे बड़ी समाज सेवा, पशु सेवा क्या होगी? लाओ रे चिकन, एक और मुर्गा मारो। भई पशुओं को, कुत्तों को भी जीने का हक़ है कि नहीं, अब मैं चिकन न खाऊँ तो बेचारे हड्डी कहाँ से पाएँगे?’ तो किस तरह का बेनिफिट तुम देना चाहते हो दूसरों को इसके प्रति थोड़ा सतर्क रहना। बेनिफिट के नाम पर हम न जाने क्या दे देते हैं दूसरों को।

अभी हम कह रहे थे समाज में नशा व्याप्त है। एक नशेड़ी दूसरे का बेनिफिट भी किस चीज़ में देखेगा? ‘,लाओ रे गांजा, इसको भी लगाओ थोड़ा’, ‘अरे! तू बहुत उदास है ले आज बीयर पी बेनिफिट मिलेगा, भाई।‘ इस युग में एक ही भगवान है और उस भगवान का नाम है – मेरी मर्ज़ी; मुझे जिस चीज़ में मज़ा आता है, जो मेरा इंट्रेस्ट है वही भगवान है। और सारी ताक़तें लगी हैं हर बच्चे को यही शिक्षा देने में कि अपने इंट्रेस्ट का काम करो, अपनी मर्ज़ी का काम करो। डू व्हाट यू लाइक (वो करो जो तुम्हें पसन्द हो) या फिर लव व्हाट यू डू (जो करते हो उससे प्रेम करो)। इससे ज़्यादा घातक सलाह नहीं हो सकती।

आज की दुनिया में कोई धर्म नहीं बचा है। हटाओ ये सब बातें कि हिन्दू-मुसलमान से लड़ रहा है और यहाँ-वहाँ सुसाइड बॉम्बिंग हो रही हैं, मुसलमान इसाई से लड़ रहा है, ये सब बहुत छोटी-छोटी लड़ाईयाँ हैं। वास्तविकता में अगर कोई एक धर्म बचा है तो वो धर्म है मेरी मर्ज़ी। हिंदु हो, मुसलमान हो, ईसाई हो, किसी पन्थ का पालन करने वाला हो, हर आदमी बस एक चीज़ पर चल रहा है – उसकी अपनी मर्ज़ी, अपना अहंकार।

हिन्दू क्या चल रहा है अष्टावक्र के रास्ते पर और कृष्ण की गीता के रास्ते पर? तो वो कौनसा हिन्दु है, वो तो अपनी मर्ज़ी पर चल रहा है न, कृष्ण के अनुसार थोड़ी चल रहा है, वो तो अपनी मर्ज़ी पर चल रहा है। मुसलमान क्या वापस वाक़ई कुरान का और हदीस का पालन कर रहा है? अरे! कहाँ बेकार की बात। वो तो अपनी मर्ज़ी पर चल रहा है। ईसाई क्या क्राइस्ट के सदृश जीवन बिता रहा है? वो नाम का ईसाई होगा, चल तो अपनी मर्ज़ी पर रहा है, ईसा की मर्ज़ी पर थोड़े ही चल रहा है।

तो धर्म अभी एक ही बचा है, क्या? मेरी मर्ज़ी, और हर बच्चे को इसी धर्म में दीक्षित किया जा रहा है। स्कूल-कॉलेज, टीवी-मीडिया, परिवार सब उसे यही सिखा रहे हैं ‘बेटा, तुझे पसन्द क्या है यह बता न।‘ क्योंकि हमें यह छोटी सी बात समझ में नहीं आ रही की हमारी पसन्द हमारी अपनी होती ही नहीं, हमें पसन्द में ढाला जाता है, हमें पसन्द में संस्कारित किया जाता है। कुछ पसन्द होती है शरीर की और बाक़ी हमारी पसन्द होती है हमारे मानसिक संस्कारों की। पसन्द घातक है और हमें शिक्षा दी जा रही है कि पसन्द पर ही चलो, जो तुम्हें पसन्द हो वही करो।

हम बड़ी ठसक के साथ कहते हैं, ‘नहीं, मैं यह काम नहीं करूँगा, मुझे पसन्द नहीं है।’ अरे! तुझे पसन्द हो, नहीं पसन्द हो, पूछ कौन रहा है? अगर काम सही है तो करना होगा। तो कहोगे, ‘अरे! जनतंत्र है। तुमने अभी-अभी बात जो करी वो अथॉरिटेरियन (सत्तावादी) है, यह नहीं चलेगा। सबको अपनी मर्ज़ी से जीवन जीने का हक़ है।’ बिलकुल हक़ है, अपनी मर्ज़ी से जीवन जीने का न, मैं आपसे सविनय पूछना चाहता हूँ आपने यह अपनी मर्ज़ी पायी कहाँ से? यह अपनी मर्ज़ी कब आपकी अपनी बन गयी? यह प्रश्न तो पूछ लीजिए अपनेआप से, जिसको आज आप अपनी मर्ज़ी फ़रमा रहे हैं वो मर्ज़ी आपकी अपनी बनी कब और कैसे?

पर आप इतने बेहोश हैं कि आपको पता ही नहीं कि आपकी मर्ज़ी परायी है, किसी और की है। कभी वो आयी आपकी बेहोशी में और आपके ज़हन पर छा गयी और आज आप उसी के पीछे-पीछे चल रहे हैं, कहकर के कि मैं तो अपना जीवन अपनी मर्ज़ी के अनुसार बिताऊँगा। इससे बड़ी मूर्खता नहीं हो सकती।

क्या हुआ देवी जी आप अकेली आयी हैं आपके पतिदेव नहीं आए आज चर्चा में?

‘नहीं उनका इंट्रेस्ट नहीं है स्पिरिचुएलिटी में।’ अब मुक्ति भी इंट्रेस्ट देखकर चलेगी क्या?

आपके बच्चे बड़े-बड़े हो रहे हैं एक सत्रह का है, एक चौदह का है, आप उन्हें कुछ बोध साहित्य नहीं पढ़ाती, कुछ विज़्डम लिट्रेचर से उनका परिचय तो कराइए।

‘नहीं, मेरे बच्चों का इंट्रेस्ट नहीं हैं विज़्डम लिट्रेचर में।’

इंट्रेस्ट किसमें है?

‘वो पब्जी में है।’ धन्य हो देवी। अरे! पब्जी का ज़माना है तो उसी में तो इंट्रेस्ट होगा न। इंट्रेस्ट उनका अपना थोड़े ही है, सोख लिया है, सीख लिया है, आत्मसात कर लिया है, कंडीशंड (संस्कारित) हो गये हैं। घातक बात हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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