प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बाल कृष्ण की कहानियों में उल्लेख है कि वो अपनी मर्ज़ी से बंध जाते थे और अपनी मर्ज़ी से ही आजाद हो जाते थे। इसका क्या अर्थ है?
आचार्य प्रशांत: अपनी मर्ज़ी से पकड़े गए, अपनी मर्ज़ी से बंधे, चल क्या रहा है? आप बताइए, बात सीधी सी ही है। बहुत दिमाग लगाने की ज़रूरत ही नहीं है।
प्र२: ये दिखाने की कोशिश है कि वो अगर एक सम्बन्ध में भी हैं, एक सम्बन्ध में, एक सामाजिक सम्बन्ध में, अगर वो उसमें भी हैं तो वो जान रहे हैं कि अब ये इस समय की, इस घड़ी की आवश्यकता है। उससे अधिक कृष्ण के लिए उसका कोई महत्व नहीं है।
आचार्य: बढ़िया, बढ़िया। उधर को ही जा रहे हैं हम। क्या हो रहा है ये?
प्र: हम अपनी मर्ज़ी से ही बंधते है, और अगर हमारी मर्ज़ी ना हो तो कोई हमें बाँध नहीं सकता।
आचार्य: हाँ ठीक है, पर, इसको ऐसे ही देखना है या कुछ और कहना है? एक बच्चा है जो भाग रहा है, माँ पकड़ने की कोशिश कर रही है, बच्चे को पता है कि पकड़ा भी गया तो हो सकता है एक-आध पड़ भी जाए। फिर देखता है थक गई, पकड़ तो पाएगी नहीं तो रुक जाता है। माँ पकड़ कर बैठा देती है, बोलती है “बहुत तू बदमाश है तुझे बाँध दूँगी, कहीं जा ही नहीं पाएगा इधर-उधर।” अब वो बाँध भी नहीं पा रही है। कहता है, "अच्छा चलो ठीक है, बाँध लो।" फिर बंध जाता है।
प्र: कृष्ण के लिए बंधना, ना बंधना, डाँट, ख़ुशी ये सारा खेल चल रहा है। वो अब सब नियंत्रित कर रहा है कि मैं कभी बंध जाऊँ, कब ना बंधू, तो वो एक खेल खेल रहा है, साफ़ सी बात है।
आचार्य: या यशोदा के लिए है? क्या हो रहा है?
प्र२: ये है कि जो भी हो रहा है, उसमे हिस्सा ले रहे हैं लेकिन आसक्त नहीं है और खुद मज़े कर रहे हैं।
प्र३: जहाँ पर प्रेम दिखाई पड़ रहा है, वहाँ पर समर्पण आ गया है।
आचार्य: क्या हो रहा है ये?
प्र४: सर समर्पण, मुझे भी लग रहा है यहाँ पर।
आचार्य: किसी को कभी बाँधा जा नहीं सकता। शरीर बाँधे जा सकते हैं। आप पकड़ लीजिए उसका शरीर बाँध देंगे। पर ये तो कोई बंधना हुआ नहीं। ये तो कोई बंधना हुआ ही नहीं, क्योंकि शरीर का क्या है, वो तो स्थितियों का और समय का गुलाम है। वैसे भी कोई भी उसे बाँध सकता है। कोई छोटी बीमारी हो सकती है आपको अचानक से और आपको पता चले बड़ा रूप ले गई, ख़त्म हो गए। बचे ही नहीं।
शरीर तो वैसे भी बंधा हुआ है, दस चीज़ों से बंधा हुआ है। शरीर का बंधना कोई बंधना हुआ नहीं। असली बंधना तो वही है जहाँ पर आदमी खुद कह दे कि, "हाँ ठीक है, मैं प्रस्तुत हूँ, मैं प्रस्तुत हूँ।" फिर वो समर्पण जैसी ही बात है, बिलकुल वही ही है। कि “लो कर दिया, दिया।”
कृष्ण वास्तव में बंध रहे हैं क्योंकि वास्तव में मुक्त हैं। हम किसी को बाँध भी लेते हैं तो बाँध नहीं पाते। ऊपर-ऊपर से ऐसा लगता है कि हमने बाँध लिया है। पर आपने जिसको बाँध भी लिया है कि, "रहो मेरे साथ", उसका मन लगातार आपसे दूर है, आपने क्या बाँध लिया?
तो ये बड़े मज़े की बात है कि जिसको आप बाँध लेते हो उसको आप कभी बाँध नहीं पाते और जो मुक्त है, वो अपनी मर्ज़ी से पूरी तरह बंध सकता है।
जिसको आप बाँध लेते हो कि “तू घर में रह क्योंकि तू मेरी बीवी है”, उसको आप कभी बाँध ही नहीं पाते। आपको लग सकता है कि बाँध लिया, अरे! क्या बाँध लिया है? वो घर में बैठी है मन उसका कहीं और। “तू ऑफिस में रुक क्योंकि इतने बजे का समय है”, क्या बाँध लिया तुमने? वो रुका हुआ है, उसका मन कहीं और है। वो हो कर भी नहीं है।
और जो मुक्त है, वो अपनी मुक्ति में ऐसा बंधता है, ऐसा बंधता है, फिर वो पूरी तरह से हो ही जाता है, जिसके साथ बंधा उसका।
हमने पिछली बार एक बात कही थी ‘नेवर सरेंडर योर फ्रीडम, ऑलवेज सरेंडर इन फ्रीडम (अपनी आज़ादी का आत्मसमर्पण मत करो, अपनी आज़ादी में आत्मसमर्पण करो)।’
जो मुक्त है सिर्फ वही बंध सकता है। जिसके पास मुक्ति ही नहीं वो समर्पण किसका करेगा? कोई गुलाम जाकर ये कह सकता है, कि “आज से मैं तुम्हारा हुआ”? आप गुलाम हो, किसी और के हो, आप ये जा कर कह सकते हो, “आज से मैं तुम्हारा हुआ”? तुम अपने ही नहीं हो अभी, तुम्हारा मालिक कोई और है, तुम किसी और के कैसे हो जाओगे?
जो पूरी तरह अपना हो, जो मुक्त हो, वही आज़ाद होता है कभी-कभी बंध भी जाने के लिए और फिर उसको बंध जाने में कोई तकलीफ़ नहीं होती। हम बंधते हैं तो हमें कितना कष्ट होता है। होता है कि नहीं होता है? कृष्ण बंधते है तो कृष्ण की मौज है। हम बंधते है तो रो पड़ते हैं।
कृष्ण बंधते हैं तो वो कृष्ण की मौज है क्योंकि कृष्ण में कुछ ऐसा है जो बाँधा जा ही नहीं सकता, जो हमेशा मुक्त है।
ध्यान रखिएगा इस बात को — ‘सिर्फ़ जो मुक्त है, वही बंध सकता है’ और उसके बंधने से उसकी मुक्ति में कोई ख़लल नहीं पड़ता। आपके उपनिषद् कहते हैं, पूर्ण से पूर्ण को निकाल भी दो तो पूर्ण शेष ही रहता है। मुक्त को बाँध भी दो, तो भी वो मुक्त ही रहता है और जो मुक्त है उसे बंधने में बड़ा मज़ा आता है। वो बंधने को खेल समझता है। वो कहता है, “आओ बाँधो, और तुम नहीं बाँध पा रहे तो मैं प्रस्तुत हो जाऊँगा, लो बाँध लो”।
जो मुक्त नहीं है, वही बंधने से बुरी तरह डरता है। जो मुक्त नहीं है वो बंधने से खूब डरेगा, खूब डरेगा, बिलकुल डरेगा। "कहीं कुछ हो ना जाए, कहीं पकड़ ही ना लिया जाऊँ। कहीं ऐसा ना हो कि एक बार पकड़ा गया तो फँस ही गया।"
जिसे अपनी मुक्ति पर पूरा विश्वास है वो तो बन्धनों के साथ खेलेगा। “हाँ, आओ बाँधो, फिर से बाँधो, आओ बाँधो।” आपने सर्कस में वो, कलाबाज़ देखे होंगे जो, रस्सियाँ खोलने में बड़े माहिर होते हैं। वो कहते हैं “आओ, जिस भी तरीके से मेरे दोनों हाथो में रस्सी बाँधनी है बाँध दो।” फिर वो क्या करते हैं? खोल देते हैं। उनको मज़ा आ रहा है।
कोई आकर के आपके दोनों हाथों में ज़ोर से रस्सी बाँध दे और उसमें दस तरीके की गाँठ लगा दे तो आपका क्या हाल होगा? घबरा जाएँगे। उसको मज़ा आ रहा है। उसको क्यों मज़ा आ रहा है? क्योंकि उसको पता है, “कोई गाँठ मुझे रोक सकती नहीं। अब यह खेल है मेरे लिए; अब ये खेल है मेरे लिए।”
संसार बंधन है, इसमें कोई शक नहीं। बुद्ध अगर कह गए हैं कि "संसार दुःख है", तो इसमें कोई शक नहीं। संसार दुःख भी है, संसार बंधन भी है, पर यही बंधन उसके लिए खेल हो गया है…
प्र: जो मुक्त है।
आचार्य: जिसने संसार को समझ लिया है। यही बंधन उसके लिए खेल हो जाते हैं, वो इन्हीं में मज़े लूटता है। यही बंधन उस आदमी को सौ तकलीफे देते हैं जिसने दुनिया को समझा नहीं और यही बंधन उसके लिए खेल हो जाते हैं, जिसमें बोध जागृत हो चुका है।
समझ रहे हैं? संसार बंधन है, इसमें कोई शक नहीं। कोई शक ही नहीं कि संसार में कदम-कदम पर बंधन ही हैं, इधर बंधन, जिधर से बचो, जिधर जाओ, उधर ही सौ बंधन तैयार खड़े हैं पकड़ने के लिए।
एक और दूसरा बच्चा हो सकता था जो रोए, चिल्लाए, कि “यार ये आज कल की माँ बात-बात में बाँधने आ जाती हैं, चाइल्ड हेल्पलाइन कहाँ है, कॉल करो!” एक ये बच्चा है जो कह रहा है कि “आओ बाँध लो, आओ बाँध लो।”
जिसको मुक्ति नहीं आती, बंधन उसके लिए कष्ट है। जो मुक्ति जानता है, वो बन्धनों से खेलता है। कई बार तो आमंत्रित करता है, “आ माँ आ”, स्वीकार ही नहीं कर रहा, आमंत्रित कर रहा है, “आ, बाँध ले।”
मज़ेदार हैं न कृष्ण? उसको पता है, "मेरा कुछ बिगड़ ही नहीं जाएगा बंधने से। मेरा कुछ नहीं बिगड़ जाएगा। कौन है? मैया ही तो है, बाँध भी लेगी तो क्या हो जाएगा।” पूरा विश्वास, सहज श्रद्धा। “ले बाँध ले।”
और बड़ी सुन्दर कहानी है, कि जब तक बच्चे की सहमति नहीं थी माँ बाँध पाई नहीं, इसका ये अर्थ नहीं है कि शरीर नहीं बाँध पाई। देखो, शरीर तो बंध जाएगा। छोटा बच्चा है, माँ पकड़ कर के — माँ भी तो ग्वालन है, यादव। तो यशोदा भी हट्टी-कट्टी, पकड़ कर बाँध ही देती। बात इसकी नहीं है कि कृष्ण का शरीर नहीं बाँध पाती, प्रतीक है बात। कुछ था कृष्ण में जो नहीं बंधता जब तक कृष्ण नहीं चाहते।
कृष्ण में ही नहीं वो हम सब में भी है। कुछ है हम में जो नहीं बंधेगा, जब तक कि हम ही ना अनुमति दे दें। प्रेम से उसका कुछ सम्बन्ध है? देखिएगा। प्रेम से उसका कुछ सम्बन्ध है कि नहीं।
प्र: इसमें वो मजाज़ी और हकीकी है। जो वो कर रहा है अपनी माँ के साथ, वो है मजाज़ी और जो कृष्ण को दिख रहा है वो हकीकी दिख रहा है।
आचार्य: बिलकुल दिख रहा है, और हकीकी दिखना इसलिए नहीं है कि कृष्ण ने कोई साधना कर ली है, बहुत पहुँचा हुआ फ़कीर है, अभी भी बच्चा ही है वो।
प्र: वो सहजता से साधारण है।
आचार्य: वो सहजता से साधारण है। वो वही है जो हर बच्चे को होना ही चाहिए अगर उसको भ्रष्ट ना कर दिया जाए, हम भी वैसे ही होते। अगर हमारी दुर्गति ना कर दी गई होती तो हम सब भी वैसे ही हैं। कृष्ण अद्भुत नहीं हैं, कृष्ण परालौकिक नहीं हैं। कृष्ण पूरी तरीके से इसी मिट्टी के हैं, इसी ज़मीन के हैं। हम थोड़ा सा मिट्टी से भी नीचे गिर गए हैं।
कृष्ण बस वही हैं, जो हर बच्चा होता है।
प्र: सर, वो जो मिट्टी खाने वाला है, क्या ये भी किसी बात का संकेत है?
आचार्य: हाँ। मक्खन खाते हैं, मिटटी खाते हैं। उनके लिए आसमान से कोई विशेष फल नहीं टपकते। नदी में नहाते हैं, एक-एक काम वो करते हैं जो आज भी गाँव का कोई बच्चा करता होगा। एक-एक काम कृष्ण का वही है, जो हर बच्चे का है। तो क्यों माने कि चमत्कारी भगवान है या ऐसा कुछ? कृष्ण तो एक साधारण बच्चा है। हमें अपने आप को देखना पड़ेगा, हमने अपने कृष्ण को कहाँ खो दिया? पैदा हम भी कृष्ण ही हुए थे, हमने अपने कृष्ण को कहाँ खो दिया?