प्रश्नकर्ता: आचार्य जी के चरणों में कोटि–कोटि नमन। गुरुजी, मैं एक अध्यापक हूँ और बच्चों को शिक्षित करना मुझे बहुत अच्छा लगता है। अक्सर मेरे समक्ष कुछ ऐसे शिष्य भी आ जाते हैं जो आर्थिक रूप से बहुत कमज़ोर होते हैं, तो उनसे बिना कोई फ़ीस इत्यादि लिए मैं उन्हें पढ़ा देता हूँ।
गुरुजी, एक लंबे समय से यह प्रश्न मेरे मन में दौड़ रहा है कि गुरु-दक्षिणा, जिसका महत्व हिन्दू संस्कृति में बहुत ज़्यादा बताया गया है, उसका तात्विक-अर्थ क्या है?
कृपया समझाएँ।
आचार्य प्रशांत: तो उन बच्चों से गुरु-दक्षिणा लेना चाहते हो या किसी को गुरु-दक्षिणा देना चाहते हो? आ कहाँ से रहे हो?
प्र: गुरुजी, मैं दरअसल जब बच्चों को पढ़ाता हूँ तो कई ऐसे बच्चे आते हैं जिनके पिता नहीं होते हैं, तो अन्दर से मार्मिकता उठती है कि क्यों न इनकी तरफ़ कुछ ध्यान दिया जाए, और मैं उन्हें निःशुल्क पढ़ाता हूँ। पर वो बच्चे क्या करते हैं, जिनकी फ़ीस नहीं लेता, कुछ दिनों में उनके माँ–बाप तो मेरे पास एडमिट (दाखिला) कर जाते हैं उन्हें, कि पढ़ा दीजिए, पर वो आनाकानी करते हैं फ़ीस के ना देने के बाद उनके। वो आते भी नहीं हैं, छुट्टियाँ ज़्यादा करते हैं।
तो गुरु-दक्षिणा ना ले कर, या फ़ीस ना ले कर मैं गलत तो नहीं कर रहा हूँ? मेरा सवाल है।
आचार्य: ये सवाल है, ठीक है। देखो, दो पहलू हैं इस बात के। पहला गुरु की ओर से, जितनी ज़्यादा करुणा दिखा सकते हो दिखाओ। अपने भीतर ये भाव, ये लालच बिलकुल मत रक्खो कि शिष्यों के पैसे से, छात्रों के पैसे से किसी भी तरह की विलासिता, अय्याशी करनी है। मुझे लगता है ऐसा तुम कर भी रहे हो, ख़ुद ही कह रहे हो कि बहुत लोगों को मुफ़्त तुम पढ़ा देते हो। भला कर रहे हो।
इसका लेकिन एक दूसरा पहलू भी है, उसको समझना। उस पहलू का संबंध गुरु से कम, शिष्य से थोड़ा ज़्यादा है, लेकिन ज़िम्मेदारी ये फिर भी गुरु की ही है कि वो शिष्य के मनोविज्ञान को थोड़ा जाने रहे। क्या है वो (पहलू)? जो दे सकता हो, मान लो फ़ीस है तुम्हारी, जो फ़ीस तुम्हारी दे सकता है और दे सकने की सामर्थ्य होने के बाद भी नहीं देता, उसे तुमसे कोई लाभ भी नहीं मिलेगा।
यही वजह है कि तुम्हारा वो अनुभव हुआ है जो तुम बता रहे हो। तुम कह रहे हो न कि जो छात्र ऐसे होते हैं कि उन्हें तुम मुफ़्त में पढ़ा देते हो, उनमें अक्सर तुम पाते हो कि मुफ़्त पढ़ने के बावजूद वो कुछ महीने में इधर-उधर हो जाते हैं, पढ़ने में ध्यान भी नहीं देते।
और दूसरी ओर वो छात्र हैं जो तुम्हारी फ़ीस देकर पढ़ रहे होंगे। वो फ़ीस भी दे रहे हैं और मेहनत भी कर रहे हैं। अब ये बात सुनने में थोड़ी अटपटी लगती है। हम तो यों उम्मीद करेंगे कि जिसको शिक्षा मुफ़्त मिल रही है वो उस शिक्षा का और ज़्यादा आदर करेगा, वो और ज़्यादा धन्यवाद से भरा हुआ होगा, वो और ज़्यादा मन लगाकर पढ़ेगा। नहीं, ऐसा होता नहीं है, कारण साफ़ समझ लो।
कीमत चुकानी पड़ती है, शिष्य को कीमत चुकानी पड़ती है। जो शिष्य कीमत नहीं चुकाएगा, वो गुरु की तमाम सद्भावना के बावजूद गुरु से लाभ नहीं पाएगा। तो शिष्य को कीमत चुकानी चाहिए, इसलिए नहीं कि गुरु को या अध्यापक को पैसे चाहिए, इसलिए क्योंकि अगर वो अपनी ओर से कीमत नहीं चुका रहा, तो फिर वो गुरु से, अध्यापक से, कुछ लाभ भी नहीं पाएगा।
छात्र को ऐसा लग सकता है कि, "मैं तो बड़ा होशियार हूँ, मैं तो बड़ा चालाक हूँ, देखो मैं मुफ़्त की शिक्षा ले आया।" वो मुफ़्त की हो सकता है तुमसे शिक्षा ले जाए, लेकिन फिर उसका वही हश्र होगा जो तुम बता रहे हो। कारण समझना, हमारे भीतर कोई बैठा है जो मुफ़्त की किसी चीज़ को सम्मान दे नहीं सकता। ये बात बहुत अजीब है। इसीलिए तो दुनिया में सच की कद्र करने वाले इतने कम लोग होते हैं।
सच की कद्र करने वाले इतने कम लोग क्यों होते हैं? क्योंकि सच मुफ़्त मिलता है, सर्वत्र है, सार्वजनिक है। चूँकि उसकी कोई कीमत ही नहीं होती इसीलिए हम उसकी कोई कद्र भी नहीं करते। सच की भी फ़िर प्राप्ति उनको ही होती है जो सच के लिए ऊँची-से-ऊँची कीमत अदा करते हैं। ये बात अजीब है। सत्य तो वो है जिसकी कोई कीमत लग नहीं सकती, सत्य तो अमूल्य है न, उसका कोई मूल्य हो नहीं सकता। और सत्य की ओर से तो सत्य सबको मुफ़्त, नि:शुल्क उपलब्ध है, है न? जो चाहे ले जाए।
सत्य की ओर से तो सत्य सबको नि:शुल्क उपलब्ध है, लेकिन साधक की ओर से भी तो तैयारी पूरी होनी चाहिए न? और साधक के भीतर कोई बैठा है, जिसे अहं बोलते हैं, जो हर चीज़ की कीमत उसके मूल्य के अनुसार ही करता है।
आपके पास एक चीज़ है दो रुपए की और आपके पास एक चीज़ है बीस रुपए की, आप किसकी ज़्यादा परवाह करते हैं, कहिए? और फिर दो-हज़ार की कोई चीज़ है, क्या करेंगे आप? दो-हज़ार वाली चीज़ की परवाह करेंगे। और फिर बीस-हज़ार की है, और बीस-लाख की कोई चीज़ है। आप बात समझ रहे हैं?
हम क्या करें, हमारी मजबूरी है कि हम यही हिसाब-किताब, मूल्यों का, उसपर भी लगा देते हैं जो अमूल्य है। हमें लगाना पड़ेगा, हमारी मजबूरी है, हम हैं ही ऐसे। हम हर चीज़ का सम्मान उसके मूल्य को देखकर देते हैं। अब बताओ अगर तुमने सत्य के लिए कोई मूल्य नहीं चुकाया, तुम उसका सम्मान क्या करोगे? कितना करोगे, कहो? कुछ नहीं करोगे न, बस यही बात है।
इसीलिए जो लोग मुफ़्त में पाने चले आते हों, कुछ पाते नहीं। इसलिए वो जो तुमने शब्द इस्तेमाल किया 'गुरु-दक्षिणा', वो ज़रूरी हो जाती है। गुरु-दक्षिणा इसलिए नहीं होती कि गुरु को कुछ मिल जाए, गुरु-दक्षिणा इसलिए होती है ताकि चेले को कुछ मिल जाए। तुम्हें तभी मिलेगा जब तुम दोगे, और तुम्हें उतना ही मिलेगा जितनी तुम कीमत अदा करोगे। बात विचित्र है, समझिएगा।
आप उस चीज़ की कीमत अदा कर रहे हैं जिसकी कोई कीमत है ही नहीं वास्तव में, लेकिन फिर भी उसे कीमत देनी पड़ेगी, नहीं तो आपको नहीं मिलेगी।
तो जिन छात्रों को पाओ कि वास्तव में ऐसे हैं, जैसा तुमने कहा कि पिता नहीं हैं घर में या ऐसी कोई बात, उनको तो बेशक नि:शुल्क शिक्षा दिए जाओ। लेकिन जिनको पाओ कि ये दे सकते हैं, बस तुम्हारी सद्भावना का लाभ उठा रहे हैं, इन्हें पता चल गया है कि तुम ऐसे हो कि मुफ़्त भी पढ़ा देते हो छात्रों को, वो ये बात जानते हैं तो तुम्हारे पास आ गए हैं और पैसा बचा रहे हैं, इनको समझ लेना कि ये पैसा तो बचा लेंगे लेकिन शिक्षा नहीं पाएँगे। शिक्षा भी नहीं पाएँगे और तुम्हारे पास बहुत दिन रुकेंगे भी नहीं।
तो इसीलिए जो भी तुम्हारी फ़ीस है, शुल्क है, उसमें रियायत बहुत सोच-समझ कर, जो बहुत सुपात्र है उसको ही दिया करो। वरना तुम अपनी ओर से रियायत दोगे और उसको भारी पड़ जाएगी, इस बात का ख्याल रखना। जिसकी फ़ीस तुमने माफ़ कर दी, हो सकता है तुमने उसके साथ बहुत गलत कर दिया हो, क्योंकि अब वो फ़ीस नहीं देगा और पढ़ेगा भी नहीं, तुमसे कुछ पाएगा भी नहीं। तो इसीलिए आमतौर पर फ़ीस माफ़ मत किया करो।