प्रश्नकर्ता: (प्रश्नकर्ता को हकलाने की समस्या है) गुरूजी को सादर प्रणाम। शुरू से लोगों से बात करने पर बहुत ज़्यादा डर लगता है। जब मैं किसी ज़्यादा पढ़े-लिखे से बात करता हूँ। तब जुबान लड़खड़ाने लगती है।देश, समाज, संस्कृति, को देखकर बहुत कुछ करना चाहता हूँ। बचपन से देश के बारे बहुत कुछ सोचता हूँ।पर बोलने की प्रॉब्लम (समस्या) से ख़ुद की बातों को ढंग के तरीके से समझा नहीं पाता हूँ।
बोलते टाइम लगता है कि ख़ुद की बात को समझा नहीं पाता तो सामने वाले के सामने बे-इज़्ज़ती हो जाएगी।सामने वाला कमज़ोर समझेगा तो वो चीज़ को देखकर बहुत कम बोलता हूँ मैं, धन्यवाद।
आचार्य प्रशांत: क्या नाम है? ऐसे ही बता दो। नाम बता दीजिए(स्वयंसेवक से पूछते हैं)
स्वयंसेवक: जी इनका नाम हर्ष है; हर्ष अग्रवाल।
आचार्य: हर्ष यहाँ इतने लोग बैठे हुए हैं, ठीक है; और इतना मैं भरोसा करता हूँ कि यहाँ बैठकर मेरे सामने, मुझ ही से झूठ नहीं बोलेंगे।
(अन्य श्रोताओं से पूछते हुए) जब हर्ष बोल रहा था तो आपने सुना, आपके मन में कुछ भाव उठे होंगे। किसी के मन में यह भाव आया कि यह बे-इज़्ज़ती की चीज़ है? और कई अन्य प्रकार के भाव भले ही आये होंगे।किसी को भी, यह भाव आया क्या कि ये जो बोल रहे हैं, उसमें कोई अपमान है, कोई बेइज़्ज़ती जैसी चीज़ है? कुछ ऐसा हुआ क्या?
श्रोतागण: ‘नहीं’ (एक स्वर में)
आचार्य: लेकिन अन्यत्र कहीं और, शायद ऐसा हुआ है, इसीलिए हर्ष को ऐसा लग रहा है।
तो हर्ष गलती इसमें नहीं है कि वैसे तुम अपनेआप को अभिव्यक्त करते हो, एक्सप्रेस करते हो, जैसे कर रहे हो। गलती शायद इसमें है कि गलत लोगों के सामने बोल रहे हो।ऐसों के सामने क्यों बोलना जो बोले जा रहे भाव और बोली जा रही सामग्री से ज़्यादा महत्त्व उच्चारण को और धाराप्रवाह बोलने को देते हैं। ऐसों के सामने क्यों बोलना?
मैं अपनी बात बोलता हूँ– जब तुम बोल रहे थे तो मैं साधारणतया किसी की बात पर जितना ध्यान देता हूँ, उससे शायद थोड़ा ज़्यादा ही ध्यान दे रहा था। वज़ह बताता हूँ– तुम एक आंतरिक विरोध का सामना करते हुए भी बोल रहे थे, दूसरे लोग जब बोलते हैं तो उनके लिए एक साधारण बात होती है, मुँह खोला, बोल दिया।
तुम जब बोल रहे हो तो तुम एक अड़चन का सामना करते हुए भी बोल रहे हो। ठीक है न?
इसका मतलब तुम कोई महत्त्वपूर्ण बात बोल रहे हो, तो मैं उस पर और ज़्यादा ध्यान दूँगा, उसे ओर गंभीरता से सुनूँगा। तुम इस अड़चन का, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी बोल रहे हो, इसलिए मैं तुम्हें ओर ज़्यादा इज़्ज़त दूँगा। कोई भी आदमी, जिसका दिमाग ठिकाने पर होगा, वो तुम्हारी बात को, ओर इज़्ज़त देगा। और किसी ऐसे के सामने हो तुम अगर, जो तुम्हारे बोलने की शैली के कारण या तुम्हारे बोलने की अड़चन के कारण, तुम्हें सम्मान नहीं देता तो उससे बोलो ही मत। मत बोलो।
न जाने कितने अच्छे-अच्छे लेखक हुए हैं, कवि हुए हैं इतिहास में, राजनेता तक हुए हैं। ‘मैं याद करने की कोशिश कर रहा हूँ’ जो बोलते समय किसी वजह से काँप जाते थे। लेकिन आज इतिहास में उनका नाम अमर है क्योंकि उनका काम बहुत बहुत अच्छा था। काम पर अपने ध्यान दो। जब बोल रहे हो तो ध्यान इस पर दो कि क्या बोल रहे हो? उससे दो फ़ायदे होंगे।
पहली बात, जो बोल रहे हो वो बात सुनने लायक होगी और दूसरी बात, इस बात से तुम्हारा अपना ध्यान हट जाएगा कि किस प्रकार बोल रहे हो। जब सारा ध्यान इस बात पर है कि मैं क्या बोल रहा हूँ? तो इस बात से ध्यान हट जाएगा कि मैं कैसे बोल रहा हूँ? मैं हमेशा यही बोलता हूँ, इस बात को महत्व दो कि क्या बोला गया? कैसे बोला गया वो चीज़ पीछे-पीछे आएगी, क्योंकि वो चीज़ बहुत ज़्यादा हमारे हाथ में होती नहीं है। और अगर तुम ध्यान इस पर दोगे कि कैसे बोल रहा हूँ तो नकली आदमी बन जाओगे।
आज दुनिया भरती जा रही है ऐसे लोगों से, जिनके पास बोलने के लिए कुछ नहीं, पर वो बहुत बोलते हैं; क्योंकि वो बहुत चिकना बोलते हैं। उनके पास बोलने की शैली है, स्टाइल है और इसलिए वो कुछ भी बोले जाते हैं, लोग सुनते भी जाते हैं। मूर्खों को सुनने दो ऐसे लोगों को। तुम संगती ही ऐसे लोगों की करो, जो तुम्हारे कन्टेंट पर, तुम्हारे द्वारा कही जा रही सामग्री पर ध्यान दे। जैसे तुम बोल रहे थे तो यहाँ सब लोगों ने सुना तुम्हें ध्यान से। ठीक है? तुम बोल रहे, तुम्हे भी सुना। मैं बोल रहा हूँ, मुझे भी सुना।
जितना ज़्यादा तुम सही लोगों के बीच में रहोगे और जितना ज़्यादा तुम सही बात बोलोगे, उतना ज़्यादा तुम भूलते जाओगे कि तुम इस तरह की किसी कमज़ोरी से ग्रस्त हो। ये चीज़ भी फिर अपनेआप कम हो जाएगी क्योंकि बहुत हद तक ऐसी चीज़ें मानसिक होती हैं। जैसे ही तुम्हारे मन से ये बात हटेगी कि मैं थोड़ा अटक-अटक के बोलता हूँ, वैसे-वैसे अटकना भी थोड़ा कम हो जाएगा। खेल तो सारा मन का ही होता है न?
वही चीज़ हमारे लिए अस्तित्व में होती है जिस पर हम ध्यान देते हैं। जिस चीज़ पर तुम ध्यान देना छोड़ दोगे, उस चीज़ का आकार कम हो जाता है। तो जो चीज़ें बेकार की हों, उनका आकार कम कर देते हैं। कैसे? उन पर ध्यान न देकर के। जो चीज़ें शारीरिक हैं, प्राकृतिक हैं, उनको तुम बदल तो सकते नहीं। तो क्या करना है फिर? उन पर ध्यान ही नहीं देना है। इससे उनका आकार कम हो जाता है।
किस चीज़ पर ध्यान देना है– ‘मेरी समझदारी कितनी गहरी है’,मैंने जो बात बोली उसमें दम कितना था? वज़न कितना था? इस बात पर ध्यान देना है। क्योंकि अंततः कोई नहीं पूछेगा कि तुम कितना फर्राटेदार बोलते हो? महत्व ये बात रखती है कि तुम कितना शुद्ध, सही, सटीक , सच्चा बोलते हो? उस चीज़ को बढ़ाओ। ठीक है?
एक बात और बताता हूँ हर्ष। मैं कभी ऐसे अटक के तो नहीं बोलता था, लेकिन मैं बोल ही नहीं पाता था। मैं बचपन में बहुत बहुत ज़्यादा शर्मीला था। मैं बोलता ही नहीं था, खासतौर पर अगर अनजाने लोगों के सामने खड़ा कर दिया तो मैं नहीं बोलता था।
मैं अभी भी आप लोगों से बोल देता हूँ। ऐसे अगर आमतौर पर कोई अनजान व्यक्ति मिल जाता है तो मैं ज़्यादा बातचीत कर नहीं पाता। सही चीज़ है आज बोलने के लिए तो बोलना अपनेआप हो जा रहा है। अगर मुझसे सिर्फ़ ये कह दिया जाए न, कि बोलो, तो शायद कुछ न बोल पाऊँ।
इसीलिए मैं आते ही आपसे बोलता हूँ, सवाल पूछिए। वो एक तरह से मेरी मज़बूरी है क्योंकि अगर सवाल नहीं पूछा और मुझसे कह दिया, ‘बोलो’ तो मैं अटक जाऊँगा। मेरे पास कुछ नहीं है बोलने के लिए। सही काम करो, बोलना वगैरह अपनेआप हो जाएगा। ठीक है?