जो धोखा देते हैं, उन्हें भी हम छोड़ क्यों नहीं पाते? || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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जो धोखा देते हैं, उन्हें भी हम छोड़ क्यों नहीं पाते? || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, मेरा प्रश्न है कि जिनसे नुक़सान ही मिल रहा हो — हमारे रिश्तेदार, प्रेमी और गुरु — उन्हें भी हम छोड़ क्यों नहीं पाते?

आचार्य प्रशांत: प्रश्न स्पष्ट है? (श्रोताओं से पूछते हैं) कि अपना कोई सम्बन्धी है या दोस्त-यार है, पुराना है, दिख रहा है कि उससे नुक़सान ही मिल रहा है, उसे छोड़ नहीं पाते। वही बात उनसे जिनसे मन लगा हुआ है, प्रेम लगा हुआ है; और वही बात उनसे जिनको गुरु इत्यादि माना हुआ है। कि जान भी गये कि उनकी उपस्थिति अब मन में और जीवन में घातक है, तो भी छोड़ क्यों नहीं पाते।

छोड़ कैसे पाएँगे, छोड़ने वाला कौन है? हम ये समझते ही नहीं, ध्यान ही नहीं देते कि हमारा आंतरिक तौर पर निर्माण कैसे होता है, हम भीतर से कौन हैं। अध्यात्म में, बल्कि जीवन में ही मूल समस्या ये है कि हमने प्रभावित ‘मैं’ को, संस्कारित ‘मैं’ को असली, मौलिक ‘मैं’ समझ लिया है।‌

आप समझ रहे हो?

जैसे कि लोहे का एक टुकड़ा हो वो चुम्बक के पास बहुत दिन से रहा हो, बहुत पुराना उसने रिश्ता रखा हो, अब ये जो लोहे का टुकड़ा है, जब ये चुम्बक के पास बहुत दिन तक रहता है तो इसमें स्वयं भी क्या आ जाता है? चुम्बकत्व आ जाता है न! ये भी कैसा हो जाता है?

प्र: चुम्बक जैसा।

आचार्य: चुम्बक जैसा ही हो जाता है। अब ये जो टुकड़ा है लोहे का, ये विचार कर रहा है कि मैं चुम्बक को छोड़ क्यों नहीं पा रहा। ये इस बात को देख ही नहीं रहा कि दो चीज़ें हैं इसके भीतर जो अब इसको पूरी तरह से पकड़ चुकी हैं।

पहली बात, जन्मजात रूप से तुम लोहे हो और लोहे की वृत्ति, टेंडेंसी क्या होती है? चुम्बक की तरफ़ खिंचना। तो ये बात तो तुम्हारे जन्म के साथ ही तय हो गयी कि तुम खिंचोगे। और दूसरी बात, तुम क्या नहीं देख पा रहे हो कि तुम बहुत लंबे समय तक चुम्बक के निकट रहे हो और उस चुम्बक ने तुममें अपना ज़बरदस्त प्रभाव भर दिया है।

तुम दो तरफ़ से मारे गये हो। ये तो छोड़ दो कि तुम किसी चुम्बक की ओर आकर्षित हो रहे हो, अभी तो हालत ये है कि तुम स्वयं ही चुम्बक बन चुके हो और तुम दूसरे लोहे के टुकड़ों को भी अपनी ओर आकर्षित कर रहे हो। लेकिन ये हम देखते नहीं हैं कि हम क्या बन गये हैं, कैसे बन गये हैं। जो मैंने पहली बात बोली, हम भूल ही जाते हैं कि हमारा निर्माण कैसे हुआ है या हमारा निर्माण कैसे हो रहा है। प्रतिदिन हम प्रभावित हो रहे हैं।

लोहे के लिए बड़ा मुश्किल है न चुम्बक को छोड़ देना? बहुत मुश्किल है न?

मनुष्य के लिए राहत की बात ये है कि वो जड़ पदार्थ तो है लोहे जैसा, लेकिन वो जड़ पदार्थ से आगे भी कुछ है। उसमें चेतना है और वो चेतना मुक्ति माँगती है। वो चेतना बाहर के चुम्बक से बाद में मुक्ति माँगती है, वो चेतना भीतर के चुम्बक और भीतर के लोहे से पहले मुक्ति माँगती है। ध्यान हम सारा किस पर लगा देते हैं जब मुक्ति की बात आती है तो? कहिए। बाहर वाले पर।

हमें लगता है कि कोई बाहर वाला हम पर हावी है और हमें उसे छोड़ देना चाहिए लेकिन हम उसे छोड़ नहीं पा रहे। हमारी धारणा ऐसी होती है। हम ये नहीं देखते हैं कि बाहर वाला, बाहर वाला नहीं है, बाहर वाला कब का हमारे भीतर प्रवेश कर चुका। वो दिख अब बाहर रहा है, वो बैठ अब भीतर गया है। क्योंकि वो भीतर बैठ गया है, इसलिए तो वो बाहर भी अब छोड़ा नहीं जा रहा। नहीं तो छोड़ दिया होता।

ये समझ में आ रही है बात?

भीतर जो उसने अतिक्रमण कर लिया है, एन्क्रोचमेंट , अगर उसको आप हटा सकें तो बाहर उसके प्रति जो आकर्षण है, वो ख़ुद ही हट जाएगा। ऐसे मत सोचिए कि आप उसकी ओर आकर्षित हो रहे हैं, वाक्य को थोड़ा बदलिए, वो आपके भीतर घुसकर के स्वयं के प्रति आकर्षित हो रहा है।

वही हमारे भीतर घुस गया है। हम भूल क्या कर रहे हैं? कि वो जिसने बाहर से अंदर आकर के हमें प्रभावित कर दिया है, उसको हम ‘प्रभाव’ का नहीं, ‘मैं’ का नाम दे रहे हैं।

हम कह देते हैं, ‘मेरी इच्छा’, ‘मेरा प्रेम’, ‘मेरे विचार’, ‘मेरी भावना’। बहुत कम हम ये देख पाते हैं कि वो सबकुछ जिसे हम अपना कह रहे हैं, अपना इस तरीक़े से नहीं कि जैसे कोई इस पेन को अपना कहे, इस काग़ज़ को अपना कहे। ये तो फिर भी बाहरी हैं; अपना, बहुत ही आंतरिक अर्थों में।

अस्तित्वगत रूप से जिसको हम कहते हैं ‘अहम्’, वो भी बाहरी है। अब हम जो फिर लड़ाई लड़ते हैं, उसमें जीत असंभव हो जाती है न। दुश्मन को अपने घर में घुसाने के बाद हम चाहते हैं कि उसी दुश्मन के जो बाहरी साथी हैं, उनको परास्त कर दें। कर पाएँगे आप? कहिए।

जीत की कुछ संभावना बचती अगर दुश्मन दीवाल के उस पार होता। हमने क्या किया है? हमने दुश्मन को यहाँ अंदर ही बुला लिया है और उन सबको, वो जो अंदर आ गये हैं, उनको नाम क्या दे दिया है — ‘मैं’; ये ‘मैं’ हूँ या ये ‘मेरे’ हैं; ‘अहम्’ या ‘मम्’, कुछ भी। और उसके बाद ये उम्मीद बाँधे बैठे हैं कि अभी भी विजय संभव है।

विजय का क्या अर्थ? कि वो जो बाहर वाला है, वो मुझे प्रभावित करना चाहता है, मुझपर छाना चाहता है, मैं उसे परास्त कर दूँगा। क्या अब ज़रा भी संभावना है?

तो इसीलिए हमारी योजनाओं का असफल होना क़रीब-क़रीब तय है क्योंकि योजनाकार ही भ्रष्ट है। इसीलिए जीत के हमारे विचारों का पस्त होना तय है क्योंकि विचारक ही बिका हुआ है। जब विचारक ही बिका हुआ है तो उसके विचारों की हैसियत क्या!

बात समझ में आ रही है?

आप जिनके साथ रहे हो, वो आपके बाहर नहीं रह जाते, वो आपके ख़ून में प्रवेश कर जाते हैं। मैं और क्यों सालों से कह रहा हूँ कि हमारी क़िस्मत सबसे ज़्यादा किससे निर्धारित होती है — संगति से। वो आपकी फिर नज़र के आगे नहीं रह जाते, वो आपकी नज़र के पीछे पहुँच जाते हैं। माने? वो ये तय करने लग जाते हैं कि अब आप दुनिया को कैसे देखोगे।

अब अगर वो ‘मैं’ बन गये हैं तो उनको छोड़ने का मतलब क्या होगा — किसको छोड़ना? ख़ुद को छोड़ना। और ख़ुद को छोड़ना कैसा लगता है? जैसे हम? अरे! ख़ुद को छोड़ने का क्या मतलब होता है? मैं मर गया।

इसलिए चाहे फिर कोई दोस्त-यार हो, रिश्तेदार हो, प्रेमी हो, चाहे कोई व्यक्ति हो जिसे लंबे समय से गुरु मान लिया है, उसको छोड़ना बड़ा मुश्किल हो जाता है क्योंकि वो आपकी अहम् सत्ता का केंद्रीय हिस्सा बन जाते हैं। उनको छोड़ोगे तो ऐसा लगेगा कि जैसे मर गये; और वो मृत्यु ही होती है। मानसिक तल पर, साइकोलॉजिकल तल पर वो एक मौत जैसा ही होता है। और बड़ा दर्द होता है। लेकिन दर्द भी किसको होता है? आपको नहीं होता। दर्द उसी को होता है जो उनसे निर्मित था।

एक बार आप ये समझ गये, अब उस दर्द को झेलना बहुत आसान हो जाता है क्योंकि अब आप उस दर्द से एक दूरी बना सकते हैं।

नहीं समझे?

दर्द भी किसको हो रहा है? अहम् को ही दर्द हो रहा है क्योंकि अहम् जिनसे निर्मित है, वो तोड़े जा रहे हैं हमसे। और दर्द होगा। कोई इस तरह की दिलासा में न रहे कि आप आंतरिक तौर पर उन्नति कर ले जाएँगे बिना दर्द झेले। हो सकता है ज़िंदगी में और तरक़्क़ियाँ आपको मिल जाएँ बिना दर्द के। वैसा भी नहीं होता, सीधी-साधारण भौतिक तरक़्क़ी के लिए भी दर्द झेलना पड़ता है। लेकिन अगर आध्यात्मिक प्रगति करनी है तब तो आंतरिक पीड़ा से निसंदेह गुज़रना ही पड़ेगा।

लेकिन मैं कह रहा हूँ उसको झेलना आसान हो जाएगा जब आप ये पूछें कि ये दर्द भी किसको है। ये दर्द भी उसी को है जो तुमसे निर्मित था। माने वो असली नहीं था, माने वो मेरा नहीं था। वो नकली था इसीलिए उसे नकली के टूटने पर दर्द हो रहा है न! और वो दर्द झेल लीजिए। ज़िंदगी को थोड़ी शुद्धि देने के लिए अगर क़ीमत है ये दर्द, तो सस्ते में मिल रही है शुद्धि, ले लीजिए।

बात समझ रहे हैं?

अब गुरुदेव ने सिखाया है कि गुरुदेव जो कुछ भी बोलें, वो अकाट्य सत्य है। या छोड़िए, गुरुदेव ने सिखाया है कि गुरुदेव को अगर छोड़ा तो नर्क में जाकर पड़ोगे। गुरुदेव ने सिखाया है कि गुरुदेव को अगर छोड़ा तो नर्क में जाकर पड़ोगे। अब आपको जीवन के किसी मोड़ पर दिखायी दे रहा है कि गुरुदेव ऊल-जलूल बातें करते हैं, आप उनसे आगे निकलना चाहते हैं लेकिन आपको बार-बार ख़याल आ रहा है कि गुरुदेव को अगर छोड़ा तो नर्क में जाकर पड़ेंगे।

अब देखिए क्या हो रहा है, गुरुदेव को आप नहीं छोड़ पाएँगे क्योंकि गुरुदेव ही आपके भीतर बैठ करके आपको ये विचार दे रहे हैं कि गुरुदेव को छोड़ा तो नर्क में पड़ोगे। और आप सोच रहे हैं कि ये विचार आपका है। नहीं, आपका नहीं है।

समझ रहे हो?

जब हमें संस्कारित किया जाता है न, तब हमें विचार दे दिये जाते हैं, धारणाएँ दे दी जाती हैं और वो कोई भी विचार, कोई भी धारणा टिक नहीं सकती जबतक उनके ऊपर एक आख़िरी विचार न रख दिया जाए। वो आख़िरी विचार जानते हो क्या होता है? ‘ये विचार मेरे हैं।’

जैसे कि कोई डब्बा हो, मान लीजिए, ये जो खोपड़ा है ये एक खाली डब्बा है। ठीक है? मन कहे लें, ये एक खाली डब्बा है। ऐसे, ये है (पानी का गिलास दिखाते हुए)। इसके भीतर क्या भरा जा सकता है? कुछ भी भरा जा सकता है। ठीक है न? पर इसके भीतर जो भी भरा जाएगा वो गिर सकता है। ये जो पात्र है, ये जो डब्बा है ये उससे मुक्त हो सकता है इसके भीतर जो कुछ भी भरा गया है।

इसके भीतर क्या भरे जाते हैं, अगर ये मन है तो इसके भीतर क्या भरी जाती हैं? धारणाएँ, विचार, ये सब चीज़ें इसमें डाली जाती हैं। इसमें जो कुछ भी डाला जाता है वो चीज़ इसके भीतर टिकी रहे, इसके लिए इसपर एक आख़िरी विचार ज़रूर डाला जाता है अनिवार्य रूप से, वो क्या? कि इसमें जो कुछ भी डाला गया है वो तुम्हारा है। उसको आप मान सकते हैं कि वो इस पात्र के ऊपर का एक ढक्कन है। अब जो कुछ भी डाला गया है, वो स्थायी हो गया, अब वो नहीं हटेगा।

अब आप कितनी भी कोशिश कर लें कि ये मेरे मन में क्या चलता रहता है, ये मेरे भीतर ऐसी भावनाएँ क्यों आती हैं, मैं डर क्यों जाता हूँ, ये-वो; जो भी हमारी समस्याएँ होती हैं। कि मेरे मन में ये सब क्यों चलता रहता है। इसलिए चलता रहता है क्योंकि जिन्होंने आपके मन में ये सब डाला उन्होंने ये सब डालने के बाद एक आख़िरी चीज़ ये भी डाल दी (गिलास के ऊपर तौलिया रखते हुए)।

ये क्या है? ये सील है। ये क्या है? अगर ये न डाली गयी होती तो ये जो कुछ भी डाला गया है, ये निष्प्रभावी हो जाता; ये कभी भी गिराया जा सकता था, इससे आप कभी भी आज़ाद हो सकते थे।

तो आपको जब धारणाएँ दी जाती हैं, उन धारणाओं के साथ एक जो एक आख़िरी धारणा दी जाती है, उसको याद रखिए, वो क्या होती है? ‘ये धारणाएँ मेरी हैं, ये विचार मेरे हैं, ये भावनाएँ मेरी हैं।’

समझ में आ रही है बात?

हमें किससे लड़ना है? भीतर जो मामला है, इससे, या सिर्फ़ इतना करना है कि ऊपर की जो सील है उसको तोड़ दें? कहिए।

प्र: ऊपर जो है।

आचार्य: ऊपर जो है उसको तोड़ दो, भीतर जो है वो कितनी देर टिकेगा! वो ख़ुद ही गिर जाएगा। ऊपर की इस सील को तोड़ने को ही ‘कोहम् विधि’ कहते हैं — मैं कौन हूँ? मेरा क्या है?

सील कहती है ये पूछो ही मत कि मैं कौन हूँ, मेरा क्या है। क्योंकि भीतर जो कुछ है वही तो तुम्हारा है तो पूछने की ज़रूरत ही क्या है कि मैं कौन हूँ, मेरा क्या है। उसने बंद कर दिया है। उसने ये जो भीतर मामला है उसी को घोषित कर दिया है ‘मैं’ और ‘मेरा’; ‘अहंता’ और ‘ममता’। ये मैं हूँ; ये क्या है? ये मैं हूँ, अहंता, और इसके भीतर जो कुछ है वो क्या है? मेरा है, ममता। इसको हटाना है। ये जो आख़िरी विचार है, इसको हटाना है।

बहुत लंबी-चौड़ी आपको लड़ाई नहीं लड़नी है, सौ मोर्चे नहीं खोलने हैं। एक जगह बस घात करिए। पूछिए कि ये सब क्या वाक़ई मेरा है, क्या मैं इसके अतिरिक्त और इसके आगे कुछ हो ही नहीं सकता। तरह-तरह से सवाल करिए।

पूछिए, ‘अच्छा एक बात बताओ, इसके भीतर जो कुछ है, वो सदा ही ऐसा तो नहीं था न? कभी इसमें कुछ होता है, कभी कुछ होता है। जब आप पंद्रह साल के थे तो मन में जो सामग्री थी क्या वही आज भी है? बदल गयी न? पच्चीस के थे तब जो सामग्री थी वो भी बदल गयी न? पैंतीस के थे, एकदम अलग। पैंतालिस के हो गये, एकदम अलग।

तो ये कौनसा ‘मैं’ है जो समय-उम्र के साथ बदलता जाता है! ज़रूर इस ‘मैं’ की डोर किसी और के हाथ में है। और किसके हाथ में है, ये पता नहीं, पर समय के हाथ में तो है ही। क्योंकि समय इसको बदले दे रहा है। तो ये असली तो नहीं हो सकता। ये असली नहीं हो सकता। अगर ये असली नहीं हो सकता तो फिर मुझे इसकी रक्षा करने की कोई ज़रूरत नहीं है।

बात समझ रहे हैं?

जिनसे आज़ादी चाहिए, उन्हीं के दिये हुए सिद्धान्तों पर चलकर उनसे आज़ादी थोड़े ही पा लोगे। कि पा लोगे? कहो। जिनसे आज़ादी चाहिए अगर उन्हीं के दिये हुए सिद्धान्त हमारी बेड़ियाँ हैं तो उन बेड़ियों का सम्मान करते हुए कैसे आज़ाद हो जाएँगे हम? बोलो।

समझ में आ रही है बात?

प्र: प्रणाम, आचार्य जी। आचार्य जी, जो आपने अभी उदाहरण देकर समझाया कि जो सील है वही शायद हमें तोड़नी है। तो वो क्या दुख जब लगेगा उसके कारण टूटेगी या अपनी समझ से, कुछ अच्छा सुनकर, कोई गुरु धारण करके, वो सील कैसे टूटेगी?

आचार्य: नहीं, दुख आगे क्यों लगे? दुख तो है ही न। दुख तो है। आपको और ज़्यादा दुख चाहिए क्या दुख का अनुभव करने के लिए? लेकिन मैं समझ रहा हूँ, इंसान के पास एक बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण ताक़त होती है। और वो ताक़त होती है अपनी स्थितियों से सामंजस्य बैठा लेने की, एक्लमेटाइज़ हो जाने की। दुख भी अगर बहुत समय तक और लगातार रहे, तो वो फिर दुख जैसा प्रतीत भी नहीं होता।

अगर आप एकदम सही बात करेंगे, ऊँची-से-ऊँची बात करेंगे तो स्वभाव तो हमारा आनंद है; निरंतर, अबाध आनंद। उससे नीचे आपके मन की जो भी स्थिति है उसका नाम दुख ही है। तो कौन है जो दुख में नहीं है? नहीं समझ रहे?

एबसोल्यूट जॉय , पूर्ण-आनंद के अलावा आपकी मन की जो भी स्थिति है उसको एक ही नाम दीजिए, क्या?

प्र: दुख।

आचार्य: लेकिन हम दुख को परिभाषित नहीं करते आनंद की तुलना में, हम दुख को परिभाषित करते हैं पड़ोसी के सुख की तुलना में। तो इसलिए हमको ये ग़लतफ़हमी रह जाती है कि साहब, हम दुखी नहीं हैं।

नहीं समझ पा रहे?

हम तय कैसे करते हैं कि हम सुखी हैं या दुखी हैं? हमें कुछ पता नहीं। क्योंकि हमारे पास कोई एबसोल्यूट बेंचमार्क , कोई मुक्त पैमाना है नहीं। हम बड़े ग़ुलाम लोग हैं, हमें ये भी नहीं पता कि हम कब अपनेआप को सुखी मानें, कब अपनेआप को दुखी मानें। तो हम कैसे तय कर लेते हैं कि हम सुखी हैं या दुखी हैं, जो भी है? हम दूसरों को देख करके। दूसरों की जैसी हालत है, अगर वैसी ही हमारी हालत है और दूसरों को मान्यता मिली हुई है कि वो सुखी हैं तो हम भी अपनेआप को क्या बोल देते हैं? सुखी हैं। करते हैं कि नहीं?

सोचिए, आपको बिलकुल न पता हो कि कौनसी चीज़ें सुख की हैं, कौनसी चीज़ें दुख की हैं, तो क्या वाक़ई आपको उन चीज़ों में सुख लगेगा जिनमें अभी लगता है? और पता न हो माने आपको बताया न गया हो, आपके मन में ये बात घुसेड़ न दी गयी हो, तो भी क्या आपको उन चीज़ों में सुख लगेगा जिनमें अभी लगता है? कहिए।

आप सड़क पर चले जा रहे हैं, बगल में आपको दिखायी दे रहा है एक फार्म हाउस जैसा या एक वेडिंग हॉल है। और वहाँ आप सजावट देख रहे हैं, भीतर से धूमधाम की आवाज़ें आ रही हैं और तुरन्त आपमें ये भावना उठती है कि भीतर जो हो रहा है वो कोई नेक काम है, ख़ुशी का काम है। उठती है कि नहीं उठती है?

अब मान लीजिए कि ये आपको ये सब नहीं बताया गया है, मान लीजिए आप अफ़्रीका में किसी ऐसी जगह से आ रहे हैं जहाँ पर विवाह इस तरीक़े से होते ही नहीं। ठीक? अब आप उसी जगह से निकल रहे हैं, क्या अभी भी आपके भीतर ये भावना उठेगी कि भीतर सुख का कार्यक्रम चल रहा है?

पर हममें ये बात डाल दी गयी है कि अगर फ़लानी चीज़ें हो रही हैं तो उसे सुख मानो और फ़लानी चीज़ें अगर हो रही हैं तो उसे दुख मानो।

ये बात सुनने में बहुत अजीब लगेगी पर हम आंतरिक रूप से बहुत आश्रित लोग हैं। हमें नहीं पता कौनसी चीज़ में सुख मनाना है, कौनसी चीज़ में दुख मनाना है। इतना सब देख लीजिए कि क्या ये पहले से ही तय नहीं है कि किन चीज़ों को सुख की घटना मानना है और किन बातों को दुख की घटना मानना है? कहिए।

क्या ये पहले से ही तय नहीं है? और आपके जीवन में अगर वो घटनाएँ घटें और आप उनके बारे में किसी को बताएँ या फेसबुक पर डाल दें तो लोग तुरन्त या तो बधाई देने आ जाएँगे या शोक संवेदना देने आ जाएँगे। क्योंकि लोगों को ये पहले से ही पता है कि इस घटना को क्या मानना है? ‘सुख’; और दूसरी घटना को क्या मानना है? ‘दुख’ मानना है।

तो ऐसे हमारे सुख और दुख का निर्धारण होता है, दूसरों को देख करके। ये सही तरीक़ा नहीं है। आप सुख में हैं या दुख में हैं, आपकी क्या हालत है — ये जानना है तो अपनेआप से ये पूछिए कि क्या एबसॉल्यूट जॉय में हूँ मैं इस वक़्त? और अगर नहीं हैं तो अपनी स्थिति को एक ही नाम दीजिए — दुख।

पूर्ण आनंद से नीचे आप जिस भी हालत में हैं, आपने अपनेआप को बहुत सस्ता उड़ा दिया। स्वयं के साथ बड़ा अन्याय कर दिया। लेकिन चूँकि हम उस पूर्ण आनंद में किसी को भी नहीं देखते, तो हमें लगता है कि शायद ये उपलब्ध ही नहीं होता होगा।

‘हम ही बड़े ख़ास हैं क्या! जब वो आनंद किसी को नहीं मिल रहा तो हमें ही क्यों मिले! और हम होते कौन हैं शिकायत करने वाले? अरे! एक-से-एक बड़े-बड़े लोग घूम रहे हैं, जब उनका भी मुँह लटका हुआ है, वो भी उदास हैं तो हम कौन हैं कि हम पहले तो आनंद माँगें और वो भी उच्चतम आनंद! क्यों माँगें?'

तो कोई थोड़ा सा लिबलिबी सी हँसी हँस दिया, हमें लगता है ये सुखी है। किसी ने एक गाड़ी खरीद ली, किसी ने कुछ कपड़ा खरीद लिया, किसी के कुछ और हो गया, हमें लगता है कि ये सुखी है। ये बहुत छोटा सुख है, अगर आप इसे ‘सुख’ बोलना भी चाहते हैं तो...। और ये सुख सिर्फ़ कुछ और घटनाओं की तुलना में है जिसे हम ‘दुख’ बोलते हैं।

ये बात अंदर जा रही है?

हम जिन चीज़ों को सुख बोलते हैं, वो सुख सिर्फ़ कुछ घटनाओं की तुलना में है जिन्हें हम दुख बोल देते हैं। अन्यथा ये सुख कोई सुख नहीं है। अगर आप अपना पैमाना ऊँचा कर लें — और मैं कह रहा हूँ कि कहाँ पर ले जाकर रखो अपने पैमाने को? आनंद, पूर्ण आनंद — तो समझ में आएगा न कि जीवन में कितना दुख है।

तब कहोगे कि ये सब जो कुछ भी है किसी काम का नहीं है। इसमें दुख भी बहुत छोटा मिला हुआ है और सुख भी बहुत छोटा मिला हुआ है। तब फिर आदमी माँग करता है कि मुझे कुछ ऊँचा चाहिए। ज़्यादातर लोग वो माँग कर ही नहीं पाते। जीवन इसलिए व्यर्थ चला जाता है।

जीवन व्यर्थ इसलिए नहीं चला जाता कि जिस पूर्ण आनंद की मैं बात कर रहा हूँ वो कोई अप्राप्य चीज़ है, मिल ही नहीं सकती। नहीं, ऐसा नहीं है। अगर आप पैदा हुए हो तो वो जो उच्चतम है उसपर अधिकार भी है आपका। मिल सकता है, मुश्किल है असंभव नहीं है।

असंभव वो इसलिए हो जाता है क्योंकि उसको हम माँगते ही नहीं। माँगा होता तो पाने की कुछ संभावना भी बनती न। माँगा ही नहीं तो कहाँ से मिल जाएगा!

और क्यों नहीं माँगा? क्योंकि भ्रम ये हो गया कि हम तो पहले ही ठीक चल रहे हैं। थोड़ा दुख है, थोड़ा सुख है; कभी ख़ुशी कभी ग़म, चल रहा है। ‘जीवन इसी का तो नाम है, बेटा! ज़िंदगी में थोड़ी ख़ुशी मिलती है और थोड़ा ग़म मिलता है, ले-देकर जो मिलता है, थोड़ा ही मिलता है।’

अच्छा, सब कुछ थोड़ा-थोड़ा ही मिलता है! मौत भी थोड़ी मिलती है क्या? या मौत पूरी मिलती है? जब मौत पूरी ही मिल जानी है तो जीवन थोड़ा-थोड़ा क्यों जी रहे हो? नहीं तो बोलना भैंसेवाले को कि ज़िंदगी हमने बहुत थोड़ी-थोड़ी जी है, मौत भी हमें तू थोड़ी सी दे दे।

मौत तो वो पूर्ण देगा, कुछ नहीं बचने वाला। तो ज़िंदगी थोड़ी क्यों जी रहे हो? क्या बचा रहे हो? डर-डर के भी बहुत क्या बचा लोगे, ये बताओ। बोलो।

स्पष्ट हो रही है बात?

देखो, दुख बस वही नहीं होता कि तुम हड़हड़ा के रो पड़े। छवियाँ हैं बस ये कि किसी को देखा छाती पीट रहा है तो कह देंगे कि दुखी है। दुख यही नहीं होता है। कोई छाती पीट के रो रहा है, दुख मना रहा है, मैं समझता हूँ कि थोड़ी आशा है अभी। क्या आशा है? कि इसे समझ में आएगा कि जीवन ठीक नहीं है, कुछ बदलेगा।

मैं छाती पीटने वाले दुख से ज़्यादा ख़तरनाक उस दुख को मानता हूँ जिसमें आदमी संतुष्ट सा नज़र आ रहा है। इसने अपने दुख का दमन कर दिया है। ये दुखी है पर इसने अपनेआप को समझा लिया है कि मैं दुखी नहीं हूँ। इसने झूठ-मूठ ही रट लिया है — “संतोषं परमं सुखम्”। ये मान ही नहीं रहा है कि भीतर का वास्तविक हाल है क्या। ठीक है, मत मानो। मौत तो फिर भी आएगी। क्या बचा ले जाओगे?

जिस चीज़ पर आप दावा ही नहीं करना चाहते, वो चीज़ आपको क्यों मिले, ये तो बताइए। ये कलम आपकी है, ये डायरी भी आपकी होगी। किसकी हैं ये दोनों चीज़ें? आपकी हैं।‌ ठीक है।‌ ये छोड़कर यहाँ चल दें तो भी इन्हीं की है क्या? बोलो। ये छोड़कर चले गये तो भी इन्हीं की है क्या?

कोई चीज़ आपकी हो सकती है, बेशक़ हो सकती है लेकिन आप उसको अपना मानें ही न तो वो चीज़ थोड़े ही पीछे से लिपटकर आएगी आपको। हम जिन भी चीज़ों को अध्यात्म का शिखर बोलते हैं, आख़िरी ध्येय बोलते हैं, हो सकता है कि वो आपकी हों पर कैसे होंगी अगर आप उनको छूना नहीं चाहते, उन पर हाथ नहीं रखना चाहते, आप ख़ुद ही उन्हें छोड़कर चल देना चाहते हैं, दूरी बनाना चाहते हैं तो?

कुछ आपका हो सके, उसके लिए पहले उस चीज़ को आपको अपना मानना तो होगा न? आप मानेंगे ही नहीं तो क्या आपका होगा? आपकी जेब में जो रखा है वो भी आपका अपना नहीं है अगर आप उसे न मानें तो।

अब ये मज़ेदार बात है क्योंकि हर ऊल-जलूल, अंट-शंट चीज़ को तो हम अपना तुरन्त मान लेते हैं। लेकिन मुक्ति हो, आनंद हो, सरलता हो, सत्य हो, इनको हम अपना नहीं मानते। जब इनकी बात आती है तो हम कह देते हैं, ‘देखो बेटा, कम में गुज़ारा कर लो, बहुत महत्वाकांक्षी नहीं होना चाहिए।’

प्र२: जो सारी मनुष्य जाति है, अगर हम सभी लोहे हैं तो फिर ये मैग्नेट (चुम्बक) कहाँ से आया? हम किन से प्रभावित होकर के चुम्बक बन रहे हैं?

आचार्य: जिस प्रकृति ने लोहा बनाया, उसी प्रकृति ने चुम्बक भी बना दी। चुम्बक में कुछ ख़ास नहीं है। चेतना का नाम नहीं है चुम्बक। चुम्बकत्व भी चुम्बक की एक भौतिक प्रॉपर्टी (गुण) है, बिलकुल भौतिक; उसका चेतना से क्या सम्बन्ध है। ठीक वैसे जैसे लोहे की और काँसे की और तांबे की और पीतल की, इन सबके अपने-अपने गुण होते हैं न? वैसे ही चुम्बक का भी अपना गुण है।

पहला चुम्बक कोई किसी इंसान ने थोड़े ही बनाया था। वो तो प्रकृति में ही था। चुम्बक कोई इंसान थोड़े ही बैठकर के फैक्ट्रियों में बना रहा है। बना सकते हो लेकिन तुम नहीं भी बनाओगे तो प्रकृति में पाया जाएगा। तो प्राकृतिक चीज़ है।

प्र३: जब हम बात कर रहे हैं कि जो सुख और दुख का विचार है वो प्रभावित विचार है; हम समाज से समझते हैं फिर उसको अंदर लेते हैं। तो अगर दुख को भी हम समझकर अंदर ले रहे हैं तो दुख को इतना ज़्यादा महत्व क्यों?

आचार्य: क्योंकि मुक्ति तुम सुख से नहीं चाहते, मुक्ति तुम दुख से चाहते हो। और तुम्हारा स्वभाव आनंद है। ठीक है? जब तक ये समझोगे नहीं कि दुख में हो तो आनदं की ओर क्यों बढ़ोगे। इसलिए दुख की बात करना आवश्यक है।

दुख की बात नहीं करोगे तो ये माने रहोगे कि सुख में हो और सुख में और आनंद में एक समानता दिखती है हमको।‌ क्या? दोनों में दुख का अभाव होता है। सुख में भी दुख का अभाव ही तो अनुभव होता है न। और तुम्हें अगर दुख का अभाव ही अनुभव हो रहा है, भले ही वो अनुभव झूठा हो, तो तुम्हें फिर क्या ज़रूरत है दुख से मुक्ति की? इसीलिए दुख से कहीं ज़्यादा ख़तरनाक है झूठा सुख।

प्र१: आचार्य जी, क्या ये गिलास खाली भी रह सकता है?

आचार्य: बिलकुल रह सकता है। खाली रहने का मतलब समझना। फिर ये ऐसा हो जाता है कि इसमें कुछ भी टिकता नहीं। खाली ऐसा नहीं हो जाता कि इसमें कुछ भी प्रवेश नहीं कर सकता। गिलास के खाली होने का अर्थ समझिएगा, फिर इसमें प्रवेश सब कुछ करता है लेकिन निकासी की मनाही नहीं होती।

जो आता है इसमें, वो आता है और चला जाता है। आया और चला गया, तो आप कह सकते हो कि गिलास खाली है। शीशे जैसा हो जाता है, दर्पण जैसा। दर्पण में बहुत कुछ आता है। आप उसके सामने आ जाइए, आप दर्पण में आ गये। आ गये कि नहीं आ गये? लेकिन आप हट जाइए, दर्पण खाली हो गया।

फिर ऐसा हो जाता है मन।‌ कि उसमें जो आएगा वो चिपकेगा नहीं। जो कुछ भी आएगा — ये गिलास या दर्पण, ये नहीं बोलेगा कि ये मैं हूँ — आया, चला गया। एक बात थी, आयी, उस बात पर हमारे आंतरिक तंत्र से जो प्रतिक्रिया उठनी थी वो उठी, क्षण गया बात गयी। अब हम उस चीज़ को आगे लेकर के नहीं घूम रहे।

प्र१: इसका मतलब क्या मैं इससे ये बोल सकता हूँ कि ये गिलास अब सत्य में स्थापित हो गया?

आचार्य: हाँ, उसी को वो नाम दिया जाता है।

प्र१: ये रोज़मर्रा के काम भी कर सकता है?

आचार्य: तभी रोज़मर्रा के काम सही होते हैं। आपको इसमें दूध डालना है और ये चिपका हुआ है पहले वाले पानी से, तो अब क्या होगा? कहिए।

आपको इसमें क्या डालना है? दूध। पर इसने तो अटैचमेंट कर लिया है, तादात्म्य कर लिया है। कल इसमें आपने कुछ और डाला था, क्या डाला था? पानी डाला था या कुछ और बोलिए। शरबत डाला था या नींबू का रस डाला था आपने कल। कल इसमें आपने क्या डाला था — नींबू का रस डाला था और अभी इसमें आप क्या डालना चाहते हैं? और इसने क्या नाम रख लिया अपना?

‘मैं नींबू का रस हूँ।’ क्योंकि भीतर जो चीज़ आयी उसके साथ इसने सम्बन्ध बना लिया। अब क्या होगा अब दूध डालेंगे तो? फट जाएगा।

तो वैसे ही हमारी ज़िंदगी फटी हुई रहती है क्योंकि अभी जो चीज़ उसमें आ रही होती है, हाँ, पीछेवाली आ करके उसमें भांजी मार देती है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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