जो भीतर से एक है, उसे बाहर भी एक ही दिखता || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2015)

Acharya Prashant

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जो भीतर से एक है, उसे बाहर भी एक ही दिखता || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2015)

श्रोता (वेदप्रकाश): रामकृष्ण ने कहा कि “मैं किसी भी स्त्री को देखता हूँ तो मुझे उसमें ‘दुर्गा’ या ‘काली’ दिखती हैं”, कृपया समझाएं।

वक्ता: रामकृष्ण ने कहा कि “मैं किसी भी स्त्री को देखता हूँ तो मुझे उसमें ‘दुर्गा’ या ‘काली’ दिखती हैं”, तो यह कोई विधि नहीं थी, यह रामकृष्ण होने का अंजाम था। जो रामकृष्ण हो जाता है उसके साथ ऐसा ही होता है।

रामकृष्ण के साथ होगा, ऐसा थोड़े ही है कि वेदप्रकाश के साथ हो सकता है। वेदप्रकाश, वेदप्रकाश बना रहे और साथ ही साथ औरतों में उसको दुर्गा और काली दिखे, ये थोड़े ही हो सकता है। हम चाहते हैं कि हम जो हैं हम वही रहें। हम वेदप्रकाश ही बने रहें, लेकिन हमारे साथ वो सब महान घटनाएँ होने लग जाएँ जो महापुरुषों के साथ हुई हैं।

महापुरुषों के साथ महत घटनाएँ क्यों घटती हैं? घटनाएँ पहले घटती हैं या पहले वो महापुरुष हैं?

वो ऐसे हैं, इसीलिए उनके साथ होती हैं। तुम्हें रामकृष्ण होना पड़ेगा न।

रामकृष्ण होने का अर्थ क्या है? रामकृष्ण होने का अर्थ यह है कि मैं कुछ नहीं हूँ, संसार कुछ नहीं है, जो है सो एक है । उस एकत्व को उन्होंनें नाम दे दिया था काली। नाम कुछ और भी दिया जा सकता है या कोई नाम न भी दो तो भी चलेगा।

लेकिन जो मूल बात है, जो रामकृष्ण की पहचान है, वो यह है कि ‘मैं कुछ नहीं हूँ’ । अहंकारशून्यता—’मैं बिल्कुल कुछ नहीं हूँ। न मैं कुछ हूँ, न तुम कुछ हो। चिड़िया, पेड़, पक्षी, ईंट, पत्थर, आसमान—ये सब भी कुछ नहीं हैं। सब काली हैं या सब एक हैं।’

अलग-अलग दिखाई देना, उसमें भेदभाव करना, ये सब उनको नहीं समझ में आता था। जब ऐसा हो जाता है न आदमी तब उसको किसी भी औरत में काली दिखाई देती है, और यह नहीं है कि फ़िर बस औरतों में ही काली दिखाई देती है, फ़िर चिड़िया में भी काली दिखाई देती है, फिर घास में भी काली दिखाई देती है।

सवाल काली का नहीं है, सवाल एक के दिखाई देने का है। उस एक को तुम काली कहो या कुछ भी कहो।

एक तुम्हें बाहर कैसे दिखाई देगा? जैसी दृष्टि होती है, वैसी सृष्टि होती है। जब तुम्हारी नज़र बँटी होती है तो बाहर भी तुम्हें सब अलग-अलग दिखाई देता है।

हमारे दिल पर, हमारे मन पर, बहुत सारी ताकतों का कब्ज़ा रहता है। और क्योंकि इतनी सारी ताकतों का कब्ज़ा रहता है तो मन बिलकुल बंटा रहता है उनके पूरे अलग-अलग प्रभावों में। जब मन एक रहता है तो बाहर भी जो कुछ होता है उसकी मौजूदगी में भी तुम बंट नहीं जाते। इस बात को समझना ये कैसे है।

हमारी हालत यह है कि हमारे भीतर कोई ठोस चीज़ मौजूद नहीं है, कोई पक्की चीज़ मौजूद नहीं है। हम ऐसे नहीं है कि यहाँ पर मान लो कोई खूंटी गाड़ दी जाए और कितनी भी हवा आए वो खूंटी ज़मीन से हिलेगी नहीं। हम ऐसे हैं जैसे ज़मीन पर रेत बिखरी पड़ी है। रेगिस्तान में देखा है न तुमने रेत के टीले बनते हैं। उनका कोई आकार नहीं होता। जैसे हवा चलती है वैसे उनका आकार बदलता रहता है। आकार भी बदलता रहता है और स्थान भी बदलता रहता है। अभी यहाँ हैं तो कभी वहाँ। ये होता है अलग-अलग होना, कि जैसे ही हवा चली, हमारे भीतर का मौसम भी वैसे ही बदल गया। ऐसे हैं हम।

रामकृष्ण जैसे लोग ऐसे होते हैं कि जैसे ज़मीन में खूंटी गाड़ दो। तो हवा चलती रहती है, रेत उड़ती रहती है, घास भी हिल जाएगी, ये सब होता रहता है पर वो कभी अपनी जगह से हिलते नहीं। भीतर एक की पक्की मौजूदगी लगातार बनी रहती है। कुछ एक ऐसा होता है जो दुनिया के हिलाए हिलता नहीं। जब भीतर कुछ एक ऐसा होता है न तो बाहर भी वो दिखाई पड़ता है। ऐसे नहीं कि पेड़ देखा और उसमें काली दिखाई पड़ गयीं, ये नहीं होता है।

बाहर एक दिखाई पड़ रहा है इसका मतलब यही है कि बाहर कुछ भी दिखाई पड़ रहा है, भीतर एक ही बना हुआ है । हम रेत की तरह नहीं हैं कि बाहर से हवा चली और अन्दर का मौसम बदल गया। फ़िर हवा उधर को चली तो मौसम फिर कुछ और हो गया। वैसे नहीं है। हमारे भीतर कुछ बहुत पक्का है। वो जो बहुत पक्का होता है उसी को उन्होंने क्या नाम दे दिया था?—काली।

अब अगर हम अपनी ज़िन्दगी को देखें तो हमारे भीतर अभी कुछ भी पक्का नहीं है। हम बहुत जल्दी हिल जाते हैं। बिल्कुल हिल जाते हैं कि नहीं हिल जाते हैं? कोई आकर दो बात बोल गया और हम हिल जाते हैं। कुछ काम करा उसका परिणाम उल्टा आ गया तो हम हिल जाते हैं। किसी से उम्मीद थी, उसने उम्मीद तोड़ दी तो भी हम हिल जाते हैं। अचानक कोई आकर हमें कुछ अच्छा बोल गया तो हिल जाते हैं। अचानक कोई आकर कुछ बुरा बोल गया तो भी हिल जाते हैं। ये जो न हिलना है इसको ‘काली’ कहते हैं।

अब सवाल यह है कि ये इस बात से कैसे सम्बंधित है कि कोई भी औरत दिखती है तो उसमें काली नज़र आती है? इसका मतलब बस इतना सा है कि तुम पुरुष हो, लेकिन ऐसा नहीं है कि कोई स्त्री तुम्हारे बगल से निकली और तुम हिल गए। तुम्हारे भीतर कुछ ऐसा है जो पक्का स्थाई बना रहता है जिसे बाहर का कोई प्रभाव हिला नहीं पाता।

जब तुम बात करते हो औरतों की तो औरत माने क्या? तुम्हारे लिए औरत माने लालच। लालच ही तो होता है न। ऐसी ही बात है कि पैसा लेकर कोई पास से निकल गया या भूखे आदमी के पास से कोई खाना लेकर निकल गया तो वो हिल नहीं गया। वो शांत बना हुआ है।

तो जब रामकृष्ण कह रहे हैं कि मैं किसी भी औरत को देखता हूँ तो ‘काली’ कायम रहती है, तो इसका मतलब यही है कि मेरे सामने से चाहे औरत निकल जाए, चाहे आदमी निकल जाए, चाहे राजा निकल जाए, चाहे महाराजा निकल जाए, मैं हिलता नहीं हूँ। बस इतनी सी ही बात है कि मैं हिलता नहीं हूँ

लेकिन अगर तुम्हारा जो अपना होना है, जो वजूद है, अगर वह दूसरों का दिया हुआ है तो दूसरे उसे हिला देंगे। अब अगर तुम्हारा अपना वजूद ही यही है कि मैं एक बहुत सुन्दर पुरुष हूँ, क्यों? क्योंकि स्त्रियाँ मुझसे आकर्षित होती हैं, तो अगर दो-चार स्त्रियाँ तुम्हारे बगल से निकल जाएँ और तुम्हें घास ही ना डालें तो तुम हिल जाओगे क्योंकि तुमने अपने-आप को परिभाषित ही क्या कर रखा है: मैं कौन हूँ? एक सुन्दर पुरुष। और सुन्दर पुरुष माने? स्त्रियाँ जिससे आकर्षित होती हों। अब स्त्रियाँ आ रही हैं, जा रही हैं और तुम बीच में खड़े हुए हो, कोई तुम्हें भाव ही नहीं दे रही। तो तुम्हें ऐसा लगेगा कि मैं कुछ हूँ ही नहीं। मेरी हस्ती ही मिट गई।

ये जो चीज़ होती है ये अहंकार कहलाती है। अहंकार माने अपनी परिभाषा दूसरों से लेना । मैं कौन हूँ इसको दूसरों से सम्बद्ध करके देखना। जो ये करेगा वो हमेशा दूसरों के भरोसे जीएगा। उसके साथ यह कभी भी नहीं हो पाएगा कि कुछ भी आता रहे, कुछ भी जाता रहे और वो हिले ना।

तो इन बातों को मिथक की तरह मत देख लिया करो कि रामकृष्ण गए और उन्होंने एक छोटी-सी बच्ची देखी और उन्हें उसमें काली दिखाई दे गई। इसका मतलब बस इतना ही है कि मन को कुछ ऐसा मिल गया है जो बहुत पक्का है और मन लगातार उसके साथ बना हुआ है। अब बाहर कुछ भी चलता रहे पर भीतर उसका साथ छूटता नहीं। बाहर चीज़ें आती रही हैं जाती रहती हैं लेकिन भीतर कुछ ऐसा मिला हुआ है जिसका साथ छूटता नहीं। और जो भीतर की चीज़ है वो बहुत पक्की है। बहुत ज़्यादा विश्वसनीय है, वो कभी धोखा नहीं देती।

जब तक वो भीतर की चीज़ नहीं मिल जाती, तब तक आदमी बाहर के थपेड़ों का गुलाम बना रहता है।

इधर-उधर उछलता रहता है, कूदता रहता है, तुम्हारे जैसी ही हालत रहती है। दोस्तों ने कह दिया कि आज कक्षा में नहीं जाएँगे तो नहीं गए। एक दबाव था तो नहीं आए। फिर प्लेसमेंट-विभाग से दूसरा दबाव पड़ा तो उठ के आ भी गए।

अब पहली बात, अगर तुम ज्ञान के आकांक्षी होते, अगर तुम्हें वास्तव में ज्ञान चाहिए होता तो तुम आज का सत्र छोड़ते नहीं किसी भी कीमत पर क्योंकि तुम्हें तो ज्ञान चाहिए था। लेकिन तुमने सत्र छोड़ दिया, कोई बात नहीं। तुम कहते हो तुमने सत्र इसलिए छोड़ा क्योंकि तुम्हें अपनी दोस्त से मिलना था। ठीक है, मान लिया। पर अगर तुम प्रेम के आकांक्षी होते तो एक बार जब तुम अपनी दोस्त के पास जाते तो फिर दबाव पड़ने पर उस दोस्त को छोड़कर नहीं भाग आते।

तुम कहते: निकाल दो कालेज से। जो करना है कर लो, मैं तो नहीं छोड़ के आ रहा।

पर जब दबाव पड़ा तो तुम उसे भी छोड़ के आ गए। जहाँ भी थे उसको वहीँ मोटरसाइकिल से उतारा और कहा कि तू घर जा बस अब।

मतलब तुम कहीं के नहीं हो। तुम्हें न ज्ञान चाहिए न प्रेम चाहिए। तुम क्या हो? तुम ज़मीन पर बिखरी हुई रेत हो। जिधर को हवा चलती है उधर को मुड जाते हो। किसी ने दिन तय कर दिया—चौदह फरवरी प्रेमदिवस —तो तुम उछलने लग गए कि मैं भी करुँगा कुछ। फ़िर ऊपर से झाड़ पड़ गई कि चलो जाओ कालेज तो तुम्हारा सारा चौदह फरवरी का भूत उतर गया। अब तुम यहाँ भागे चले आ रहे हो रोते हुए। कोई वास्तव में प्रेमी हो तो कहेगा कि मैं तो बिल्कुल नहीं जाऊँगा, कर लो जो करना है! और अगर कोई वास्तव में ज्ञान का साधक हो तो कहेगा कि हो ही नहीं सकता कि न जाऊँ।

तुम ज्ञान के मार्ग पर चल लो तो भी वही बात है और तुम प्रेम के मार्ग पर चल लो तो भी वही बात है, पर तुम्हें तो न ज्ञान चाहिए और न प्रेम चाहिए। छिछोरापन है बस! एक ही काम है जो तुम नित्य कर सकते हो और वही करते हो तुम; दूसरा और नहीं कर पाओगे तुम, वादे मत किया करो। आ रही है बात समझ में?

ये जितने भी किस्से-कहानियाँ सुनते हो महापुरुषों के बारे में उनको उनके अंकित मूल्य पर मत ले लिया करो। वो सब सूचक होते हैं, प्रतीक होते हैं। समझदारी के साथ पढ़ा करो कि बात क्या हो रही है। बात हमेशा विशुद्ध रूप से मन की होगी।

दो ही बातें हो सकती हैं: मन, या मन का केंद्र – आत्मा

उन्हीं को अलग-अलग नाम दे दिए जाते हैं। और कोई तीसरी चीज़ नहीं होती।

जब रामकृष्ण जैसे हो जाओगे तब चाहे सामने स्त्री दिखे या पुरुष दिखे, या रुपया-पैसा दिखे या डर या लालच दिखे, तुम आत्मा में केन्द्रित रहोगे।

ज्ञान की भाषा में इसे कहते हैं ‘केन्द्रित रहना’ और भक्ति की भाषा में इसे कहते हैं ‘समर्पित रहना’

तुम चाहे जो कह लो।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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