जो बात कोई बताता नहीं || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2020)

Acharya Prashant

19 min
34 reads
जो बात कोई बताता नहीं || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2020)

जो बात कोई बताता नहीं

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, यह तो साफ है कि जो वैश्विक समस्याएँ हैं, जैसे ग्लोबल वार्मिंग , क्लाइमेट चेंज , और इस तरह की जो भी समस्याएँ हैं उनका कारण तो गलत खोज ही है। इंसान गलत जगह पर खोज रहा है। तो एक आइडियल वर्ल्ड (आदर्श दुनिया) तो यही होगा कि यह खोज पूरी तरह से समाप्त हो जाए।

आचार्य प्रशांत: हाँ, जो चीज़ जहाँ है वहाँ पा लो। अब ऐसे समझो कि यह तुम्हारा लॉन है बाहर और तुमने जिद पकड़ ली है कि अँगूठी तो यहीं पर है। क्यों? क्योंकि अगर तुमने यह जिद नहीं पकड़ी तो तुम्हें मानना पड़ेगा कि अँगूठी और भी कहीं हो सकती है। फिर मेहनत करनी पड़ेगी यह पता करने के लिए कि अँगूठी कहाँ पर है। लॉन, भाई अपना ही एक छोटा सा क्षेत्र है। उसमें हमने यह कल्पना कर ली है, अपने आपको बिल्कुल समझा दिया है कि इसी में है अँगूठी।

यह सोच ही हमारे लिए बड़ी भयावह है कि अँगूठी लॉन में नहीं है। सोचो तो कितना श्रम करना पड़ेगा, लॉन में नहीं है तो कहीं भी हो सकती है। वह अज्ञात हो गई और अज्ञात से हमें लगता है भय। लॉन में जब तक है तब तक वह हमारे लिए क्या है? ज्ञात है। तो हम अपने आपको बार-बार यही जताएँगे कि अँगूठी लॉन में है।

अब आप निकले एक दिन खोजने कि चलो अँगूठी लॉन में है तो हासिल ही कर लें। मिल नहीं रही है तो आप क्या करोगे? आप यह नहीं मानोगे कि लॉन में नहीं है, आप कहोगे है तो लॉन में ही इधर-उधर हो गई है। अब आप लेकर आ गए फावड़ा, कुदाल, खुरपियाँ, और आप लगोगे लॉन को खोदने। यह है पर्यावरण की तबाही।

तुम प्रकृति में वह खोज रहे हो जो प्रकृति में है ही नहीं। लॉन प्रकृति है, अँगूठी सत्य है। तुम प्रकृति में सत्य खोज रहे हो और इसके नाते तुमने प्रकृति की ही तबाही कर दी। अब लॉन में खरगोश है और गिलहरी है और तुम्हें लग रहा है कि किसी खरगोश ने अँगूठी खा ली है। तो तुम्हें लग रहा है कि चलो, अब खरगोश को फाड़ डालते हैं, इसके भीतर से अँगूठी निकलेगी।

देखो, कितने जानवरों की, कितनी जीव हत्या कर दी तुमने। यही इंसान कर रहा है न? सब जानवरों को मारे डाल रहा है। वह सोच रहा है जानवरों को मारकर सुख मिल जाएगा, खरगोशों को मारकर अँगूठी मिल जाएगी। क्या पता किसी खरगोश ने अँगूठी खा ली हो? तो चलो इनको मारते हैं, इनका पेट काटते है, पेट के भीतर से अँगूठी निकलेगी। यही काम तो इंसान दुनिया भर में जानवरो के साथ कर रहा है न? चलो, इनको काटते हैं, इनको काटकर सुख मिल जाएगा।

जितने पेड़-पौधे हैं सब काट दो, क्या पता किसकी कौनसी डाल में अँगूठी लटकी हो? हम यही तो कर रहे है न? सारे जंगल काटे दे रहे हैं। और फिर सब जला दो, जला दोगे तो सब राख़ हो जाएगा। राख़ में ढूंढना आसान होगा न, नहीं तो यह सब पेड़ पत्तियाँ बहुत फैली हुई हैं। तुमने जला दिया, क्या निकली? कार्बनडाईऑक्साइड। यह ग्लोबल वॉर्मिंग हो गई।

अपने झूठ को कायम रखने के लिए हम फिर सौ झूठ और बोलते हैं और सौ बेहूदी हरकते करते हैं। हम यह मानते ही नहीं कि जो चीज़ हम प्रकृति में खोज रहे हैं वह नहीं मिलेगी प्रकृति में।

सत्य प्रकृति से परे है, बाहर है, वह लॉन में नहीं है। हम सब करतूते करने को तैयार हैं, सारा विनाश करने को तैयार हैं, एक छोटी सी बात मानने को तैयार नहीं है कि हमारी खोज कि दिशा ही गलत है क्योंकि खोजी का केंद्र गलत है, यह हम नहीं मानना चाहते। हम बड़े-बड़े बुलडोजर ले आए हैं और पूरा लॉन ही उखड़वाए दे रहे हैं, कह रहे हैं खनो, है तो अँगूठी यहीं पर।

अरे भाई, इतनी मेहनत तुम कर रहे हो यहाँ लॉन में अँगूठी खोजने में, इससे थोड़ी कम मेहनत करके बाहर कहीं मिल गई होती। यही बात संसारी आदमी को समझाई जाती है कि जितनी मेहनत तुम कर रहे हो संसार में संतुष्टि पाने के लिए, उससे ज़रा कम मेहनत से ही अध्यात्म में तुमको मुक्ति मिल गई होती। लेकिन ज़िद है पूरी, अब हम अकड़ पर आ गए हैं, अब हमने कह दिया लॉन में अँगूठी है तो, लॉन में ही है। पूरा लॉन खोद दो, मिलेगी तो यहीं, उसे मिलना होगा यहाँ पर क्योंकि हमने कहा है कि यहाँ पर है।

और जितना वह नहीं मिलती है, जितना यह सिद्ध होता जाता है कि लॉन में तो नहीं है अँगूठी, उतना हम रूआँसे होते जाते हैं क्योंकि हमारी तो पूरी जिंदगी, पूरी खोज का और पूरे विश्वास का आधार ही यही था कि अँगूठी कहीं गई नहीं, यहीं पर है। अब जितना यह प्रमाणित होता जाता है कि यहाँ नहीं है भैया, उतना हमारे भीतर से रुलाई छूटती है और क्रोध भी आता है।

फिर उसमें खरगोश दिख गया एक, बैठा है, लगता है, मारो, तुरंत इसको मार दो। यही अँगूठी खाकर कहीं बाहर छोडकर आया है। चिड़िया आई है एक चिड़िया, मार दो, इसको मार दो। यही है वो, अँगूठी उठाकर ले गई है बाहर कहीं गिरा आई होगी। हम हिंसक हो जाते हैं क्योंकि हमे जो चाहिए मिल नहीं रहा।

जब तुम भीतर से असंतुष्ट हो तो तुम किसी और के लिए प्रेमपूर्ण कैसे हो सकते हो?

आदमी कि स्थिति पूरी समझ पा रहे हो न? एक मौलिक भूल है, उस एक मौलिक भूल के कारण हमने पूरी पृथ्वी का सत्यानास कर दिया। वो मौलिक भूल यह है कि हम गलत हुए पड़े हैं, और गलत होकर के, गलत तरीकों से हम मान रहे हैं कि सही चीज़ मिल जाएगी। हम भी गलत, मान्यताएँ भी गलत, हमारे तरीके भी गलत लेकिन ठसक ये कि भरोसा पूरा है कि ऐसे ही हमको सही चीज़ मिल जाएगी। जान लगा दी है हमने पूरी। मिल तो जाएगी ही, भरोसा मुझे पूरा है।

अरे, इतनी मेहनत कर रहे हो उस चीज़ को खोजने में, उससे कम मेहनत में तुम बदल जाओगे, सही हो जाओगे। तुम सही हो जाओगे, जो चीज़ तुम्हें चाहिए थी वह मिल गई।

लेकिन सही दिशा में मेहनत नहीं करेगा इंसान, यही अहंकार है।

प्र२: हमने अभी समझा, आचार्य जी, कि निराशा होना बहुत ज़रूरी है, जैसे इंसान जो बाहर ढूँढ रहा है, बुलडोजर चला रहा है, खरगोश मार रहा है। तो मेरे ख्याल से निराशा का भी सही आयाम ज़रूरी है क्योंकि इंसान वहाँ भी निराशा तो पा रहा है। पहले आपने बताया वह बुलडोजर लाया, फिर उसने खोद दिया, फिर उसने आग भी लगा दी। तो यह जो बार-बार हम शास्त्रो में सुनते हैं कि निराशा होना बहुत ज़रूरी है, लेकिन निराशा का आयाम भी सही होना ज़रूरी है कि किस जगह निराश हो रहा है।

आचार्य: नहीं, उसको अभी निराशा हुई नहीं है, उसको बस खिसियाहट हुई है। निराशा का मतलब है भविष्य की समाप्ति। निराशा का मतलब है आगे के लिए तुम्हारी सारी ऊर्जा का ही समाप्त हो जाना। तुम कह रहे हो, 'मैं जिस रास्ते पर चल रहा हूँ उस पर आगे अब एक कदम नहीं जा पाऊँगा, इसको निराशा कहते हैं'। तुम अभी आगे जाकर के खरगोश मारना चाहते हो तो यह निराश कहाँ हुए अभी तुम? यह तो अधिक से अधिक झुंझलाहट है, खिसियाहट है।

तुम कह रहे हो, 'है तो अँगूठी यहीं पर, इन नालायक खरगोशो ने गायब कर रखी है, इन्हें मार दो'। तुम अभी यह थोड़े ही मान रहे हो कि अँगूठी यहाँ थी ही नहीं तो खरगोशों को मार के क्या होगा? तब तुम कहलाते वास्तव में निराश जब तुम बिल्कुल उखड़ जाते, पाँव उलट के वापस आ जाते।

अभी तो बस तुम झुंजलाए हो। तुम कह रहे हो, 'चीज़ यहीं है, ये बस शरारत कर रहे हैं खरगोश। इनके कारण मुझे मिल नहीं रही; इनको सज़ा दो'। तुमने यह थोड़े ही माना है कि चीज़ है ही नहीं। चीज़ है ही नहीं, अभी भी नहीं है और आगे भी नहीं मिलेगी, भविष्य खत्म! इसको निराशा कहते है। भविष्य खत्म, अब आगे के लिए कुछ नहीं है। जब तक आगे के लिए कुछ है तुम्हारे पास, तब तक अहंकार आगे की ओर बढ़ता रहेगा। आगे के लिए जो कुछ था उसका मटियामेट हो जाना, उसका शून्य हो जाना बहुत ज़रूरी है।

भाई, झूठ क्यों कायम रह पाता है? क्योंकि उसे आगे अपने बने-बचे रहने की और सुख की उम्मीद होती है, बड़ी तगड़ी उम्मीद होती है। इसीलिए तो झूठ जितना बढ़ेगा, उम्मीद की संस्कृति उतनी ज्यादा बढ़ेगी। आजकल देखते नहीं हो होप पर कितना ज़ोर है और कितनी बिक रही है? किसकी दुकान सबसे ज्यादा चल रही है? आशा ताई की। बाज़ार में कौन सी दुकान एकदम गरम है? आशा ताई की। और कुछ बिके ना बिके होप ज़रूर बिकती है, आशा। क्यों? क्योंकि दुख जब सघन, सघनतर होता जाएगा तो उसे बचे रहने के लिए उतनी ही ज़्यादा आशा चाहिए।

वर्तमान जितना रोगी होता जाएगा, तुम्हें उतनी ज्यादा भविष्य के लिए उम्मीद चाहिए न? तो आशा खत्म हो गई, रोगी खत्म हो गया। स्वस्थ आदमी के लिए प्रार्थना करते हो क्या के भगवान कल ठीक कर दो इसको? करते हो क्या? जो रोगी होता है उसी के लिए तो उम्मीद करनी पड़ती है न?

हम बहुत मोटी चमड़ी के लोग हैं, हम आसानी से उम्मीद छोड़ते नहीं। हम उम्मीद का सहारा लेकर सच से लड़ जाते हैं। और इसी लिए आदमी को इतनी उम्मीद चाहिए क्योंकि सच से अगर लड़ना है तो उम्मीद तो चाहिए। सच तो तुम्हें बार-बार परास्त करेगा, फिर भी तुम डटे कैसे रह जाते हो? उम्मीद का सहारा लेकर, कि सच ने सौ बार मुझे पटखनी दी है। क्या पता एक सौ एकवीं बार मैं जीत जाऊँ? उम्मीद तो रखनी चाहिए न? होप , इसीलिए होप इतनी बिकती है।

हम ये यथार्थ देखते ही नहीं कि बात सिद्धान्त की है। ऐसा नहीं कि हम एक बार, दो बार या दस बार हारे हैं। हमारा हारना तय और अनिवार्य है। संयोगवश नहीं हारे हैं, सिद्धांतवश हारे हैं। संयोगवश हारे होते तो संयोगवश कभी जीत भी सकते थे। संयोग ने हराया, संयोग ही जिता भी सकता था। हम सिद्धांतवश हारे हैं।

सिद्धांतवश कैसे हारा जाता है? सिद्धांवश ऐसे हारा जाता है कि ए प्लस बी होल स्क्वायर इज़ ऑल्वेज़ ग्रेटर देन ए स्क्वायर प्लस बी स्क्वायर। यह अब सिद्धान्त की बात है। ए स्क्वायर प्लस बी स्क्वायर अब हमेशा हारेगा। ए और बी की कोई भी इसमें वैल्यूज हों, एक पक्ष को इसमें हमेशा हारना है।

चलो, एक शर्त रख लो कि ए और बी दोनों पॉज़िटिव होने चाहिए। पर जब तक तुम उस डोमेन में काम कर रहे हो, तब तक यह नहीं हो सकता कि तुम उम्मीद कर रहे हो कि क्या पता कि ए और बी का जो अगला कॉम्बिनेशन आए उसमें ए स्क्वायर प्लस बी स्क्वायर ही जीत जाए? नहीं जीतेगा, बाबा। नहीं जीतेगा। दोनों पॉज़िटिव हैं तो भी नहीं जीतेगा, दोनों नेगेटिव हैं तो भी नहीं जीतेगा। उसके लिए तुम्हें एक और डाइमेनशन में जाना पड़ेगा, किसी और क्वाडरेंट में जाना पड़ेगा, जहाँ एक पॉजिटिव , एक नेगेटिव हो, फिर हो सकता है।

हम यह मानते ही नहीं हैं कि हम संयोगवश नहीं, सिद्धांतवाश हार रहे हैं और जो सिद्धांतवाश हार रहा है वह कभी नहीं जीत सकता। हम यही माने चलते हैं कि वह तो इस बार बात बनी नहीं, अगली बार बन जाएगी। उम्मीद।

प्र२: इससे एक और बात पता लगती है कि आत्मज्ञान की जो शिक्षा है वह बहुत पहले से मिलनी चाहिए, वरना इस सिद्धान्त का हमें पता लगेगा ही नहीं। आप पूरा जीवन निकाल दोगे यह सोचते-सोचते और आपको दिमाग में कभी नहीं आएगा कि आप खेल ही गलत खेल रहे हो। यह आपको सूझेगा ही नहीं कि यह भी हो सकता है कि अँगूठी यहाँ है ही नहीं, इसलिए शास्त्र या आत्मज्ञान की शिक्षा बहुत-बहुत ज़रूरी है क्योंकि वरना तो आप...

आचार्य: कोई शक नहीं है। अँगूठी नहीं मिल रही, अँगूठी के ना मिलने पर दोनों संभावनाएँ हो सकती हैं - एक यह कि नहीं है इसलिए नहीं मिल रही, और दूसरा यह भी तो हो सकता है कि है तो, पर मिल नहीं रही। तो कौन तुम्हें रोक लेगा इस संभावना को मान लेने से कि है तो बस मिल नहीं रही?

भाई, तार्किक दृष्टि से अगर आप देखो, आप एक चीज़ खोज रहे हो और मिल नहीं रही तो दोनों बाते हो सकती है न। एक तो यह हो सकता है कि नहीं है इसलिए नही मिल रही, और दूसरा यह हो सकता है कि है पर अभी नही मिल रही, उम्मीद यह है कि आगे मिल जाएगी। अब तर्क यहाँ पर रुक जाएगा। तर्क उम्मीद को कभी खारिज नहीं कर सकता क्योंकि तार्किक बात तो ये है कि हमें यही पता है यथार्थ में कि चीज़ अभी नहीं मिली। अगर अभी नहीं मिली तो यह कैसे साबित कर दोगे कि आगे भी नहीं मिलेगी? चूंकि तर्क यह साबित नहीं कर पाता कि आगे भी नहीं मिलेगी, तो आदमी तर्क का सहारा लेकर उम्मीद का धागा पकड़े लटका रहता है।

तो जो कुछ मूलभूत सिद्धान्त है वह पता होने चाहिए, वह शिक्षा से ही पता लगेंगे। कोई कहे कि नहीं मुझे तो अपने आप पता लग जाएँगे इत्यादि, ऐसे नहीं होता। उसके लिए तो ठोस, आयोजित, व्यवस्थित जीवन शिक्षा चाहिए ही चाहिए। तुमको शिक्षा न दी गई होती, तुम छोड़ो कैलकुलस , जो बिल्कुल छोटू पाइथागोरस थ्योरम है वह भी तुमको अपने आप पता चल जाता क्या? अब तुमको बहुत आसान लगता है कि हाँ पाइथागोरस का थ्योरम ही तो है क्या हो गया? पर तुम अस्सी साल के हो जाते अपने आप तुम्हें नहीं पता लगता। लेकिन दावा हमारा यही है कि अध्यात्म कि शिक्षा हमें नहीं चाहिए, जीवन में हम खुद ही सीख लेंगे।

अपने आप तो हजारों सालो तक करोड़ो लोगो को यह भी नहीं पता चला था कि पृथ्वी गोल है। आज तो चार साल का बच्चा भी जानता है कि पृथ्वी गोल है। उसके हाथ में तुम ग्लोब दे देते हो छोटा सा। अपने आप पता लग जाता है? हज़ारों साल तक करोड़ो लोगो को नहीं पता लगा कि पृथ्वी गोल है। पर दावा हमारा यही है कि मन के भीतर की सच्चाई क्या है यह तो हमें जीवन के अनुभव बता देंगे, हम खुद ही कर लेंगे। नहीं पता लगेगा स्वयं, उपनिषद् आवश्यक हैं। कोई सोच रहा हो कि हमारा हो गया हम देख लेंगे। नहीं होगा, भाई, नहीं होगा।

बड़े तर्क उठते हैं। कहते हैं ऋषियों को कैसे पता लग गया था? हाँ, ऋषियों को पता लग गया था। तुम ऋषि हो? तुम्हें नहीं लगेगा पता, यह बात तुम्हें बुरी लगती हो तो लगे। और ऋषियों को वैसे ही पता लग गया था कि फिर जैसे आइन्स्टाइन को रिलेटिविटी पता लगी थी। करोड़ो में किसी एक को पता लगता है। न तुम ऋषि हो न तुम आइन्स्टाइन हो। तुम्हें अहं ब्रह्मास्मि स्वयं पता लगने की संभावना उतनी है है जितनी यह संभावना है कि अपने आप एक दिन ऐसे ही सड़क पर चलते-चलते तुमको स्पेस-टाइम करवेचर समझ में आ जाए।

लेकिन जब तुमसे कहा जाएगा कि क्या ऐसा हो सकता है कि एक दिन तुम अपनी किराने कि दुकान से सब्जी मंडी की तरफ जा रहे थे और अचानक से तुम्हें स्पेस-टाइम करवेचर समझ में आ गया? तो तुम कहोगे कि नहीं ऐसे तो नहीं हो सकता। उसके लिए तो बहुत किताबें पढ़नी पड़ेंगी। वहाँ तुम तुरंत मान जाओगे लेकिन, अहं ब्रह्मास्मि तुम्हें लगता है ऐसे ही आ जाएगा समझ में। ऋषि को आ गया था तो हमें भी आ जाएगा। नहीं आएगा।

राधे लाल निकले हल्दी के छः बोरे बेच करके घर जाने को तभी याद आया कि लहसुन खरीदनी है। लहसुन वाले के सामने खड़े थे कि बिल्कुल स्पष्ट हो गया कि प्रकाश भी आवश्यक नहीं है कि सीधी रेखा में चले। अचानक, सारी इकवेशन्स (समीकरण) आँखों के सामने नाचने लग गई। अब क्यों हँस रहे हो? क्यों तुम्हें लगता है कि ऐसा हो ही नहीं सकता?

श्रोडिंगेर्स इकवेशन, उसकी सारी आइजन वैल्यूज वह सब मुन्ना-मुन्नी बनकर नाच रहे हैं। एक लहसुन हो गया, एक धनिया हो गया, परवल, कद्दू, पीछे पूरा नाचने वालों का एक जमघट है। पूछा यह क्या है? बोले, ये बहुत सारी प्रोबबिलिटीज़ हैं। सब समझ में आ गया हमको'। घर आए एक बिल्ली दिखी। बोले, 'यह श्रोड़ींजर्स कैट है, हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है। क्या यह कमरे में है? पक्का नहीं। क्या यह नहीं है? पक्का नहीं'। हो सकता है ऐसा?

अरे अगर पढ़ाया न जाए न तो जीवन भर आदमी अ नहीं लिख पाता खुद। अस्सी-अस्सी साल के लोग हो जाते हैं और अ, ब लिखना नहीं आता। अ, ब लिखना नहीं आता, अहं ब्रह्मास्मि आ जाएगा, आपने आप आ जाएगा? और अहं ब्रह्मास्मि नहीं आया तो तुम बताओ मुझे, जीवन में काम क्या करना है, धंधा क्या करना है, पैसे कहाँ से कमाने हैं यह तुमने कैसे सीख लिया? जब तुम स्वयं को नहीं जानते हो तो तुम्हें कैसे पता कि तुम्हें क्या काम करना चाहिए? फिर तुम करोगे कोई घटिया काम और पैसे आ रहे होंगे, अपना आ रहे हैं पैसे। और क्यों कर रहे हो घटिया काम? इसलिए क्योंकि अ से अहं तुमने सीखा ही नहीं।

कैसे बनाओगे रिश्ते तुम? जब अहम् को नहीं जानते तो तुम्हें कैसे पता कि अहम् को संबन्ध किसके साथ बनाना चाहिए? फिर करोगे यही कि इधर-उधर जाकर ऊल-जुलूल कोई शादी-ब्याह कर लाओगे फिर माथा फोड़ोगे अपना भी उसका भी।

तो ऐसा नहीं है कि अगर तुमको अध्यात्म कि शिक्षा नहीं मिली है तो तुमको बस इधर-उधर के कुछ किताबी सिद्धान्त नहीं पता चले, कि तुम बस पुस्तकीय ज्ञान से वंचित रह गए।

अगर तुमको आध्यात्मिक शिक्षा नहीं मिली है तो तुम जीवन में हर उस चीज़ से वंचित रह गए जो सही है और सुंदर है। और किस चीज़ से जीवन तुम्हारा भर जाएगा? जो गलत है और कुरूप है। जीवन को गलत ही बनाना हो, कुरूप ही रखना हो तो कर लेना उपनिषदों की उपेक्षा।

प्र२: इसमें आचार्य जी समय का एक रिसर्च भी आया था कि सात साल और एक सौ दो दिन बचे हैं। एक क्लाइमेटिकल वॉच बनाई गई है तो उसके मद्देनजर तो ऐसा होना चाहिए कि अ से अंगूर भी पढ़ाया जाए और अ से अहम् भी पढ़ाया जाए, मतलब अब तो एक तरह से कानून ही बनना चाहिए।

एक तरह से मान भी लें कि करोड़ो में से एक आदमी जागृत हो जाता है, ऋषि हो जाता है लेकिन इतनी संभावना है भी नहीं इंसान के पास अब तो। समय ही इतना कम है तो यह तो एक तरह से मार्शल लॉ ही बनना चाहिए कि आपको अ से अंगूर और अ से अहम भी पढ़ाया जाए।

आचार्य: हाँ, बनना चाहिए पर फिर उसके लिए सत्ता जागृत हाथो में होनी चाहिए न। उसके लिए सत्ता भी किसी ऋषि के हाथो में होनी चाहिए। ऋषि के हाथ में सत्ता होगी तभी तो वह यह अनिवार्य कर पाएगा कि सब बच्चे उपनिषद पढ़ें। यह आम जो राजनेता हैं यह थोड़े ही अनिवार्य कर पाएँगे उपनिषदों को।

प्र२: ऋषि को राजनीति में आना ज़रूरी है?

आचार्य: अगर दुनिया उसको बचानी है तो आना होगा। और अगर उसको यह कहना है कि दुनिया क्या है? आँखों का धोखा, मिट जाए तो मिट जाए, तो नहीं आएगा। उसकी मौज पर है।

प्र३: जैसे आइन्स्टाइन और ऋषि वह भी साधना वाला जीवन जी रहे थे उनको भी ऐसे ही नहीं मिल गया अचानक से चलते-चलते। ब्रह्मज्ञान तो बिलकुल भी संभव नहीं है। ऋषियों ने भी...

आचार्य: देखिए, जैसे अब ई इज इक्वल टू एम सी स्क्वायर है, अहं ब्रह्मास्मि वैसा है। अहम = ब्रहम, वह ऐसा ही है ई = एम सी स्क्वायर। अब यह सूत्र बहुत छोटा है लेकिन इसके पीछे जो रिसर्च है और जो कैलक्युलेशन है वह बहुत विशाल है, और जो प्रयोग हैं इसके पीछे वह बहुत ज़बरदस्त हैं।

लेकिन चूंकि हम भौतिक लोग हैं इसलिए भौतिक चीज़ों को बहुत सम्मान देते हैं और भौतिक सिद्धांतो को भी सम्मान दे देते हैं। तो ई इज इक्वल टू एम सी स्क्वायर का संबन्ध पदार्थ से है - एम, उसको हम सम्मान दे लेते हैं। हम कहते हैं हाँ, इसके साथ छेड़खानी नहीं करेंगे और बड़ी मेहनत से यह सूत्र निकला होगा। उसको हम सम्मान दे लेते हैं लेकिन अहं ब्रह्मास्मि में मैटेरियल तो कुछ है नहीं। न अहम मैटेरियल है न ब्रहम मैटेरियल है तो उसको हम सम्मान नहीं दे पाते। वो लगता है हमें ऐसे ही है यह, पनवाड़ी के यहाँ की चीज़ है। हम भी जाएँगे, कहेंगे लगाना ज़रा कत्था-चूना मार के अहं ब्रह्मास्मि।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories