प्रश्नकर्ता: आचार्य जी इस पूरे दृष्टान्त में जब भी देवी प्रकट होती हैं तो काफ़ी तेज दिखाया जाता है। और तेज देवी का प्रकट होना तभी दिखाते हैं जब देवों द्वारा बुलाया जाता है। तो अगर जीवन में तेज नहीं है। अर्थात् देवी नहीं है तो क्या यही मतलब है कि अन्दर के देव बुला नहीं रहें। और तेज जो था वो दुर्योधन के जीवन में भी था। तो क्या उसके जीवन में जो तेज था,वो देवी नहीं वो कुछ और था?
आचार्य प्रशांत: नहीं, वो ऐसा है कि जैसे तुम कहो कि किसी व्यक्ति के पास कभी रुपया-पैसा बिलकुल पाया नहीं जाता। जैसे तुम कह रहे हो कि तेज नहीं है। वैसे ही मैं उदाहरण लेकर समझा रहा हूँ कि मान लो कोई व्यक्ति उसके पास पैसा नहीं है। और फिर तुम्हें पता चले कि नहीं ये तो हर महीने अच्छा पैसा कमाता है। लेकिन पैसा कभी इसके पास होता नहीं। इसका क्या मतलब है? कमाता हर महीने अच्छा है। लेकिन जब भी उसके पास जाओ तो सही में उसके पास पैसा नहीं होता। इसका मतलब क्या है?
वो एक बहुत मोटी किस्त भर रहा है। उसने कोई ऐसी चीज़ मोल ले रखी है बल्कि कर्ज़ ले रखी है। जिसमें उसका सारा पैसा माने सारा तेज लगातार व्यय होता रहता है। है तो बहुत कुछ। पर जितना है सब उधर को जा रहा है। एक तारीख को एक लाख आता है। दो तारीख को नब्बे हज़ार उधर निकल जाता है। अहंकार बढ़ाने-चढ़ाने के लिए बड़ा भारी महल कर्ज़े पर खरीद रखा है, उसकी किस्त चुकाते हैं।
जिसके जीवन में तेज नहीं है, ऐसा नहीं कि उसके पास मूलतः त़ेज नहीं है। इसके पास जो तेज था,उसका सारा इस्तेमाल वो अपने रेत के पुतले की किस्त चुकाने में करता है। है तो बहुत कुछ, पर दिखाई बिलकुल नहीं देता। ज़रा भी दिखाई नहीं देता। क्योंकि सब किस्त में बह जाता है। जिस भी व्यक्ति को तुम निस्तेज पाओ समझ लो बड़ा अहंकारी है। उसको आत्मा से जो तेज प्राप्त हो रहा है और आत्मा से तेज सभी को प्राप्त होता है। आत्मा से उसको जो तेज मिल रहा है, उसको पूरा-का-पूरा खर्च कर देता है अपने रेत के पुतले को बचाने में। तो फिर जब तुम देखते हो उसका जीवन, उसका चेहरा, उसकी आँखें तो वहाँ कोई तेज दिखता नहीं। वो गया कहाँ। वो जो पीछे पुतला था उसको बचाने में लग गया सब।
हाँ, अब तुम पुतले की तरफ़ जाओगे तो देखोगे तो वहाँ तुम बड़ा तेज पाओगे। जैसे तुम कह रहे थे न कि दुर्योधन के पास बड़ा तेज था। अहंकार के तल पर बहुत तेज था उसमें। ये व्यक्ति खुद भले ही सड़क पर घूम रहा हो फटी जेब लिए, जेब में सौ रुपया भी मुश्किल से निकलता हो। लेकिन वो जो इसके कर्ज़े का महल है। उसको जाओगे देखोगे, तो उसमें बड़ी रौनक रहेगी। वैसे ही हम होते हैं।
जीवन हमारा निस्तेज और दरिद्र होता है। और जो हमारा अहंकार का महल होता है, उसमें बड़ी रौनक़, रोशनी रहती है। बस वो जो महल है वो रेत का है। तुमने रेत के महल में झाड़-फ़ानूस लगवाएँ हैं शैन्डलियर(झाड़-फ़ानूस, सजावटी लाइट)लगवाएँ हैं। सुनहरा रंग करवाया है। कहाँ? और वो सुनहरे रंग और उस झाड़-फ़ानूस और उस साज-सज्जा उस सब की कीमत तुमने अपने खून से,अपने जीवन से अदा करी है। किसी ने जैसे ज़िन्दगी भर अपना समय लगाया हो, अपनी ऊर्जा बहायी हो, खून बहाया हो। इसलिए ताकि वो अपने रेत के महल में साज़-सज्जा कर सके। इस व्यक्ति पर तुम्हें दया नहीं आएगी। ये व्यक्ति तुम हो।
ज़िन्दगी भर मेहनत करी, करी, करी, करते ही जा रहे हैं, करते ही जा रहे हैं, करते जा रहे हैं। किसलिए? रेत के महल की चौथी मंज़िल पर रत्नजड़ित बाथटब (स्न्नान टब) लगवाने के लिए। रेत के महल की चौथी मंज़िल पर रत्नजड़ित बाथटब लगवाया है। पूरी ज़िन्दगी को बेचकर वो बाथटब आया है। क्या होगा? क्या होगा? क्या होगा? क्या होगा? नहाओगे कभी उसमें? नहा कभी नहीं पाओगे। हाँ, ज़िन्दगी पूरी गँवाओगे। पहले उसको लाने में गँवाओगे और फिर जब उसमें नहाने जाओगे तो और गँवाओगे।
देवी को कहा है- हृदय में कृपा है और युद्ध में निष्ठुरता है। और फिर उस निष्ठुरता को भी समझाया है कि वो निष्ठुरता इसलिए है ताकि जो धर्म विरुद्ध आचरण कर रहा है, उसका आचरण वहीं पर रुक जाये। वो निष्ठुरता ज़रूरी है। जो धर्म विरुद्ध जा रहा हो उसके प्रति सबसे बड़ी दया, सबसे बड़ी कृपा यही है कि उसको रोक दिया जाये। तो देवी की स्तुति करते वक़्त कहते हैं, देवता आपके हृदय में कृपा है और आपके युद्ध में निष्ठुरता है। क्योंकि युद्ध में अगर निष्ठुर नहीं हो तुम तो आसक्त हो जाओगे।
किससे आसक्त हो रहे हो? जो धर्म विरुद्ध जा रहा है। धर्म विरुद्ध जो जा रहा है उससे आसक्ति माने तुम स्वयं भी अब धर्म विरुद्ध हो जाओगे। तो ये दोनों विपरीत बातें नहीं है। ह्रदय में कृपा और युद्ध में निष्ठुरता। ये दोनों एक ही बात है। कृपा प्रदर्शित करने का तरीका है युद्ध में निष्ठुरता। तुमने निष्ठुर हो करके अगर विधर्मियों को, अचेत व्यक्तियों को रोका नहीं, उनका विरोध नहीं किया तो, तुम तो उन्हें परोक्ष रूप से प्रोत्साहित ही कर रहे हो ना और ज़्यादा अधर्म करने के लिए। तो उन्हें रोककर के तुम उन पर कृपा ही कर रहे हो। उन पर और सारे जग पर। क्योंकि अगर वो आगे बढ़ेंगे,तो सबको ले डूबेंगे।
अहिंसा बड़े शौर्य की बात है। अहिंसा ऐसा ही है हृदय में कृपा। और उसी फिर अहिंसा का तकाज़ा है युद्ध में निष्ठुरता। युद्ध में निष्ठुर होना, अहिंसा की माँग होती है। लेकिन जो भी बातें हम कर रहे हैं, उनमें याद रखना किसी को सताना, किसी को दंड देना, किसी को चोट देना, किसी की हत्या करना ये बातें आखिरी विकल्प होती हैं। उद्देश्य ये नहीं है किसी को सता दिया, किसी को घायल कर दिया। उद्देश्य है चेतना की रक्षा, उद्देश्य है सत्य को समर्पण।
कहा बस ये जा रहा है कि सत्य को तुम्हारा जो समर्पण है, वो इतना सम्पूर्ण होना चाहिए, इतना बेशर्त होना चाहिए कि उसके लिए यदि ये नौबत आए कि तुम्हें वध करना पड़े तो वध भी कर दो। ये कहा जा रहा है। वध करना प्रमुख बात नहीं है। सत्य को समर्पण प्रमुख बात है। उस पर ध्यान दीजिए। ऐसा न हो कहीं आप खून बहाने और रक्तपात में ही ज़्यादा उत्सुकता दिखाने लग जाएँ। वो बहुत बाद की बात है। उस बात के आने की नौबत ना आए, वो ज़्यादा अच्छा।
मूल बात ये नहीं है कि शत्रु पर आक्रमण करना है। मूल बात ये है कि सत्य की रक्षा करनी है। और यदि किसी भी तरीके से सत्य की रक्षा ऐसे हो सकती हो कि शत्रु सुधर ही जाये तो वो पहला विकल्प होगा। मारना पहला विकल्प नहीं हो सकता। क्योंकि आपकी दुश्मनी व्यक्ति से नहीं है, उस व्यक्ति के भीतर के अहंकार और अज्ञान से है। अगर कोई ऐसी विधि निकल सके कि उसे मारे बिना ही उसका अज्ञान और अहंकार मिटे तो आपको उसका ही उपयोग करना चाहिए। यहाँ पर जो आपको स्थितियाँ बताई जा रही हैं वो एकदम आखिरी हैं, भीषण हैं,। अति हो चुकी है। अब उस व्यक्ति के सुधरने की कोई सम्भावना ही नहीं बची। उस स्थिति का यहाँ पर वर्णन है। पर यदि कोई सुधर सकता हो तो उसे सुधारना है।
अंगुलिमाल बुद्ध के सामने आया तो बुद्ध ने उसको मार थोड़े ही दिया कि तू इतना बड़ा हत्यारा है, अधर्मी है, पापी है। बुद्ध ने उसको सुधार दिया। एक तरह से बुद्ध ने भी उसकी हत्या ही करी। किस अंगुलिमाल की? वो जो पहले होता था अंगुलिमाल उसको मारा। लेकिन उसकी मानस हत्या करने के लिए शारीरिक हत्या करना तो कोई ज़रूरी नहीं न।
तो शरीर पर आघात सिर्फ़ तब होगा जब कुछ कोई विकल्प न बचे। वो बिलकुल मैं कह रहा हूँ आखिर स्थिति होनी चाहिए। ये न हो कि आप अपने अहंकार और अपनी भीतरी शत्रुता से प्रेरित होकर के रक्तपात में उद्यत हो जाएँ। और कहें कि देखो हमारे यहाँ तो देवी-देवता सब मार-काट करते हैं तो मैंने भी कर दी। ये नहीं होना चाहिए। सुधार सकते हो तो सुधारो,सुधारो,सुधारो। लगातार कोशिश यही रहे कि सुधर जाये, सुधर जाये, सुधर जाये।
बस ये याद रहे कि किसी व्यक्ति के प्रति तुम्हारी आसक्ति, सत्य के प्रति तुम्हारे समर्पण से बड़ी ना हो जाये। ये न हो जाये कि तुम्हें दिख रहा हो कि जो सामने बैठा है, वो प्रतिबद्ध हो गया है कि नहीं सुधरूँगा। और किसी की प्रतिबद्धता तुम तोड़ ही लो ये आवश्यकता नहीं है न। हर व्यक्ति अपने भीतर ये बल रखता है कि निश्चित करेगा कि उसे क्या करना है। किसी ने अगर निश्चित कर ही लिया कि मुझे तो सत्य के विरुद्ध ही जीना है। तो तुम उससे ज़बरदस्ती तो नहीं कर सकते न। ये तो उसकी आन्तरिक बात है। उसने तय कर लिया है कमिटमेंट (प्रतिबद्धता)है, प्रतिबद्धता है उसकी कि मैं तो उल्टा ही जिऊँगा। तो तुम क्या कर लोगे अब। तो ऐसा न हो कि तुम्हें दिख रहा हो अब कि प्रतिबद्ध हो गया है सत्य के विरुद्ध। लेकिन फिर भी उससे अपनी व्यक्तिगत आसक्ति के कारण तुम कहो कि नहीं-नहीं सुधर जायेगा। अभी सम्भावना है, सुधर जायेगा। मैं अभी और कोशिश कर रहा हूँ। सुधर जायेगा।
बिलकुल निष्पक्ष होकर साफ़ दृष्टि से, पूरे विवेक से तुम्हें तय करना होगा कि कब वो बिन्दु आ गया है जहाँ तुम्हें दिख गया है कि अब ये सुधरने का नहीं। अब ये व्यक्ति अपने पूरे जीवन के लिए निर्णय ले चुका है कि इसे तो उल्टी ही चाल चलनी है। तो अपनी उस आसक्ति से और अपने भीतर की उस कमज़ोरी के विरुद्ध तुम सावधान रहना। जो तुम्हें बार-बार ये जताती रहेगी कि अभी दंड देने का समय नहीं आया है। क्योंकि अभी तो सुधरने की सम्भावना है।
देखो, हमें आदर्शों की नहीं व्यावहारिकता की बात करनी है। हम कल्पनाओं में नहीं यथार्थ में जी रहे हैं। बहुत लोग हैं दुनिया में जो अभी सुधर सकते हैं। लेकिन बहुत लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने तय कर लिया है कि वो नहीं सुधरेंगे। जो सुधर सकता है। वहाँ आपको साफ़ पता होना चाहिए कि अभी सम्भावना है, अभी सम्भावना है, कोशिश करो, जान लगा दो इसको सुधारने में। लेकिन साथ-ही-साथ आपको ये भी पता होना चाहिए कि कौनसा व्यक्ति अब जीवन भर के लिए दृढ़प्रतिज्ञ हो गया है कि मैं तो नहीं सुधरूँगा, जान दे दूँगा पर सुधरूँगा नहीं।
क्या आप नहीं जानते ऐसे भी लोग होते हैं जो कहते हैं जान दे दूँगा लेकिन सुधरूँगा नहीं। वहाँ पर ये मत सोचते रहिएगा कि अभी तो हमें इसको बहुत प्रेम से, बड़े सौहार्द से, बहुत सहला-सहलाकर, पुचकार-पुचकार के सुधारना है। बात आपकी है ही नहीं कि आपको क्या करना है। बात ये है कि वो पहले ही प्रण कर चुका है, तय कर चुका है।