जीवन - अवसर स्वयं को पाने का || आचार्य प्रशांत, संत नागरी दास पर (2014)

Acharya Prashant

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जीवन - अवसर स्वयं को पाने का || आचार्य प्रशांत, संत नागरी दास पर (2014)

नीकौ हूँ लागत बुरौ, बिन औसर जो होय |प्रात भए फीकी लगे, ज्यौं दीपक की लोय ||-नागरीदास

वक्ता: ‘नीक’ माने अच्छा| जो अच्छा भी है, वो बुरा लगता है, यदि बिना अवसर के हो| ठीक वैसे जैसे की दीपक की लौ भी सुबह हो जाने पर व्यर्थ ही होती है| अवसर माने क्या? ये समझना होगा|

सवाल पूछा है प्रिया ने नागरीदास के दोहे से| पूछ रहीं हैं, ‘अवसर माने क्या?’ और दूसरी बात पूछ रहीं हैं, ‘सही अवसर जान नहीं पातीं हैं, कैसे पता हो?’

चूक हो जाती है हमसे| आमतौर पर हम अवसर का अर्थ समझते हैं सही समय या सही जगह| यही समझते हैं? सही मौका| उस मौके से अभिप्राय ही यही होता है कि सही समय पर और सही जगह पर| गड़बड़ हो गयी, यह आपने फिर से शब्दकोष वाला अर्थ उठा लिया|

अवसर एक ही है, आत्मा एकमात्र अवसर है| अब इस प्रकाश में फिर से सुनिए पहली पंक्ति को| ‘नीकौ हूँ लागत बुरौ, बिन औसर जो होय’, आत्मा के अतिरिक्त और कोई अवसर नहीं होता| अवसर समय में या स्थान में नहीं है, अवसर अंतस है| यदि आत्मा से उद्भूत नहीं है, यदि आत्मा से संपृक्त नहीं है, तो बुरा तो बुरा लगेगा ही, अच्छा भी बुरा लगेगा क्योंकि बुराई है ही यही कि आत्मा से संपृक्त नहीं है| यही कह रहे हैं, ‘नीकौ हूँ लागत बुरौ, बिन औसर जो होय|’

संसारी मन इस पंक्ति का यही अर्थ करना चाहेगा कि देखो हर चीज़ का एक वक़्त होता है और बिना वक़्त के वो काम नहीं करना| नहीं, इसका यह अर्थ नहीं है, यह तो अर्थ का अनर्थ है| संसारी मन इस पंक्ति का यही अर्थ करना चाहेगा कि देखो हर काम को करने की एक उचित जगह होती है- वहाँ, इधर-उधर, और कहीं मत करना| यह अर्थ का अनर्थ है| यह वही मन है जो कहता है कि उपासना मात्र मंदिर में होती है| यह वही मन है जो मकान, दुकान, भगवान, सबको अलग करके रखता है| इस मन के चक्कर में मत पड़ जाना|

संतो की बात का अर्थ कभी संसारी मुख से मत सुनना, यह पाप है| संत क्या कह रहे हैं यह तो उन्हीं से जाकर पूछो, उनके अलावा कोई नहीं बता पाएगा| आध्यात्मिकता के साथ सबसे बड़ा अन्याय यही होता है कि संतो और पैगम्बरों की वाणी संसारियों के हाथ लग जाती है, और वो उसका बिल्कुल वही अर्थ कर लेते हैं जो उनकी मान्यताओं, धारणाओं और बेवकूफियों के अनुकूल होता है| मैं दोहरा रहा हूँ आत्मा के अतिरिक्त और कोई अवसर नहीं है| संपूर्ण जीवन अवसर ही है| किसका अवसर है? स्वयं को पाने का| आत्मा की उपलब्धि ही एकमात्र अवसर है, वही एकमात्र उपलब्धि है| उसके अलावा और कोई उपलब्धि नहीं है| याद है आप से एक बार कहा था कि:

‘Why does life exist? To search for its source(जीवन क्यों है- अपने स्रोत को ढूँढने के लिए),

Why does time exist? To search for its source(समय क्यों है- अपने स्रोत को ढूँढने के लिए),

Why moves the mind? Because it has not yet found the source(मन क्यों भागता है? क्योंकि उसने अब तक अपने स्रोत को नहीं पाया है|’

जीवन आपने इसलिए नहीं लिया है कि आप खाएं, सांस लें, सोयें, जगें, परिवार बढाएँ, बच्चे पैदा करें, हज़ार तरीके के कर्मफल और पैदा करें, रुपया पैसा इकठ्ठा कर लें, और एक दिन मर जायें| जन्म इसलिए नहीं होता, जन्म इसलिए होता है ताकि जीवन को जाना जा सके| जिसे आप ‘जन्मा’ कहते हैं वो जन्मता इसलिए है ताकि जीवन को समझ सके| तो जन्म अवसर है, जीवित हो जाने का| इसी को कहा था कि:

‘You are born so that you may be born(आप पैदा इसलिए होते हैं ताकि आप पैदा हो सकें)|’

समझिये इस बात को: ‘आप पैदा इसलिए होते हैं ताकि आप पैदा हो सकें| आप पैदा हो कर पैदा नहीं हो गये| पैदा होकर आपको अवसर दिया जाता है वास्तविक रूप से पैदा हो जाने का| और जो ये वास्तविक रूप से पैदा हो जाना है, इसी का नाम होता है ‘द्विज’ हो जाना| आप पैदा इसलिए होते हो ताकि आप पैदा हो सको|

श्रोता १: क्या पैदा होने के लिए ‘पैदा’ होना आवश्यक है?

वक्ता: हो तो गए ही हो, क्या करोगे? काल्पनिक सवाल हो गया है न कि ‘ज़रुरत क्या है?’ जरुरत कुछ भी नहीं थी, यह सवाल बेफिज़ूल है पर देखो हम फंस गये इस बेफिज़ूली में| अब करें क्या? बात तो बिल्कुल ठीक है| कहने वालों ने कहा भी है, ‘यूं हीं भले थे, क्यों एक हुए?’ अब और बुरा हुआ, जब एक से दो हो गये| तो बात तो ठीक है, बात तो व्यर्थ थी, पर अब हो तो गये, तो करें क्या?

अब इसको अवसर की तरह लें| जन्म मिला है तो वास्तव में जन्म लें, यह न हो कि जन्म लेने से पहले ही मर गए| सोचिये, कितना बड़ा अभाग होगा कि जीये साठ-अस्सी साल, और बिना जन्मे ही मर गये| एक भ्रूण भी मरता है तो कम से कम चंद सांसें ले कर मरता है| गर्भ में भी मरता है तो आप यह कहते हैं, ‘जिंदा था तो मरा|’ ठीक? हमारा तो अभाग उससे भी ज़्यादा है| हम तो जीवित होने से पहले ही मर गए|

‘नीकौ हूँ लागत बुरौ, बिन औसर जो होय’, आप जिसको बुरा कहेंगे वो सब संसार में है ,और संसार में कुछ अच्छा नहीं है, कुछ बुरा नहीं है| सिर्फ एक तल पर भेद किया जा सकता है, संसारी वस्तुओं का, व्यक्तियों का, विचारों का, कि वो अपने उद्गम के प्रति समर्पित हैं या नहीं हैं| कहीं वो टूटे हुए तो नहीं हैं? क्या वो सच्चे हैं? क्या वो ईमानदार हैं? डिब्बे में हीरा है या नहीं है? बस यही है, इसके अलावा कुछ नहीं|

ऐसे ही परखना है दुनिया को| आज मैं कह रहा था न कि कचरा कुछ होता ही नहीं| जो अपनी सही जगह पर नहीं है, उसी का नाम ‘कचरा’ है| और सही जगह किसी की भी कोई और होती नहीं, सबकी सही जगह एक ही है, उनके केंद्र पर| हम जब छत पर गमले इधर से उधर कर रहे थे, तब भी यही बात कर रहे थे| कौन सा गमला कहाँ रखा होना चाहिए, ये भी मुझे कब समझ में आएगा? जब मैं अपने केंद्र से संपृक्त हूँ|

दुनिया में सब कुछ व्यवस्थित रहे, और सब कुछ वहीँ पर रहे जहाँ उसे होना चाहिए, उसके लिए ज़रूरी है कि सब कुछ पहले जुड़ा रहे उस बिंदु से, जो उसकी असलियत है| आप इंसान को हटा दीजिये, आप देखिये कि दुनिया की अपनी एक आंतरिक व्यवस्था है या नहीं? मैं आपसे कह रहा हूँ आप दुनिया से इंसान को हटा दीजिये, तो दुनिया से कचरा भी हट जाएगा| इस बात के तथ्य को परखिये|

आपने जंगल में कभी कचरा देखा है? यह तो गज़ब बात हो गयी| जंगले में कभी कोई झाड़ू लगाने नहीं जाता, पर वहाँ कभी कचरा नहीं पाया जाता| क्यों? क्योंकि वहाँ सब कुछ ठीक सीधे-सीधे उससे जुड़ा हुआ है, जहाँ से उसे जुड़ा होना चाहिए| तो वहाँ सब अपनी-अपनी अनुरूप जगह पर है| एक पूरा तंत्र है, एक पूरी व्यवस्था है जो अपना काम कर रही है| इंसान अकेला है जो भटका हुआ है, इसलिए इंसान जहाँ है, वहाँ कचरा है|

आपने कभी कोई गंदी नदी देखी है जो इंसानों ने नहीं छुई हो? इंसान को हटा दीजिये, कभी कोई गंदी नदी नहीं मिलेगी? और आप सारे जानवर रखिये उसके आसपास, जितने जानवर हो सकते हैं रखिये, जानवर मज़े से उस में नहाएंगे भी, खेलेंगे भी| ऐसा नहीं है कि वो कहेंगे, ‘अरे-अरे, नदी को गंदा नहीं करना है|’ वो जी भर के नदी से अपनी प्यास भुजाएंगे|

वो जिस भी तरीके से नदी का उपयोग कर सकते हैं, नदी से जिस भी तरह का संबंध बना सकते हैं, वो सब कुछ करेंगे नदी के साथ, और वो जो कुछ भी नदी के साथ करेंगे उससे नदी स्वच्छ ही बनी रहेगी| क्यों? क्योंकि पूरे अस्तित्व में जो कुछ भी है अपनी सही जगह पर है| हम अकेले हैं जो अपनी सही जगह पर नहीं हैं| और इस बात को स्थूल और सूक्ष्म, दोनों तरीकों से देखा जा सकता है|

जब मैं ‘कचरा’ कह रहा हूँ तो स्थूल कचरा तो है ही जो आजकल जंगल में भी दिखाई देता है, और सूक्ष्म कचरा वो है जो मन में दिखाई देता है, और दोनों की वजह एक ही है| उनकी वजह क्या है? इंसान का विस्थापित मन, वो मन जो अपने केंद्र से विस्थापित है| आप समझ रहे हैं बात को?

जब मैं कहता हूँ, ‘बाज़ी ले गये कुत्ते’, मैं क्या कहता हूँ, बुल्लेशाह कहते हैं, तो उसका प्रमाण ही यही है कि कुत्ते कचरा नहीं फैलाते| कोई कुत्ता कचरा नहीं फैलाता| हाँ, आपके घर में यदि कुत्ता है, तो उसकी गतिविधि देखकर आपको लगेगा कि उसने कचरा फैला दिया, पर कुत्ता कचरा फैलाता है या नहीं, यह देखना है तो जंगल जाइये| कोई जानवर कचरा नहीं फैलाता, इसका प्रमाण यह है कि जब आप जंगल जाते हो, तब आप ही कहते हो,’ वाह! क्या खूबसूरती है|’

यदि जानवर कचरा फैलाते होते तो आप क्यों कहते, ‘प्राकृतिक ख़ूबसूरती, नैसर्गिक सुंदरता’? आप क्यों कहते? जब आपको ऊँची से ऊँची सुंदरता देखनी होती है तब आप कहाँ जाते हो? आप प्रकृति के पास जाते हो, और प्रकृति में तो कोई झाड़ू लगाने नहीं आ रहा| जिस पहाड़ को देख कर आप कहते हो कि, ‘वाह! तू कितना खूबसूरत’, वो तो आज तक नहाया-धोया नहीं| वहाँ तो पेड़ों की गिरी हुई पत्तियाँ हैं| वहाँ तो जानवरों का मल है, पर वो फिर भी बहुत सुंदर है|

व्यवस्थाएं हैं जो सुचारू रूप से चल रहीं हैं| यदि जो मल है तो वो मल किसी काम आ रहा है, वही जो मल है उसी से वृक्षों की हरी पत्तियाँ भोजन पा रहीं हैं| जो एक जानवर का मल है, वो दूसरे जानवर के लिए खाद हो सकता है| तो जो सुंदरता है वो और कुछ नहीं है, वो केंद्र से जुड़े हुए होने का नाम है, यही सौंदर्य है| उस सौंदर्य को फिर ‘खूबसूरती’ नहीं कहते, उसे ‘नूर’ कहते हैं|

जब आप चिकने-चुपड़े होते हैं तो बस आपकी सूरत को ‘ख़ूबसूरत’ समझते हैं, ‘सूरत’ माने वो जो दिखाई पड़ती है| जब आप चिकने-चुपड़े होते हैं तो आप खूबसूरत तो हो सकते हैं, पर नूर आता है आपके चेहरे पर, आपकी हस्ती में, जब आपका दिल वहाँ होता है जहाँ उसे होना चाहिए| फिर आपके चेहरे पर नूर आता है| अब आप खूबसूरत भले न हों, पर आप ‘नूरानी’ रहेंगे| समझ में आ रही है बात?

‘प्रात भए फीकी लगे, ज्यौं दीपक की लोय’, और जब वो अवसर मौजूद है तो उसके समक्ष सब कुछ फीका है, क्योंकि जो अवसर है वही असली है, उसके अलावा जो कुछ भी बाकी है, वो यूं हीं व्यर्थ है| उसके अलावा जो है, सब फ़ीका है| आप जीवन में जो भी कुछ हासिल करना चाहते हैं, जिससे आप सोचते हैं कि आपकी ज़िन्दगी में उजाला हो जाएगा, वो दीपक की लौ बराबर है| जिसे सूरज मिल गया वो दीपक की लौ से क्या सरोकार रखेगा| यही संतों का त्याग है| संतों का त्याग यह नहीं है कि हमने कुछ छोड़ दिया| उनका त्याग यही है, ‘हमें सूरज मिल गया अब दीपक का क्या करें|’

‘प्रात भए फीकी लगे, ज्यौं दीपक की लोय, हमें दीपक से कोई समस्या नहीं है, हम दीपक का तिरस्कार नहीं कर रहे, बस अब ये बात थोड़ी अटपटी हो गयी है कि हम दीपक लेकर घूमें| अरे! प्रात हो गयी है| दीपक लेकर क्या घूमना है? जो ऊँची से ऊँची उपलब्धि हो सकती थी, जो बड़े से बड़ा अवसर था वो हमको मिल गया| अब ये छोटी-मोटी लालसाओं में क्या जीवन बिताना है|’ और उसमें कोई त्याग नहीं है, बस अजीब लगेगा कि अब हम ये करें तो विचित्र लगेगा कि भरी दोपहरी कोई लालटेन लेकर घूम रहा है| इसमें कोई पाप नहीं हो गया, बस बात बेवकूफी की लगती है|

आप सही कह रहीं हैं कि सही अवसर जान नहीं पाती हूँ| कैसे पता हो? आपने तो वही पूछ लिया कि सही अवसर माने सही समय और सही जगह|

न कोई सही समय है, न कोई सही स्थान है| जहाँ पर आप उठ बैठे हो वही सही जगह है, जब आप उठ बैठे हो वही सही समय है| वही अवसर है|

– ‘बोध-सत्र’ पर आधारित| स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं |

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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