(कंस द्वारा आयोजित एक सभा में बालक कृष्ण और एक पहलवान के युद्ध की कहानी के संदर्भ में एक श्रोता प्रश्न पूछते हुए)
प्रश्नकर्ता: ऐसा कैसे हो सकता है कि एक लड़का मल्लयुद्ध में, राज्य के चुने हुए पहलवानों पर भारी पड़ रहा है?
आचार्य प्रशांत: और लड़का अभी जवान भी नहीं हुआ है, कुमार है। वो राज्य के चुने हुए पहलवान पर भारी पड़ रहा है। ऐसा कैसे हो सकता है?
प्र: जो युद्ध में लड़ने आए हैं, एक तरह से उनका अहंकार ही उनको मार दे रहा है।
आचार्य: लाओत्ज़ु का कथन है, “मुझे कोई कभी हरा नहीं सकता, क्योंकि मैं जीतना चाहता ही नहीं।” कृष्ण ने कहा है, “निष्काम कर्म।” इन दोनों बातों में कोई समानता दिख रही है? निष्काम कर्म हुआ कि लड़ भी रहे हैं, तो जीतने की इच्छा नहीं है। बस लड़ रहे हैं। बिना जीतने की इच्छा के लड़ा जाए तो आदमी कैसे लड़ता है?
प्र: पूरा।
आचार्य: एक, उसकी ऊर्जा पूरी रहती है। और दूसरा, क्योंकि उसकी जीतने की कोई इच्छा नहीं है। तो उसके लिए लड़ना भी खेल है। जहाँ जीतने की कोई इच्छा न हो, तो लड़ना भी खेल लगता है, उसमें भी मौज आती है। लाओत्ज़ु ने इसलिए कहा था, “मैं कभी हार सकता नहीं, क्योंकि मुझे जीतना ही नहीं है।” इसी बात को वो आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, “मैं पहले से ही इतना हारा हुआ हूँ कि तुम मुझे क्या हराओगे।”
समझिएगा बात को। “मुझे कोई हरा सकता नहीं क्योंकि मुझे जीतना ही नहीं है।” जिसका जीतने का ध्येय हो, लक्ष्य हो, आप उसी को हरा सकते हो, और वो हारेगा। जिसे जीतना ही नहीं है, आप उसे हरा नहीं पाओगे। जो सिर्फ़ खेल रहा हो, उसे हरा पाना बड़ा मुश्किल है।
कृष्ण की पूरी बात निष्काम कर्म की है। “खेलो!” जहाँ कृष्ण कर्मयोग में निष्काम कर्म की बात करते हैं, वहाँ वो लओत्जु के बिलकुल करीब आ जाते हैं। लओत्जु का ‘इनएक्शन इन एक्शन , कर्म में अकर्म’ और कृष्ण का ‘निष्काम कर्म’ अलग नहीं हैं, एक ही हैं।
ऐसा लग तो रहा है कि बाहर बहुत कुछ हो रहा है, पर अन्दर कुछ नहीं हो रहा। बाहर बहुत कुछ हो रहा है, हाथ-पाँव लड़ रहे हैं, पर भीतर मन कैसा है? मन शांत है। ऐसे लड़ने में बड़ी मौज है, फिर आसानी से थकान नहीं होती। थकता तो पहले मन ही है, बाद में शरीर थकता है। जिसका मन हिल ही नहीं रहा, अब उसका मन थकेगा नहीं। अब थकेगा तो बस शरीर थकेगा, उसे मानसिक थकान नहीं होगी।
कृष्ण का इन बड़े पहलवानों से युद्ध करना और लगातार जीत जाना, यह आसान बात नहीं है। आपके लिए बहुत आसान होगा कहना कि, "वो तो भगवान हैं, भगवान सबसे जीत ही जाएँगे!" यह कहकर आपने पूरी समस्या ही सुलझा दी, अब आपने उसमें कोई रहस्य बाकी नहीं रखा। आपने सीधे ही कह दिया, “कृष्ण तो भगवान हैं, भगवान के पास बहुत सारी ताकत है। इसीलिए उन्होंने राक्षसों को मार दिया।” ये तो गणित हो गया, यह तो गणित की भाषा हो गई।
पर ऐसा मामला नहीं है यहाँ। जो बात है वो थोड़ी गहरी है। जो कृष्ण उस पहलवान से लड़ने गया है उसके पास असीमित ताकत नहीं है। वो एक छोटा-सा बालक ही है, पर फिर भी वो जीत रहा है। क्योंकि ये वही कृष्ण है जो रास रचाता है, ये वही कृष्ण है जो गायों के साथ खेलना और फूलों से बात करना जानता है। और ये वही कृष्ण है जो आगे चलकर अर्जुन को निष्काम कर्म का उपदेश देने वाला है।
इस कृष्ण के पास एक दूसरी बहुत बड़ी ताकत है, वो ताकत है समझ की। आप इस कृष्ण को व्यग्र नहीं कर पाएँगे, आप कृष्ण को चिंतित नहीं देखेंगे।
अब जो स्थिति है उसे समझिए। भीड़ है बहुत बड़ी, मल्लयुद्ध होने जा रहा है, बहुत बड़ा आयोजन है। कंस के राज्य के सभी बड़े लोग उपस्थित हैं। किसकी साख दाँव पर है?
प्र: कंस की और पहलवानों की।
आचार्य: कृष्ण क्या हैं? गाँव का एक छोटा-सा बालक। क्या कृष्ण पर कोई दबाव है?
प्र: नहीं।
आचार्य: दबाव किस पर है सारा? बड़ा ताकतवर और हट्टा-कट्टा कौन है?
प्र: पहलवान।
आचार्य: बड़ा-सा कौन दिख रहा है?
प्र: पहलवान।
आचार्य: तो जीतना किसके लिए आवश्यक है, कि, "मुझे तो जीतना ही पड़ेगा"?
प्र: पहलवान के लिए।
आचार्य: तो हारेगा कौन?
प्र: पहलवान।
आचार्य: कृष्ण तो खेल सकते हैं, और वो खेले। और इसी कारण जीत गए। जो ही खेलेगा वो जीतेगा, और जो ही जीतने की ख्वाहिश में लगा रहेगा, उसका हारना तय है। इसमें कोई बड़ा राज़ नहीं है। ये बिलकुल मत कहिएगा कि कृष्ण चमत्कारी थे इसलिए जीते। थोड़ा-सा गीता वाले कृष्ण को इस स्थिति में लाना पड़ेगा, और तब आप बिलकुल समझ जाएँगे कि कृष्ण क्यों जीते।
गीता भी एक युद्ध की स्थिति में ही कही गई है, और ये भी युद्ध की ही स्थिति है। तो बस गीता वाले कृष्ण को यहाँ लाकर देख लीजिए, आप समझ जाएँगे कि कृष्ण यहाँ क्यों जीते होंगे। उन्होंने पहलवानों से भी मज़े ले लिए होंगे, उन्हें दौड़ा लिया होगा। मैं कृष्ण को मुस्कुराता हुआ देख सकता हूँ और पहलवानों को झल्लाता हुआ देख सकता हूँ। साफ़-साफ़ देख सकता हूँ कि क्या हो रहा होगा। पहलवान अपनी ही ताकत के बोझ तले मर गए, पहलवान अपनी ही ऊर्जा से हार गए। और कृष्ण हैं हल्के, बिलकुल हल्के।
असल में आप जब भी युद्ध के लिए अपनी ताकत तैयार करते हो, उस ताकत का हमेशा एक लक्ष्य होता है। आपने पहले ही कुछ अपेक्षा कर ली होती है कि, "जब मैं इस ताकत का प्रयोग, उस तरीके से करूँगा, तो लक्ष्य की ऐसी प्रतिक्रिया होगी।" और अगर उस लक्ष्य की वैसी प्रतिक्रिया न हो, तो आपकी ताकत पूरी बेकार हो जाती है। क्योंकि वो ताकत आधारित ही इसी बात पर थी कि, “मैं ऐसा करूँगा तो सामने वाला वैसा करेगा।” और अगर सामने वाला वैसा न करे, तो आपकी पूरी-की-पूरी ताकत धरी-की-धरी रह जाती है।
तो दृश्य कुछ ऐसा होगा कि पहलवान कृष्ण को उकसा रहा है। और कृष्ण क्या कर रहे हैं? मज़े ले रहे हैं। पहलवान गाली दे रहा है, और कृष्ण शांत हैं, उस गाली पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं। गाली की ताकत भी तभी है जब सामने वाला तुम्हारी गाली से झल्ला जाए। और अगर वो न झल्लाए तो तुम्हारी गाली बेकार पड़ जाती है। बेकार ही नहीं पड़ जाती, तुम्हारी सारी ऊर्जा व्यर्थ जाती है। जितनी ऊर्जा गाली का संचय करने में और देने में लगाई थी, वो सारी ऊर्जा व्यर्थ गई।
पहलवान की ऊर्जा इस बात पर निर्भर है कि कभी तो कृष्ण पलट कर वार करें। उसने अपनी तरीके बना रखे हैं कि, "जब मुझे कोई मारने आएगा, तो मैं उसे ऐसे पकड़ कर पटक दूँगा।" और अगर कोई मारने ही न आए, तो पहलवान क्या करेगा? उसकी सारी ऊर्जा, उसकी लड़ने की सारी योजना व्यर्थ जाएगी। और इसी ऊर्जा के व्यर्थ होने के कारण वो हरेगा।
तो कृष्ण इसीलिए नहीं जीते कि जीतना चाहते थे, बल्कि इसीलिए जीते कि युद्ध को भी खेल समझा।
देखिए, जिनको हम कई बार चमत्कारी घटनाएँ कह कर छोड़ देते हैं, इन सब में चमत्कार जैसा कुछ होता नहीं है। थोड़ा ठीक से देखेंगे तो बात बिलकुल स्पष्ट हो जाएगी।