सन्त पुरुष की आरसी, सन्तों की ही देह|
लखा जो चाहे अलख को, उन्हीं में लख लेह||
~संत कबीर
वक्ता: संत कौन है? संत पुरुष की आरसी, सन्तों की ही देह, लखा जो चाहे अलख को, उन्हीं में लख जे लेह| संत कौन है? संत वो है जिसने अपनी हर विशिष्ठता खो दी है| संत वो है जो अब अति साधारण हो गया है, जिसमे कुछ विशेष नहीं बचा है|
जो निर्विशेष हो गया, वो ही संत है|
निर्विशेष हो जाने का मतलब है, नमक का समुद्र में पूरी तरह से घुल जाना| निर्विशेष हो जाने का मतलब है बादल का आसमान में पूरे तरीके से छंट जाना| उसकी अपनी कोई सत्ता अब बची नहीं| तो वो क्या है अब? उसकी अपनी कोई सत्ता नहीं है, उसका अपना कोई व्यक्तिगत अस्तित्व नहीं है, वही संत है| जिसका कुछ भी अब व्यक्तिगत नहीं रहा, सो संत|
न वहाँ पर्सन मिलेगा, ना पर्सनेलिटी मिलेगी| व्यक्तिपरक कुछ मिलेगा ही नहीं, वही संत है| कुछ विशेष नहीं मिलेगा, कोई ऐसा गुण-धर्म नहीं मिलेगा जिसको इंगित कर के कह सको कि ये इनकी ख़ास पहचान है| कुछ उसमे ख़ास होगा ही नहीं, कोई उसकी विशिष्ट लक्षणा पाओगे ही नहीं| कभी ऐसा भी होगा, कभी वैसा भी होगा, निरंतर परिवर्तनीय| जिन सब बातों को हम बड़प्पन का, विशिष्टता का सूचक मानते हैं, बड़ी संभावना है कि वो संत में दिखाई ही न दे|
संत जब अपना आपा खो देता है, अपनी सत्ता खो देता है, तो उसके माध्यम से उसी परम की, पूर्ण की सत्ता अपने आप को प्रकट करती है| सीधे-सीधे देख पाने का कोई तरीका ही नहीं है परम को, क्योंकि वो तो दृष्टियों से परे किसी आयाम में है, न आँखों को दिखाई देगा, न कानों को सुनाई देगा, न हाथ उसे स्पर्श कर पाएँगे, न नाक से उसे सूंघ सकते हो, न मन से उसका विचार कर सकते हो, कोई तरीका ही नहीं है उसे जान पाने का|
संत के रूप से ‘वो’ प्रकट होता है| जानना है वो कैसा दिखता है तो नदियों को, पेड़ो को, पहाड़ों को और पशुओ को देखो| और अगर मनुष्य रूप में देखना है कि वो कैसा दिखेगा तो संतो को देखो या बच्चे को देखो, एक ही बात है| वो कैसा है यदि ये जानना है तो नदियों, पत्थरों, पहाड़ो और पशुओं को देखो| और यदि व्यक्ति में, मनुष्य रुप में उसकी सत्ता के दर्शन करने हैं तो या तो बच्चे को देखो या तो संत को देखो|
और याद रखियेगा, जब मैं संत कह रहा हूँ तो उसकी बात कर रहा हूँ जो निर्विशेष है| जो संत मुकुट लगा कर के चले, जो अपनी विशिष्टता अपने साथ बाँध कर के चले वो संत हो ही नहीं सकता| संत है ही वही, जैसा हमने कहा जो समुद्र में नमक की तरह घुल-मिल गया है| लेकिन देखने वाले की दृष्टि भी मजेदार है, क्योंकि हम महत्व ही विशिष्टता को देते हैं इसीलिए जो साधारण, सीधा, सरल आदमी है उसको भी हम इस रूप में स्वीकार नहीं करेंगे कि वो साधारण, सीधा और सरल है| हमारे अहंकार को ठेस लगेगी|
अगर वो साधारण है और सीधा है और सरल है तो फिर उसमें ऐसा क्या है जो तुम झुके जा रहे हो उसके सामने? तो हम क्या कहेंगे? हम कहेंगे “उनमे कुछ विशिष्टता है, कुछ ख़ास दैवीय गुण हैं|” ये बात हम संत के समक्ष तो नहीं कह सकते, वो नकार ही देगा| पर उसके पीछे कहेंगे, उसकी मृत्यु के बाद कहेंगे, उसके बारे में किस्से जोड़ेंगे, कहानियाँ बना लेंगे, उसके नाम पे पंथ चला देंगे, हजार कहानियाँ प्रचलित कर देंगे| हमे बड़ा झटका लग जाएगा जब संत सामने आएगा क्योंकि वो वैसा बिलकुल होगा ही नहीं जैसा हम सोचते हैं कि उसे होना चाहिए|
हमने तो जो चित्र भी बनाए हैं, जो छवियाँ भी बनाई ही हैं संतो की, बुद्धों की, पक्का समझिए की वो झूठी है| यदि हम समझ ही सकते कि संत कैसा होगा तो हम,हम रहते? हम महत्व देना चाहते हैं, और हम महत्व किसको देते हैं? हमारा मन कैसा है? हम महत्व किसको देते हैं? हम महत्व देते हैं आकार को, हम महत्व देते हैं बड़े होने को, हम महत्व देते हैं उसको, जो हम पर हावी हो सके, हम महत्व देते हैं रूप को, हम महत्व देते हैं ताकत को| तो इसीलिए हम संतो को भी उसी रूप में बना देते हैं|
जो वास्तविक संत है, वो तो हमारे सामने से गुजर जाएगा और हमें पता भी नहीं चलेगा| ये आँखे नहीं पहचान पाएँगी उसको|
श्रोता१: बहुत मुश्किल है निसर्गदत्त महाराज की इमेज बनाना, उनकी फोटो को देख कर के, यदि आप परिचित न हो तो उन्हें संत जानना|
वक्ता: संत जान पाना तो छोड़िये, जब उनकी, अब आज कल टेक्नोलॉजी है तो ये सुविधा हो गई है की उनका सीधा-सीधा चित्र सामने आ जाता है| जब उनका सीधा चित्र सामने आता है, तो कई लोग उन्हें पढ़ने से इनकार कर देते हैं, कि, “ऐसे को कौन पढ़ेगा, इनकी शक्ल तो देखो|” अगर संत की शक्ल वैसी है, और तुम्हारी शक्ल उससे भिन्न है तो अब दो तरीके हैं इस अवस्था को बताने के| पहला, तुम कहो, “संत की ही शक्ल बेकार है|” और दूसरा तुम कहो, “भाई! वो संत है और यदि संत ऐसा दिखता है और मैं संत से भिन्न दिखता हूँ, तो कुरूप कौन हुआ? मैं|”
पर ये बोलते अहंकार को बड़ी पीड़ा होगी, “मेरी आँखों में, उसकी आँखों जैसी कोई सरलता नहीं| उसका पूरा चेहरा शांत है, और मेरे पूरे चेहरे पर तनाव है| वो आत्म केन्द्रित है, और मेरे पूरे चेहरे पर आक्रमण की कहानी लिखी है|” पर नहीं, हम कहेंगे, “अरे ये कैसा दिख रहा है, सुंदर सा होना चाहिए, भव्य सा होना चाहिए, ललाट से रौशनी निकलनी चाहिए| रूप-रंग कुछ अच्छा हो, गोरा-गोरा हो, तब ना संत होगा| तब हमारी इच्छा होगी कि उसके पाँव पड़ें| तो हम संत को भी संत तब मानेंगे जब वो हमारे पैमानों पर खरा उतरता हो, “मैं तय करूँगा कि ये सब है, और इन-इन शर्तो को पूरा करो तब तो तुम संत हुए|”
संत तो फिर भी छोटा है, हम परम के साथ भी यही शर्तें लगाते हैं, “भाई देखिए, ये हमारी चेक लिस्ट है और हमारे मुताबिक परम वो होता है, जो इन सब को…”
श्रोता२: पूरा कर दे|
वक्ता: पूरा कर दे| आप पूरा कर दें तो ठीक है नहीं तो…
श्रोता२: और सौ प्रतिशत|
वक्ता: दिक्कत है, फिर हम आपको नहीं मानेंगे|
श्रोता२: कहीं पर फिर ये चालाक मन अपने आप को सुविधा नहीं देता है, जब वो संत को दैवीय श्रेणी में रख देता है कि..
वक्ता: आसाधारण बना दो, इसको असाधारण बना दो| संत कहीं से असाधारण नहीं होता, संत के पास कहीं से ये ताकत नहीं होती कि वो मरे हुओं को जिन्दा कर दे| संत के पास कहीं से ये ताकत नहीं होती है की वो छ: सौ, आठ सौ साल जी जाए| सच तो ये है कि वो फूल की तरह नाजुक होता है| आप अगर अस्सी साल जीते होंगे तो वो पचास ही साल में मर जाएगा| आप अगर अस्सी साल जीते हो तो संत आपसे कम ही जियेगा, ये पक्का मानिए| क्योंकी वो आपकी तरह जुगाड़ करके नहीं रखेगा उम्र लम्बी करने का| उसकी जब मौत आएगी, वो स्वीकार कर लेगा, वो वर्ल्ड क्लास कैंसर केयर में नहीं जाएगा|
वो कहेगा, “अब हो गया तो मर जाते हैं, ठीक, ख़त्म|” संत को जिस दिन कैंसर होगा, वो कहेगा, “ठीक, जा रहा हूँ| मुझे कोई शौक नहीं है वर्ल्ड क्लास कैंसर केयर की सुविधा लेने का”
श्रोता२: ये किया था हमने कबीर का ‘फुलवा वाला…
वक्ता: हाँ| तो वो जैसे अस्तित्व में फूल होता है ना वैसे ही होगा वो, मिटने को हमेशा तैयार| पर हमारी जो कहानियाँ है संतो की वो है कि जो कभी मिटे ही न| तो वो एक आज-कल के संत थे वो बैठे हुए प्रवचन दे रहे हैं, कहे, “हमारी आठ सौ साल की उम्र हो गयी पर आज तक हमे कभी कोई बीमारी नही हुई|” तो वहाँ पर एक पहुँचा हुआ था पत्रकार उसने कहा “थोडा ज्यादा लग रहा है आठ सौ साल, इनकी शक्ल देख कर के ये पचास, साठ से ज्यादा के नहीं लगते|” तो वो पीछे गया, तो वहाँ उनका एक चेला बैठा हुआ था, उसको बुलाता है, बोलता है, “ये बाबा जी हैं, ये अपनी उम्र आठ सौ साल बता रहे है हैं, थोड़ी ज्यादा नहीं है?” बोलता है “हो सकती है, क्योंकि मैं इनके पास सिर्फ पाँच सौ साल से हूँ| तो बाँकी तीन सौ साल का मुझे पता नहीं|” (सब हँसते हैं)
वो बहुत साधारण जीव होगा| आप उसको बेवकूफ बना सकते हो बड़ी आसानी से, उसके पास कोई जादुई शक्तियाँ नहीं होंगी| उसको तो बेवकूफ बनाना बहुत आसान होगा| हाँ, इतना ही है कि आप उसे बेवकूफ बना लोगे वो उसके बाद भी हँसेगा| आप उसे बना लो बेवकूफ, बन भी जाएगा पर उसके बाद भी वो हँस लेगा| बस इतना सा ही अंतर है, बहुत छोटा सा, महीन|
श्रोता३: फ्यू लाइट इयर्स (कुछ प्रकाश वर्ष)| (सब हँसते हैं)
वक्ता: समझ रहे हो? आप सोचो कि वो शरीर का बड़ा पुष्ट होगा और… कुछ भी नहीं जानवरों जैसा होगा, साधारण होंगी उसकी काया, बहुत साधारण| आप सोचे कि उसके चेहरे से नूर टपकता होगा और एक वृत्त होगा जिससे प्रकाश उठता होगा| वो ब्यूटी पार्लर में उठता है, संत के नहीं उठता| या फिर देह से उसकी बड़ी खुशबू उठती होगी| अस्तित्व में जिसकी जो गंध है रहती है, उसकी भी| नहीं उसके नहीं कोई खुशबू उठती है|
कुल मिला-जुला के संत में वो सब कुछ है जो आपको निराश कर सकता है| न वो सुंदर दिखता है, न वो लंबा जीता है, न उसमे कोई चालाकी है, न वो आपको कुछ दे सकता है| तो आखिरी बात ये है की आप के किसी काम का है नहीं| कहानियाँ उसकी काम की हैं, मनोरंजन के लिए| पर वास्तुतः वो किसी काम का है नहीं आपके| ठीक वैसे ही जैसे परम किसी काम का है नहीं आपके, ठीक वैसे ही जैसे परम आपके किसी काम का नहीं है|
कल मैं किसी से कह रहा था कि जाओ और देखो भगवान को, तो ताज्जुब में मत पड़ जाना अगर वहाँ किसी कुत्ते को देखो| बहुत ज्यादा संभावना है इस बात की, कि भगवान एक कुत्ता हो| इंसान नहीं होगा ये मैं गारंटी दे रहा हूँ| कुछ भी और हो सकता है, गधा, घोड़ा, लकड़ी, पत्थर, कुत्ता, पर इंसान के रूप में नहीं दिखाई देगा| अब ये बात बड़ी बुरी लगेगी – कुत्ता| संत भी ऐसे ही है, बड़ा बुरा लगेगा उसे देख के| आपके सारे धार्मिक लोगो के लिए गहनतम निराशा का क्षण वो होगा जब उनका ईश्वर से साक्षात्कार हो जाए| कहेंगे, “इस फुद्दू के लिए हमने इतनी आरतियाँ करी और इतनी पूजा और इतनी नमाज़ें पढ़ी| ये तो बुद्धू है, कुछ नहीं आता-जाता इसे, इससे ज्यादा चालाक तो हम हैं|”
वो तो बेचारा सीधा-साधा होगा गवैये की तरह, बे पढ़ा लिखा| पक्का समझ लीजिए
ईश्वर परम बे पढ़ा-लिखा है, एकदम अनाड़ी है| जो एक दम अनाड़ी हो, वही ईश्वर है| ब्रह्म को कुछ नहीं आता-जाता, ब्रह्म महा अज्ञानी है – बिलकुल रॉ, अनछुआ|
बल्कि आपको देखेगा तो उसे ताज्जुब होगा, कहेगा, “आप बताइए माहराज, आप बहुत ज्ञानी लगते हैं|” आपके सामने हाथ जोड़ लेगा| उसके पास वास्तव में कोई ज्ञान नहीं है, आपकी जितनी छवियाँ है परम की वो बड़ी झूठी छवियाँ हैं| वो आपके अहंकार से निकली हैं| आप कहते हो “ये कर देता और वो कर देता और ये बना देता और ऐसा कर देता, वो कुछ नहीं कर देता, वो बहुत सीधा-साधा है| उसे कुछ करने से कोई प्रयोजन ही नहीं है| वो तो चुप-चाप शांत बैठा हुआ है, करने से प्रयोजन आपको है|
आप देखिए ना, जानने वालों ने उसके लिए कैसे शब्द प्रयुक्त किये हैं – निर्विकिल्प| निर्विकल्प समझते हैं? निर्विकल्प माने एक दम ही भोंदू| जिसको सोचना ही नहीं पड़ता या यूँ कहिये जिसके पास सोचने की क्षमता ही नहीं है, वो निर्विकल्प| तो वो जो परम है, वो परम भोंदू है| कई मंदिर जाना छोड़ देंगे अब, कहेंगे, “लै, ये भोंदू महाराज को प्रसाद चढ़ाते थे|” हमारी जो छवि भी है ईश्वर की वो ऐसी ही है कि, “वो बड़ा कुटिल है| वो ये कर देता और वो कर देता|” हम मक्कार हैं और वो हमसे ज्यादा बड़ा मक्कार है, ऐसी हमारी छवि है| अब मक्कार का ईश्वर कैसा होगा?
श्रोता२: परम|
वक्ता: परम मक्कार| (सब हँसते हैं)
श्रोता३: ये उठाया त्रिशूल और धाड़|
वक्ता: हमारे भीतर हिंसा भरी है, तो हमारा जो ईश्वर है वो परम हिंसक है| अभी मार देगा|
श्रोता३: ये गर्दन काट देगा – धाड़-धाड़|
वक्ता: हमे बदला लेने में बड़ी रूचि रहती है, तो हमारा ईश्वर भी बड़ा बदला लेता है| वो बिलकुल लिखे रहता है कि कौन कहाँ पर गड़बड़ कर रहा है और फिर बुला के चांटा ही चांटा मारता है| (सब जोर-जोर से हँसते हैं)
वो ऐसा है ही नहीं, उसके पास कोई चित्रगुप्त नहीं है जो हिसाब लिखता हो|
वो तो बड़ा भुलक्कड़ है, उसके पास यादाश्त भी नहीं है| पक्का समझ लीजिए कि उसके पास कोई स्मृति नहीं है| उसको पिछले एक क्षण का भी नहीं याद रहता, उसके पास सिर्फ वर्तमान है| वही वर्तमान है|
अच्छा नहीं लग रहा है ये सब सुन के? “बिल्कुल ही नालायक ईश्वर है ये तो और हम इससे उम्मीद रखते थे, बताओ| तभी हमारी प्रथानएं सुनी नहीं जाती थी|” सुनेगा भी कैसे? उसके कान ही नहीं है, अब ये आगे की बात है| न आँख है, न कान है, कुछ नहीं है| कोई इन्द्रियाँ ही नहीं है उसके| सुनने सुनाने में उसकी कोई उत्सुकता ही नहीं है| और कुछ-कुछ वैसा ही हो जाता है संत भी, जिसे न दिखाई पड़ता है, न सुनाई पड़ता है| अब वो आपके किस काम का, बताइये?
अब ये हैं आज-कल के लड़के, इनसे पूछा जाए कि कैसा होगा परम? “तो कहेंगे बैठा होगा, लेटेस्ट सॉफ्टवेर पे काम करता होगा, एक्सेल पे मैक्रोस लिख देगा|”
श्रोता२: पहले ईश्वर को बनाते थे कलम ले के हाथ में, अब कंप्यूटर ले कर आ रहे हैं|
वक्ता: और तो और छोड़ दो, उस बेचारे का घर भी नहीं है| उसके लिए कहने वालों ने कहा है “अनिकेत”, वो इतना बेसहारा है| अब आप बताइए जिसके पास अपना घर नहीं है, उसके सामने आप जा के कहते हो “मालिक छत दे दो, आसरा दे दो|” जिसके पास अपना घर नहीं है उसके पास हम जा कर के घर की फरमाइश करते हैं| और वो बेचारा बड़ा अकेला भी है, वो मात्र है, वो केवल है|
श्रोता२: असंग|
वक्ता: असंग है| और आप उसके पास जा के कहते हो, “मेरी जिंदगी सूनी है एक बीवी दे दो|” उसके अपने ही पास नहीं है, आपको कैसे देगा? पहले ये तो देख लो उसके पास है? उसके पास नहीं है तो तुम्हें कैसे देगा? बड़ी खौफ़नाक किस्म की अब छवि सामने आ रही है, एक ऐसा आदमी जिसके पास घर नहीं है|
न घर है, न बीवी है, न दौलत है, न बुद्धि है, न स्मृति है, न कान है, न आँख है – ये है परम|
श्रोता४: सबसे पहला अवतार भी शूकर अवतार हुआ था| सूअर हुआ था सबसे पहले| उसकी कहीं पूजा नहीं की जाती, लेकिन भगवान का पहला अवतार हुआ है|
वक्ता: उसकी अवतार-ववतार लेने में भी कोई रूचि नहीं है| आपके किस्से हैं, आप सौ किस्से बनाईये कि सूअर बन के आया और ये बन के आया और वो बन के आया| बैक्टीरिया अवतार तो नहीं सुना आज तक| और न ये सुना की उसने अवतार लिया था शुक्र ग्रह पे, और मंगल ग्रह पे लिया, सारे अवतार पृथ्वी पर ही लिए जाते हैं? या पृथ्वी से कुछ खास लगाव है ब्रह्म का? सब आदमी की कल्पनाएँ हैं, उन्हीं कल्पनाओं के अनुसार हमने सब रच रखा है| जो अकल्पनीय है उसको भी कल्पना के भीतर ला कर के छोड़ते हैं| और बड़ा आनंद आता है हमें उसमे, कि माखन चटा दिया|
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