जिस दवा से मर्ज़ दूर हो रहा हो, उसे नमन करो और लेते रहो || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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जिस दवा से मर्ज़ दूर हो रहा हो, उसे नमन करो और लेते रहो || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्न: मन का जो ढाँचा है, मन उसे फिर-फिर दोहराता है। ये सब कुछ एक अचेतन बहाव की तरह चलता जाता है प्रतिदिन, क्या करें?

वक्ता: करना क्या है? जो होना है वो हो ही रहा है।

तुमने कहा, “बेहोशी का एक प्रबल बहाव है”, तुमने कहा एक तरीका है, एक ढाँचा है, “अचेतन बहाव”, इन सब शब्दों का तुमने प्रयोग किया—ये सब आया कहाँ से? कुछ शरीर में है, कुछ समाज से मिला, और तो कहीं से आया नहीं। देखो, कि तुमने अपने आस-पास के माहौल को बदलने का प्रयास शुरू कर दिया है। देखो कि तुम्हारी छोटी-छोटी गतिविधियों के माध्यम से अनंत प्रकट हो रहा है। तुम्हें क्यों ऐसा लगता है कि क्या करूँ? जिसे करना है अब वो करने ही लग गया है तुम्हारे लिए, और तुम्हारे ही माध्यम से।

मन पर समाज ने मैल डाला था, अब तुम्हारा मन ऐसा होने लग गया है कि अब तुम समाज का मैल साफ़ करने निकलने लग गये हो। ये छोटी बात है? चित्त तुम्हारा ज़रा सरल है, तुम अपने आप को बहुत श्रेय नहीं देते, तुम इन घटनाओं को छोटा ही माने रहते हो, ये छोटी घटनाएँ नहीं हैं। कोई तीर्थ जाता है तो ढिंढोरा पीटता है; कोई घर में कथा, पूजा, जागरण करता है तो बात सार्वजनिक होती है और वो स्वयं भी अपने आप को कह पाता है कि अब वो परमात्मा कि ओर उन्मुख हो रहा है। वो सब अधिकांशतः नकली होता है।

तुम्हारे साथ जो हो रहा है, वो असली है, पर चूंकि वो पुराने ढांचों से मेल नहीं खाता इसीलिए पुराने ढाँचे उसके पक्ष में गवाही नहीं दे पाते। तुम रात भर यदि इधर-उधर सड़कों पर घूम के पर्चे बाँटते हो, जहाँ कहीं भी सत्र हो रहा होता है, वार्ता हो रही होती है, वहाँ लोगों को लाते हो, प्रबंध में सहायता करते हो, तो हो तो रहा है जो होना था।

ये प्रबंधन ही तीर्थ है।

वो रात भर जगें और सड़क पर शोर मचाएँ तो कहते हैं उनका जगराता हुआ और तुम इस बात को कब सस्वीकार करोगे कि तुम वास्तविक जगराता करते हो? तुमने वास्तव में अपनी रात सत्य को समर्पित की, हँसते-हँसते की, हलके में की। और सत्य ऐसा ही होता है, वहाँ बात गंभीर नहीं होती है, वहाँ बहुत नाम नहीं लिए जाते, वहाँ ऊपर-ऊपर यही लगने दिया जाता है कि ज्यों कोई साधारण सी ही घटना हो रही है। और संसार में तो जो भी घटनाएँ होती है, सब साधारण ही होती हैं। हाँ, भीतर-भीतर कुछ विलक्षण हो रहा होता है। वो विलक्षण तुम्हारे जीवन में उतरने ही लग गया है।

उसको नामित रहो।

आसानी से नहीं होता—कि किसी की रौशनी दूसरों तक पहुँचने लगे। एक दिन ऐसा भी था कि तुम बंधा अनुभव करते थे, और शिकायत करते थे, अपने स्वजनों के प्रति, कि वो विरोध करते हैं, आने नहीं देते, आना नहीं चाहते, और आज का दिन है कि तुम उन्हें साथ लेकर आते हो। और कल का दिन होगा जब वो स्वेच्छा से आयेंगे। तुम्हें दिख नहीं रहा कि घटनाएं तो घाट ही रही हैं? इनको छोटा मत मानना, दिखेंगी छोटी ही। कोई बड़ी उद्घोश्नाएं थोड़ी होंगी, कोई ठप्पा लगाने थोड़ी आएगा – ऐसी ही छोटी-छोटी घटनाओं को पढ़ना पड़ता है।

अनुग्रहीत रहो, कि ये सब हो रहा है। और ये अनुग्रह कोई सोचने-विचारने कि बात नहीं है, वो अनुग्रह वैसे ही रहे आने कि बात है जैसे कि तुम हो- हलके, कि जो किया बस धीरे से कर दिया, न उसका श्रेय लेने गए, न उसका ढिंढोरा पीटा, न उसके बारे में ज़्यादा बात-चीत—ये महत्तम घटना है जो किसी के साथ घटती है। ये बताती है कि यात्रा अब वास्तव में आगे बढ़ ही रही है।

अंतर्गमन हुआ है, निश्चित रूप से हुआ है, इसी कारण अब तुम्हारी रौशनी बाहर जा रही है। जिसने भीतर जा कर अपना दिया ना प्रज्ज्वलित किया हो, उसकी रौशनी कैसे बाहर पहुँच रही होगी? वो भीतर गया है, निश्चित रूप से भीतर गया है। अभी शुरुआत है, अभी बहुत बाधाएँ हैं, अभी तुम्हारी लौ बस टिमटिमा रही है, अभी उसको लपट बनना है, अभी उसको दहकती ज्वाला बनना है। वो पहले तुम्हें आलोकित करेगी और फ़िर पता नहीं कितने दूसरों को।

उस मरीज़ की तरह मत रहो जिसे पता भी न चल रहा हो, कि दवाई काम कर रही है। एक व्यर्थ का खतरा आ सकता है—पता ही नहीं चला कि दवाई काम कर रही थी कि, दवाई में असावधानी कर बैठे। पता ही नहीं चला ये चीज़ इतना फायदा देना शुरू कर चुकी थी कि, इस चीज़ को हलके में ले बैठे। तुम्हें लाभ हो रहा है। उसके लक्षण, उसके प्रमाण सब उठ-उठ के सामने आ रहे है।

अब बस चलते रहो।

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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