जिनके पास कृष्ण नहीं || आचार्य प्रशांत (2022)

Acharya Prashant

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जिनके पास कृष्ण नहीं || आचार्य प्रशांत (2022)

प्रश्नकर्ता१: प्रणाम आचार्य जी। अर्जुन हम सब हैं पर कृष्ण नहीं है सबके पास। साथ ही साथ यह भी आभास हुआ कि यदि जीवन की तड़प कृष्ण के ही माध्यम से मिटेगी तो फिर कृष्ण के पास जाने का चुनाव क्यों करना पड़ता है कुछ लोगों को? यह मेंडेटरी क्यों नहीं हो सकता? यह च्वॉइस क्यों बनी रहती है? और जो लोग कृष्ण को नहीं चुनते है वह संतुष्ट जीवन कैसे बिता लेते हैं? उनको उनकी बेचैनी कैसे स्वीकार हो जाती है?

आचार्य प्रशांत: नहीं, बेचैनी स्वीकार नहीं हो जाती। बेचैनी से मिटने के लिए नए-नए उपाय आज़माते रहते हैं। स्वीकार नहीं कर लेते कि हम बेचैन हैं और यह स्थिति ठीक है, हमने स्वीकार ली। वह फिर अपनी बेचैनी मिटाने के लिए और तरह-तरह की आज़माइशें करते हैं। किसी के पास कुछ है, किसी के पास कुछ है। और सब कुछ विफ़ल हो गया तो फिर कोई और तरीक़ा आज़मा लो; जीवन भर प्रयोग करते रहो; इधर से उधर अनुभव लेते रहो; यह सब चलता रहता है।

दूसरी बात बोली कि अनिवार्य क्यों नहीं किया जाता, मेंडेटरी कौन करेगा? तुम्हारे लिए अनिवार्य थोड़ी था यह प्रश्न पूछना?

देखो जिस दिन हम पैदा होते हैं न, हमें एक बहुत घातक चीज़ मिल जाती है। आज के सत्र में भी मैंने बोला। क्या? चुनाव का विकल्प।

कोई यहाँ किसी के लिए कुछ अनिवार्य नहीं कर सकता। अनिवार्यता का तो यह मतलब होता है कि विकल्प अब शेष नहीं है। अनिवार्य माने जिसका कोई निवारण नहीं, जिससे तुम बच नहीं सकते, वह अनिवार्य है। अनिवार्य इस अस्तित्व में कुछ है ही नहीं। साँस लेना तक अनिवार्य नहीं है। यहाँ तुम कुछ भी कर लो, कोई तुम्हें रोकने आने वाला नहीं। कर्मफल मिलता है वह अपनी जगह है। लेकिन अनिवार्य यहाँ कुछ भी नहीं है। हर पल में, हर कर्म में आपके पास चुनाव का अधिकार रहता ही है। यही आपका सौभाग्य है और यही बड़े से बड़ा दुर्भाग्य है।

और देखिये कि यह बात कितनी ज़्यादा सशक्तिकरण की है। अब उस शक्ति का किस दिशा में आप प्रयोग करते हो वह आप जानो।

वेदांत आपको कठपुतली नहीं बना देता, दैवीय ताकतों के हाथ की। वेदांत भाग्यवादी नहीं है। वेदांत नहीं कहता कि हम तो मोहरें हैं बस और चालें शतरंज की चल कोई और रहा है।

भारतीय समाज में और दुनिया में अन्य जगहों पर भी, धर्म के क्षेत्र में ऐसी धारणा बहुत पाई जाती है। कि धर्म का मतलब है किसी ईश्वर पर विश्वास।

और वह ईश्वर कौन है? जिसकी रज़ा के बगैर पंछी पर नहीं मारता और पत्ता भी नहीं खड़कता। है न? ऐसी बातें आपने खूब सुनी होंगी कि भई ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध तो कभी कुछ हो ही नहीं सकता है। ऐसी बातें सुनी हैं न? दुनिया भर में ऐसी बातें मानी जाती हैं। सब धार्मिक धाराओं में इस तरह की बातें होती हैं — कि कोई ईश्वर है जो हमारे सब कर्मों का संचालन कर रहा है; ईश्वर है जो सब कुछ तय करता है।

वेदांत में कोई ईश्वर नहीं होता। वेदांत में आप हैं और आपकी इच्छा है। आपकी इच्छा या तो सत्य-मुखी हो सकती है या सत्य-विपरीत हो सकती है। और सत्य की ओर जाना है या सत्य-विमुख हो जाना है, यह आपका चुनाव है। वेदांत बड़ी आपको शक्ति देता है। आपके हाथों में आपकी क़िस्मत रख दी है। अब जो करना है करो। और रख दी है माने, ऐसा कोई नहीं कि ऊपर से कोई भविष्यवाणी हुई है या फ़रमान आया है। ऐसा कुछ नहीं है कि उन्होंने आपके हाथ में रख दी है। तथ्य बताया है कि ऐसा ही है — यह जीवन है, जैसा जीना चाहो तुम्हारी इच्छा है।

हाँ, इतना ज़रूर है कि जो भी कुछ करते हो, वह कुछ बनकर करते हो। और जब गलत करते हो तो गलत बनकर करते हो। गलत होने का परिणाम अच्छा तो नहीं हो सकता। और वेदांत तो परिणाम को भी भविष्य में नहीं रखता। वेदांत कहता है परिणाम भी अभी है, अभी है। क्योंकि जो तुमने गलत करा वह गलत बन कर करा। लो, मिल गया न परिणाम? क्या मिल गया परिणाम? तुम गलत बन गए, यही तो परिणाम है।

तो आपके पास पूरी छूट है, पूरी स्वतंत्रता है, जो चाहिए आप करिए। लेकिन परिणाम तो भुगतना पड़ेगा। बल्कि यह परिणाम भी नहीं है। परिणाम से तो ऐसा लगता है कर्म के बाद परिणाम आता है। वह परिणाम से बहुत पहले की कोई बात है।

हाँ, बताने वालों ने, ऋषियों ने, इतना ज़रूर बताया है कि देखिए नियति तो आपकी यही है कि आप शांति की ओर बढ़ें। नियति तो यही है कि सत्य की ओर बढ़ें। तो हम आपको सलाह दे सकते हैं कि आप सही चुनाव करें। सलाह दे सकते हैं, अनिवार्य तो नहीं बना सकते। देखो किसी को सलाह देना और किसी के लिए कुछ, जैसा आपने कहा, मैंडेटरी कर देना, इन दोनों बातों में अंतर है न? तो ऋषि सलाह देते हैं, वो नियम नहीं बनाते। क्योंकि नियम बना भी दें तो नियम चलेगा नहीं न।

आदमी का अहंकार इतना उच्छृंखल होता है कि वह कौन सा नियम मानता है। इतने धर्मों ने इतने नियम बना दिए, लोग मानते हैं क्या नियमों को? नियम आप बनाते रहो। आपके भीतर जो बंदर बैठा है वह सारे नियमों को तोड़ देगा।

तो ऋषि नियम बनाते ही नहीं हैं। वह कहते हैं कौन अपना ही अपमान करवाए नियम बना करके? तो नियम हम बनाएँगे ही नहीं। हम नियम बनाएँगे, लोग तोड़ देंगे। तो वो सलाह देते हैं। वो आपको बस सच्चाई बता देते हैं। फिर कहते हैं — देखो, आगे अब आपके ऊपर छोड़ते हैं; आप एक वयस्क हो, आप स्वयं एक सक्षम चेतना हो, अब आप स्वयं चुनाव कर लो; हमने आपको बता दिया, अब आप स्वयं चुनाव कर लो; हमने आपको बता दिया, यह जो सामने चीज़ रखी है, इसमें ज़हर है; अब इसको खाना है या नहीं खाना है, यह आपका चुनाव है। हाँ, यह हम आपको साफ़-साफ़ बता देंगे इसमें ज़हर है और अगर आप और पूछना चाहोगे तो हम यह भी बता देंगे कि ज़हर खाने से क्या-क्या आप पर आफतें आती हैं; यह सब भी बता देंगे; जितना चाहोगे बता देंगे; लेकिन खाना है या नहीं खाना है यह ज़हर, इसका निर्णय तो फिर भी अंततः आप ही करोगे।

प्र१: धन्यवाद।

प्र२: जब हम कृष्ण में लीन हो जाते हैं, तब समय मिट जाता है या हम मिट जाते हैं?

आचार्य: वह एक ही बात है दोनों। मैं विकल्प के बिना जीता नहीं। जिस ‘मैं’ को हम जानते हैं न, वह विकल्प की ही खुराक़ पर ज़िंदा रहता है; उसको विकल्प चाहिए। तभी तो निर्विकल्पता, च्वॉइसलेसनेस , उसके अंत के समान होती है। तो यह जो ‘मैं’ है, यह लगातार एक खोज में रहेगा, तलाश में रहेगा और इसके विकल्प ही इसका अस्तित्व है।

इससे आप एक बात और समझिएगा। विकल्पों का होना तभी तक है न जब एक सही विकल्प हो और एक गलत विकल्प हो? एक ही विकल्प बचे तो फिर कोई विकल्प नहीं बचता। विकल्प तभी तक कुछ अर्थ रखते हैं जब तक एक सही विकल्प हो और एक गलत विकल्प हो। अगर एक ही विकल्प बचा, मान लीजिये सही वाला, तो फिर हम कहें कोई विकल्प नहीं बचा। है न?

विकल्प कम से कम दो होने चाहिए — द्वैत। और हमने कहा ‘मैं’ के अस्तित्व के लिए विकल्पों का होना ज़रूरी है। और विकल्प होंगे कम-से-कम दो। तो माने ‘मैं’ के अस्तित्व के लिए गलत विकल्प का भी होना ज़रूरी है। माने ‘मैं’ अपने बचे रहने के लिए जो गलत चीज़ है उसको अपने जीवन से कभी जाने देगा नहीं। क्योंकि गलत विकल्प भी अगर चला गया तो ‘मैं’ मिट जाएगा। ‘मैं’ अपने बचे रहने के लिए सही विकल्प को भी अपने जीवन से कभी जाने देगा नहीं। क्योंकि सही भी अगर चला गया तो ‘मैं’ मिट जाएगा। तो ‘मैं’ का काम है सही-गलत की खिचड़ी पकाते रहना। कुछ गलत चाहिए, कुछ सही चाहिए, उनका द्वंद चलता रहे, उसमें ‘मैं’ जीवित रहता है। उसको ख़ुराक मिलती रहती है।

जैसे सिनेमा के पर्दे के सामने ‘मैं’ बैठ गया है। उसमें एक नायक है एक ख़लनायक है। वह आपस में लड़ाई कर रहे हैं। और इसमें मज़ा कौन ले रहा है? ‘मैं।’ वह बैठकर के पॉपकॉर्न खा रहा है नीचे। वह दो जो हैं, वह जब तक सामने पर्दे पर लड़ रहे हैं, तब तक ‘मैं’ रसमग्न है।

ऐसी कोई आपने आज तक देखी है पिक्चर जिसमें ख़लनायक न हो? या ऐसी कोई देखी जिसमें कोई नायक जैसा न हो? एक द्वंद चाहिए होता है ‘मैं’ को जीवित रहने के लिए; तभी तो मज़ा आता है। कभी धूप कभी छाँव, दोनो को बनाए रखता है वह।

और यह आप जानते ही हैं कि पिक्चर चलने के लिए एक अच्छा ख़लनायक कितना ज़रूरी है। अगर ख़लनायक एकदम फिसड्डी हो तो पिक्चर पिट जाती है। पिक्चर में मज़ा तभी है जब एक ज़बर्दस्त ख़लनायक को हम बनाए रखें। उस ख़लनायक में ‘मैं’ का निवेश है। ‘मैं’ ही उस ख़लनायक को पोषण दे करके, सहारा देकर के बनाए रखता है ताकि पिक्चर मज़ेदार रहे।

प्र२: अभी आचार्य जी, आपने एक चीज़ बताई कि सच रह गया तो भी अहम् चला जाएगा। अगर झूठ रह गया तो भी अहम् चला जाएगा, सच का विकल्प हट गया। वह स्थिति में झूठ, झूठ तो रहेगा; झूठ कैसे रहेगा? झूठ तो है ही नहीं।

आचार्य: अहम् क्या बोल कर रहता है? मैं कौन हूँ?

प्र२: मैं हूँ।

आचार्य: हाँ, मैं हूँ। माने मेरा होना सच है न! तभी तो मैं हूँ। अब सच अगर नहीं रहा तो अहम् क्या बोलेगा बेचारा? मैं नहीं हूँ? तो मिट गया न फिर!

मैं हूँ, माने क्या होता है? मैं सचमुच हूँ। मैं हूँ माने? मैं सचमुच हूँ। अब सच तो रहा नहीं, तो फिर हमको क्या बोलना पड़ेगा? मैं..

प्र: मैं झूठ हूँ।

आचार्य: मैं झूठ हूँ, मैं नहीं हूँ। तो मिट गया न?

प्र३: जो मैं रूम में था कुछ देर पहले और जैसी चीजें, दुनिया थी मेरी, उसमें ज़मीन-आसमान का अंतर है। तो फिर मैं कौन हूँ और चीज़ें क्या हैं?

आचार्य: क्या नहीं बदला? वही हो तुम। जो तुम अभी अपने रूम में थे, वह तो मिट गया। जो अभी तुम यहाँ हो, वह भी मिट जाएगा। क्या है जो नहीं बदलता, भले तुम अपने कमरे में हो, सो रहे हो, जग रहे हो, उठ रहे हो, खा रहे हो, सुन रहे हो। क्या है जो नहीं बदलता? वही हो तुम; बाकी सब तो अवस्थाएँ मात्र हैं।

जब रूम में थे, पूर्णत: संतुष्ट थे? अभी भी बैठे विचार कर रहे हो, पूर्णत: संतुष्ट हो? एक असंतुष्ट वृत्ति हो तुम, जिसको अपनी असंतुष्टि के अलग-अलग कारण मिलते रहते हैं पल-दर-पल। वह कारण बदलते रहते हैं, उन कारणों से जुड़ी हुई फिर अवस्थाएँ बदलती रहती हैं।

जो एक चीज़ नहीं बदलती, वह क्या है? असंतुष्टि। इसी को मैं बार-बार बोला करता हूँ, अपनेआप को अतृप्त चेतना जानो।

प्र३: और यह बात भी जो सुनी गई है, यह भी बदल जाएगी। यह भी, यह भी इसी….

आचार्य: इसी बात से असंतुष्ट हो न? देखो कारण एक और मिल गया असंतुष्टि का। गहरी नींद में भी होते हो, तो भी क्या मिट जाते हो?

कुछ ख़ोज रहे होते हो, इस कारण जगने को तैयार रहते हो। असंतुष्टि तो गहरी नींद में भी नहीं मिट रही। उसी असंतुष्टि का नाम जीवात्मा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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