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जिन्हें अकेलापन जकड़ता हो || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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जिन्हें अकेलापन जकड़ता हो || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, पिछले एक साल से आपको सुन रहा हूँ। आपने बताया था कि कोई भी चीज़ के लिए पूछो कि यह ज़रूरी है कि नहीं, अगर ज़रूरी नहीं है तो उसे हटा दो। मैंने यह करना शुरू किया, सब कुछ हटाने लगा जैसे पहले यूट्यूब पर घंटों कॉमेडी वीडियो देखता था, वह अब खत्म हो चुका है। यूट्यूब पर गाने कुछ भी नहीं सुनता हूँ क्योंकि उसकी ज़रूरत नहीं है। फेसबुक वगैरह उतना आवश्यक नहीं है।

अब जब सब हटा दिया, तो दो-तीन महीने से काफ़ी ज़्यादा अकेलापन महसूस हो रहा है।

आचार्य प्रशांत: जो हटाया है, उसके पास दोबारा चले जाओ।

प्र: लेकिन उससे कुछ फायदा नहीं होता।

आचार्य: फिर से और पास जाओ।

‘*लोनलीनेस*’ (अकेलापन) अपनेआप को बहुत होशियार समझती है। यह जो अकेलापन है, जो आंतरिक निर्जनता, तन्हाई है, यह सिर्फ़ यही नहीं कहती, “मैं परेशान हूँ”, ये यह भी कहती है, “मैं परेशानी का समाधान जानती हूँ।” बहुत होशियार समझती है अपनेआप को। यह कहती है, "अकेलापन दूर करने के लिए यहाँ जाओ, वहाँ जाओ।" जब बहुत शोर ही मचाने लगे यह, तो इसकी सलाह मान लो। यह जहाँ को भी भेज रही है, वहाँ चले जाओ। वहाँ जाओ, मुँह की खाओ, और परेशान हो, नाक कटाओ, मुँह काला करो, वापस आ जाओ। और कोई तरीक़ा नहीं है।

या तो इतनी उसमें विनम्रता होती या समझ होती कि वो उपदेश से मान जाती। पर उपदेश तो तुम ख़ूब ही देख रहे हो, और फिर भी वो अकेलापन, सूनापन मानता नहीं। वह कहता है, “चाहिए! चाहिए!” तो ऐसे में मैं कहा करता हूँ कि - "उसकी बात मान ही लो।" वह तुमसे कह रहा है, "जाओ कॉमेडी देखो, गाने देखो, सेक्स देखो", जो भी देखने को कह रहा है, वह तुम कर ही डालो। कर डालो, और फिर भीतर से छूटेगी भभगति हुई ग्लानि, ख़ुद ही समझ जाओगे कि समय बर्बाद किया। और फिर अगली बार जब यह अकेलापन आवाज़ देगा, तो इसकी आवाज़ क्षीण होगी। आवाज़ तब भी देगा, पर अब उसकी आवाज़ कमज़ोर होगी; तुम इतनी आसानी से उसकी आवाज़ पर विश्वास नहीं करोगे। और फिर उसके बाद और क्षीण होगी, और क्षीण होगी। फिर शनैः शनैः मिट जाएगी।

हम ऐसे ही हैं! जो उपलब्ध नहीं होता, वह और आकर्षक लगने लगता है।

इसीलिए मैं कभी कहता ही नहीं कि किसी भी चीज़ को आरंभ में ही अपने लिए पूर्णतया वर्जित कर लो। जो तुमने अपने लिए प्रण करके वर्जित कर लिया, वह तुम्हारे चित्त पर अब राज करेगा; वही-वही नाचेगा। तुम अपने द्वार सबके लिए खुले रखो, बस भीतर इतनी शुद्धता रखो कि अशुद्धि भीतर न आए। द्वार बिलकुल खुला रखो, लेकिन अंदर इतनी सफ़ाई रखो की मक्खी-मच्छर खुले द्वार से भी भीतर अंदर आएँ न।

पारंपरिक रूप से हमने आध्यात्मिक संयम को कुछ और समझा है। पारंपरिक रूप से धार्मिक अनुशासन यही रहा है कि अपने द्वार ही बंद कर लो। शपथ उठा लो कि — भोग की ओर नहीं जाना, विलास की ओर नहीं जाना, मनोरंजन की ओर नहीं जाना, स्त्री की ओर नहीं जाना, पुरुष की ओर नहीं जाना, धन की ओर नहीं जाना, आमोद-प्रमोद की ओर नहीं जाना, इंद्रियगत सुख की ओर नहीं जाना। पचास तरह की वर्जनाएँ लगा लो, द्वार बंद कर लो। यही रहा है न पारंपरिक अनुशासन? इस अनुशासन को सफलता नहीं मिलती, क्योंकि ये मन के चलन के विपरीत है। जिन्होंने ये अनुशासन दिया और अनुशासन को इस रूप में समझा — वर्जनामूलक बना दिया — वो ये जानते ही नहीं कि मन को जो चीज़ जितनी निषिद्ध होगी, वो चीज़ उसे उतनी ही आकर्षक हो जाएगी।

मैं थोड़ा दूसरी बात कहता हूँ। मैं कहता हूँ, "खिड़की-दरवाज़े सारे खोल दो और भीतर रहे राम की सुगंध।" और अब कहो “आ माया आ।” आमंत्रण दो उसे, "हम तुझे बुला रहे हैं — आ!" तुम ये नहीं कह रहे कि, "हमने अपने दरवाज़े तुझपर बंद कर दिए।" तुम उसे सक्रीय रूप से बुलाओ। तुम कहो, “तू आ! हिम्मत हो तो आ।” ख़ुद ही नहीं आएगी। और आएगी अंदर, तो तुम्हारी दासी बनकर आएगी।

जीवन के प्रति दरवाज़े बंद क्यों करने हैं? खुले रखो न। और भीतर इतनी निर्मलता, इतनी शुद्धता रखो, सत्य के प्रति इतना प्रेम रखो, कि असत्य स्वयं ही भीतर नहीं आए।

तुमने उसे नहीं रोका, वो स्वयं ही भीतर नहीं आया। उसके हाथ-पाँव काँप गए। बोला, "इतनी साफ़ जगह पर जाऊँगा, तो दम तोड़ दूँगा।" बिलकुल साफ़ हो घर, मक्खी आकर करेगी क्या अंदर? तुम तो कह रहे हो, "आ जा!," वो कह रही है, "अरे! छोड़िए न!"

कचरा पड़ोस में है। वो पड़ोस में जाएगी, तुम्हारे यहाँ आएगी ही नहीं। अब बादशाह हुए तुम। ये तो घर-घुसनु का लक्षण है कि — घर में घुस गए हैं और दरवाज़ा बंद कर लिया है — "कहीं कोई दोष-विकार आक्रमण न कर दे, कहीं माया अपहरण न कर ले जाए हमारा।" अरे, डरना क्या? खिड़की दरवाज़े सब खोल कर खुल्ला सोओ। उसको बोलो, “आ! तू भी साथ सो!”

"आई ही नहीं। हम तो प्रतीक्षा कर रहे थे।" अब न हुई बादशाहत! ये न हुई फ़कीरों, फक्कड़ों वाली बात। ये थोड़े ही न कि अपना कोट-धोती सब बाँध कर सोना। बत्तियाँ सब जला कर सोना।

"कॉमेडी ही तो है, क्या बिगाड़ लेगी? देखते हैं भाई! तुम हमें हँसाना चाहते हो? आओ हँसाओ! ये तो पता नहीं कि हम तुम्हारी बात पर हँसेंगे या नहीं, तुम पर ज़रूर हँसेंगे। तुम्हारी कला में तो ऐसा कुछ नहीं कि हमें हँसी आ जाए लेकिन तुम्हारी नादानी में ऐसा बहुत कुछ है कि हम हँस पड़ेंगे। हमारा बिगाड़ क्या लोगे तुम?"

प्र: आचार्य जी, अगर मैं कोई वीडियो या कुछ ऐसा देखूँगा जो आवश्यक नहीं है, तो वो तो मन की जगह को घेर लेगी न?

आचार्य: ये बात मन को समझा लो न!

उत्तम तो यही है कि तुम में इन चीज़ों के प्रति आकर्षण हो ही ना। पर अभी मैं उस स्थिति की बात कर रहा हूँ जिसमें ये चीज़ें तुम्हें बीच-बीच में आकर्षक लगती हैं। तुमने अपनी यही हालत बताई न, कि - "मैं इन चीज़ों से अपनेआप को दूर करता हूँ, पर जब दूर करता हूँ तो लोनली (अकेला) हो जाता हूँ।" तो मैं उस स्थिति के लिए उत्तर दे रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ कि ये बहुत ही खींचे, तो खिंच जाओ। जाओ इनकी ओर, लेकिन पूरी सजगता और सतर्कता के साथ। कहो, "अच्छा, अब बताओ! क्यों बुला रहे थे? दिखाओ, क्या दिखाना चाहते हो? हम देखेंगे।"

अगर तुमने वाकई निरपेक्ष होकर, सजगता के साथ देख लिया, तो अगली बार देखने का मन नहीं करेगा। एक बार देखोगे और कहोगे, "देख लिया श्रीमन! देख लिया आप क्या दिखाना चाहते थे। हमें आप बुरे नहीं लग रहे, हमें आप बस बोर कर रहे हो। हमें आपके पास नहीं आना, इसलिए नहीं कि आप बहुत बुरे हो और हमारा कुछ नुक़सान कर दोगे। हम आपके पास इसलिए नहीं आना चाहते क्योंकि आप हमें उबाते हो। कुछ नहीं है आपके पास ऐसा जिसमें जीवन हो, सत्य हो, उत्सव हो। ये मुर्दा हँसी है आपकी। ये झूठी हँसी है आपकी। ये हमें उबाऊ लगती है, बोर करती है। हमें वास्तव में मुस्कुराना है, हमें किसी कृष्ण की तरह मुस्कुराना है। हमें ये झूठे हँसी-ठहाकों से क्या मतलब?"

प्र: आचार्य जी, एक और प्रश्न है। मेडिटेशन करता हूँ, तो पूरा दिन अच्छा बीतता है जागरूकता में, परंतु उसका अगला ही दिन बेहोशी में चला जाता है। और ऐसा बार-बार हो रहा है।

आचार्य: ‘अच्छा’ से क्या तात्पर्य है तुम्हारा? तुम्हें कैसे पता कोई दिन ‘अच्छा’ बीता है?

प्र: वो दिन मैं बहुत ज़्यादा जाकरुक रहता हूँ, सेल्फ-ग्राउंडेड (स्वयं पर आधारित) रहता हूँ।

आचार्य: देखो, ‘अच्छे’ का परिणाम ‘बुरा’ नहीं हो सकता है। अच्छे पेड़ पर सड़ा हुआ फल नहीं लग सकता।

अच्छे दिन के बाद अनिवार्य रूप से अगर तुम्हारे पास बुरा दिन ही आ रहा है, तो उस अच्छे दिन में ही कोई खोट है। बुरे दिन की बात छोड़ो, अच्छे दिन में ही धाँधली है। जिसको तुम ‘अच्छा’ समझ रहे हो, वो अच्छा है नहीं। उसमें बुराई छुपी हुई है, और पोषण पा रही है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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