प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। जैसा आप बोलते हैं कि चोट खाकर उठना पड़ता है। पर ये जो चोट है हम भूल जाते हैं कि इस बार खायी है, तो दस दिन बाद भूल गये और नयी चोट पकड़ ली। फिर और दस दिन बाद रो रहे हैं कि वो चोट तो भूल गये थे करके। तो ये चोट को साथ में लेकर कैसे चले, दिल पर कैसे उतारें?
आचार्य प्रशांत: असल में मैं सारी बातचीत उन लोगों के सन्दर्भ में कर गया जिन्हें चोट लगती है। मैं भूल ही गया कि अधिकांश लोग ऐसे हैं कि पाषाण हो गये हैं, जड़ हो गये हैं। उन्हें चोट ही नहीं लगती, उन्हें नहीं चोट लगती। पहले तो ऐसा होना है कि चोट लगनी शुरू हो।
हमें व्यर्थ की बातों का मलाल रहता है, छोटी-छोटी बातें हमें बुरी लग जाती हैं, पर हमारे जीवन का केन्द्र ही गलत है जीवन ये हमें बार-बार दर्शाता है और ये बात हमें बिलकुल नहीं अखरती, हमें बुरा ही नहीं लगता इसका।
सबसे पहले तो आवश्यक है कि बुरा लगे या तो जीवन इतनी ज़ोर से मारे कि हमारे लिए अनभिज्ञता दर्शाना असम्भव हो जाये, ऐसा स्वांग करना की चोट नहीं लगी है असम्भव हो जाये या फिर कोई ऐसा जीवन में आये जिससे कुछ ऐसा खास नाता हो कि वो हमें चोट देता रहे और हम झेलते रहें। कि वो हमारे भीतर चोट खाने की इन्द्रिय को जागृत करता रहे और हम झेलते रहें, कि वो हमारे भीतर संवेदनशीलता जागृत करता रहे, संवेदनशीलता जब बढ़ती हैं न तो दर्द बढ़ता है।
जैसे ऑपरेशन (चीर-फाड़) के बाद जब कोई होश में आता है, जब तक एनेस्थीसिया (बेहोशी की दवा) के प्रभाव में था, उसे दर्द हो रहा था? हो रहा था क्या? होश में जैसे-जैसे आने लगता है दर्द होने लगता है। तो इसीलिए हम ज़िन्दगी को ही भर लेते हैं एनेस्थीसिया से ताकि दर्द ना हो। जीवन में कोई ऐसा चाहिए जो हमें होश में लाता चले और साथ-ही-साथ भरोसा दिलाता रहे कि दर्द हम अकेले नहीं झेल रहे, साथ में वो भी है। ठीक किया। सही बोल रहे हो।
हम बहुत विचित्र लोग हैं, हमारा अहंकार ज़रा-ज़रा सी बातों पर तो आहत हो जाता है। लेकिन जब अहंकार के केन्द्र पर ही रोज़ाना जो चोट पढ़ रही है उसका तो हम कोई ज़िक्र ही नही करना चाहते, संज्ञान ही नही लेते हम उसका, उसे कॉग्नाइज़ (जानना) ही नहीं करते।
छोटे मुद्दों पर कह देंगे–अरे! बुरा लग गया, ऐसा हो गया वैसा हो गया। और जो बड़ी-बड़ी तबाहियाँ जीवन में बैठा रखी हैं जो कोर ब्लंडर्स (मूल भूलें) हैं उनका हम नाम ही नहीं लेना चाहते। क्योंकि वो इतनी बड़ी-बड़ी भूलें हैं कि उनके बारे में हमें लगता है कि अब कुछ किया नहीं जा सकता तो उनका उल्लेख क्या करना।
मकान में एक चूहा घूम रहा है, हमें इस बात से तकलीफ़ हो जाती है। मकान ही गलत है इसकी हमें कोई तकलीफ़ नहीं होती। व्यापार में घाटा हो गया, इस बात की हमें तकलीफ़ हो जाती है, व्यापार ही गलत है इसकी हमें कोई तकलीफ़ नहीं होती। जिसके साथ चल रहे हो, उसने कुछ रूखा बोल दिया, हमें चुभ जाता है। पर गलत इंसान के साथ चल रहे हो इसकी हमें कोई तकलीफ़ ही नहीं होती।
अध्यात्म उनके लिए है जो तकलीफ़ झेलने के लिए तैयार हैं। जो सबसे पहले ये मानने के लिए, एक्नॉलेज (स्वीकार) करने के लिए तैयार हैं कि जीवन में कुछ केन्द्रीय गड़बड़ियाँ हैं जिनका सुधार आवश्यक है, केन्द्रीय गड़बड़ियाँ, सतही नहीं, पारिधिक नहीं। कार पर स्क्रैच (खरोंच) लग गया है, डेंट (निशान) आ गया है ये वाली गड़बड़ नहीं। क्या गड़बड़? कार ही गलत है।
प्र: भूलने की बीमारी तो जाती नही है। तो ये चोटों को साथ कैसे लेकर चलें कि याद रहें?
आचार्य: नहीं, नहीं, नहीं, अगर चोटें भुला देते हो तो माने चोटें वही सबसे निचले तल की हैं। कौनसी वाली?
प्र: अविद्या।
आचार्य: वही कार में खरोंच लग गयी है। वो जो मोटी वाली चोट होती है वो तो भुलाये नहीं भूलेगी, चोट अगर भुलाये दे रहे हो तो माने असली चोट अभी अपनेआप को अनुमति ही नहीं दे रहे हो खाने की। असली चोट जो खाता है, भुला नहीं पाता है। बचने की नहीं उम्मीद होता हैं वहाँ पर, कैसे भुला दोगे।
बिरह भुवंगम तन बसै मन्त्र न लागै कोई। राम बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होई।। ~ कबीर साहब
तुम भुला कैसे दोगे। भुला देना ही दर्शा रहा है कि तुम अभी परिपक्व नहीं हुए हो। तुम बड़ों के अखाड़े में उतर ही नहीं रहे हो जहाँ मोटी चोट लगती है। और ज़िन्दगी ये खतरनाक सहूलियत सबको देती है, क्या? चोट नहीं खानी तो अखाड़े में उतरो ही मत या चोट नहीं खानी तो बच्चों के अखाड़े में उतरे रहो, हम यही तो करते हैं। चोट नहीं खानी है तो हम बच्चों के अखाड़े में उतरते हैं। और अपनेआप को ये जताने के लिए कि हम बड़ों के अखाड़े में हैं, बच्चों के अखाड़े में भी हम शोर मचाते हैं, ओए दैया! चोट लग गयी।
हमारी समझदारियाँ देखिए, उतरे कहाँ हैं? बच्चों के अखाड़े में। पर खुद को तो ये जताना है कि साहब हम बड़ी लड़ाइयाँ लड़ रहे हैं। तो बच्चों के अखाड़े में भी शोर क्या मचाना हैं? हाय दैया! चोट लग गयी। तुम्हें तो चोट लग ही नहीं सकती। तुम ज़िन्दगी में न कोई बड़ी चुनौती स्वीकार कर रहे हो, न कोई बड़ा खतरा उठा रहे हो, तुम्हें चोट लग कहाँ से जायेगी। तुमने तो अपनेआप को हर तरफ़ से रुई के फाहों से ढक रखा है, तुम्हें चोट लग कहाँ से जायेगी।
चोट खाना हर किसी का सौभाग्य नहीं होता भाई। ऐसी चोटें खाओ जो भूलें न, ऐसी चोटें खाओ जो तोड़कर के रख दें और फिर जुड़ जाओ। चोट का काम है तुम्हें तोड़ देना, तुम्हारा काम है ऐसी चोट चुनना जो तुम्हें तोड़ ही दे और फिर जुड़ जाओगे। जादू होता है, यही है। मिस्टिकल प्रैक्टिसेस (रहस्यमय क्रिया) में नहीं जादू है, ज़िन्दगी में जादू है और इसके अलावा कोई जादू होता नहीं। ज़िन्दगी में इतनी बड़ी चुनौती अपनाकर तो देखो कि तोड़ ही डाले तुम्हें। और फिर पाओगे तुम कि टूटने के बाद भी बचे हुए हो। कुछ है तुम्हारे भीतर जो ऐसा जुड़ा हुआ है कि टूटता नहीं। वो सब कुछ टूटने के बाद जो बचा रहता है, वो असली है।
उसका कुछ पता नहीं चलेगा जब तक ज़िन्दगी तुम्हें तोड़ ही न दे। और ज़िन्दगी तुम्हें तब तक नहीं तोड़ेगी जब तक तुम ज़िन्दगी को इजाज़त न दो। छोटी-मोटी चीज़ नहीं है टूटना, मैंने कहा न सौभाग्य है। टूटने के लिए तो प्रार्थना करनी पड़ती है कि तोड़ डालो न मुझे। टूटने के लिए तो बड़ी भारी क़ीमत चुकानी पड़ती है। सबको नहीं नसीब होता टूटना। ज़्यादातर लोग तो अनटूटे ही मर जाते हैं, जुड़े-जुड़े ही राख हो जाते हैं, डर के जोड़।