प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मैं आपको लगभग दो-ढाई साल से सुनती आ रही हूँ और आपने अपनी कई वीडियो में ये बोला है कि बच्चों को जन्म देना और उनकी परवरिश करना बहुत ही ज़िम्मेदारी का काम है। पर मैंने कई ऐसे लोग देखे हैं, कई ऐसे अभिभावक देखे हैं जो कि बहुत ग़ैर-ज़िम्मेदार तरीक़े से उन्होंने परवरिश की है बच्चों की, लेकिन उनके बच्चे बहुत ही अच्छे और लायक़ निकले हैं और आज भी वो अपने माता-पिता का बहुत ख़्याल रखते हैं और कुछ अभिभावक ऐसे हैं जिन्होंने बहुत ही ज़िम्मेदारी से परवरिश करी है, बच्चों पर बहुत ध्यान दिया है और कई बार तो उनकी माताओं ने अपनी नौकरी तक छोड़ी हैं बच्चों के लिए, लेकिन उनके बच्चे इतने लायक़ नहीं निकले।
तो क्या इसमें, आचार्य जी, ऐसा नहीं है क्या कि जो ग़ैर ज़िम्मेदार अभिभावक हैं वो दोहरे फ़ायदे में हैं कि उन्होंने अपनी ज़िन्दगी भी मज़े से काटी और बच्चों से भी लाभ ले रहे हैं? और जो ज़िम्मेदार अभिभावक हैं वो दोहरे नुक़सान में हैं। उन्होंने अपनी ज़िन्दगी भी ठीक से नहीं जी और अब बच्चों से भी दुखी हैं। तो इस पर थोड़ा-सा स्पष्टीकरण दीजिए।
आचार्य प्रशान्त: सही काम में कर्मफल नहीं देखा जाता, इस बात को अच्छे से पकड़ लीजिए। सही काम में कर्मफल नहीं देखा जाता। कर्मफल की अगर बहुत चिंता हो रही हो तो फिर काम सही नहीं है। बच्चे को अगर आपने अच्छी परवरिश दी है तो आपने अपना काम पूरा कर दिया। अब इसका परिणाम क्या आएगा, इसकी परवाह करने के लिए आपके पास कोई गुंजाइश शेष ही नहीं है। क्योंकि आप जो अधिकतम कर सकते थे, आपने कर तो दिया; अब आप क्या करोगे?
आपने जितना श्रम लगाया जा सकता था, लगा दिया। जितना पैसा, जितना समय, जितना ध्यान, जितना प्रेम, आंतरिक-बाहरी जितने संसाधन लगाए जा सकते थे, आपने सब लगा दिए। अब उसका क्या परिणाम आता है उसको भोगने के लिए आपके पास कोई जगह शेष बची ही नहीं है। आपको अच्छा या बुरा कैसे लगेगा? आप समझ गए न?
इसी तरीक़े से जो लोग लापरवाह रहे हैं और जिन्होंने अपने बच्चों को सही संस्कार नहीं दिए, प्रेम नहीं दिया पूरा, ध्यान नहीं दिया पूरा, ये मत कहिए कि वो दोहरे मज़े में हैं अगर उनके बच्चे बिगड़े नहीं तो। दोहरे मज़े में वो कैसे हैं? उनको कौन-सा मज़ा आ रहा था जब वो बच्चों की तरफ़ लापरवाह थे?
जब वो बच्चों की तरफ़ लापरवाह थे तो आपके अनुसार शायद उनको ये मज़ा आ रहा था कि वो दुनिया को भोग रहे थे, इधर-उधर मज़े कर रहे थे। वो कोई मज़े हैं? दो कौड़ी की चीज़ है, वो अपनेआप में सज़ा है, मज़ा क्या है! तो दोहरे मज़े कहाँ हैं? उन्हें तो पहला ही मज़ा नहीं हुआ। उनको तो पहला ही लाभ नहीं हुआ।
अच्छे से समझिए इस सिद्धांत को। सही काम अंजाम का मोहताज नहीं होता क्योंकि वो अंजाम को नज़र में रखकर करा ही नहीं जाता। घटिया स्वार्थी काम ही भोग की दृष्टि से करा जाता है। घटिया काम में ही कर्ता लगातार इस बात के प्रति सतर्क रहता है कि इससे मुझे मिलेगा क्या, मैं क्या भोगूँगा कर्म के परिणामस्वरूप। समझ रहे हैं बात को?
यह बात मन हमारा मानता नहीं। हमारा मन कहता है, 'नहीं, ऐसा तो नहीं है, उन्होंने तो बच्चे ठीक से बड़े भी नहीं किए। बच्चे जब बड़े हो रहे थे, पंद्रह साल, तो माँ-बाप दोनों ऐश किया करते थे। लेकिन उसके बाद भी उनके बच्चे ठीक निकल गए और वो लोग देखो कितना मज़ा कर रहे हैं।' कुछ नहीं, ऐसे मत सोचिए। इस बात को बिलकुल मन से लगा लीजिए, सही काम अपना फल आप होता है।
आपने अगर कुछ अच्छा करा है, तो अच्छाई का फल अच्छाई ही होती है और त्वरित मिलता है फल। अच्छा काम करते हुए सही अनुभूति होती है न। मन सही जगह पर होता है, सही केंद्र से काम करता है। अच्छे काम का वही फल है। इससे ज़्यादा नहीं कुछ माँगना चाहिए।
अब रही बात ये कि अगर बुरी परवरिश हुई है तब भी बच्चे अच्छे कैसे निकल गए? ये अनुकंपा है, ये अनुकंपा है। जैसे कोई घटिया भी माली हो तो कई बार पौधा बच जाता है। पौधा इसलिए नहीं बच गया कि माली बहुत अच्छा था, पौधा बस बच गया किसी तरीक़े से। ये प्रकृति का संयोग है। पौधा बच भी गया, धीरे-धीरे वो अपना भाग्य भरोसे बड़ा होता गया। एक दिन उसमें ख़ूब फल आ गए। वो जो फल हैं वो कोई माली का पुरस्कार नहीं है कि देखो तुमने बड़ी मेहनत करी है तो यह तुम्हें पुरस्कार दिया जा रहा है। वो फल संयोग हैं, उनको आप अधिक से अधिक कह सकते हैं कि ये अनुकम्पा है, अनुग्रह है।
अकारण कुछ मिल गया है, देने वाले का उपहार है। लेकिन ये एक चीज़ अच्छे से समझ लीजिए, देने वाले का उपहार भी उसी के काम आता है जो उसे लेने के लायक़ होता है। बच्चा बहुत अच्छा भी निकल जाए, अगर माँ-बाप किसी लायक़ ही नहीं हैं तो वो उस बच्चे की अच्छाई को भी स्वीकृति नहीं दे पाएँगे। न उस बच्चे की अच्छाई से वो लाभ उठा पाएँगे।
तो दोहरा मज़ा छोड़िए, उनको एकला मज़ा भी नहीं मिल रहा। पहला मज़ा आपने ये कहा था कि बच्चों को जब परवरिश देनी थी तो वह इधर-उधर मज़े कर रहे थे, वो मज़ा तो कोई मज़ा ही नहीं है। बेकार की बात हटाइए। आपको जो सबसे बड़ा कर्तव्य मिला है उसको छोड़कर आप कहीं जा रहे हों मज़े भोगने, तो ये कोई मज़ा है? मैंने कहा, सज़ा है। तो वो हटाइए।
दूसरा मज़ा आपने ये कहा कि बच्चे बड़े हो गए हैं और अच्छे निकल गए हैं तो अब माँ-बाप को दूसरा मज़ा मिल रहा है। वो दूसरा मज़ा भी उनको नहीं मिल सकता। बच्चे भले ही अनुकंपावश अच्छे निकल गए हों, लेकिन माँ-बाप में यह पात्रता ही नहीं कि वो उस अच्छाई का लाभ उठा पाएँ, तो उनको क्या मिला? तो उन्हें दो नहीं, कोई मज़ा नहीं मिला।
(हँसते हुए) और यह सुनकर हमको मज़ा आ गया कि देखो उन्हें कुछ नहीं मिला।
प्र: एक चीज़ और, मेरे मन में दुविधा है कि मैं भी किसी आध्यात्मिक संस्था से जुड़ी हुई हूँ तीन-चार साल से और ध्यान वगैरह करती हूँ और यह ध्यान मुक्ति के लिए करते हैं और जैसे कहते हैं कि मुक्ति केवल इसी जीवन में ही मिलनी है। लेकिन हमारे हिंदू धर्म में कहा जाता है कि मरने के बाद जब तक आपका क्रिया-कर्म न किया जाए, तो आपको मुक्ति नहीं मिलती और ख़ासकर के वो दसवें दिन जब तक कि वो कौआ पिंड को न छू ले। तो फिर हमारी ये साधना व्यर्थ गयी क्या, कि अब मुक्ति के लिए किसी दूसरे पर निर्भर रहना पड़े हमको?
आचार्य: ये कौन से उपनिषद् में लिखा है?
प्र: नहीं, ये क्रिया-कर्म तो बोलते हैं न कि जब तक कौआ पिंड को न छू ले तब तक मुक्ति नहीं मिलती; तो हमारी यह साधना व्यर्थ गयी?
आचार्य: बोल तो कोई कुछ भी सकता है। बोल तो कोई कुछ भी सकता है। ये सबकुछ मुझे बताइए वेदान्त में कहाँ लिखा है? आपका धर्म वैदिक धर्म है न, और वेदों का सारा ज्ञान वेदान्त में है। मुझे बताइए वेदान्त में ये कहाँ लिखा हुआ है। बाक़ी तो कोई कुछ भी बोल सकता है, इतनी किताबें हैं, इतनी पुरानी धर्म की धारा है। किसी ने कुछ भी बोल दिया, किसी ने कुछ भी लिख दिया; हम सब कुछ थोड़े ही पढ़ते रहेंगे, सब कुछ थोड़े ही मानते रहेंगे? जो केंद्रीय बात है उसको सुनेंगे न। ये सब कि कौआ — क्या बोला आपने? क्या कौआ?
प्र: कौआ दसवें दिन पिंड को छूता है तब मुक्ति मिलती है, ऐसा बोलते हैं।
आचार्य: कौआ हो ही न किसी जगह पर, इतने सारे पक्षी, इतनी सारी प्रजातियाँ विलुप्त हुई जा रही हैं। अगर बेचारा कौआ भी एक्सटिंक्ट (विलुप्त) हो गया, विलुप्त हो गया तो लोगों को मुक्ति मिलनी एकदम ही बन्द हो जाएगी! ये कौआ कहाँ से आ गया मुक्ति में? कौआ!
प्र: (हँसते हुए) ऐसा होता है।
आचार्य: मतलब मैं जाकर के नॉर्थ पोल (उत्तरी ध्रुव) पर मर जाऊँ, वहाँ कौए होते नहीं, तो मुझे मुक्ति नहीं मिलेगी? या मैं कौआ अपने साथ पैक (बाँध) करके लेकर जाऊँगा, मरते वक़्त? और इंसान जाकर किसी और ग्रह पर बस गया, मार्स (मंगल) पर बसने की तैयारी हो रही है तो वहाँ साथ में कौए लेकर जाएँगे हम? यह चल क्या रहा है?
प्र: सर, ये हिन्दू धर्म में यही है।
आचार्य: ये हिन्दू धर्म में — न, न, न। हिन्दू धर्म में नहीं है ये सब। हिन्दू धर्म में नहीं है बाबा। हिन्दू धर्म वैदिक है। हिन्दू धर्म में ये सब नहीं है। ये है भी अगर हिन्दू धर्म में, तो प्रदूषण की तरह है। जैसे हवा में धुआँ होता है। हवा में धुआँ भी होता है न। तो आप ये थोड़े न कहेंगी कि हवा में धुआँ तो होता ही होता है।
धर्म इतना पुराना है और इतने बड़े भूखंड पर फैला हुआ है, उसमें बहुत सारे लोगों ने बहुत सारी बात इधर-उधर से लाकर के जोड़ दी हैं तो उसको धर्म थोड़े ही मानने लग जाएँगे कि वो धर्म हो गया। धर्म हमारा वेदान्त है। उसके अलावा नहीं कोई धर्म हो गया।
ये जो जिन चीज़ों को आप कह रही हैं, इनका कोई भविष्य नहीं है। आपको क्या लग रहा है, आज की पीढ़ी, आने वाली पीढ़ी ये सब कौवाबाज़ी को मानने वाली हैं? जिस धर्म को हम जानते हैं, रिलिजन एज वी नो इट हैस नो फ्यूचर (जिस धर्म को हम जानते हैं उसका कोई भविष्य नही है)।
और अगर आप बचाना चाहते हैं हिन्दू धर्म को, तो उसको पूर्णतया वैदिक बनाइए, नहीं तो धर्म का कोई भविष्य नहीं है। इन सब बातों पर लोग हँसने वाले हैं। बुद्धिजीवी आज भी हँसते हैं, पूरी दुनिया आज भी हँसती है। आज की जो नई पीढ़ियाँ निकल रही हैं वह विशेषकर हँसती है और उन्हें हँसना चाहिए भी। धर्म बहुत ऊँची व बहुत मूल्यवान चीज़ है। उसको कौओं से जोड़ मत दीजिए।
प्र: वो प्रयास, जो साधना जो हम कर रहे हैं वह तो करनी ही है।
आचार्य: आपकी साधना ये है कि आप वेदान्त से जुड़िए। हम जानते ही नहीं हैं अपने धर्म को, तो परंपराओं को ही हम धर्म मान लेते हैं — समस्या सारी यह है। हमने परंपरा को धर्म समझ लिया है, जबकि परम्परा का धर्म से क्या संबंध है भाई! हमने जो आजकल की प्रचलित संस्कृति है या जो बाप-दादों की संस्कृति थी सौ-पचास साल पहले की, हमने सोच लिया यही तो धर्म है।
न परम्परा धर्म होती है न संस्कृति धर्म होती है; धर्म कुछ और होता है और धर्म की उच्चतम बात आपको वेदान्त में उपलब्ध है। सनातनी होने के नाते आप सौभाग्यशाली हैं कि आपको उपनिषद् उपलब्ध हैं, आपको भगवद्गीता उपलब्ध है, आपको वेदान्त सूत्र उपलब्ध हैं। उसके बाद आप ये सब कौआ और कुत्ता और इन चीजों को लेकर काहे को — इनमें क्यों फँस रही हैं?
जो मूल्यवान है वो हमने कभी पढ़ा ही नहीं। हिन्दू धर्म का मतलब ही बन गया है अंधविश्वास, रूढ़ियाँ, दुनियाभर की बेकार की बातें। हमने इनको नाम दे दिया है हिन्दू धर्म। जबकि सनातन धर्म बिलकुल चमकता हुआ हीरा है। हमने हीरे की जगह कीचड़, कंकड़, पत्थर, बालू, रेत ये सब उठा लिया है। संतुष्टि तो आपको हो नहीं रही होगी मेरी बात से।
प्र: हो गयी। नहीं, मुझे मन में एक डाउट (संशय) आता था कि हम तो अध्यात्म से जुड़े हैं, हम तो इसको नहीं मानते, पर जो परिवार में जिस तरह से चलता है कि ऐसा नहीं होगा तो — वो एक डाउट (संशय) था कि अगर कभी ऐसा हुआ कि क्रिया-कर्म नहीं हो पायी तो मुक्ति मिलेगी कि नहीं मिलेगी?
आचार्य: मेरे गुरुदेव, जानती हैं जब उनकी मृत्यु हो रही थी तो सब रूढ़ी, रिवाज़, पाखण्ड का जो बड़े से बड़ा गढ़ है काशी, वहाँ रहते थे। और ये कितनी विचित्र और त्रासद बात है, विडम्बना है बिलकुल, कि शिव की नगरी जो बोध की नगरी है; जो गहरे से गहरे ज्ञान का प्राचीनतम केंद्र है, वो रूढ़ियों, पाखण्ड, कर्मकांड और अंधविश्वास की भी नगरी रही है। माया!
तो जब मृत्यु निकट थी तो लोगों ने उनसे कहा कि बड़ी अच्छी बात है आप काशी में मर रहे हैं, लोग तो मरने के लिए काशी आते हैं, कहते हैं कि काशी में मरो तो स्वर्ग मिलता है। वो उठकर खड़े हो गए, बोले, काशी में तो बिलकुल नहीं मरूँगा फिर। अगर इस तरह की मान्यता है कि काशी में मरने से स्वर्ग मिलता है तो मैं नहीं मरूँगा यहाँ; वैसे भले ही मर लेता यहाँ पर। अगर ऐसी मान्यता है तो नहीं मरूँगा यहाँ।
वो उठकर के एक दूसरी जगह चले गए जो मरने के लिए उपयुक्त नहीं मानी जाती। कहते हैं यहाँ नहीं मरना चाहिए; वो वहीं चले गए। बोले, मैं तो ख़ासतौर पर यहीं मरूँगा। लोगों ने पूछा, 'आप क्यों कर रहे हैं ऐसा? आप तो काशी में थे, काशी छोड़कर के दूसरी जगह जा रहे हैं, मगहर, वहाँ क्यों जा रहे हैं?' तो बोलते हैं कि 'अगर काशी में मरने से मुक्ति मिलती होती तो फिर राम का क्या उपयोग! जीवन पूरा मैंने राम के साथ बिताया, अब मरने के लिए मैं किसी स्थान विशेष का मुहँ देखूँ?' अगर जीवन में राम के साथ रहा हूँ तो राम के साथ रहना ही मुक्ति है। उसमें फिर रीति-रिवाज़ों और कर्मकांड का क्या उपयोग? समझ रही हैं बात?
साधना आप जो भी कर रही हैं, ध्यान आप जो भी लगाती हैं उसमें ज़रा इस चीज़ को सम्मिलित करिए — वेदान्त के पठन-पाठन को। वो असली साधना है, ठीक है।
प्र२: आचार्य जी, मैं शिक्षा के क्षेत्र से जुड़ा हुआ हूँ। तो मेरा आमतौर पर जो मिलना होता है, बच्चों से व उनके माता-पिता से होता है। हाउ टू फ्रेम क्वेश्चन (मैं अपना सवाल कैसे रखूँ), मुझे समझ नहीं आ रहा है। पर काफ़ी समस्याओं को रोज़ देखता हूँ। बच्चों की समस्याएँ हैं, उनके पैरेंट्स (अभिभावक) की समस्या है, निश्चित रूप से वो समस्याएँ जो हैं वो एजुकेशन सिस्टम संभाल नहीं कर पा रहा है और हमारी जो सामाजिक व्यवस्था है, वर्तमान सामाजिक व्यवस्था, वो भी लगता है कि सही जगह से एड्रेस (संबोधित) नहीं कर रही।
शायद हमारी पेरेंटिंग बहुत बेहतर हुई थी पहले। अभी उनको हम कैसे हेल्प कर सकते हैं? ठीक है अपने बच्चों का तो हम कर रहे हैं जैस-जैसे समझ में आता है और चेतना का जैसे-जैसे स्तर बढ़ रहा है उसमें भी बेहतरी हो रही है, लेकिन दूसरों को कैसे इसमें हेल्प कर सकते हैं? आप कुछ मदद कर सकते हैं?
आचार्य: लम्बा-चौड़ा उत्तर बताऊँ या एकदम छोटा-सा, संक्षिप्त?
प्र२: आप जो बताएँगे, उचित ही बताएँगे।
आचार्य: आपको कैसे मदद मिली? आप दूसरों की मदद करना चाहते हैं, आपको मदद कैसे मिली?
प्र२: शुरुआत तो काफ़ी पहले से ही हो गई थी, अपने पेरेंट्स के तरीकों को याद करते हैं, वहाँ से मदद मिली। एक रुझान रहा है शुरू से ही अध्यात्म की ओर, उससे मदद मिली। धीरे-धीरे आप तक पहुँचे हैं।
आचार्य: जैसे आपको मिली है अब वैसे ही दूसरों तक पहुँचा दीजिए। जो आपको अपने अभिभावकों से मिला, दूसरों को उनके अभिभावकों से वो चीज़ मिली है या नहीं, इसपर तो आपका कोई नियंत्रण नहीं। ये बात तो अतीत की हो गई। वर्तमान में जहाँ से आपको मदद मिल रही हो, वहाँ से ही तो दूसरों को मिलेगी न। ये बात एकदम सीधी-सी नहीं है क्या?
ऐसे ही बहुत लोगों का प्रश्न रहता है कि दूसरों को कैसे सुधारें। मैं सोचता हूँ क्या बताऊँ। पूछता हूँ, 'आप अपनेआप को कितना सुधरा हुआ मानते हैं?' कहते हैं, 'थोड़ा तो सुधर गए हैं।' मैं पूछता हूँ, 'कैसे सुधर गए हैं?' कहते हैं, 'आचार्य जी, आपको एक साल से सुन रहे हैं तो ये बदलाव आया है।' अगर आप जानते हैं कि बदलाव कैसे आता है और आपमें कैसे बदलाव आया है, आपके पास प्रत्यक्ष व्यक्तिगत प्रमाण उपलब्ध है, अपना ही आपके पास उदाहरण उपलब्ध है, तो फिर इसमें संशय क्या है कि दूसरों तक बात कैसे पहुँचानी है?
और अगर मेरे पास और कोई तरीक़ा होता, तो मैंने अब तक लगा दिया होता न। जिस तरीक़े से मैं आपकी मदद कर पाया, उसी तरीक़े से मैं दूसरों की भी कर पाऊँगा। दूसरों की मदद करने में आप मेरी मदद कर दें, तो धन्यवाद आपका।
(प्रश्नकर्ता कुछ नहीं कहते)
मुश्किल लग रहा है न? चुप हो गये आप।
प्र२: नहीं, नहीं, मेरा तो आपसे बात करने का जो उद्देश्य था, यही था कि मैं इतने ज़्यादा लोगों से मिलता हूँ, लेकिन यह फ्रेम कैसे करें चीज़ों को, लोगों के सामने रखने के लिए?
आचार्य: आप करेंगे क्या फ्रेम ?
प्र२: उनको आपका यूट्यूब वीडियो देखने की सलाह दे दूँ, तो उससे तो कुछ होना नहीं है।
आचार्य: आपको कैसे पता नहीं होना है?
प्र२: और एक सीमा तक ही होना है।
आचार्य: आपको कैसे पता एक सीमा तक ही होना है? आप कैसे इतने समझदार हो गए, बिलकुल भविष्यद्रष्टा, कि आप जानते हैं कि कुछ होना नहीं है, एक सीमा तक ही होना है? और अगर किसी और चीज़ से होना है तो अपनी ही ज़िन्दगी में कर लीजिए वो। आपने ये पूर्वानुमान कहाँ से लगाया है कि कुछ होना नहीं है, एक सीमा तक होना है? या बात कुछ और है, खतरा नहीं उठाना चाहते?
या आप विशेष हैं कि आप कह रहे हैं आपको तो लाभ मिल गया, पर औरों को तो एक सीमा तक ही लाभ होगा? 'मैं विशेष हूँ, मुझे लाभ हो सकता है, औरों को थोड़े ही होगा। आचार्य जी, आपकी बात सुनकर मुझे लाभ मिल गया क्योंकि मैं तो ख़ास हूँ, पर आपकी बात दूसरे सुनेंगें तो उनको नहीं लाभ होगा क्योंकि वो बेचारे ख़ास नहीं हैं। मैं अकेला ख़ास हूँ।'
आप दीये से आकर पूछेंगे कि बताओ रोशनी कैसे फैलाएँ, ये आपको क्या ज़वाब देगा? वो यही बोलेगा कि मुझे उठा कर ले चलो, जहाँ पर रोशनी चाहिए। और ये उत्तर सुनकर आप अवाक हैं बिलकुल, निस्तब्ध! आपको समझ में ही नहीं आ रहा, अरे ये क्या हो गया। आप सोच रहे थे मैं कोई और तरीक़ा बताऊँगा, दीया अपनी जेब से टॉर्च निकालकर दे देगा।
मैं जो एक तरीक़ा जानता हूँ, मैं उसको जी रहा हूँ। मैं जो रोशनी जानता हूँ मैं उसको स्वयं फैला रहा हूँ, इससे अधिक तो न मैं जानता हूँ, न कर सकता हूँ। आप मेरा उपयोग अगर करना चाहते हैं प्रकाश के लिए तो मैं आपको एक ही तरीक़ा बता पाऊँगा — मुझे ही फैला दीजिए।
अगर और कोई तरीक़ा मेरी जानकारी में होता तो उसका उपयोग मैंने ही कर लिया होता न। ये मेरी विवशता है, मैं और कोई तरीक़ा नहीं जानता। हाँ, इतनी आपको छूट है कि आप मुझसे बेहतर कोई और तरीक़ा जानते हों तो मेरे पास मत रुकिएगा। क्योंकि मेरा भी प्रयोजन प्रकाश से है, किसी व्यक्ति से नहीं। जो बात मैं कह रहा हूँ, वो बात मुझसे बेहतर कहीं और मिलती है या सच्चाई कहीं और मिलती है तो आप उसको फैलाइए। और फैला ही नहीं दीजिए, उसको मुझे भी बता दीजिए। मैं भी कुछ लाभ उठा लूँगा।
दुनियाभर की समस्याओं को हल करने का एक ही तरीक़ा होता है — ज्ञान। क्योंकि सब समस्याएँ अज्ञान से उपजती हैं। तो मैं ज्ञान के अतिरिक्त और क्या हल बताऊँ?
और ग़ौर करिएगा कि आपने कितनी त्वरा से, एकदम तत्काल बोल दिया था कि यूट्यूब वीडियो देखने से तो कुछ होगा नहीं। ग़ौर करिए, कि आपके भीतर से वो तत्काल उत्तर कहाँ से आया? संसार की बहुत सारी समस्याओं की वज़ह वो केंद्र ही है जहाँ से तत्काल वो उत्तर आ गया था।
सच को हमेशा कदम दर कदम फैलाना ही पड़ा है। प्रचार के अलावा कोई तरीक़ा नहीं रहा है। आचार्य शंकर ने क्या करा था? केरल से चले थे और पूरे भारत का भ्रमण करा उन्होंने। पीठों की स्थापना की और ये सब कुछ उन्होंने बहुत छोटी-सी उम्र में किया। बैठे-बैठे नहीं हो जाता, कि बैठे-बैठे आप लोगों तक प्रकाश पहुँचा देंगे।
एक-एक से जाकर बात करनी पड़ती है, समझाना पड़ता है, बोलना पड़ता है। नानक साहब ने क्या किया? इतनी पद यात्राएँ करीं। महात्मा बुद्ध, महावीर, ये सब क्या करते रहे जीवन भर? यात्राएँ ही करते रहे, लोगों से मिलते रहे, बताते रहे। प्रचार का काम करते रहे। प्रचारक थे।
सत्य को बहुत प्रचार चाहिए होता है। ऐसे ही होता है, और कोई तरीक़ा नहीं होता। आप अगर कोई और तरीक़े की तलाश में हों, तो अगर मिल जाए तो मुझे भी बता दीजिए।
घूम-घूम कर बात लोगों तक पहुँचानी होती है। जो मिले उसी को बोलना होता है। विचार करिए।
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