ज़िम्मेदारी माने क्या? || आचार्य प्रशांत (2015)

Acharya Prashant

11 min
24 reads
ज़िम्मेदारी माने क्या? || आचार्य प्रशांत (2015)

वक्ता : संदीप(श्रोता की ओर इशारा करते हुए) पूछ रहा है अपने ही लिए जीना चाहिए या दूसरों के लिए भी? हमारी कुछ ज़िम्मेदारियाँ हैं जिन्हें हमें निभाना पड़ेगा जैसे बेटा हूँ, भाई हूँ। चलो, संदीप खुद ही बोलो।

श्रोता: सर, अब तक तो हम सोच रहे थे कि जिम्मेदारियों को भी निभाना चाहिए जैसे किसी ने हमको जन्म भी दिया है तो उसको तो पूरा करना पड़ेगा।

वक्ता:- बिलकुल ठीक है। तो उसमे अड़चन कहाँ है?

श्रोता: सर, कभी-कभी लगता है कि जो लोग उम्मीद करते हैं, वो सब एक स्वार्थ रखते हैं मुझसे।

वक्ता:- वो बात भी ठीक है उसमे अड़चन कहाँ है? देखो, तुम जिससे भी सम्बंधित हो जिस भी तरीके से वहाँ ज़िम्मेदारी तो है ही। तुम अगर अभी मेरे सामने बैठे हो तो मेरी तुम्हारे प्रति कुछ ज़िम्मेदारी है। तुमने एक सवाल लिखा है तो उसे लेना ज़िम्मेदारी है और तुम मेरे सामने बैठे हो तो तुम भी मुझसे सम्बंधित हो और तुम्हारी भी कुछ ज़िम्मेदारी है– शान्ति से बैठना, स्वयं ध्यान से सुनना, औरों को ध्यान से सुनने देना तुम्हारी ज़िम्मेदारी है। है न? तो हम जहाँ भी हैं जैसे भी हैं ज़िम्मेदारी तो प्रतिक्षण होती है। अड़चन कहाँ पर है?

आप किसी घर में पैदा हुए, पले-बढ़े, उन्होंने आपको रक्षा दी, ज्ञान दिया और आज भी वो आपके साथ हैं आपका भरण-पोषण भी उन्हीं से है तो इसमें कोई शक नहीं कि ज़िम्मेदारी है आपकी। इसमें दिक्कत क्या है? बड़ी यह एहसानफ़रामोशी की बात होगी न कि आप कह दें कि मेरी कोई ज़िम्मेदारी ही नहीं, कि नहीं होगी? 20 साल तक जिसके मत्थे तुमने देह बनाई, सांसें ली रुपैया- पैसा लिया, सुरक्षा ली, आत्मीयता ली, आज तुम खड़े होकर कह दो कि नहीं मेरी कोई ज़िम्मेदारी ही नहीं है तो यह तो कुछ अमानवीय सी बात हो गयी; ज़िम्मेदारी तो है ही है।

सड़क पर एक जानवर भी घायल पड़ा हो तो उसके प्रति भी ज़िम्मेदारी होती है। घायल न भी पड़ा हो तुम्हारी गाड़ी के रास्ते में आ रहा हो तो भी तुम्हारी कुछ ज़िम्मेदारी होती है। तो घर वालों के प्रति, माँ-बाप के प्रति तुम्हारी ज़िम्मेदारी निश्चित रूप से है इसमें कोई शक ही नहीं। अड़चन कहाँ पर है? अड़चन यह है बेटा, कि ज़िम्मेदारी क्या है ये तुम्हें पता नहीं। ज़िम्मेदारी तो है ही है पर उस ज़िम्मेदारी के मायने क्या है यह तुम्हें पता नहीं है। तुम्हें पता ही नहीं है कि तुम्हारी ज़िम्मेदारी क्या है! ज़िम्मेदारी तो तुम्हारी पूरे विश्व के प्रति है। पर क्या तुम्हें पता है कि तुम्हारी क्या ज़िम्मेदारी है?

किसी के प्रति क्या ज़िम्मेदारी है यह जानने के लिए पहले तुम्हें उसको जानना पड़ेगा और उससे अपने सम्बन्ध को जानना पड़ेगा और मूल में खुद को जानना पड़ेगा। जब तुम न उसको जानते, न रिश्ते को जानते, न खुद को जानते तो तुम ज़िम्मेदारी को कैसे जान जाओगे?

ज़िम्मेदारी का मतलब होता है- उचित कर्म।

मैं क्या करूँ? इस सम्बन्ध में, इस रिश्ते में, इस क्षण में, इस व्यक्ति के साथ क्या उचित है करना ये होती है ज़िम्मेदारी । राईट एक्शन यह होती है ज़िम्मेदारी और उसके लिए जैसा कि हम पहले भी कई बार बात कर चुके हैं, अंग्रेजी का शब्द बड़ा खुलासा करता है –रेस्पोंसिबिलिटी। रेस्पोंस दे पाना येह क्षमता, यह उचित रेस्पोंसे; यह नहीं कि कुछ भी कर दिया। माँ ने कुछ कहा अब तम्हें पता ही नहीं है कि क्या उत्तर दूँ, घर में कोई स्थिति आई अब तुम्हें पता ही नहीं है कि इस स्थिति में क्या उचित है तुम्हारे लिए करना। पति से या पत्नी से तनाव रहता है तुम जानते ही नहीं हो कि यह तनाव क्या चीज़ है? तुम्हे क्यूँ रहता है? दूसरे व्यक्ति को क्यूँ रहता है? और रहता है तो इसका विघलन कैसे हो सकता है? तुम्हें पता ही नहीं है तो तुम कैसे अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करोगे। शोर तो सब मचाते हो कि जिम्मेदारियाँ हैं ,जिम्मेदारियाँ हैं पर मैं तुमसे कह रहा हूँ जितना शोर मचाते हो उतने ही गैर ज़िम्मेदार हो।

ज़िम्मेदारी के केंद्र में समझदारी होती है ये बात बिलकुल गाँठ बाँध लो। बिना समझदारी के कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती।

ज़िम्मेदारी कोई बोझ थोड़े ही है कि दुनिया ने तुमको बता दिया कि सुनो भाई, तुम्हारे यह-यह कर्त्तव्य हैं और इनको तुम्हें पूरा करना है और किसी ने तुमको एक लिस्ट थमा दी, चेक लिस्ट और उसमें डब्बे बने हुए हैं और तुमसे कह दिया गया टिक द बॉक्सेस। जो-जो जिम्मेदारियाँ पूरी करते जाओ ज़रा उस पर निशान लगाते जाओ। यह तो बड़ी ही भोंदी चीज़ हुई! गाड़ी की जब सर्विसिंग कराने ले जाते हो तो वो ऐसा करते हैं कि चौदह प्रक्रियाओं की क्रिया है और वो टिक करते जाते हैं। हो गई, हो गई, हो गई, हो गई हो गई। शाम को जब तुम जाते हो तो तुम्हें दे देते हैं कि हमने अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर ली अब आप अपनी पूरी करिए। पैसा निकालिए।

अब लेन-देन व्यापार तो नहीं है ज़िम्मेदारी। अगर ज़िम्मेदारी के केंद्र में समझदारी है तो सबसे पहले तो यह जानो कि जो समझदारी के दुश्मन हैं वो ही ज़िम्मेदारी के भी दुश्मन होंगे। समझदारी के क्या-क्या दुश्मन होते हैं? किन परिस्थितियों में, मन की किन अवस्थाओं में तुम्हारी समझ बिलकुल गायब हो जाती है। वही स्थितियां ज़िम्मेदारी की भी दुश्मन होंगी। जल्दी बताओ समझदारी के क्या दुश्मन हैं?

श्रोता: डर।

श्रोता: लालच।

वक्ता: डर। देखो, समझो। वो ज़िम्मेदारी का भाव जो डर से उठता हो निश्चित रूप से झूठा होगा। तुम्हें यह अपने-आप से पूछना पड़ेगा कि तुम वास्तव में ज़िम्मेदारी उठाना चाहते हो या सिर्फ़ डरे हुए हो कि अगर मैंने ज़िम्मेदारी नहीं उठाई तो दुनिया क्या कहेगी, अगर मैंने ज़िम्मेदारी नहीं उठाई तो लोग थू-थू करेंगे, अगर मैंने ज़िम्मेदारी नहीं उठाई तो मैं खुद को ही शक्ल कैसे दिखाऊंगा? क्या डर के साथ समझना संभव है?

श्रोता: नहीं।

वक्ता: तो जब डर में समझदारी संभव नहीं तो डर में ज़िम्मेदारी भी संभव नहीं। ठीक है। समझदारी के और क्या दुश्मन होते हैं?

श्रोता: लालच।

श्रोता: अहंकार।

वक्ता: अहंकार और? कब होता है कि तुम समझ ही नहीं पाते?

श्रोता: डीज़ायार्स।

श्रोता: व्यसन।

श्रोता: चालाकी।

वक्ता: चालाकियाँ और? इन सन हालातों में तुम्हारे लिए असंभव है अपनी ज़िम्मेदारी को जान पाना। तुम कुछ करोगे ज़रूर पर जो भी करोगे वही गैर-ज़िम्मेदारी होगी। और?

श्रोता: इर्ष्या।

वक्ता: इर्ष्या। समझ का आपने पहला दुश्मन बोला था डर। डर आपको दूर रखता है इसी तरीके से समझ का दूसरा दुश्मन होता है राग या आसक्ति। डर आपको समझने नहीं देता क्यूँकी वो आपको दूर रखता है। आप जिससे डरते हो उसको आप समझ नहीं पाओगे, दूर-दूर रहोगे और आसक्ति आपको समझने नहीं देती क्यूँकी वो आपको बिलकुल चिपका देती है। एक बार आप चिपक गए तो भी आप समझ नहीं पाते। तो हमने कहा कि आप ज़िम्मेदारी नहीं पूरी कर सकते डर के माहौल में और हम में से ज़्यादातर लोग ज़िम्मेदारियाँ?

सभी साथ में: डर से ही करते हैं।

वक्ता:- डर वश ही निभाना चाहते हैं। अब हम दूसरी बात कह रहे हैं कि आप जिम्मेदारियाँ नहीं पूरी कर सकते आसक्ति के माहौल में और त्रासदी देखिये कि अक्सर आप उन्हीं लोगों के प्रति ज़िम्मेदारी निभाना चाहते हैं जिनसे आप आसक्त होते हैं। आपको अपने घर वालों से बड़ा मोह है, बड़ा राग है आसक्ति । और आप उन्हीं के लिए कहते हैं कि आपको ज़िम्मेदारी निभानी है और सत्य यह है कि जहाँ मोह है वहाँ समझ नहीं हो सकती। यानी कि माँ-बाप के प्रति, स्वजनों के प्रति, घर वालों के प्रति ज़िम्मेदारी निभाना या ज़िम्मेदारी को जान पाना असंभव है क्यूँकी आप उनसे आसक्त हैं। अब आप फँस गए क्यूँकी आसक्ति के कारण ही आप ज़िम्मेदारी निभाना चाहते हो।

आप ज़िम्मेदारी निभाना ही इसलिए चाहते हो क्यूँकी वो आपको बड़े प्रिय हैं। है न? आपका मोह लग गया है उनसे और चूं कि आपको मोह लग गया है, तो आप कहते हो कि ज़रा मैं अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर लूँ इनके लिए। ज़रा मैं कुछ ऐसा करूँ जिससे इनका कुछ फायदा हो जाए। आप उनका कोई फायदा कर ही नहीं पाओगे। क्यों? क्योंकि बिना समझदारी के (हँसते हुए) किसी का कोई फायदा करा नहीं जा सकता और जहाँ मोह है, वहाँ समझ नहीं हो सकती। तो यह एक दूसरी शर्त बन गई। पहली शर्त यह थी कि जिनके प्रति ज़िम्मेदारी पूरी करनी हो उनसे डरना मत और दूसरी शर्त सामने आ गई कि जिनके प्रति ज़िम्मेदारी पूरी करनी हो उनसे मोह मत रखना। ना राग, ना द्वेष। अब आप कहोगे कि जब उनसे मोह ही नहीं तो उनसे प्रति ज़िम्मेदारी कहाँ बची।

99% लोगों के साथ यही होगा वो कहेंगे कि ‘’मोह गया, तो अब कौन सी ज़िम्मेदारी?’’ हमारा कोई रिश्ता ही नहीं इसके साथ रिश्ता ही मोह का था। यह हमारी आम-तौर की जिम्मेदारियों का सच है। मोह से पनपती हैं। मोह न रहे तो ज़िम्मेदारी भी नहीं रहेगी। जिस दिन तक कुत्ता आपके दरवाज़े बंधा है बड़ी ज़िम्मेदारी है रोटी दे दो, पानी दे दो, नहला-धुला भी दो, गर्मी लग रही है उसको, तो छाया भी दे दो। जिस दिन आपका कुत्ता गया किसी और दरवाज़े उस दिन सारी ज़िम्मेदारी ख़त्म। मेरा नहीं रहा न अब। कुत्ते से नहीं था कोई सम्बन्ध, ‘मेरेपन’ से था; मेरा कुत्ता। कुत्ता अभी भी वही है। मेरा नहीं रहा। मोह था।

तो ऐसे में जिम्मेदारियाँ ऐसी ही होती हैं जिस दिन तक मेरे हो उस दिन तक तुम्हारे लिए कुछ करूँगा और जिस दिन मेरे नहीं हो उस दिन करना भी बंद हो जाएगा और जब तक करूँगा भी तुम्हारे लिए, कुछ मोहित होकर करूँगा तो उल्टा-पुल्टा ही करूँगा। यह तो तुम खूब काम आए हमारे! जब तक हमारे लिए किया उल्टा-पुल्टा किया। फ़ायदा छोड़ दो तुमने जो करा उससे हमारा नुक्सान ही किया और जिस दिन मोह छूटा उस दिन जो करते थे वो करना बंद कर दिया। इसमें किसी को क्या मिल रहा है दुःख और कष्ट के अलावा।

तो संदीप ज़िम्मेदारियाँ बिलकुल निभानी हैं। सिर्फ़ घर वालों के प्रति नहीं, मैं कह रहा हूँ प्रत्येक अवसर पर, प्रत्येक आयोजन पर, जो भी तुम्हारे आस-पास हैं चाहे इंसान, चाहे जानवर, चाहे ज़मीन, चाहे कपड़ा तुम्हारी ज़िम्मेदारी हर जगह बनती है, हर समय बनती है। लेकिन तुम अपनी ज़िम्मेदारी जान तभी पाओगे जब न डरे हुए हो न आसक्त हो। यह दोनों मूल दुश्मन हैं समझदारी के इनको हटा दो, तुरंत स्पष्ट हो जाएगा कि अब तुम्हारी ज़िम्मेदारी क्या है और कोई यह न सोचे कि इनको हटाने के बाद तुम्हारा कोई रिश्ता ही नहीं बचेगा।

समझदारी और प्रेम बिलकुल साथ-साथ चलते हैं जहाँ मोह है और डर है वहाँ प्रेम भी नहीं है। तुम प्रेम को मोह न जान लेना। रिश्ते में प्रेम भी तभी रहता है जब मोह नहीं रहता। अहंता और ममता ये दोनों बिलकुल एक हैं।

जहां ममता है वहाँ प्रेम नहीं हो सकता, जहां अहंता है वहाँ प्रेम नहीं हो सकता।

जब डर जाता है, मोह जाता है तब न सिर्फ़ समझदारी का सूरज उगता है बल्कि प्रेम का गीत भी उठता है। दोनों एक साथ होते हैं। सुबह-सुबह देखा है कभी, क्या होता है? सूरज का उगना और चिड़ियों का चहचहाना दोनों एक साथ होते हैं। एक समझ लो बोध है और दूसरा समझ लो प्रेम है बल्कि चिड़िया तो सूरज के उगने से थोड़ी देर पहले से ही चहचहाने लगती है। प्रेम असल में बोध से भी ज़रा सा ज़्यादा समझदार होता है, ज़रा सा ज्यादा। कोई पूछे यदि कि प्रेम और बोध में पहला कौन है? तो कुछ कहना नहीं चाहिए। लेकिन अगर ज़ोर ही दे-दे कि बताओ प्रेम और बोध में पहला कौन? तो भूलना नहीं कि भक्ति ज्ञान की माता है। प्रेम भी समझदारी के साथ ही चलता है। डर हटाओ, मोह हटाओ तभी रिश्तों में प्रेम भी पाओगे। अभी तो तुम बस ज़िम्मेदारी निभाना चाहते हो क्यूँकी डरे हुए हो इसलिए नहीं तुम निभाना चाहते कि प्रेम है तुम्हारा।

शब्द-योग’सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories