श्रोता: सर आपने कहा कि अपने बनाये रास्ते पर चलो लेकिन जब तक हम बन्धन में हैं तब तक अपने बनाये रास्ते पर कैसे चलेंगे? हमारे ऊपर ज़िम्मेदारी हैं, कुछ नया करते हैं तो कोई न कोई टोक देता है।
वक्ता: दो-तीन बातें हैं, तुम उनका एक मिश्रण बना रहे हो। तुमने एक बात कही कि हमारे ऊपर जिम्मेदारियाँ हैं, दूसरी बात तुमने कही कि नए रास्ते पर चलते हैं तो कोई टोक देता है।
ज़िम्मेदारी माने क्या होता है? जो खुद अपंग है, वो दूसरे की ज़िम्मेदारी कैसे लेगा? जो खुद सोया हुआ है क्या वो दूसरों को जगाने की ज़िम्मेदारी ले सकता है? ले सकता है क्या? ज़िम्मेदारी माने क्या होता है? तुम जीवन को नहीं समझते, तुम पढ़ाई को नहीं समझते, तुम पैसे को नहीं समझते, तुम प्रेम को नहीं समझते। इन शब्दों में से तुम किसी को नहीं समझते, तुम ज़िम्मेदारी को कैसे समझोगे? तुम्हें पता भी है कि ज़िम्मेदारी माने क्या होता है? वो भी एक आदर्श रूप में तुम्हारे सामने रख दी गयी है, तुमने उसको पकड़ के जेब में डाल लिया है, बिल्कुल दिल के पास वाली जेब में। ज़िम्मेदारी क्या है ?
ज़िम्मेदारी का अर्थ होता है उचित समय पर उचित काम कर पाने की क्षमता।
और क्योंकि समय लगातार बदलता है, लगातार नया होता है इसीलिए जो उचित काम है वो भी लगातार नया ही होता है।
ज़िम्मेदारी है किसी भी समय पर उचित काम कर पाने की क्षमता।
ठीक इस समय तुम्हें जो करना चाहिए वही तुम्हारी ज़िम्मेदारी है, और कुछ नहीं है तुम्हारी ज़िम्मेदारी और वो ज़िम्मेदारी कोई और तुम्हें नहीं समझा सकता। वो पूर्वनिर्धारित नहीं हो सकती। ठीक अभी ध्यान से सुनना ज़िम्मेदारी है और वो ज़िम्मेदारी तुरंत बदल जायेगी जैसे ही तुम बाहर जाओगे और फिर कोई और आ जायेगी, और फिर कोई और आ जायेगी। ये बातें पहले से तय नहीं की जा सकती। एक ही व्यक्ति के प्रति एक समय पर तुम्हारी एक ज़िम्मेदारी होगी, दूसरे समय पर दूसरी होगी।
ज़िम्मेदारी का अर्थ बस ध्यान है, ज़िम्मेदारी का अर्थ है बोध, जानना कि इस समय पर क्या उचित है, यही है ज़िम्मेदारी। जिस भी समय पर जो उचित हो वही करना ज़िम्मेदारी है।
पर जब तुम कुछ और नहीं जानते जीवन में, उसका उचित होना या उसका अनुचित होना तो तुम ज़िम्मेदारी भी कैसे जानोगे? क्योंकि ज़िम्मेदारी के केंद्र में बोध बैठा है कि क्या मैं समझ रहा हूँ? मैं जीवन को समझ रहा हूँ? तुम कैसे पूरी करोगे अपनी ज़िम्मेदारी ?
क्या होता है एक बार, एक शिक्षक अपने छात्रों को पढ़ा रहा होता है। बोलता है कि देखो वृद्धों के प्रति हमारी बड़ी ज़िम्मेदारी बनती है, बड़े सम्मान के साथ उनको रखना चाहिए और बड़े दुःख की बात है कि हमारे समाज में वृद्धों का आदर नहीं है। तो खूब समझाता है बच्चों को कि हमारी ज़िम्मेदारी है वृद्धों के प्रति। जब हम छोटे थे तो उन्होंने ज़िम्मेदारी निभाई, अब वो वृद्ध हो गए हैं तो हमारी ज़िम्मेदारी बनती है। तो बच्चों ने सुना,बच्चों ने कहा कि ज़िम्मेदारी बड़ी बात है, हम भी ज़िम्मेदारी पूरी करेंगे।
अगले दिन सुबह क्लास बैठी, एक छात्र पाँच मिनट देरी से आया। शिक्षक ने पूछा कि क्यों देरी से आये? तो बोलता है कि एक बुढ़िया थी, वृद्धा,आदरणीय वृद्धा, मैं उसको सड़क पार करा रहा था, तो सड़क पार कराने में देर हो गयी। शिक्षक बिल्कुल गदगद कि वाह, सभी से कहा, तालियाँ बजाओ, तालियाँ बजी, कहा, “बैठ जाओ”, बैठ गया। दस मिनट बाद एक और आया, तुम क्यों लेट? बोला ज़िम्मेदारी पूरी करनी थी ना, एक वृद्धा थी उससे सड़क नहीं पार हो रही थी तो उसे सड़क पार करायी। तो शिक्षक ने कहा कि काम तो अच्छा किया पर इतनी देर? तो कहा कि बड़ी देर लगी पार कराने में। शिक्षक ने कहा बहुत बढ़िया, मेहनत कर के पार करायी, ताली बजाओ, ताली बजाओ, बज गयी ताली।
पंद्रह मिनट बाद तीन-चार और छात्र आये और ये ऐसा लग रहा है कि पता नहीं कहाँ खेल-कूद के आ रहे हैं। बाल बिखरे हुए हैं, कपड़ों पर गन्दगी लगी है और आधा घंटा कुल ये देरी से आ रहे हैं। शिक्षक ने बिल्कुल त्यौरियां चढ़ा के पूछा, हाँ भई, इतनी देर से क्यों? बोले सर वो ज़िम्मेदारी पूरी करनी होती है, तो वो एक वृद्धा थी उसको सड़क पार करा रहे थे। अब शिक्षक ने कहा कि ज्यादा हो रहा है, उसने कहा कि शहर भर की बूढी औरतों को आज ही सड़क पार करनी है? और वो तुम्हीं को पकड़ रही हैं सड़क पार कराने के लिए? और पार करायी तो करायी, तुमने हालत क्या बना रखी है? गंदे कपडे कर लिए हैं, धूल लगी हुई है मुँह पर, ऐसा लग रहा है कि सड़क पर लोट के आ रहे हो।
तो बोले सर शहर भर की औरतें नहीं हैं, वो एक ही है और वो राज़ी नहीं हो रही है पार करने को। तो पहले वो पार करा के आया तो वापिस आ गयी झुंझलाते हुए, फिर दूसरा पार करा के आया तो गालियां देती हुई वापिस आयी, फिर हम चारों ने कहा कि इस बार तो पक्का पार कराएँगे, तो उसने हमारा मुँह नोच लिया, सड़क पर कुश्ती हो गयी, पर हमने कहा कि पार तो करा के रहेंगे क्योंकि ज़िम्मेदारी पूरी करनी है भई। तो हमने उसको बाँधा और चार लोग उसको कंधे पर उठा के पार करा के आये हैं और बँधा ही छोड़ के आये हैं कि कहीं वापस ना पहुँच जाये। तो इसलिए हमारी ऐसी हालत है, ज़िम्मेदारी पूरी कर रहे थे।
तो वही हालत हमारी है कि हमें बता दिया गया है कि ज़िम्मेदारी है पूरी करो। बेटे हो तो ये तुम्हारी जिम्मेदारियाँ हैं, तुम समझ भी नहीं रहे हो कि इस समय पर क्या उचित है। दोस्त हो, तो ये तुम्हारी ज़िम्मेदारी है, पूरी करो। भाई हो, तो बहन के प्रति ये तुम्हारा फ़र्ज़ है, पूरा करो। तुम समझ भी नहीं रहे हो कि ये सब ज़िम्मेदारियाँ जो मुझे थमा दी गयीं हैं, इसी प्रकार कर देना ठीक है भी या नहीं। तुम्हें इसका एहसास भी नहीं है, तुम्हें तो बस एक एल्गोरिदम दे दिया गया है कि ये आचरण करना चाहिए और उसको तुमने ज़िम्मेदारी का नाम दे दिया है। वो काहे की ज़िम्मेदारी है। जो हालत उन लड़कों ने उस बुढ़िया की कर दी थी वही हालत बहुत से बेटे-बेटियाँ अपने माँ-बाप की कर देते हैं, ज़िम्मेदारी पूरी करने में और वही हालत प्रत्येक माँ-बाप कर रहा है अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करने में, क्योंकि प्रेम नहीं है, सिर्फ ज़िम्मेदारी पूरी करने का भाव है। लड़की पैदा हुई है, बस आज से ही पैसे जमा करना शुरू कर दो, एक एफ.डी. खोल दो, दहेज देना होगा, ज़िम्मेदारी पूरी करनी है। ये प्रेम है?वाकई?
जहाँ प्रेम होता है, वहाँ ज़िम्मेदारी की भावना नहीं होती। मज़े की बात है कि सारी ज़िम्मेदारियाँ पूरी होती हैं पर भावना ये नहीं होती कि मैं ज़िम्मेदारी पूरी कर रहा हूँ। वो एक बोझ की तरह नहीं होती, तुम्हारे लिए ज़िम्मेदारी मन पर एक बोझ की तरह होती है और इसी कारण तुम ये सवाल पूछ रहे हो कि ज़िम्मेदारियों का क्या करें और जिसके भी मन पर ज़िम्मेदारी एक बोझ की तरह है वो उसके delete space जीवन में प्रेम की बड़ी कमी है। वरना ज़िम्मेदारी अपने आप पूरी होती चलेंगी, तुम्हें विचार थोड़े ही करना पड़ेगा कि करें पूरी कि ना करें कि क्या करें। तुम ये थोड़े ही कहोगे कि आगे क्या होगा और पीछे क्या होगा। घुटन नहीं महसूस होगी कि अपने रस्ते पर चलना तो चाहते हैं, जैसा तुमने कहा कि चलना तो चाहते हैं पर ये ज़िम्मेदारी चलने नहीं देती। वो नहीं अनुभव होगी। ज़िम्मेदारी स्वतः पूरी होती चलेगी और तुम्हें ठीक-ठीक पता होगा कि ये कर देना चाहिए। पर वो पता होने के लिए आँखें खुली होनी चाहिए।
जैसा कि हमने शुरू में ही कहा कि ज़िम्मेदारी के केंद्र में बोध होता है। उसी बोध का दूसरा नाम प्रेम भी है। अपने प्रति प्रेम, पूरे अस्तित्व के प्रति प्रेम। तुम जानते हो कि क्या उचित है, तुम वो कर लोगे फिर तुम ये नहीं कहोगे कि ये तो मुझे किसी ने बताया ही नहीं कि वो कबूतर पड़ा हुआ है घायल, उसके प्रति मेरी क्या ज़िम्मेदारी है, मैं कुछ नहीं कर सकता। खुद जान जाओगे कि इस वक़्त मुझे क्या करना चाहिए। तुम्हें कोई नहीं चाहिए जो बताये तुम्हें, तुम फ़ोन करके नहीं पूछोगे कि पापा क्या करूँ। जब एक कबूतर पड़ा हुआ है घायल और उसके पंख में दो इंच का घाव हो, इस वक़्त में क्या ज़िम्मेदारी होती है? ना तुम ये कहोगे कि गीता में क्या लिखा है, या कुरान में क्या लिखा है, जो लिखा है, वो ही कर दें,वही तो हमारी ज़िम्मेदारी है। तुम्हें पता होगा, स्वयं पता होगा। बिना बताये पता होगा। और वही तो असली ज़िम्मेदारी है। वहाँ तुम बेधड़क होकर के बस करोगे, सोचोगे नहीं। और इसलिए नहीं करोगे कि किसी को खुश करना है, कर्तव्यों का निर्वाह करना है।
प्रेम कोई कर्तव्य नहीं होता। तुम्हारी पहली ज़िम्मेदारी है, जगना, बोध।
और जब वो पहली ज़िम्मेदारी पूरी होती है तो उसके बाद दुनिया के प्रति समस्त ज़िम्मेदारियाँ अपने आप पूरी होने लगती हैं और उन ज़िम्मेदारियों का नाम है प्रेम। पहली ज़िम्मेदारी है उठ बैठना, बोध और उससे निकलती हैं बाकी सारी ज़िम्मेदारियाँ, जिसका नाम है प्रेम ।
उसके आगे तुमने कहा कि कुछ भी करने निकलते हैं तो कोई टोक देता है। तो खुद समझो कि ये टोकने वाले लोग कैसे हैं, पहली बात। और टोकने से जो रुक जाए वो मन कैसा है, दूसरी बात। तुम अपने आनन्द के रास्ते पर बढ़ रहे हो और उसमें कोई आकर के बाधा डाले तो वो तुम्हारा मित्र हुआ या दुश्मन? अब ऐसे व्यक्ति की बात सुनो ही क्यों, जो तुम्हारा दुश्मन है। अगर मैं वाकई शुभेच्छु हूँ तो मैं नहीं चाहूँगा क्या कि तुम अपने जीवन को अपनी मुक्ति में जियो ? मैं कोई भी हूँ पर अगर मैं तुम्हारी मुक्ति में बाधा डालता हूँ तो मैं तुम्हारा शत्रु हूँ ।
जो ही तुम्हारी मुक्ति में बाधा डाले वो ही तुम्हारा दुश्मन है ।
ये बात मैं जवान लोगों से कर रहा हूँ, बच्चों से नहीं। छह साल, आठ साल के बच्चे को ये सब नहीं बोलूँगा मैं क्योंकि अभी उसका मष्तिष्क ही इतना परिपक्व नहीं कि मुक्त रह सके। पर यहाँ छह साल, आठ साल का कोई नहीं बैठा है। ये मैं बिल्कुल एक पकी हुई, जवान ऑडिएन्स से बात कर रहा हूँ। और इस समय तुम्हें ये कैसे बर्दाश्त हो सकता है कि तुम अभी भी बच्चों की तरह जियो और कोई रोक दे या टोक दे और तुम रुक जाओ, ये सम्भव कैसे है? ये सम्भव इसलिए है क्योंकि तुम ना तो उस रोकने वाले को समझ रहे हो और ना तुम अपने आप को समझ रहे हो। तुम समझ ही नहीं रहे कि जो रोक रहा है तुम्हें, वो वास्तव में क्या हुआ? और तुम ये भी नहीं समझ रहे कि उसके रोकने से अगर तुम रुक गए तो वास्तव में तुम क्या हुए?
ध्यान रखना जो उठ बैठेगा वो किसी के रोके रुकेगा नहीं। तुम लाख लोशिश कर लो वो रुकेगा नहीं। तुम हद से हद इतना ही कर लोगे ना कि मार डालोगे उसे। वो तब भी रुकेगा नहीं। जो रोकने से रुक जाए वो अभी चला ही नहीं। और तब आता है, उस जीने में मज़ा, जब तुम कहते हो, मुझे रोक कौन सकता है।
एक चरित्र है हॉवर्ड रॉर्क का, कुछ करना चाहता है। एक आदमी उस से सवाल करता है कि तुम्हें ये सब करने कौन देगा, तो कहता है कि ये सवाल ही फ़िज़ूल है कि मुझे करने कौन देगा। असली सवाल है कि मुझे रोकेगा कौन। ये सवाल ही फालतू है कि मुझे करने कौन देगा, असली सवाल है कि मुझे रोकेगा कौन ?
दुनिया मुझे दो ही तरीके से रोक सकती है, या तो मुझे लालच दिखा के या डरा के। ना मैं डरता हूँ ना मुझे किसी चीज़ का लालच है, मुझे मेरा प्यार मिल गया है। मुझे समझ में आ गया है, जीवन ऐसे जीना है और इस जीवन से मुझे प्रेम है।
मुझे अब और काहे का लालच। और ये जो मुझे समझ में आया है, ये पूरी तरह से मेरा अपना है, इसे कोई मुझसे छीन नहीं सकता। तो मुझे डर काहे का, जब कुछ छिन ही नहीं सकता तो मुझे डराओगे कैसे तुम? ना लालच है ना डर है, तो मैं रुक कैसे सकता हूँ? तुम रुक इसी कारण जाते हो क्योंकि तुम लालची हो और तुम डरपोक हो। तुम्हारे मन में ये जो छोटी-छोटी सुविधाएँ हैं, इनका बड़ा लालच है। सर के ऊपर एक छत हो,थोड़े बहुत पैसे मिल जाएँ, इज्ज़त कायम रहे, ढर्रा कायम रहे, तुम्हें इन सुविधाओं का लालच है। थोड़ी सुरक्षा मिली रहे जीवन में, तुम्हें इन सब बातों का लालच है, इस कारण तुम आसानी से गुलामी स्वीकार कर लेते हो। और तुमको खुले आसमान में उड़ने से डर लगता है, इस कारण भी तुम गुलामी स्वीकार कर लेते हो। और डर और लालच ख़ुद को धक्का देने से जायेंगे नहीं।
डर और लालच की दवा एक ही है, आत्मबोध। जब तक तुम अपने आप को उसी रूप में देखते रहोगे, जिस रूप में देखने की तुमको शिक्षा दी गयी है तब तक मन में डर और लालच बैठा ही रहेगा। तुम्हें शिक्षा दी गयी है अपने आप को मात्र सम्बन्धों में देखने की। मैं एक छात्र हूँ, मैं एक बेटा हूँ, मैं एक दोस्त हूँ, मैं एक भारतीय हूँ। मात्र सम्बन्धों में देखने की तुम्हारी पूरी ट्रेनिंग है और सम्बन्ध का अर्थ होता है, कोई दूसरा है। जब-जब तुम अपने आप को दूसरे के सन्दर्भ में ही देखोगे तब-तब दूसरा तुम्हारे लिए एक मालिक की तरह महत्त्वपूर्ण हो जाएगा। क्योंकि दूसरा हटा तो तुम्हें भी हटना पड़ेगा। क्योंकि तुम्हारा होना फिर अब दूसरे पर निर्भर करता है।
अपने आप को सम्बन्धों से हटा कर भी कुछ जानो। मैं हूँ, जिस भी बात से सम्बन्धित हूँ अगर वो बात नहीं भी रहेगी तो भी मैं हूँ। ये सब आसरे, ये सब बातें, अपने आप को मैं जिन पर आश्रित पाता हूँ, ये मुझसे छिन भी जाएँ, मैं तो भी हूँ। और ये मेरी सहूलियतें नहीं हैं, ये मेरे बंधन हैं। जब तुम्हें ये दिखेगा, उसके बाद तुम्हारे मन से लालच जाता रहेगा। डरने की बात तभी तक होती है, जब तक तुम्हें लगता है कि तुम्हारे पास कोई कीमती चीज़ है, खोने के लिए। तुमसे कहा जाए कि ‘बेख़ौफ़ होकर दौड़ो, मैदान खुला है, जितनी मर्ज़ी है, दौड़ो और तुम्हारी जेब में एक करोड़ का हीरा रखा हुआ है’, तुम्हारे लिए दौड़ना बड़ा मुश्किल हो जाएगा। बहुत ज़ोर दौड़े, बिल्कुल बेसुध हो कर के दौड़े और अगर ये हीरा कहीं गिर गया तो। तो तुम दो-चार कदम दौड़ोगे, फिर टटोलोगे और या कि दौड़ते रहोगे और एक हाथ जेब पर रखे रहोगे। जब ध्यान से देखो और तुम्हें पता चले कि कोई हीरा-वीरा नहीं है, ये तो बस पत्थर है, जेब में पड़ा है, अब तुम्हें कोई डर नहीं रहेगा। अब तुम दौड़ोगे, दौड़ोगे ही नहीं, उड़ोगे। तुम कहोगे, पड़ा है तो पड़ा है, गिर गया तो गिर गया, फर्क किसको पड़ता है। मुझे उड़ने दो।
तुम्हें डर इसी कारण है, कि तुमने उसको, जिसकी कोई कीमत नहीं है, उसको बहुत मूल्यवान समझ लिया है। तुमने इस छोटी-छोटी सहूलियतों को बहुत कीमती समझ लिया है और इनको बचाये रखने के लिए तुम उड़ने से ही इनकार कर रहे हो। इनमें कुछ है ही नहीं।
– ‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।