झूठी तरक्की के पीछे क्यों भागते हो? || आचार्य प्रशान्त (2014)

Acharya Prashant

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झूठी तरक्की के पीछे क्यों भागते हो? || आचार्य प्रशान्त (2014)

आचार्य प्रशांत: तुममें से कई लोग नौकरी ढूँढने निकलोगे, नौकरी ऐसी देखो जहाँ तुम खेल सको। ये न देखो कि महीने के अंत में पैसे कितने मिलेंगे, ये देखो कि, "क्या ये जगह मेरे खेलने का मैदान बन सकती है? मैं मज़े ले सकता हूँ? मैं मुक्त दौड़ सकता हूँ?" अगर मुक्त दौड़ सकते हो, तो ज़रूर उस जगह पर रहो। पर, जो जगह तुम्हें मुक्त दौड़ने नहीं देती, उछलने-कूदने नहीं देती, गिरने नहीं देती, चोट खाने नहीं देती, और किसी दिन मौज है तो चुप-चाप सोने नहीं देती, उस जगह पर कभी न रुकना। जहाँ तुम्हें ये हक न हो कि आज हमारी मौज है, आज हम सिर्फ विश्राम कर रहे हैं। खेलने का हिस्सा है, थम जाना खेलने का हिस्सा है, “अभी हम थमे हुए हैं।” जो जगह तुम्हें ये हक नहीं देती कि तुम गिरे पड़े हो – खेलने में गिरने का हक होता है, चोट खाने का हक होता है, याद रखना ये खिलना, गिरना, उठना, चोट खाना, रुक जाना, ये व्यर्थ नहीं होता, यही गहरी सृजनात्मकता, क्रियेटिविटी है। तुम सृजनात्मक तभी हो सकते हो जब तुम निष्काम कर्म करो। पूरी दुनिया तलाश कर रही है सृजनात्मकता की, और बड़ी गोष्ठियाँ होती हैं, बड़े समारोह होते हैं किसी तरीके से कुछ सृजनात्मक लोग मिल जाएँ, किसी तरह पता चल जाए कि अपने संगठन में हम सृजनात्मकता को प्रोत्साहन कैसे दें? तुम बात समझे ही नहीं, क्योंकि तुम जानते ही नहीं कि सृजनात्मकता क्या है और कहाँ से आती है।

सृजनात्मकता आती है खिलंदड़ेपन से।

सृजनात्मकता फूल है मुक्ति का। जब मन मुक्त होता है, तो उसमें जितने फूल लगते हैं, वो नए-नए, और सुन्दर, और अपूर्व होते हैं। इन अपूर्व फूलों को सृजनात्मकता कहा जाता है। अपूर्व यानि वो जिसका अतीत से कोई लेना देना ना हो। तो हम बात तो बहुत करते हैं, सृजनात्मकता, पर क्या हमें पता है कि सृजनात्मकता कभी ऐसे माहौल में आ नहीं सकती जहाँ परिणामों पर बहुत ज़ोर दिया जाता हो, जहाँ तरक्की पर बहुत जोर दिया जाता हो? तरक्कीपसंद लोग कभी सृजनात्मक नहीं हो सकते। सृजन उनके बस का नहीं है। निर्माण कर सकते हैं वो, पर निर्माण सृजन नहीं है।

समझ रहे हो बात को?

देखो, परिणाम आधारित काम कर के, तुम अपनी उत्पादकता तो बढ़ा लोगे, पर अपनी सृजनात्मकता खो दोगे। और हमारी पूरी व्यवस्था का दुर्भाग्य यही है कि उसने ऐसे लोगों की फ़ौज खड़ी कर दी है जो उत्पादक तो हैं पर सृजनात्मक नहीं हैं। जो उत्पादन तो कर रहे हैं पर सृजन नहीं कर रहे। उत्पादन हो रहा है, निश्चित रूप से हो रहा है, आज दुनिया में जितना उत्पादन होता है, उतना पहले कभी नहीं हुआ। उत्पादन हो रहा है, और उत्पादों का भोग हो रहा है।

उत्पाद है, और उस उत्पाद का भोग है। पर सृजन नहीं है। क्योंकि सृजन, भोग के लिए किया नहीं जाता, वो तो अपनी मौज के लिए किया जाता है। अब आप देखिये, आपको अपने छात्रों को, और अपने बच्चों को क्या बनाना है? उत्पादक, उनको मशीन बना देना है उत्पादन की? या सृजनात्मक? उत्पादन का अर्थ है बहुत सारा। संख्या, पदार्थ, मात्रा। और सृजनात्मकता का मतलब है आत्मा।

उत्पादकता है पदार्थ-धर्मिता, और सृजनात्मकता है आत्म-धर्मिता।

आपको वस्तु बना देना है अपने बच्चों को और अपने शिष्यों को? या आपको उनकी आत्मा को जागृत करना है? वस्तु बना देना हो तो उन्हें उत्पादकता के पाठ पढ़ाईये, वो वस्तु बन जाएँगे और खूब वस्तुएँ पैदा भी करेंगे, और वस्तुओं का भोग भी करेंगे। और अगर उन्हें इंसान बनाना हो वास्तव में, तो उनकी आत्मा जगाईये। अब वो सृजन करेंगे। उनका नाच सृजन का नाच होगा। वो भूखे-भूखे से घूमेंगे नहीं कि “भोग लूँ।” उनके भीतर तृप्ति का एक बिंदु सतत बैठा रहेगा।

हम भूखों की फ़ौज पैदा कर रहे हैं, जो भीख का कटोरा हाथ में ले कर के संसार के सामने खड़े रहते हैं, “कुछ दे दो, तरक्की दे दो, पैसा दे दो, पद्वी दे दो, मान, सम्मान, किसी तरह की मान्यता, पहचान, उपाधि।” और इसको हम नाम देते हैं कि अब ये पढ़ा लिखा इंसान है, शिक्षित है। भिखारी बना दिया उसे, हर घर में भिखारी बच्चे पैदा किये जा रहे हैं, जिनका दिल अब भीख का कटोरा बन गया है कि कोई इसमें कुछ डाल दे। तरस रहे हैं वो, इधर-उधर दौड़ रहे हैं, “कोई कुछ दे दे।”

ये क्या किया? राजा पैदा हुआ था बच्चा, और तुमने भिखारी बना दिया उसे? हर बच्चा राजा पैदा होता है, माँ-बाप भिखारी बना देते हैं उसे। उसके भीतर अपूर्णता का, हीनता का भाव बैठा-बैठा कर, बैठा-बैठा कर, अब वो ज़िन्दगी भर भीख माँगेगा। और जिस दिन थोड़ी ज़्यादा भीख मिलेगी, उस दिन कहेगा, तरक्की, हुई। भीख माँगेगा, भीख भोगेगा।

जीवन पड़ा है पूरा तुम्हारे सामने, भिखारी की तरह मत बिताओ, पूर्णता स्वभाव है तुम्हारा, कोई कमी नहीं है तुममें। समझ रहे हो?

जो आदमी, जो व्यवस्था, जो शिक्षा, जो माहौल, जो संगति तुम्हें ये सन्देश देती हो कि तुममें मूल रूप से कोई कमी है, उससे बचना। और वो सन्देश यही कह कर नहीं दिया जाता कि तुममें कमी है, वो सन्देश अक्सर ये कह कर दिया जाता है कि हम तुम्हारी कीमत में कुछ इज़ाफा कर सकते हैं। इज़ाफा तो तभी किया जाएगा न जब पहले कोई कमी होगी? उन लोगों से बचना जो बार-बार तुम्हें मूल्य वृद्धि का सबक पढ़ाते हैं। जो बार-बार तुमसे कहते हैं कि, "हम तुम्हारी कीमत में इज़ाफा कर देंगे, तुममें कुछ मूल्य वृद्धि कर देंगे", उनसे पूछो कि तुझे मुझमें ऐसी कमी क्या दिख रही है कि तू मूल्य वृद्धि कर देगा?

देखो मैं नहीं कह रहा हूँ कि तुम सीखो नहीं। कौशल हाँसिल की जा सकती है, ज्ञान इकठ्ठा किया जा सकता है, वो करो। जानकारी बाहर से ही आएगी, वो लेलो, पर मूल रूप से याद रखो कि ज्ञान बाहरी चीज़ है, तुमने किसी तरह की कोई निपुणता हाँसिल कर ली है, वो बाहरी बात है। तुम इंजीनियर बन गये हो कि प्रबंधक बन गए हो, वो सब बाहरी बात है। पर केंद्रीय रूप से तुम पूरे ही हो। और तुम्हारा कुछ बिगड़ नहीं जाना था अगर तुम इंजीनियर या प्रबंधक नहीं भी बनते तो। बन गए तो बन गए, नहीं बने तो नहीं बने। इंजिनियर बड़ा है, तुम बड़े हो? कौन ज़्यादा बड़ा है? तुम बड़े हो। इंजीनियर नहीं बड़ा है।

बन गए इंजीनियर तो बन गए, और नहीं बने तो नहीं बने। ये नहीं कि, "मैं इंजीनियर नहीं बना तो मेरी हैसीयत क्या रह गई? मैं तो टुकड़े-टुकड़े हो गया, ख़ाक बराबर हूँ।" ना, अगर तुममें ये भाव आरोपित किया जा रहा है, तो बचो ऐसे माहौल से। इंजीनियरिंग खेलने के लिए है, खेलो उसके साथ। किताबें खेलने के लिए हैं, उनके साथ खेलो। दुनिया तुम्हारी क्रीड़ाभूमि है, खेल का मैदान। दौड़ों, खेलो। और इस डर में ना रहो कि तुम्हारा कुछ छिन जाने वाला है, बिगड़ जाने वाला है। क्या छिनेगा? क्या बिगड़ेगा? छिनने और बिगड़ने का डर इस कारण पैदा होता है क्योंकि तुम्हें बता दिया गया है कि इकठ्ठा करना ज़रूरी है। और जब इकठ्ठा करते हो तभी छिनने का डर आता है। फिर तुम और इकठ्ठा करते हो कि थोड़ा छिन भी गया तब भी बचेगा। और ये एक अंतहीन श्रृंखला चालू हो जाती है। इकठ्ठा करो, इकठ्ठा करो। ज्यों इकठ्ठा करोगे, त्यों छिनने का डर और बढ़ेगा।

तुम्हें जितना चाहिए, उतना तुम्हें मिल जाएगा, श्रद्धा रखो। तुम अस्तित्व के बच्चे हो। वेद कहते हैं “तुम अमृत के बेटे हो – अमृतस्य पुत्रः।” तुम्हारा क्या बिगड़ सकता है? हाँ, तुम ये कहो कि, "जीवन सार्थक तभी हुआ जब मैंने दो अरब कमाए", तब ज़रूर बिगड़ सकता है। क्योंकि दो अरब रूपये देने की अस्तित्व की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। लेकिन हाँ, उसने तुम्हें जीवन दिया है, जीवन तुम्हारा चलता रहेगा। अगर तुम सिर्फ अपनी मूलभूत आवश्यकताओं में जियो, तो बड़े आनंद में जियोगे।

तुम्हारे हर आँसू, तुम्हारी हर मजबूरी की वजह यही है कि तुमने अपनी ज़रूरतें फैला ली हैं। जो तुम्हें चाहिए नहीं वो भी तुम्हें इकठ्ठा करना है। और जब तुम्हें इतना सब कुछ इकठ्ठा करना है, तो वो तो तुम्हारी तथाकथित तरक्की से ही आएगा, और तुम्हें भिखारी बना कर के ही आएगा। भीख माँगोगे, कि अभी इतना और इकठ्ठा करना है। कह गये हैं न कबीर, “जिन्हें कुछ न चाहिए, वे शाहन के शाह” “चाह गई चिंता मिटी मनवा बेपरवाह, जिनको कुछ न चाहिए, वे शाहन के शाह” कुछ न चाहिए से आशय यही है कि जो तुम्हें चाहिए ही है, वो मिला हुआ है और मिलता ही रहेगा।

धरती के बच्चे हो, धरती दे देगी तुम्हें, हवा दे देगी तुम्हें, पेड़ दे देंगे तुम्हें, नदी दे देगी तुम्हें। जब इन्होने तुम्हें जन्म और जीवन दे दिया, तो क्या तुम्हें पोषण नहीं दे देंगे? क्या जन्म और जीवन तुम्हारी अपनी तरक्की से आया? क्या तरक्की कर करके तुम पैदा हुए? जब अस्तित्व तुम्हें जन्म दे सकता है तो अस्तित्व तुम्हारा पोषण भी करेगा। तुम्हें यकीन क्यों नहीं आता? इतने श्रद्धाहीन क्यों हो?

पर नहीं, तुम्हें लगता है कि, "धोखे से जन्म हो गया है, और किसी बड़ी अजीब और दुश्मन दुनिया में आगया हूँ। और यहाँ मुझे किसी प्रकार बस अपनी रक्षा करनी है। पूरा वातावरण मेरा विरोधी है, मेरा शत्रु है, मुझे मारने पर उतारू है, मुझे अपने आप को बचाना है", नहीं ऐसा नहीं है। तुम इस वातावरण के विरोध में नहीं पैदा हुए हो, तुम इस वातावरण में ही पैदा हुए हो। अगर ये धरती, अगर ये अस्तित्व तुम्हारा विरोधी होता तो तुम पैदा कैसे हो जाते? तुम साँस कैसे ले पाते? सब कुछ इकठ्ठा है, ये पूरा आयोजन हुआ है, ताकि तुम हो सको, तुम हो इस पूरे की वजह से, ये तुम्हारा दोस्त है, इसपर भरोसा करो।

तुम क्यों डरते हो? तुम क्यों इकठ्ठा करते हो? तुम क्यों परवाह करते हो कल क्या होगा? जैसे तुम्हारा आज आया है, वैसे ही कल भी आ जाएगा। इंतज़ाम हो जाएगा। तुम्हें बचा कर रखने की कोई ज़रुरत नहीं है। तुम्हें कल की परवाह करने की कोई ज़रुरत नहीं है। समझ है न? बोध है न? काफी है। वो असली है, उससे सब हो जाएगा। और वो तुम्हें मुफ्त मिला है तोहफे की तरह। तुम्हें क्या अर्जित करना है? तुम्हें क्या कमाना है? तुम्हें कौन सी तरक्की करनी है? तुम्हें तो सबसे बड़ा उपहार मिला है, बोध का उपहार, जानने का उपहार। तुम्हें वास्तव में करने को कुछ है नहीं। तुम्हें खेलने के लिए भेजा गया है। अगर कोई ईश्वर है और इंसान को बनाते समय उसने कुछ भी इंसान से बोला है, तो मैं समझता हूँ, बस दो शब्द बोले हैं, “जाओ खेलो।” इसके अतिरिक्त ईश्वर ने तुमसे कुछ बोला नहीं।

ये दुनिया तुम्हारे खेलने का मैदान है, खेलो। और तुमने दुनिया को युद्ध का मैदान बना लिया। जिस जगह पर खेलना था, वहाँ पर तुमने हिंसा और रक्तपात कर दिया। जहाँ तुम्हें प्रेम के गीत गाने थे, वहाँ तुम युद्ध की दुदुम्भी बजाते हो क्योंकि तुमने तरक्की करनी है, क्योंकि तुम डरे हुए हो। खेलो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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