झूठी आसक्ति और सच्ची आसक्ति || आत्मबोध पर (2019)

Acharya Prashant

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झूठी आसक्ति और सच्ची आसक्ति || आत्मबोध पर (2019)

एवमात्मारणौ ध्यानमथने सततं कृते। उदितावगतिर्ज्वाला सर्वाज्ञानेन्धनं दहेत्॥

जब आत्मा के निम्न और उच्च पहलुओं (आत्म-अनात्म) का मंथन किया जाता है, तो उससे ज्ञानाग्नि उत्पन्न होती है। जिसकी प्रचण्ड ज्वालाएँ हमारे भीतर के अज्ञान-ईंधन को जलाकर राख कर देती हैं।

—आत्मबोध, श्लोक ४२

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। ये अग्नि कैसे जले जिसमें सारा अहंकार ख़ाक हो जाए जो सिर चढ़ कर नाच रहा है? कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: श्लोक स्वयं बता रहा है कि वो आग कैसे जलती है। "जब आत्मा के निम्न और उच्च पहलुओं का मंथन किया जाता है तो उससे ज्ञानाग्नि उत्पन्न होती है।" निम्न पहलू क्या है और उच्च पहलू क्या है आत्मा का? आत्मा का उच्च पहलू है विशुद्ध आत्म ही। और आत्मा का निम्न पहलू क्या है? अहंकार।

आत्मा बिंदु मात्र रहे, तो इसमें उसकी विशुद्धता है, ये उसका उच्च पहलू हो गया। और आत्मा अहंकार बनकर फैल जाए, मलिन हो जाए, दोषपूर्ण हो जाए, तो ये अहंकार है। श्लोक कह रहा है कि जीवन को साफ़-साफ़ देख करके जब तुम समझने लगते हो कि कौन-सा काम तुम्हारी सच्चाई से निकल रहा है, और कौन-सा काम तुम्हारी कमज़ोरी से या तुम्हारे डर से या तुम्हारे लालच से निकल रहा है, तो उससे एक आग पैदा होती है जो जीवन की सब अशुद्धताओं को जला देती है।

बात बहुत सीधी है। जो जीवन में हटने योग्य है, वो तभी तो हटेगा न जब पहले पता चले कि वो कोई नीची, निकृष्ट, हेय चीज़ है। जो नीची चीज़ है, वो जीवन में ये बोलकर थोड़े ही बनी रहती है कि वो नीची है। जीवन में जो कुछ भी निम्न है, नीचा, वो भी यही कह करके तो बसा हुआ है न कि, "मुझमें भी कुछ दम है, मेरी भी कोई बात है, कोई शान है, कोई मूल्य है, कोई ऊँचाई है।" वो भी अपनी शेखी तो बघार ही रहा है, “मैं भी कुछ हूँ!”

आदिशंकर कह रहे हैं, साफ़ देखो लो कि क्या है जो वास्तव में कीमती है, और क्या है जो बस कीमती होने का ढोंग कर रहा है। ये देख लोगे तो आग पैदा होगी जो जीवन के सब कचरे को जला देगी।

इस पर कोई बात, कोई प्रश्न?

प्र२: देखने की शक्ति कैसे आएगी, उसको कैसे देख सकें?

आचार्य: अगर जीवन में उलझन है, दुःख है, तो देखो कि क्या कर रहे हो। शक्ति कहाँ से आएगी? तुम्हारा दुःख ही तुमको शक्ति देगा। परेशान आदमी को दौड़-धूप करते देखा है न, कि नहीं? बल्कि जो परेशान होता है, वो और ज़्यादा दौड़-धूप करता है, है न? उसे शक्ति कहाँ से मिलती है? परेशानी से। परेशान आदमी जो दौड़-धूप कर रहा है, उसको दौड़-धूप की ताक़त भी कहाँ से मिल रही है? परेशानी से। तो जीवन में अगर परेशानियाँ हों, तो उन परेशानियों को ही ताक़त के रूप इस्तेमाल करो। “परेशानी है तो मुझे साफ़-साफ़ देखना पड़ेगा कि बात क्या है।”

प्र३: आचार्य जी, जीवन की जो भी परेशानियाँ हैं, ज़्यादातर अटैचमेंट (आसक्ति) से हैं। अपने सांसारिक जीवन में रहते हुए डिटैच (अनासक्त) कैसे हों?

आचार्य: हम कभी अटैच (आसक्त) होने भर के लिए थोड़े ही अटैचमेंट विकसित करते हैं। मैं कह रहा हूँ कि अटैचमेंट का भी जो मकसद है, वो यही नहीं है कि बस अटैच हो जाओ। अटैचमेंट माने क्या? मैंने इसको पकड़ा *(पानी का गिलास पकड़ते हैं)*।

प्र४: सेल्फ़ सेन्टर्डनेस (आत्मकेन्द्रितता) ही है *अटैचमेंट*।

आचार्य: (पानी का गिलास उठाते हुए) ये अटैचमेंट ही है न? ग़ौर से देखेंगे। अभी ये हाथ इस ग्लास से अटैच हो गया। पर क्या ये हाथ इस ग्लास से इसलिए अटैच हुआ है कि बस अटैच ही रह जाए? अटैच होने का भी कुछ मकसद है भाई। मकसद क्या है? मकसद ये है कि इस हाथ को कहीं-न-कहीं ये आशा है कि अगर अटैच होगा तो प्यास बुझेगी।

अटैचमेंट का भी मकसद अटैचमेंट मात्र नहीं है। अटैचमेंट का भी मकसद यही है कि तृष्णा मिटे, ठीक? तो कोई बुराई नहीं है। बुराई किसलिए नहीं है? क्योंकि ये अटैचमेंट प्यास बुझाने के बाद (ग्लास नीचे रखते हैं) छूट गया। अगर सही चीज़ से अटैच हुए हो, अगर सही चीज़ से तुमने नाता जोड़ा है, सही वस्तु से तुमने सम्बन्ध बनाया है, तो वो अटैचमेंट लम्बा नहीं चलेगा। और अटैचमेंट तो अटैचमेंट है ही तभी जब पकड़ा तो पकड़ ही लिया फिर छोड़ ही नहीं रहे। यानि कि अगर सही सम्बन्ध है तो उसमें अटैचमेंट नहीं होगा, उसमें तो *(ग्लास उठाकर पानी पीते हैं और फिर नीचे रख देते हैं)*।

अटैचमेंट कब लम्बा खिंच जाता है? अब मुझे लगी है प्यास, और मैंने पकड़ लिया इसको (हाथ में रुमाल दिखाते हुए) , इसमें भी अटैचमेंट है न? और मैं क्या कर रहा हूँ बार-बार *(रुमाल से मुँह पोंछते हैं)*। प्यास बुझ रही है क्या? लेकिन मुझे न जाने क्या धारणा है, न जाने कैसा भ्रम है कि इससे मेरी प्यास बुझ जाएगी, बल्कि इसी से मेरी प्यास बुझेगी, ऐसी मेरी धारणा।

तो अब मैं क्या करूँगा? मेरी पक्की धारणा है कि मेरी प्यास इसी से बुझेगी और प्यास तो मुझे हलक़ में तीव्र लगी हुई है। तो अब मैं क्या करूँगा? मैं इसे पकड़े रहूँगा (रुमाल से चेहरा पोंछते हुए) और बार-बार कोशिश करता रहूँगा, और जितनी बार कोशिश कर रहा हूँ, उतनी बार मेरी प्यास बढ़ती जा रही है। और प्यास जितनी बढ़ती जा रही है, उतना मैं इसको (रुमाल हाथ में दिखाते हुए) और पकड़े हुए हूँ, क्योंकि मुझे तो धारणा यही है कि मेरी प्यास यही बुझाएगा। तो मेरा अटैचमेंट और मजबूत होता जा रहा है। मैं और ज़्यादा गिरफ्त में लेता जा रहा हूँ, और ज़्यादा गिरफ़्त में आता जा रहा हूँ।

अब ये देख रहे हो क्या हो रहा है? जितना इसको गिरफ़्त में ले रहा हूँ, प्यास उतनी और बढ़ रही है। प्यास जितनी बढ़ रही है, उतना मैं इसको गिरफ़्त में ले रहा हूँ। ये हुआ घातक अटैचमेंट , ये हुई कुसंगति, ये हुआ मोह, इसी को शास्त्र कभी राग कहते हैं, कभी आसक्ति कहते हैं।

पर बात अच्छे से समझो। जिससे जुड़े हो, जिससे अटैच्ड हो, उससे यूँ ही नहीं अटैच्ड हो, उससे उम्मीद है कि वो…(गिलास उठाकर पानी पीते हैं) * । तो यही सवाल पूछ लो कि जिससे * अटैच्ड हैं, वो प्यास बुझा भी रहा है कि नहीं।

ईमानदार सवाल, क्या? "जिससे इतना जुड़े हुए हैं ज़िन्दगी में, उसकी मौजूदगी मेरी प्यास बुझाती भी है, या नहीं बुझाती?" कहीं ऐसा तो नहीं कि खाली जाम पकड़ रखा है, बार-बार होठों से लगाते हैं, इतनी बार होठों से लगाया है कि होंठ ही कटने लगे हैं। प्याले में पानी तो नहीं है, अब हमारा ख़ून भरता जा रहा है। ये हुआ अटैचमेंट , कि जुड़े भी हो और पा भी कुछ नहीं रहे।

हाँ, किसी से जुड़ करके वास्तव में अगर कुछ पा जाओ, तो जुड़ने में क्या बुराई है भाई? किसी से जुड़ करके यदि प्यास बुझ जाए तो मैं कहता हूँ, एक नहीं, हज़ार बार जुड़ो।

रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार। रहिमन फिरि फिरि जोड़िए, टूटे मुक्ता हार।।

—संत रहीम

हार मोतियों का हज़ार बार भी टूटेगा तो उसे तुम हज़ार बार जोड़ोगे; बार-बार जोड़ो। सुजन अगर रूठ जाएँ तो बार-बार मनाओ, क्योंकि उनसे प्यास बुझती है। पर जिससे प्यास बुझती ना हो, उससे बस आदतवश जुड़े हो, भ्रमवश, धारणावश जुड़े हो, इसलिए जुड़े हैं कि बीस साल से जुड़े हैं तो जुड़े ही हुए हैं। "अब जब बीस साल से जुड़े हैं, तो जुड़े ही रहेंगे न!" ये कोई बात नहीं हुई, ये तो कोई बात नहीं हुई। बीस साल से ग़लत गोली खा रहे थे तो अब खाते ही रहेंगे, कि बीस साल से ग़लत राह जा रहे थे तो जाते ही रहेंगे। ये कोई बात नहीं हुई।

प्र३: अटैचमेंट और पज़ेसिवनेस (आधिपत्य की भावना) एक ही हैं?

आचार्य: इसको (पानी का गिलास दिखाते हैं) छोड़ने में मुझे कोई तकलीफ़ नहीं होगी। क्यों? (गिलास से पानी पीते हैं) प्यास तो बुझ गई, अब पकड़े रहकर क्या करूँगा? तो छोड़ दिया। पज़ेस करने की ज़रूरत क्या है? इसको (दूसरे हाथ से रुमाल दिखाते हैं) पज़ेस करने की बड़ी सख़्त ज़रूरत है। क्यों? क्योंकि प्यास तो बुझी ही नहीं।

जिसके प्रति तुम पज़ेसिव हो रहे हो, समझ लो तुम्हारे किसी काम का नहीं है। तुम्हारे काम का होता तो तुम्हारी प्यास बुझा चुका होता, तुम्हें उसे पज़ेस करने की ज़रूरत ही नहीं होती। पज़ेस करने की भावना, अधिकार कर लेने की भावना, किसी पर मालकियत करने की या कब्ज़ा करने की भावना ये बताती है कि उससे तुम्हें कुछ मिल रहा नहीं है। क्या करोगे?

इसी तरीक़े से तुम्हारे प्रति अगर कोई पज़ेसिव हो रहा है तो वहाँ भी समझ लो कि ये सम्बन्ध यूँ ही है, दम नहीं है इसमें। पज़ेसिवनेस साफ़-साफ़ दर्शाती है कि रिश्ते में जान नहीं है। प्रेम होता तो पज़ेसिवनेस नहीं होती।

प्र३: इंडिपेंडेंस (स्वतंत्रता)?

आचार्य: इंडिपेंडेंस तो फ़ुलफ़िलमेन्ट के साथ आती है न, ओनली द फ़ुलफ़िल्ड वन इज़ इंडिपेंडेंट (सिर्फ एक पूर्णता में स्थापित व्यक्ति ही स्वाधीन हो सकता है)। नाता ऐसा है कि इस नाते में फ़ुलफ़िलमेन्ट न इसको है, न इसको (दोनों हाथों की तर्जनी उँगली दिखाते हुए) * । लेकिन भ्रम इसको ये है कि इससे * (दाईं तर्जनी को बाएँ से) मिल जाएगा और भ्रम इसको ये है की इससे (बाईं तर्जनी को दाएँ से) मिल जाएगा।

तो दोनों ने (दोनों तर्जनियों को एक दूसरे में कसकर फँसाते हैं) एक दूसरे को कर रखा है पज़ेस , क्योंकि इसको इसका इस्तेमाल करना है, इसको इसका इस्तेमाल करना है, इस्तेमाल कोई किसी का नहीं कर पा रहा। या ये कह लो कि भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं दोनों एक दूसरे का, लेकिन फिर भी मिल कुछ नहीं रहा है, प्यास बुझ नहीं रही है। प्यास बुझ रही होती तो पज़ेस क्यों करना चाहते?

ख़ुद भी ये देखो कि जिस तरीक़े से गाड़ी चल रही है, उसमें अपना कुछ भला नहीं हो रहा। और दूसरे से भी यदि प्रेम है तो उसको यही बताओ कि 'जैसे हम गाड़ी चला रहे हैं, ऐसे में ना तुम्हारा भला है, ना हमारा; कुछ दिशा बदलते हैं, कुछ अलग, कुछ नया करते हैं।' ज़िन्दगी छोटी है, व्यर्थ गँवाने के लिए नहीं है, जैसे जा रही है अगर उसमें नहीं कुछ पा रहे तो कुछ बदलना पड़ेगा न, भाई, सीधी-सी बात है! 'आओ कुछ बदलें, तुम भी बदलो, हम भी कुछ बदलें।'

इसका मतलब ये नहीं है कि लड़ लिए या सम्बन्ध विच्छेद कर लिया या दूर हो गए, हम बस ये कह रहे हैं कि कुछ बदलना ज़रूरी है, हमारे सम्बन्ध की अभी जो दशा है, वो ना तुम्हारे काम की है, ना हमारे काम की है। ऐसे नहीं चलेगा। आओ इसको बेहतर बनाते हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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