झूठे मुहावरे, झूठी मान्यताएँ || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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झूठे मुहावरे, झूठी मान्यताएँ || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: तुम अच्छे-खासे नौजवान थे जब तुम घुस गए थे कि, "मुझे तो एमबीए करना है!" अब कह रहे हो एमबीए करके बड़े दुख में हूँ। इतने दिनों में, पच्चीस-सत्ताईस के होकर, तुम्हें ये समझ आया कि ऐसा नहीं होता कि सब काम एक बराबर होते हैं।

सब काम एक बराबर होते तो चाहे तुम दुकान पर गीता की प्रतियों का वितरण करो और चाहे तुम दुकान पर शराब के विक्रेता बन जाओ और चाहे तुम किसी वैश्यालय में जा करके जिस्मों के विक्रेता बन जाओ, बात एक होती। "कोई काम तो छोटा-बड़ा होता नहीं!" फिर तो गीता का वितरण करना और शराब का विक्रय करना बिलकुल एक ही बात होती न?

कौन-से शास्त्र में लिखा है कि काम छोटे-बड़े नहीं होते, मुझे बताओ? हाँ, काम बिलकुल छोटे-बड़े होते हैं। गीता अगर तुम्हारे घर वालों ने ज़रा पढ़ी होती, समाज ने ज़रा पढ़ी होती और लोगों ने ज़रा पढ़ी होती तो वहाँ साफ़-साफ़ बता रहे हैं कृष्ण कि सकाम कर्म भी होता है, निष्काम कर्म भी होता है, अकर्म भी होता है, विकर्म भी होता है।

अरे! अलग-अलग होते हैं काम। सब काम अगर एक से होते तो कोई काम अकर्म, कोई विकर्म और कोई निष्काम कर्म क्यों कहलाता? लेकिन नहीं, ये हमारी जनश्रुति है। ये हमारी कन्वेंशनल पॉपुलर विज़डम (पारम्परिक ज्ञान) है। मुझे तो ये फ्रेज़ (वाक्य) ही समझ में नहीं आता। ये पॉपुलर विज़डम क्या चीज़ होती है भाई? जैसे ' पॉपुलर मेडिसिन ' कि, "आपने कोई दवाई क्यों ली?" "वो हमने पूरे मोहल्ले में जनमत संग्रह कराया था, मोहल्ले के अड़तालीस लोगों ने मतदान किया, सत्ताईस लोगों ने बोला कि फलानी दवाई खा लो तो हमने खा ली।" मूर्खों का मोहल्ला! सत्ताईस लोग तुम्हें कोई दवाई खिला रहे हैं तुम खा लोगे? वैसे ही ये समाज है उसमें कोई चीज़ चल रही है इस तरीक़े से — 'कोई काम छोटा-बड़ा नहीं होता' तो तुमने मान ली ये बात।

तुमको जीवन के सूत्र समझने थे, तुमसे श्रीमद्भगवत गीता कितनी दूर थी बताओ? तुमसे कठोपनिषद कितनी दूर था, तुमसे अष्टावक्र कितनी दूर थे? तुमसे नानक, कबीर, और रैदास कितनी दूर थे? तुम इनसे क्यों नहीं गए पूछने? जिन्होंने अपना पूरा जीवन, जीवन को ही समझने में लगा दिया तुम इनसे क्यों नहीं गए पूछने? तुम अपने लल्लू ताऊ जी से जा कर क्यों पूछ रहे थे?

और उन्होंने बता दिया कि "बेटा! कोई काम छोटा-बड़ा नहीं होता।" फिर तो किसी बूचड़ खाने में जानवरों को काटकर बेचना बराबर ही हो गया, दुनिया के किसी भी और काम के। फिर तो जितनी चेतनाएँ हैं सब एक ही तल की हो गईं। कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ता कौन-सी चेतना किस भाव से काम कर रही है और अपने लिए किस कर्म का चयन कर रही है।

फिर तो मुक्ति की बात ही व्यर्थ हो गई। क्योंकि मुक्ति भी सही कर्म करने का एक चुनाव होता है। अगर सारे कर्म एक बराबर होते तो सही कर्म कुछ नहीं, गलत कर्म कुछ नहीं। फिर तो विवेक शब्द ही अर्थहीन हो गया न क्योंकि विवेक का अर्थ ही होता है सही और गलत के बीच की पहचान। जब सब कर्म एक बराबर हैं तो कुछ सही नहीं, कुछ गलत नहीं, काहे का विवेक!

न जाने किस मूर्ख ने ये मुहावरा प्रचलित कर दिया कि 'कोई काम छोटा-बड़ा नहीं होता' और ये काम न जाने कितने दुर्बुद्धियों के लिए बहाना बन गया जीवन में गलत काम चुनने का। और ऐसा नहीं है कि लोग स्वयं नहीं मानते भीतर से कि कोई काम छोटा बड़ा होता नहीं। मानते हैं लेकिन, हारे को हरिनाम। जब तुम्हें तुम्हारी कामना का काम करने को न मिले, तो कह दो कि ये जो दूसरा काम मिला है ये भी कोई छोटा थोड़े-ही है, बिलकुल छोटा नहीं है।

न जाने कितने इस तरह के लोकप्रिय मुहावरे हैं जो अति मूर्खतापूर्ण हैं लेकिन समाज में खूब प्रचलित हैं। और जब भी किसी को कोई बेवकूफ़ी का काम करना होता है, तो वो इस तरह का कोई मुहावरा छोड़ देता है और अपनी बात को जायज़ ठहरा देता है।

अरे भैया ये मुहावरे हैं, ये उपनिषदों के श्लोक थोड़े ही हो गए। ये संतों की सीख थोड़े ही हो गए। ये तो यूँही किसी ने कोई बात चला दी जो चलती जा रही है, चलती जा रही है। इन मुहावरों में कभी-कभी बीच में मिल जाती है ऐसी बातें जो सच्ची भी हैं लेकिन साथ-ही-साथ इन मुहावरों में बहुत सारी अनर्गल और व्यर्थ बातें भी छुपी हुई हैं।

इन लोकोक्तियों को और इन सब बातों को सत्य का दर्जा मत दे देना कि तुम कहो — "वो हमारे गाँव में एक कहावत चलती है" और तुम्हारे गाँव की वो जो कहावत है वो कृष्ण की गीता के वचन के बराबर हो गई। और होता यही है क्योंकि गाँव की कहावत याद रखना ज़्यादा आसान है, गीता का श्लोक याद रखना मुश्किल है तो अधिकांश लोग अपना जीवन गीता के श्लोकों पर नहीं आधारित करते, अपने गाँव की कहावत पर चल देते हैं। बचना इस तरह की पॉपुलर कन्वेंशनल विज़डम से।

बोध, कन्वेंशनल माने परम्परावादी नहीं हो सकता। बोध का उद्भव तो रहस्य से होता है, परम्परा से नहीं। बोध कहाँ से आता है, ये बात ही बात के पार की है।

तुम कहो, "हमारा एक घरेलू मुहावरा है हम उस पर चलते हैं, हमारा एक पुश्तैनी मुहावरा है हम उस पर चलते हैं।" तुम पगला गए हो? तुम होगे किसी भी खानदान के, तुम होगे किन्हीं भी पुश्तों के, तुम्हारे खानदान के लोग, तुम्हारे पुरखे, कृष्ण से ऊपर के हो गए क्या? कि तुम कहो, "हमारे दादा जी सिखा गए थे फलानी बात हम इसीलिए उस पर चल रहे हैं।"

होंगे कोई तुम्हारे दादा जी, समझता हूँ तुम्हारे मन में दादा जी के लिए बड़ा अनुराग है, बड़ा सम्मान है, होंगे कोई तुम्हारे दादा जी, अरे वो कृष्ण से ऊपर हो गए क्या? तुम कहो, "नहीं मेरे दादा जी ने फलानी सीख दी थी मैं आज भी उसका पालन करता हूँ।" और बहुत लोग आते हैं इस तरीक़े के और वो बहुत जाँबाज़ी के साथ कहते हैं — "साहब मैं आपको एक बात बताता हूँ, एक बार मेरे दादा जी ने अद्धा मार कर के मुझसे एक बात कही थी बोले, 'बेटा यहाँ आ, थोड़ी-सी मेरे पैरों पर मल यही दारू और उसके बाद मैं तुझे जीवन ज्ञान दूँगा' और फिर उन्होंने जो मुझे जीवन ज्ञान दिया था क्या बात है! तो साहब वो जो मेरे दादाजी का ज्ञान था न मैं उसी पर अमल करता आया हूँ।"

दादा जी का ज्ञान गया भाड़ में। लेकिन बड़ा अच्छा लगता है — "मेरे दादाजी!" कृष्ण से तुम इस तरह का सम्बन्ध बैठा ही नहीं पाते। कह ही नहीं पाते — "मेरे कृष्ण! मेरे कान्हा!" कह ही नहीं पाते। दादा जी के साथ खून का और माँस का और देह का रिश्ता है तो दादाजी की कही बात पर तत्काल अमल कर देते हो। भूल ही जाते हो कि तुम्हारे दादा जी ले देकर... क्या बोलूँ उनकी शान में!

जो भी लोग आज इसको (सत्र की सीधी प्रसारित वीडियो को) देख रहे हों, आज से दस साल बाद इसको देखें, उन सबसे आग्रह करूँगा — भाई! माँ-बाप गुरु नहीं होते। ये भी जो एक प्रचलित मान्यता है कि माँ-बाप ही पहले गुरु होते हैं, बाज़ आइए इस तरह की बातें करने से। माँ-बाप बहुत सम्माननीय हैं, बहुत प्रेम के अधिकारी हैं लेकिन गुरु कहाँ से हो जाएँगे भाई! माँ-बाप को तो ख़ुद गुरु की ज़रूरत है। वो तुम्हारे गुरु कहाँ से हो जाएँगे? इतनी-सी बात नहीं समझ रहे।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=J8qnDnGPlmI

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