झूठ के रंग में रंग जाता है मन || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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झूठ के रंग में रंग जाता है मन || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: लिखते हैं कि “आपने कहा है— यू आर नॉट मिसिंग द सीक्रेट, यू आर मिसिंग द ओब्विअस। वास्तविकताओं को सही-सही न देख पाने के कारण भ्रमित रहते हैं। वास्तविकताओं, चाहे वो स्थूल हों या सूक्ष्म, को सही देख पाने की योग्यता कैसे विकसित करें?”

आचार्य प्रशांत: देखो उत्तर तो इसका बहुत सीधा है। किसी भी चीज़ की असलियत का निर्धारक तुम्हारा उस चीज़ के साथ अनुभव होता है। ज़हर घातक है, ये कैसे पता चलेगा? हम कैसे कह देते हैं ज़हर घातक है? क्योंकि हमारा अनुभव रहा है न ऐसा। मिर्च तीखी है, क्या मिर्च मिर्च के लिए तीखी है? देखा तुमने कि मिर्च लटक रही है पौधे से और सी-सी कर रही है? हाँ? क्या मिर्च मिर्च के लिए तीखी है? मिर्च अनुभोक्ता के लिए तीखी है न, एक्सपीरियंसर के लिए।

तो मिर्च कैसी है? तुम पूछ रहे हो, “कैसे पता चले कि किसी चीज़ की वास्तविकता क्या है?” तुम्हारा उस चीज़ के साथ जो अनुभव है, वही क्राइटेरिया है, वही पैमाना है। तुम्हारा मिर्च के साथ क्या अनुभव है? गन्ने जैसी होती है? क्या अनुभव है? तीखा। तो बस पता चल गया। इतनी सीधी-सी बात है; इतनी सीधी-सी बात है। लेकिन इतनी सीधी नहीं है न बात! हम सीधी बात को सीधा कहाँ रहने देते हैं, हम जटिल लोग हैं। कोई चीज़ हमें दो वजहों से अच्छी लग सकती है, एक ही वजह से अच्छी लगनी चाहिए थी, हमारे साथ बड़ी गड़बड़ हो गई है। कोई चीज़ हमें अच्छी इसलिए लग सकती है क्योंकि वो अच्छी है; और खतरनाक बात ये है कि कोई चीज़ हमें इसलिए भी अच्छी लग सकती है क्योंकि हमने सीख लिया है उसे अच्छा मानना। कोई चीज़ हमें बुरी इसलिए भी लग सकती हैं क्योंकि वो बुरी है; और खतरनाक बात ये है कि कोई चीज़ हमें इसलिए भी बुरी लग सकती है क्योंकि हमने सीख लिया है उसे बुरा मानना। हो सकता है उसमें कोई बुराई हो ही न, बस हमारी आदत पड़ गई है, हम संस्कारित हो गए हैं उसको बुरा मानने के लिए। इसी तरीके से जो चीज़ हमें बहुत अच्छी लगती है, हो सकता है उसमें कोई अच्छाई हो ही न, हमें बस आदत लग गई है, हम संस्कारित हो गए हैं उसको अच्छा मानने के लिए।

तो अब जो बात इतनी सहज और सरल थी, कि “भाई मिर्च कैसी है? चख कर देख लो, पता चल जाएगा कैसी है।“ जो बात इतनी सीधी और सहज थी, वो बात अब घुमावदार और टेढ़ी हो गई है, अब हमें कुछ पता नहीं कि मिर्च कैसी है। कोई ये भी कह सकता है कि मिर्च गुलाबजामुन जैसी है, कुछ पता नहीं। अभी ये बात आपको बड़ी हास्यास्पद लगेगी।

"नहीं आचार्य जी, ऐसा तो नहीं होता, हमें तो कोई मिला नहीं जो मिर्च को गुलाबजामुन जैसा बोले!" अरे भाई! जीवन में जो मिर्चें होतीं हैं वो लाल-मिर्च या हरी मिर्च जैसी ईमानदार नहीं होतीं, वो गुलाबजामुन जैसी मीठी और गोल-गोल पता चलतीं हैं, वहाँ धोखा हो जाता है।

बात समझ रहे हो?

तकलीफ़ को आप बहुत दिनों तक झेल लें तो संभव है कि तकलीफ़ पता लगनी बंद हो जाए। प्रकृति ने सिर्फ़ जीते रहने के लिए, आदमी की प्रजाति को शारीरिक रूप से बचाए रखने के लिए हमें एक काबिलियत दी है, वो काबिलियत हमें बड़ी भारी पड़ गई, हम कहीं के नहीं रहे उस काबिलियत को पा कर। जानते हो वो काबिलियत क्या है? वैज्ञानिक उसको कहते हैं– द पॉवर टू इवॉल्व , मनोवैज्ञानिक उसको कहते हैं– द पॉवर टू एडेप्ट। शारीरिक तौर पर वो कहलाती है इवोल्यूशन , और मानसिक तौर पर, साइकोलॉजिकल तौर पर वो कहलाती है एडेप्टेशन । ये एडेप्टेशन शरीर को बचाने के लिए, स्पीशीज़ को बचाने के लिए बहुत कारगर, बड़ी उपयोगी योग्यता है। लेकिन ये जितनी उपयोगी है लाइफ़ को बचाने में, ये उतनी ही घातक है क्वालिटी ऑफ़ लाइफ़ को गिराने में। लाइफ़ को बचा देती है एडेप्ट करने की हमारी काबिलियत, क्वालिटी ऑफ़ लाइफ़ को गिरा देती है।

एडेप्ट करने का मतलब समझते हो क्या है? तुम जिस हालत में होते हो तुम उसी हालत के हो जाते हो। और शुद्ध शब्दों में इसको कहते हैं? तुम जिस हालत में हो, हालत माने? अंग्रेज़ी में क्या बोलते हैं हालत को?

श्रोता: कंडीशन।

आचार्य: कंडीशन। तो इसे क्या बोलेंगे?

श्रोता: कंडीशनिंग।

आचार्य: कंडीशनिंग। तुम जहाँ के होते हो तुम वैसे ही एडेप्ट कर जाते हो, तुम उसी कंडीशन को इंटरनलाइज़ कर लेते हो, तुम बाहर की स्थिति को सोख लेते हो। बहुत दिनों तक किसी हालत में रहो तो तुम्हें वो हालत सहज-सी लगने लगती है, लगता है यही ठीक है। बाहर अगर कोई हालत तुम लगातार और बार-बार देखो, तो ऐसा लगने लग जाता है कि “चलेगा, ये भी चलेगा।“ प्रकृति ने हमें ये सुविधा, ये ताकत क्यों दी है? इसलिए दी है क्योंकि अगर हमने एडेप्ट नहीं किया तो हम मर जाएँगे; हम मर जाएँगे।

अभी देखो न, इंसान इस वक्त पूरे ग्रह पर राज कर रहा है। कैसे कर रहा है? क्योंकि इंसान अफ़्रीका में भी पाया जाता है, इक्वेटर पर भी, और साइबेरिया में भी पाया जाता है, पोल के पास भी। और कोई जानवर है? है? इंसान में देखो कितने भेद हैं, कातिलाना गरीबी में भी रह लेता है और ज़बरदस्त समृद्धि में भी रह लेता है। ऐसा और कोई जानवर देखा? और अब तो इंसान कह रहा है कि वो मंगल ग्रह पर भी रहेगा। ऐसा और कोई जानवर देखा? बोलो! तो अब समझो कि क्यों इवोल्यूशनरी टर्म्स में मनुष्य सबसे सफल जानवर है, क्योंकि वो ज़बरदस्त तरीके से एडेप्ट करता है; स्थिति बदलती है आदमी बदल जाता है। कोई और जानवर ऐसा नहीं कर पाता।

जानवर ऐसा नहीं कर पाते इसीलिए बेचारे मिटते जाते हैं, मिटते जाते हैं, मिटते जाते हैं, और आदमी? आठ सौ करोड़, नौ सौ करोड़ हो गया। खतरनाक बात जानते हो? मुश्किल से सौ-डेढ़ सौ साल पहले पृथ्वी पर जितने जीव हैं उनके कुल वज़न में मनुष्यों का वज़न मुश्किल से पाँच-दस प्रतिशत था। धरती पर जितने जीव हैं उन सबका कुल वज़न कर लो, उसमें मनुष्य का वज़न मुश्किल से पाँच-दस प्रतिशत था; और आज धरती पर कुल जितने जीव हैं, उनके वज़न में मनुष्य का वज़न अस्सी प्रतिशत है भाई! बाकी सबको खतम कर दिया, इंसान-ही-इंसान है, उसी का वज़न है। इंसान इतना सक्सेसफ़ुली एडेप्ट करता जा रहा है, बाकी बेचारे नहीं कर पा रहे।क्लाइमेट चेंज भी होगा तो तुम्हें क्या लगता है इंसान खत्म होगा? ये जो अस्सी प्रतिशत का आँकड़ा था ये बढ़ कर पिच्यानबे हो जाएगा। ये बाकी सब जितने गरीब जीव-जंतु हैं ये मारे जाएँगे, आदमी बचा ले जाएगा अपने-आप को, एडेप्ट कर लेगा; कम-से-कम कुछ समय तक, उसके बाद आदमी भी खतम हो जाएगा, वो अलग बात है, लेकिन पहले वही सब दूसरे खतम होंगे। और आदमी में भी पहले जो गरीब वगैरह होंगे, पहले वो मरेंगे।

तो ये जो एडेप्टेशन है, ये जो स्थितियों के समदृश्य अनुकूलन है— जैसी स्थितियाँ होतीं हैं हम वैसे ही स्थितियों के अनुकूल हो जाते हैं— ये हमको बढ़ाए दे रहा है, शारीरिक तौर पर, हमारी संख्या बढ़ाए दे रहा है, लाइफ़ बढ़ाए दे रहा है; लेकिन क्या गिराए दे रहा है? क्वालिटी ऑफ़ लाइफ़ । क्योंकि जितनी ज़्यादा आपके पास एबिलिटी टु कंडीशन होगी, एबिलिटी टु कंडीशन योरसेल्फ़ टु द क्लाइमेट आॕर टु द सराउंडिंग्स ऑर टु द सिचुएशंस जितनी ज़्यादा होगी आपके पास, आप उतना ही कम विद्रोही और विरोधी होंगे; क्योंकि हालत जैसी होती जा रही है आप उसी के अनुसार अपने-आप को पुर्नव्यवस्थित करते जा रहे हैं, तो फिर आपको ज़रूरत क्या है विद्रोह करने की? अब आध्यात्मिक तौर पर समझो इसका मतलब क्या होता है। मतलब ये होता है कि बाहर अगर झूठ फैला हुआ है चारों ओर, तो आदमी झूठ से ही सुव्यवस्थित हो जाता है; विद्रोह नहीं करता, एडेप्ट कर ले जाता है। उसे झूठ से तकलीफ़ होनी ही बंद हो जाती है, उसे झूठ बुरा लगना ही ख़त्म हो जाता है, वो झूठ को झूठ बोलना ही बंद कर देता है।

देखा नहीं है आपने, अतीत गवाह है, आदमी कैसी-कैसी मान्यताओं पर सैकड़ों-सैकड़ों सालों तक चलता रहा है। बड़े-से-बड़े समाज, लाखों-करोड़ों लोगों के समाज एकदम ही, सौ प्रतिशत प्रत्यक्ष झूठी मान्यताओं पर चलते रहे, चलते रहे। दुनिया के हर कोने में— भारत हो, यूरोप हो, अमेरिका हो, अफ़्रीका हो— हर जगह ऐसा होता रहा— चीन, जापान— हर जगह ऐसा होता रहा। आपको ताज्जुब नहीं होता, कि “अरे करोड़ों लोगों का समाज था, इसमें किसी को समझ में नहीं आया कि ये जो प्रथा है, ये जो सोचने का तरीका है, ये जो मान्यता है, ये झूठी है? करोड़ों लोगों में से किसी ने भी बुरा नहीं माना, विद्रोह नहीं किया?” नहीं किया भाई! जैसी भी हालत हो, हम क्या कर जाते हैं? एडेप्ट कर जाते हैं। अब गड़बड़ हो गई; अब गड़बड़ हो गई। अब नहीं पता चलेगा सच क्या है झूठ क्या है; अब नहीं पता चलेगा। फ़िज़िकल एडेप्टेशन इज़ अ वर्च्यू, मेंटल एडेप्टेशन इज़ अ कर्स। समझ में आ रही है बात?

हम पूछते ही नहीं फिर कि कुछ मुझे भला लग रहा है तो क्यों भला लग रहा है, हम सवाल ही नहीं करते। हममें कोई उत्सुकता, कोई कौतूहल नहीं बचता। हम पूछते ही नहीं हैं कि मैं जैसे जी रहा हूँ वैसे क्यों जी रहा हूँ। हम जीवन के मूलभूत प्रश्न ही भूल जाते हैं, बहुत मूलभूत बातें; ऐसे सवाल जो एक छोटा बच्चा भी कर ले, हम वो भी नहीं करते। और हमें बड़ी शर्म आए, हमें बड़ी उलझन हो अगर वो सवाल हमसे कोई करने लग जाए, कोई बच्चा हमसे सवाल करने लग जाए, हमारे पास कोई जवाब ही नहीं होगा। बड़ी लज्जा की बात होगी कि हमने जीवन ऐसे तरीकों में, ऐसी कोशिशों में व्यय कर दिया जिनके लिए हमारे पास कोई कारण नहीं है, कोई जस्टिफ़िकेशन नहीं है; और फिर हमें समझ में नहीं आता कि भीतर कुछ कचोटता क्यों है। कचोटता इसलिए है साहब क्योंकि आप बाहर-बाहर झूठ से कितना भी समझौता कर ले जाएँ, भीतर एक ज़रा-सा बिंदु हमारे बैठा ही रह जाता है जो किसी झूठ से समझौता नहीं कर सकता; पुराने लोगों ने उसे ‘आत्मा’ कहा है। आपकी पूरी हस्ती बड़ी माहिर है हर तरह के झूठ से एडेप्ट कर लेने में, रिकंसाइल कर लेने में, समझौता कर लेने में।

लेकिन आत्मा समझौता-परस्त नहीं होती, उसका झूठ के साथ कोई करार हो ही नहीं सकता। तो वो कचोटती है फिर, भीतर कुछ असहज-सा लगता रहता है। लगता है “बाहर तो सब ठीक चल रहा है, फिर भीतर ये बेकली क्यों बनी हुई है? सब तो ठीक चल रहा है भई!” सब ठीक नहीं चल रहा जनाब! आप बस क्या हो गए हैं? कंडीशंड हो गए हैं। आपको ‘लग’ रहा है कि सब ठीक चल रहा है; ठीक नहीं चल रहा है।

वो प्रयोग तो आप जानते ही हैं न, एक मेंढक हो, उसको उबलते पानी में डाल दीजिए, वो मरेगा नहीं। एक भगोने में आपने पानी उबाल कर रखा हो, उसमें आप मेंढक को डालें, वो थोड़ा घायल ज़रूर हो जाएगा पर अपनी जान बचा लेगा। कैसे? आप उसे अंदर डालेंगे, वो तत्काल कूद कर बाहर आ जाएगा। पानी में कूदने का तो वो अभ्यस्त होता ही है। पानी में डालिए, जैसे ही देखेगा पानी खौल रहा है, एक आखिरी छलाँग मारेगा, बाहर आ जाएगा, जल जाएगा लेकिन बच जाएगा। वही आप मेंढक को सामान्य पानी में डाल दें, सामान्य तापमान के, और फिर पानी को आप धीरे-धीरे खौलाएँ, पाया जाए कि मेंढक मर जाता है; क्योंकि उसकी देह क्या करती चलती है? एडेप्ट करती चलती है। हम वैसे ही मेंढक हैं, और हम खत्म हो रहे हैं, हम खत्म हो चुके हैं। इंसान सदियों से, पीढ़ीयों से खत्म होता आ रहा है; शारीरिक तौर पर नहीं। मेंढक की तो देह की मृत्यु होती है, हम भीतर से मर जाते हैं।

किसी ने कहा है कि “ज़्यादातर लोग बीस-पच्चीस साल के होते-होते मर जाते हैं, दफनाए वो जाते हैं पचास साल बाद।“ मर वो चुके होते हैं पच्चीस की उमर में ही, उनको दफ़न किया जाता है जब वो पिचहत्तर के हो जाते हैं। हम मरी हुई ज़िंदगियाँ जीते हैं। सवाल किया करिए न! किसी भी चीज़ को एसेंशियल मत मान लीजिए, एसेंशियल सिर्फ़ ट्रुथ होता है। मत कह दीजिए कि जीवन में कुछ भी आवश्यक है।

अरे भाई कुछ भी आवश्यक नहीं है! जो आपको आवश्यक लग रहा है वो सिर्फ़ इसलिए लग रहा है क्योंकि आपने वैसा ही होता अपने चारों ओर देखा है, वरना आवश्यक नहीं है, बिल्कुल नहीं है। और आपमें पूरी ताकत है और आपको पूरा अधिकार है, कि जो आपको आवश्यक न लगे उसे आप अपनी ज़िंदगी से हटा दें। और अगर आपकी बुद्धि, अगर आपकी गहरी चेतना आपको बता रही है कि जीवन में कोई चीज़ आवश्यक है, तो मैं फिर कह रहा हूँ कि आपके पास पूरा सामर्थ्य है और पूरा अधिकार है कि जो आवश्यक है उसे आप जीवन में ले कर के आएँ, भले ही आप पाते हों कि आपके आस-पास कोई भी अपने जीवन में उस चीज़ को स्थान या महत्व नहीं दे रहा है।

बात समझ में आ रही है कुछ?

बहुत दूर जाने की ज़रूरत नहीं है, निकट अतीत में ही देख लीजिए। सौ साल पहले ही कितनी चीज़ों को हम ज़रूरी मानते थे, आज वो ज़रा भी ज़रूरी लगतीं हैं क्या? बोलिए! सौ साल पहले ही अगर ये बातचीत ऐसे हो रही होती तो देवी जी यहाँ बैठी हुई हैं, ये घूँघट डाल कर बैठी होतीं। आज हमें बड़ा अजीब लगेगा अगर ये घूँघट डाल कर यहाँ बैठ जाएँ, हम कहेंगे कि, "अरे! सत्य के सामने भी मुँह छुपाने की ज़रूरत है क्या?" और तब तो ये बात बिल्कुल सहज लगती थी कि नहीं लगती थी? जो लोग यहाँ चालीस से ऊपर की उम्र के बैठे हैं उन्होंने तो देखा होगा, अपने बचपन में, अपनी जवानी में; खासतौर पर अगर वो थोड़ा छोटे शहरों से हो तो। और थोड़ा पीछे चले जाएँ तो सती-प्रथा भी देश के कुछ हिस्सों में बड़ी सामान्य-सी बात लगती थी। लगती थी न? दो सौ साल पीछे चले जाइए बस!

थोड़ा और पीछे चले जाइए और यूरोप पहुँच जाइए तो ये बात भी बहुत स्वीकार्य-सी लगती थी और कॉमनसेंसिकल लगती थी कि “धरती तो चपटी ही है न! और चाँद और सूरज और सारे ग्रह और पूरा अंतरिक्ष पृथ्वी के इर्द-गिर्द ही चक्कर काटता है।“ ये बात बिल्कुल ज़ाहिर लगती थी। लगती थी कि नहीं लगती थी भई? भई पृथ्वी अपनी जगह पर एक बिंदु पर, एक केंद्र पर स्थिर है, सूरज उगता है और सूरज ढलता है। तो गति कौन कर रहा है? सूरज कर रहा है भाई, पृथ्वी तो स्थिर बैठी हुई है।

ऐसा हमने देखा है, ऐसा हमारा अनुभव है, और पूरा समाज इस बात को मान रहा था। और जिन लोगों ने पहली बार कहा कि “नहीं, ऐसा नहीं है,” उनको तो जान से मारने की धमकियाँ दी ग‌ईं। कई बेचारों को तो जान गँवानी पड़ी सिर्फ़ इसलिए क्योंकि वो भौतिक तथ्यों की बात कर रहे थे, ईश्वर और अध्यात्म की बात भी नहीं कर रहे थे। संत-महात्मा भी नहीं थे, वैज्ञानिक थे बेचारे, और वैज्ञानिकों को ही उड़ा दिया गया; क्योंकि वो समाज की मान्यताओं के खिलाफ़ बात कर रहे थे और समाज अपनी मान्यता पर एडेप्ट कर गया है, वो उसी हिसाब से जी रहा है।

चित्रकार हैं, वो चित्र बना रहे हैं जिसमें दिखाया जा रहा है कि सूरज कैसे उगता है, सूरज कैसे ढलता है। अब बेचारों की पूरी चित्रकारी का क्या होगा, जीवन-भर उसने ऐसे ही चित्र बनाया है। अब पूरी चित्रकारी का क्या होगा अगर कोई वैज्ञानिक आ कर सिद्ध कर जाता है कि सूरज तो भाई पृथ्वी के चारों ओर चक्कर काटता ही नहीं! एक महान कवि हैं, जिन्होंने एपिक पोयम्स लिखीं हैं, महाकाव्य लिखे हैं, जिसमें यही बताया गया है कि सूरज को सात घोड़े किस तरह मिल कर खींचते हैं; और जब सूरज पृथ्वी के ऊपर से जा रहा होता है तो पृथ्वी से कैसी-कैसी बातें करता है, और सूरज पृथ्वी को माता मानता है।

पृथ्वी के सामने बहुत छोटा-सा है न सूरज! देखा नहीं है, सूरज कितना छोटा-सा दिखाई पड़ता है? हाँ, चाँद का बड़ा भैया है, पर पृथ्वी के सामने तो छोटा ही है, क्योंकि पृथ्वी का सुपुत्र है वो। माँ जननी ने, माँ धारिणी ने, माँ पृथ्वी ने दो पूतों को जन्म दिया। एक शीतल स्वभाव का था छोटू, उसका नाम पड़ा चंदू, और एक उग्र स्वभाव का नाम था सरजू। अब इस तरह के महाकाव्य लिख दिए हैं कवि महोदय ने। और ये ज़बरदस्त कवि हैं, समाज में इनको बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त है, ये समाज-रत्न से विभूषित हैं। अब एक वैज्ञानिक आया, वो कह रहा है, “बट देयर इज़ समथिंग आई वांट टु से।“ ये कवि महाराज बर्दाश्त करेंगे क्या इनको? “इनको उड़ा दो, उड़ा दो! और जब तुम इनको उड़ाओगे तो हम एक और महाकाव्य लिखेंगे, कि कैसे दुष्टों का संहार आवश्यक है सामाजिक सौहार्द के लिए।“

समझ में आ रही है बात?

आदमी का अतीत अधिकांश आदमी के झूठ का इतिहास है। सबक लीजिए इससे! हममें ज़बरदस्त ताकत है झूठ के साथ एडेप्ट कर जाने की, और हमें कोई नुकसान भी नहीं होता भौतिक तल पर। आप झूठ में सनी हुई जी रहे हों बिल्कुल, आपकी ज़िंदगी बिल्कुल झूठ में धँसी हुई हो, तो भी हो सकता है कि ऊपरी तौर पर आप बहुत स्वस्थ हों और समृद्ध हों, जैसे– रूस का ज़ार, जैसे मिडिवल यूरोप के तमाम अमीर; इतिहास उदाहरणों से पटा पड़ा है। आपका दिमाग बिल्कुल झूठ में जी रहा है लेकिन फिर भी हो सकता है कि आपके पास बाहरी तौर पर स्वास्थ्य भी हो, ताकत भी हो, समृद्धि भी हो, प्रतिष्ठा भी हो। और ये जो ताकत, स्वास्थ्य, समृद्धि, प्रतिष्ठा होंगे, ये आपको बिल्कुल प्रेरित नहीं करेंगे, ये आपको बिल्कुल इंसेंटिवाइज़ नहीं करेंगे कि आप सच की तलाश करें।

आप कहेंगे, “जब सब-कुछ मुझे मिला ही हुआ है, कम-से-कम ऐसा मुझे प्रतीत हो रहा है कि बाहरी तौर पर सब ठीक है, तो मैं सवाल क्यों उठाऊँ?” ये सवाल न उठाना घातक हो जाता है। हम नहीं पूछते; हम कुछ नहीं पूछते।

अगर आपने मेरी बात को थोड़ा भी सतर्कता के साथ सुना होगा तो आप समझ गए होंगे कि मैं किन सवालों की बात कर रहा हूँ। उन सब चीज़ों पर सवाल उठाने ज़रूरी हैं जिनको आपने जीवन में मूलभूत मान लिया है। बार-बार पूछिए - “पर क्यों? किसके लिए?” और ये प्रश्न आप किसी और से करें और पाएँ कि वो झल्ला जाता है आपके सवालों को सुन कर, तब तो आपका संदेह और पक्का हो जाना चाहिए कि “सवाल जायज़ है, बच्चू झल्ला रहा है।“ सवाल में दम नहीं होता, तो जिससे सवाल किया गया है वो इतना झल्लाता नहीं। जब कोई आपसे इस भाषा में बात करना शुरू कर दे, कि “यार तुम बेकार के सवाल बहुत करते हो,” या कि “भाई तुम्हारी इन बातों का मेरे पास कोई जवाब नहीं है,” तब समझ जाइए कि अब आपको कोई गहरा सवाल मिल गया है; तब समझ लीजिए कि आपने झूठ की पूँछ पकड़ ली है, अब छोड़िएगा मत! पूँछ हाथ में आ ही गई है तो पूँछ का इस्तेमाल कर के पूरा झूठ ही पकड़ लीजिए।

सबसे कीमती सवाल वही हैं जो आम लोगों को नॉनसेंसिकल लगते हैं, मिथ्या लगते हैं, गैर-ज़रूरी, बेकार लगते हैं; वो सबसे कीमती सवाल हैं, करा करिए!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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