प्रश्नकर्ता: पानीपत से व्यवसायी हैं, उनका प्रश्न है। आचार्य जी, हमारे सारे कर्मों के पीछे मोक्ष की गहरी इच्छा होती है। परन्तु जैसे हम वैसे ही हमारे तरीके इसीलिए हम यूँही भटकते रहते हैं। लेकिन कर्म तो हम करते ही हैं, अब कर्म की गुणवत्ता का पैमाना स्वयं को तो बनाया जा सकता नहीं है। तो क्या पैमाना बनाएँ कि कर्म भी सही रहे, उनकी गुणवत्ता भी बनी रहे और अहंकार हावी न हो?
आचार्य प्रशांत: कभी कोई भरोसा नहीं दिलाने वाला, कभी कोई आकर आपको कोई प्रमाणपत्र नहीं देने वाला है कि आप जो कर्म कर रहे हो निस्संदेह सही कर्म है। मानव जन्म लिया है तो इस अनिश्चय में लगातार डोलना पड़ेगा, अनसर्टेनिटी (अनिश्चितता) में। आप अधिक-से-अधिक ये कर सकते हो कि अपनी ओर से जो अधिकतम सजगता है, वो प्रदर्शित करते रहो। उसके बाद भी आप कहो, पूछो कि क्या जो मैंने करा वही बिलकुल सही निर्णय, निश्चय या कर्म था? तो इसका कोई प्रमाण नहीं है, बिलकुल नहीं।
टेनिस खेलने जैसी बात है, आप अपनी पूरी जान से शॉट मारते हो। वो अधिकतम है जो आप कर सकते हो। आप पूछो, ‘क्या इससे बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता था’? इसका क्या जवाब दें, हाँ इससे बेहतर भी शायद कुछ हो सकता था पर आप तो वही करिए न जो आप कर सकते हैं। ऊँचे-से-ऊँचा, बेहतर-से-बेहतर।
आपकी एक स्थिति है, शक्ति है, सामर्थ्य है, उसी अनुसार जो आप अधिकतम कर सकते हैं करिए। लेकिन ये गौरव कभी भीतर मत बैठा लीजिएगा कि मैंने जो किया वो बिलकुल ठीक था, उससे बेहतर भी कुछ हो सकता है। कभी भी कोई भी जो कुछ भी कह रहा है, कर रहा है, सोच रहा है उससे बेहतर भी कुछ हो सकता है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि आप को न कहना है, न करना है, न सोचना है। आप अपनी ओर से जो अधिकतम कर सकते हैं, आप करिए। जो अधिकतम आपकी सजगता हो सकती है आप उसको पकड़िए। द्वार से द्वार खुलते हैं, शिखर से शिखर उठते हैं। एक सोपान से अगला स्पष्ट होता है; आप आगे बढ़ते रहिए।
पूर्णता की अभिलाषा अहंकार की अभिलाषा है कि मैं सत्य को पा ही लूँ बिलकुल और अपनी जेब में रख लूँ। जब आप पूछते हैं कि जो मैंने किया क्या वो बिलकुल ठीक है, एब्सल्यूट्ली राइट है। तो आप देख रहे हैं न आप क्या पाना चाहते हैं? आप किसको पाना चाह रहे हैं; एब्सल्यूट (पूर्ण) को। कुछ भी जो आप करेंगे वो बिलकुल ठीक नहीं हो सकता क्योंकि जो कुछ बिलकुल ठीक हो गया वो तो आखिरी हो जाएगा।
आप भी कहीं-न-कहीं वही चाह रहे हैं जो न जाने कितने पाखंडियों ने घोषित कर दिया कि उन्होंने चाहा और उन्हें मिला भी। क्या? ‘एब्सल्यूट’। उसी को तो फिर एनलाइटनमेंट (बोध प्राप्ति) कहते हैं न। कि मेरी यात्रा अब खत्म हो गयी, मैं अन्तिम बिन्दु पर पहुँच गया, मेरे लिए अब कुछ पाना शेष नहीं। आप निरन्तर सजग रहें और ये आशा भी मन में न बैठाएँ कि इस निरन्तर सजगता का कभी कोई अन्तिम बिन्दु आएगा। जब तक साँस चल रही है तब तक सजगता को चलना होगा।
प्र1: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी ये सवाल भेजा है, कह रही हैं; ‘मेरा सवाल ये है कि सही कर्ता के लक्षण क्या होते हैं’ और हम हर समय सही कर्ता बनकर सही कर्म कैसे करें’, किस प्रकार जाग्रत रहकर अपने कर्मों पर ध्यान दें?
आचार्य: अब जैसे अनमोल को पता हो कि नहाए-धोए के लक्षण होते हैं कि उसके शरीर से बदबू नहीं आती। तो जैसे ही ये लक्षण पता चला, अनमोल तुरन्त क्या करेगा? क्या करेगा; नहाएगा-धोएगा? लक्षण पता चल गया न अब नहाने-धोने की ज़रूरत ही नहीं है। अब क्या काफ़ी है? अब फुसफुस काफ़ी है (सेंट डालने का इशारा करते हुए)। हम लक्षण पूछते ही इसीलिए हैं कि हम जिस चीज़ का लक्षण पूछ रहे हैं, उस चीज़ को अब धोखा दे सकें।
जिस भी चीज़ के तुमने लक्षण जान लिए तुम उस चीज़ से अब बहुत दूर हो जाओगे। प्रेम का लक्षण क्या है? "हैलो बेबी, आई लव यू”। अब प्रेम की ज़रूरत क्या है? “हैलो बेबी, आई लव यू”, बस हो गया। तुम भी मूरख, बेबी भी मूरख; दोनों गए। जहाँ लक्षण पता चल गया, वहाँ ख़ुद को और दूसरे को बेवकूफ़ बनाना कितना आसान हो जाता है। इसीलिए सिर्फ़ एक चीज़ है जिसका कोई लक्षण नहीं होता, उसे बोलते हैं ‘सत्य’। वो ‘अलख’ है, अलख माने? जिसका कोई लक्षण नहीं होता, जिसे लखा नहीं जा सकता। जिसे लक्ष्य किया ही नहीं जा सकता। अगर किसी चीज़ का लक्षण है तो वो चीज़ लक्ष्य की जा सकती है। सत्य का कोई लक्षण नहीं होता। और भली बात है कि सत्य का कोई लक्षण नहीं होता, नहीं तो हमने लक्षण जानकर के उसको धर-दबोचा होता कि “ये तेरा लक्षण है, आ जा बेटा”।
“अंदाज़ अपना-अपना” में बोलता है, ‘मार्क किधर है, मार्क इधर है’ (दिमाग की ओर इशारा)। वो दो होते हैं एक जैसे, जुड़वा। और कुछ पता नहीं चल रहा होता है दोनों में से असली कौन है। जैसे आप पूछ रही हैं न असली कर्ता, सही कर्ता के लक्षण कैसे पहचानें? तो दोनों एक दूसरे को धोखा बता रहे होते हैं, कैसे बोल-बोलकर; “मार्क किधर है”? मार्क माने लक्षण; मार्क इधर है (दिमाग की ओर इशारा)। और जो नकली वाला होता है वो नकली मार्क लगाकर घूम रहा होता है। मार्क हमें चाहिए ही इसीलिए है ताकि नकली लगा लो।
सुन्दर स्त्री का क्या लक्षण है? “उसकी आँखें बड़ी-बड़ी होती हैं”। तो हम काजल लगा-लगाकर इतनी बड़ी कर लेते हैं आँखें, हो गयी सुन्दरता। जवानी का क्या लक्षण है? “बाल काले होते हैं”। तो हम बाल काले कर लेते हैं, हो गयी जवानी। श्रावक का क्या लक्षण है? “वो मौन बैठा होता है”। तो हम मौन बैठ लेते हैं, हो गया श्रवण।
सही कर्ता; बस इतना जानता है कि उसकी कोई बिसात नहीं और ये वो लगातार जानता रहता है। न उसकी हाँ का कोई मूल्य है, न उसकी ना का कोई मूल्य है। वो अपने विषय में किसी भ्रम में नहीं रहता। और भ्रम में न रहने का क्या लक्षण है? कुछ नहीं। “अलख निरंजन”! जब उसमें कोई रंजना ही नहीं, रंजना माने दोष, विकार, धब्बा। जब उसमें कोई धब्बा ही नहीं तो उसको तुम लखोगे कैसे?
कोई भी चीज़ अपने दोषों से ही पहचानी जाती है। किसी चीज़ में कोई दोष न हो; दोष माने गुण, गुण को ही दोष कहते हैं। साधारण भाषा में गुण और दोष एक-दूसरे के विपरीत होते हैं, अध्यात्म की भाषा में गुण ही दोष है। कोई भी चीज़ अपने दोषों से ही पहचानी जाती है। दोष न हो तो लखा नहीं जाएगा। इसीलिए सत्य अलख निरंजन होता है। न उसमें कोई रंजना है, न उसे लखा जा सकता है।
अब इसका तुम समझ रहे हो असर कितनी दूर तक जाता है? इसका मतलब ये है कि तुम सत्य को पकड़ नहीं सकते, उसमें कोई दोष नहीं है। उसमें कुछ भी ऐसा नहीं है जिसपर तुम्हारी निगाह टिक सके, जिसको तुम अपनी मुट्ठी में बन्द कर सको। तुम उसे घर नहीं ले जा सकते अपने, तुम उसे जेब में नहीं डाल सकते अपनी। वो किसी का सगा नहीं होता क्योंकि कोई उससे कोई सम्बन्ध बना ही नहीं सकता।
हम सम्बन्ध हमेशा लक्षणों से ही बना सकते हैं न। कोई ऐसा हो जिसका कोई लक्षण ही नहीं, उससे तुम सम्बन्ध बना पाओगे? क्या बताओगे? तुम बोलो, ‘मेरा फ़लाना दोस्त है, ये है’। बोले, ‘नाम है कुछ’? ‘नहीं, नाम तो नहीं है’। ‘दिखता कैसा है’? ‘नहीं, दिखता भी नहीं है’। ‘किस रंग का है’? ‘नहीं, रंग भी नहीं है’। ‘कोई आकार वगैरह’? ‘आकार भी नहीं है’। ‘माँ-बाप उसके’? ‘कोई माँ-बाप भी नहीं है’। तुम बोलो, तुम्हारी पत्नी ऐसी है, तुम्हारा पति ऐसा है, तो?
तो हम सम्बन्ध सिर्फ़ दोषों से बना पाते हैं। यही कारण है कि जो तुमसे सम्बन्धित है, अगर उसके गुण-दोष मिटने लग जाएँ माने अगर वो सत्य की तरफ़ बढ़ने लग जाए तो तुम्हारे सम्बन्ध चरमराने लग जाते हैं। रिश्ता ख़तरे में पड़ जाता है क्योंकि तुमने रिश्ता बनाया ही सामने वाले के दोषों से था। उसको तुम गुण बोल लेते हो कई बार, जो भी बोल लो।
तो हमने एक चाल चली; सत्य से सम्बन्ध बना सकें इसके लिए हमने सत्य में ही गुण स्थापित कर दिए। हमने सत्य को मूर्ति जैसा बना दिया। हमने सत्य के साथ कथाएँ-कहानियाँ जोड़ दीं। हमने सत्य को किसी देवी-देवता का रूप दे दिया, उनकी भी पत्नी और बच्चे बना दिए। क्यों? क्योंकि हमारे होते हैं और हमें उनसे रिश्ता बनाना है तो उनके भी कर देंगे। हम उनके जैसे नहीं बनेंगे, हम अलख-निरंजन नहीं बनेंगे। हम निरंजन में रंजना आरोपित कर देंगे। हम कहेंगे; हम घरबारी हैं, हमारा परिवार होता है तो सत्य का भी परिवार वगैरह होना चाहिए न? क्योंकि हम बड़े हैं, सत्य से बड़े हम हैं। हम जैसा करेंगे सत्य को हमारे पीछे-पीछे चलना पड़ेगा।
कोई लक्षण नहीं हैं, लक्षण तो सस्ता उपाय है। लक्षण तो आलसियों के लिए होते हैं कि पहचान करने का कोई तरीका नहीं तो कह रहे हैं लक्षण बता दो, दिखता कैसा है। “अच्छा माथे पर तिल है, सफ़ेद रंग की टी-शर्ट पहनता है सत्य, कैसे पहचानेंगे? स्त्री है कि पुरुष है, उम्र बताना कुछ। सीटी मारेंगे तो जवाब देगा? कोई तो लक्षण होगा न सत्य का”? “तो फिर हमारा कोई लेना-देना नहीं है ऐसे सत्य से। हम सीटी मारें, जवाब ही नहीं दे रहा। यारी कहाँ है फिर”?
प्र: आचार्य जी, बावन वर्षीय शिक्षक हैं। यूएसए से प्रश्न भेजा है उन्होंने। कह रहे हैं; आचार्य जी एक व्यक्ति की मूर्खता से क्रोध उत्पन्न हो रहा है। मैं इस समय कभी-कभी उससे थोड़ी दूरी बना लेता हूँ, कभी सत्संग में लगकर मन को वापस शान्त करके काम चला रहा हूँ। क्रमित रूप से क्रोध फिर शान्ति का चक्र चल रहा है। क्रोध उठे भी पर अशान्ति भी न हो। क्या इसका कोई उपाय हो सकता है? क्रोध भी रहे और अशान्ति न हो।
आचार्य: दोनों हाथों में लड्डू चाहिए, हैं! क्रोध भी उठे, अशान्ति भी न हो। ये तो आप परिभाषा ही पलट देना चाहते हो। आप अधिक-से-अधिक ये कर सकते हो कि यदि क्रोध की आपकी प्रकृति है, प्रवृत्ति है तो क्रोध की दिशा सत्य की रहे; आप यही कर सकते हो। क्रोध के साथ तो अशान्ति आएगी-ही-आएगी नहीं तो कौन सा क्रोध? हाँ, फिर तो क्रोध का नाटक हो सकता है। वो अलग बात है उसको फिर क्रोध हम क्यों कहें? वो तो एक नाटक है। आप छोटे बच्चे को ऐसे ही हँसी करने के लिए, खेल करने के लिए ऐसा जता सकते हो कि आप क्रोध में हो, वो तो क्रोध हुआ ही नहीं। क्रोध तो जब भी आएगा तो मन में तूफ़ान, भूचाल की तरह ही आएगा। तरंगे उठेंगी, हवाएँ चलेंगी। हाथ काँपेगा, चेहरा लाल हो जाएगा।
आप इतना कर सकते हो कि प्रकृति ने आपको जो कुछ भी दिया है; मोह, ममता, क्रोध इन सबको आप सत्य की दिशा समर्पित कर दो। तो क्रोध इस बात पर आए आपको कि कोई आपको बन्धन में क्यों डाल रहा है? मैं नहीं कह रहा कि ये बहुत अच्छा क्रोध है। मैं कह रहा हूँ ये अधिकतम है जो आपको प्राप्त हो सकता है क्योंकि क्रोध की तो आपकी जैविक प्रकृति है ही। उसको झुठलाकर या उसको दबाकर आप क्या पाएँगे?
तो ऐसा करिए कि जो कुछ भी आपको प्रकृति ने दिया है उसको आप सच को समर्पित कर दीजिए। प्रकृति ने आपको क्रोध दिया है तो आप कहिए कि एक ही चीज़ पर क्रोध करूँगा; कोई असत्य की तरफ़ धकेलेगा तो क्रोध करूँगा, कोई बन्धन में डालेगा तो क्रोध करूँगा। प्रकृति ने आपको बड़ी ममता दी है तो आप कहिए, ‘जो मेरा है, उसी को फिर अपना मानूँगा’। मम का भाव है न, तो जो मेरा है उसी के प्रति बस ममता रखूँगा। कौन है मेरा? वही कोई एक है, वही मेरा है बाकी ममता किधर को भी नहीं भेजूँगा।
सबको अलग-अलग गुण, दोष, भाव इत्यादि मिले हैं क्योंकि हम सब जैविक रूप से अलग-अलग हैं। जिसको जो मिला है उसको वही अर्पित करना होता है। और इसमें जो एक चमत्कारिक बात होती है वो ये है कि एक बिन्दु पर आपको पता चलता है कि अगर आपको सच की ओर ही बढ़ना है तो शायद सच की ओर बढ़ने के लिए क्रोध से बेहतर कुछ माध्यम हैं आपके पास। फिर आप कहते हो कि क्रोध का प्रयोग करने से अच्छा है, कुछ और चीज़ें हैं उनका प्रयोग कर लूँ। धीरे-धीरे फिर क्रोध शिथिल होने लगता है। तो सूत्र ये निकला कि क्रोध का सही प्रयोग ही शनैः-शनैः क्रोध से मुक्ति दिला देता है। प्रकृति का सही प्रयोग ही धीरे-धीरे आपको प्रकृति से मुक्ति दिला देगा। और प्रकृति का दुरुपयोग आपको प्रकृति की दलदल में और गहरे धँसा देगा।
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